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गुलजार- जन्मदिन विशेष
आलेख-मंजूषा शर्माजाने-माने शायर, गीतकार, लेखक और निर्देशक गुलजार साहब का आज जन्मदिन है। आज भी समझ नहीं आता कि वे ऐसे-ऐसे शब्द कहां से उठा लाते हैं और इतने सलीके से उसे गीतों के रूप में खूबसूरत मोतियों की माला तरह पिरो देते हैं, कि सुनने वाला बस सुनता ही रह जाता है। उनके गाने सुनो तो लगता है जैसे शब्द किसी झरने से झर रहे हैं बिना किसी अतिरिक्त शोर के अविरल। बस आप उसकी प्राकृतिक आवाज को सुनते रहिए , आवाज दिल तक ही उतरेगी। गुलजार साहब पुराने जमाने को याद करते हुए लिखते हैं- उस वक्त तस्वीरें दिल से बनती थी, कैमरों से नहीं।यू ट्यूब पर उनकी शायरी उन्हीं की आवाज में सुनी, खासकर जगजीत सिंह के साथ उनकी जुगलबंदी , लगा ही नहीं, कि कोई शायर या गीतकार अपनी रचनाएं पढ़ रहा है, बल्कि ऐसे लगा जैसे कोई हमारी देखी सुनी कहानी ही सुना रहा है । उन्हें सुनने वाला नि:शब्द डूबता चला जाता है, आंखों के सामने तब गुलजार साहब नहीं, बल्कि एक जीती जागती तस्वीर किसी फिल्म की तरह सेल्युलाइट पर चलने लगती है। यह उनके शब्दों, आवाज के माड्यूलेशन और सहजता का जादू ही है।सफ़ेद पैरहन के भीतर धड़कता एक शायर दिल जिसकी ज़ुबान में शीरे की महक आती हैं। जो नज़्मों की ऊंगलियां पकड़ कभी बादलों पर सैर करता है तो कभी गज़़लों के साथ दिल बहलाने के लिए चांद-तारों को निहारता है। एक लेख़क जिसकी कलम शब्दों के साथ ऐसे ख़ेलती है कि देखने और पढऩे वाले दोनों का दिल बहल जाए। जो हिन्दी की किताबों में उर्दू की जिल्द चढ़ाते हैं वो ग़ुलज़ार हैं।जायकेदार हवा, मासूम पानी, गुनगुनाती निगाहें, रंगीली सांसें... चांद, तारे, आकाश, नदियों और इंसानी अहसास, दिल का पड़ोसी होना, और कभी दिल की तरह बीड़ी जलाइले, जैसे शब्द वे ही गढ़ सकते हैं। वे बच्चों के लिए लिखते समय चड्डी पहनकर फूल भी खिला सकते हैं । कहते हैं कि किसी शायर के मन की थाह लेना वैसे भी मुश्किल है , लेकिन गुलजार के शब्दों और आवाज की गहराई का भी कोई सिरा ही नहीं नजर आता है। आप कितनी भी कोशिश करें उनके शब्दों के जादू से दूर नहीं भाग सकते। शायर, लेखक, निर्देशक गुलजार ने करीब छह दशकों के अपने कॅरिअर में कविता, गीत, शेर, टीवी सीरियल, फिल्में समेत उर्दू और हिंदी साहित्य की कई विधाओं के लिए कलम चला रहे हैं।उर्दू के प्रति उनका प्रेम आज भी उनके हिन्दी गीतों में झलकता है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे आज भी गीतों को उर्दू शब्दावली में ही लिखना पसंद करते हैं, फिर उसे हिन्दी में लिखा जाता है।आज 86 साल की उम्र में भी उनका रिश्ता लेखनी के साथ पूरे दम खम के साथ जारी है और हर गुजरते वक्त के साथ नए -नए मोती गढ़ रहा है। गंभीर अहसास और रूमानियत भरे गीतों के साथ ही कजरारे कजरारे और बीड़ी जलइले जैसे गीत भी उनकी कलम ने लिखे हैं। हिंदी फिल्मों के वो अकेले शायर हैं जिनके हिस्से में भारत के सारे बड़े फिल्मी पुरस्कारों के अलावा अंतरराष्ट्रीय जगत का ऑस्कर और ग्रैमी पुरस्कार भी हासिल है। पद्म भूषण दादा साहेब फाल्के जैसे सम्मान के भी वे हकदार बने हैं।उन्होंने जाने-माने डायरेक्टर बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक के रूप में अपना कॅरिअर शुरु किया था। शायद इसीलिए उनमें सहजता के साथ अपनी बात कहने वाला अंदाज और परपिक्व होता गया। बिमल रॉय ने उनकी किताब रावी पार पढ़ी और उन्होंने अपनी फिल्म बंदिनी में गीत लिखने के लिए कहा। गुलजार साहब ने लिखा- मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे शाम रंग देइ दे, छुप जाऊंगी रात ही में , मोहे पी का रंग दइदे। सचिन देव बर्मन ने इस गाने को बहुत ही खूबसूरती के साथ सुरों में ढाला। लता मंगेशकर की प्यारी आवाज और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का जादू, नूतन की सहजता, गाने को और भी खूबसूरती बना गई। यह सबसे हिट गाना साबित हुआ। हालांकि फिल्म के गाने उस दौर के मशहूर गीतकार शैलेन्द्र लिख रहे थे। उन्होंने भी गुलजार को गाने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इस गाने ने लता मंगेशकर और सचिन देव बर्मन के बीच का झगड़ा भी खत्म कराया था। गुलजार साहब के 74 वें जन्मदिन पर लता मंगेशकर ने इस वाकये को याद किया था।लता ने बताया बर्मन दादा के साथ मेरा झगड़ा चल रहा था। इस बीच एक दिन उनका फ़ोन आया कि एक नया लड़का आया है उसने फि़ल्म बंदिनी के लिए ये गाना लिखा है मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे। मुझे ये गाना इतना पसंद आया कि मैं गाने के लिए मान गई। यही गाना गुलज़ार के फि़ल्मी कॅरिअर का पहला गाना था।लता मंगेशकर के मुताबिक गुलज़ार की शायरी बाकी शायरों से बिलकुल अलग होती है। उनके सोचने का ढंग बिलकुल जुदा होता है। वो कहती हैं कई बार मैं उनसे पूछती कि आपने ये शब्द क्यों लिखा है या ये लाइन क्यों लिखी है, तो वो सिफऱ् हंस देते और कहते मुझे अच्छा लगा तो मैंने लिख दिया। वो उसकी कोई वजह नहीं बताते। उन्हें जो अच्छा लगता है वो वही लिखते हैं। गुलज़ार के लिखे लता के पसंदीदा गाने हैं -नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, यारा सीली-सीली और पानी-पानी रे। वो कहती हैं मैं भगवान की शुक्रगुज़ार हूं कि मुझे गुलज़ार के लिखे ढेर सारे गाने गाने का मौका मिला। उन्होंने आरडी बर्मन से लेकर विशाल भारद्वाज और आज की पीढ़ी के संगीतकारों के लिए भी गाने लिखे और खूब लिखे।गोरा गोरा अंग लई ले ....गाना लोकप्रिय हुआ था और इसके लिए गुलजार को प्रशंसा भी मिली, लेकिन उस दौर में गुलजार फिल्मों में गाने लिखने के लिए उत्सुक नहीं थे। गुलजार साहब ने खुद एक साक्षात्कार में बताया था कि जब उन्होंने अपने कॅरिअर का पहला फि़ल्मी गीत मोरा गोरा अंग लई ले.. लिखा तो वो फि़ल्मों के लिए गाने लिखने को लेकर बहुत ज़्यादा उत्सुक नहीं थे, लेकिन फिर एक के बाद एक गाने लिखने का मौका मिलता गया और वो गाने लिखते चले गए।गुलजार जाने-माने शायर गालिब के मुरीद रहे हैं। इसलिए शेरो शायरी के प्रति उनका झुकाव शुरू से रहा है। गालिब के लिए उनके मन में इतनी इज्जत है कि वो खुद को गालिब का एक नौकर ही मानते हैं। वो गालिब से इतने प्रभावित थे कि उनकी जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे। इस फिल्म में पहले वो संजीव कुमार को लेना चाहते थे। लेकिन किसी ना किसी वजह से ये प्रोजेक्ट टलता गया और आखिर में इस प्रोजेक्ट में गालिब बनने का मौका नसीरुद्दीन शाह को मिला। वो तब तक जमाना था जब दूरदर्शन बढ़ रहा था। ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचने के लिए फिल्म मेकर्स दूरदर्शन की तरफ बढऩे लगे थे। ऐसे में गुलजार ने भी अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए दूरदर्शन को चुना और फिल्म की जगह एक टीवी सीरियल की शुरुआत की। इस वक्त तक नसीर इंडस्ट्री में अच्छी पहचान बना चुके थे। इस रोल के लिए गुलजार ने नसीर को चुना था। इसके साथ ही गुलजार और नसीर दोनों का एक पुराना सपना सच हुआ। जब पहले गुलजार ने गालिब के रोल के लिए संजीव को चुना था तो नसीर ने उनके इस फैसले पर सवाल उठाते हुए एक चिट्ठी लिखी थी। वो चिट्ठी तो गुलजार साहब तक नहीं पहुंची थी। लेकिन कुदरती कुछ ऐसे हालात बनते गए कि यह फिल्म एक सीरियल के रूप में सामने आई। नसीर को उनका पसंदीदा कैरेक्टर मिला और गुलजार के लिए उनका सपना सच हो गया था। गालिब की गक़ालों को जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने आवाज दी।गालिब के प्रति गुलजार साहब की दीवानगी उनके लिखे गानों में नजर आ ही जाती है। जैसे कि गालिब ने लिखा... दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन, बैठे रहें तसव्वर-ए-जानां किए हुएइसी शेर पर गुलज़ार ने यह नज़्म लिखी जिसे फिल्म मौसम में शामिल किया गया।दिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिनबैठे रहें तसव्वर-ए-जानां किए हुए
जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट करआँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साये कोऔंधे पड़े रहें, कभी करवट लिये हुए ..
या गर्मियों की रात जो पुरवाइयाँ चलेंठंडे सफ़ेद बिस्तर पर जागें देर तकतारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए
बफऱ्ीली सर्दियों में किसी रात में कभीवादी में गूँजती हुई ख़ामोशियाँ सुनेंआँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुएदिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिनइस गाने को मदनमोहन साहब ने ऐसे सुरों में ढाला कि 45 साल के बाद भी इसकी रुमानियत दिल धड़का जाती है। जाते-जाते गुलजार साहब की रिश्तों के ताने-बाने पर लिखी एक प्यारी की नज्म, तो मुझे बहुत पसंद है-मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहेअक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनतेजब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआफिर से बाँध केऔर सिरा कोई जोड़ के उसमेंआगे बुनने लगते होतेरे इस ताने में लेकिनइक भी गाँठ गिरह बुनतर कीदेख नहीं सकता है कोईमैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्तालेकिन उसकी सारी गिरहेंसाफ़ नजऱ आती हैं मेरे यार जुलाहे
- पुण्यतिथि पर विशेषजाने-माने अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के सभी बेटों राजकपूर, शम्मीकपूर और शशिकपूर ने लोकप्रियता के शिखर को छुआ है। सबका अपना अलग अंदाज हुआ करता था।आज ही के दिन 2011 में शम्मी कपूर इस संसार से रुखसत हुए थे। शम्मी का वास्तविक नाम शमशेर राज कपूर था। अपनी विशिष्ट याहू शैली के कारण बेहद लोकप्रिय रहे शम्मी कपूर हिंदी फि़ल्मों के पहले सिंगिंग-डांसिग स्टार माने जाते रहे हैं।भारत के एल्विस प्रेसली कहे जाने वाले शम्मी कपूर रुपहले पर्दे पर तब अपने अभिनय की शुरुआत की, जब उनके बड़े भाई राज कपूर के साथ ही देव आनंद और दिलीप कुमार छाए हुए थे। शम्मी कपूर ने वर्ष 1953 में फि़ल्म ज्योति जीवन में पहली बार नायक के तौर पर कदम रखा। वर्ष 1957 में नासिर हुसैन की फि़ल्म तुमसा नहीं देखा में जहां अभिनेत्री अमिता के साथ काम किया, वहीं वर्ष 1959 में आई फि़ल्म दिल दे के देखो में आशा पारेख के साथ नजर आए। वर्ष 1961 में आई फि़ल्म (जंगली) ने शम्मी कपूर को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इस फि़ल्म के बाद ही वह सभी प्रकार की फि़ल्मों में एक नृत्य कलाकार के रूप में अपनी छवि बनाने में कामयाब रहे। जंगली फि़ल्म का गीत याहू दर्शकों को खूब पसंद आया। उन्होंने चार फि़ल्मों में आशा पारेख के साथ काम किया जिसमें सबसे सफल फि़ल्म वर्ष 1966 में बनी तीसरी आंख रही। वर्ष 1960 के दशक के मध्य तक शम्मी कपूर प्रोफेसर, चार दिल चार राहें, रात के राही, चाइना टाउन, दिल तेरा दीवाना , कश्मीर की कली और ब्लफमास्टर जैसी हिट फिल्में दी। फि़ल्म ब्रह्मचारी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फि़ल्म फेयर पुरस्कार भी मिला जिसमें उनकी नायिका के तौर पर राजश्री ने काम किया था। उनके लिए रफी साहब ने खूब गाने गए और प्राय: सभी सुपर हिट रहे।शम्मी कपूर ने अपने दौर में मधुबाला, सुरैया , नलिनी जयवंत जैसी सफल नायिकाओं के साथ काम किया, इसके बाद भी उनकी फिल्में नहीं चली। फिल्म तुमसा नहीं देखा में उन्होंने अपना लुक बदला और इस बार किस्मत ने साथ दे दिया और फिर वे उत्तरोत्तर सफलता की सीढिय़ां चढ़ते गए। इसी दौरान उन्होंने अपनी नायिका रही गीता बाली से शादी कर ली। यह साथ ज्यादा दिन नहीं चला और गीता ने कम उम्र में ही इस संसार से विदा ले ली। उस वक्त बेटी कंचन और बेटा आदित्य काफी छोटे थे। उन्होंने दूसरी विवाह किया। गीता के चले जाने से शम्मी कपूर काफी निराश हो गए थे और इसका असर उनके कॅरिअर पर भी पड़ा। लेकिन वे फिर अपने अंदाज में लौटे और बॉलीवुड में छा गए। परिवार के लिए उन्हें नीला देवी से दूसरी शादी की। समय के साथ उन्होंने अपनी भूमिकाओं के साथ भी समझौता किया और चरित्र भूमिकाओं में भी अपना दमखम दिखाया। उनका पान पराग वाला विज्ञापन आज भी लोग भूले नहीं हैं।बड़े शौकीन तबीयत के थेशम्मी कपूर म्यूजिक, खानपान से लेकर खेल और गाडिय़ों का शौक रखते थे। 2011 में अपनी तबीयत ठीक नहीं होने के बाद भी उन्होंने पोते रणबीर कपूर के साथ फिल्म रॉकस्टार में काम किया। जीवन के अंतिम समय तक वे इंटरनेट पर व्यस्त रहा करते थे और ब्लॉग में अपने विचार लोगों से साझा करते रहते थे। गोल्फ खेलना उन्हें काफी पसंद था। फिल्मी कलाकारों के लिए वे हमेशा से प्रेरणास्रोत थे और आगे भी बने रहेंगे।
- आलेख-मंजूषा शर्माआजादी की वर्षगांठ के मौके पर आज हम एक ऐसे गीत की चर्चा कर रहे हैं, जिसे राष्ट्रीय गीत होने का दर्जा प्राप्त है। इस गीत को 1952 में आई फिल्म आनंद मठ में शामिल किया गया था।फिल्म और इस गीत की चर्चा से पहले इसकी रचना के इतिहास पर एक नजर-वंदे मातरम् की रचना बंकिमचंद्र चटर्जी या चट्टोपाध्याय ने की थी। उन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। वंदे मातरम गीत स्वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था। 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1881 में अपने उपन्यास आनंदमठ में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही दशप्रहरणधारिणी (दुर्गा), कमला (लक्ष्मी) और वाणी (सरस्वती) के उद्धरण दिए गए हैं।मूल गीत इस प्रकार है-सुजलां सुफलां मलयजशीतलामसस्य श्यामलां मातरम् .शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीमफुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम,सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .सुखदां वरदां मातरम् ॥कोटि कोटि कन्ठ कलकल निनाद करालेद्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवालेके बोले मा तुमी अबलेबहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीमरिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्मत्वं हि प्राणा: शरीरेबाहुते तुमि मा शक्ति,हृदये तुमि मा भक्ति,तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणीकमला कमलदल विहारिणीवाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वामनमामि कमलां अमलां अतुलामसुजलां सुफलां मातरम् ॥श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितामधरणीं भरणीं मातरम् ॥मूल रूप से गाया जाने वाला वंदे मातरम गीत किस राग पर आधारित है, आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। यह मूल रूप से एक बांगला रचना है और इस पर रवीन्द्र संगीत की झलक साफ देखने को मिलती है। पहली बार यह गीत पंडित ओंकारनाथ ठाकुर की आवाज में रिकॉर्ड किया गया था। इसका पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया के रिकार्ड में आज भी दर्ज है। वहीं रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार 'वंदे मातरमÓ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।अब कुछ चर्चा फिल्म आनंद मठ के बारे मेंफिल्म आनंद मठ में यह गीत शामिल किया गया है, जो इसी नाम के उपन्यास पर आधारित फिल्म थी। इस उपन्यास की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। इस गीत को लता मंगेशकर और हेमंत कुमार ने आवाजें दी हैं। यह फिल्म 1952 में रिलीज हुई थी और उस समय तक देश आजाद हो चुका था, लेकिन देशभक्ति पूर्ण फिल्मों का बनना जारी था। फिल्म में 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संन्यासी विद्रोह की कहानी थी। संन्यासी विद्रोह भारत की आज़ादी के लिए बंगाल में अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध किया गया एक प्रबल विद्रोह था। संन्यासियों में अधिकांश शंकराचार्य के अनुयायी थे। इस विद्रोह को कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्यवाही करनी पड़ी थी। दरअसल भारतीय जनता के तीर्थ स्थानों पर जाने पर लगे प्रतिबंध ने शान्त संन्यासियों को भी विद्रोह पर उतारू कर दिया था। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, प्रदीप कुमार , भारत भूषण, गीता बाली, अजीत, रंजना ,जानकीदास और मुराद ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं। फिल्म का निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था। फिल्मस्तान कंपनी के बैनर तले फिल्म का निर्माण हुआ था, जो उस वक्त की एक नामी फिल्म निर्माण कंपनी थी। फिल्म में संगीत हेमंत कुमार ने दिया था । यह वह दौर था, जब हेमंत कुमार बांगला फिल्मों से हटकर हिन्दी फिल्मों में पांव जमाने का प्रयास कर रहे थे।फिल्म में चार गाने शामिल किए गए थे । वंदे मातरम गीत, फिल्म में दो बार बजता है, एक बार लता मंगेशकर की आवाज में और दूसरी बार हेमंत दा की आवाज में। लता ने फिल्म में गीता बाली के लिए प्लेबैक किया था। वहीं अभिनेता प्रदीप कुमार, अजीत के लिए यह गाना हेमंत कुमार ने खुद गाया है। लता की आवाज में गाए इस गीत में बैकग्राऊंड में हेमंत कुमार और कोरस की आवाजें सुनाई देती हैं। गीत के फिल्मांकन में पृथ्वीराज कपूर , प्रदीप कुमार और गीता बाली नजर आते हैं। लता की आवाज में ज्यादा ओज पैदा करने का प्रयास किया गया है। यह मौका होता है आजादी के संघर्ष में संन्यासियों के कूच पर जाने का और गीता बाली उन्हें इस गीत के माध्यम से देश के प्रति उनका कर्तव्य याद दिलाती हैं। वहीं हेमंत कुमार की आवाज में गाए इस गीत के प्रारंभ में राग में कुछ बदलाव किए गए हंै। गाने में भारत भूषण, अजीत और प्रदीप कुमार के साथ आम लोगों को भी दिखाया गया जो इस संन्यासी विद्रोह का हिस्सा बनते हैं। यह गाना लता की आवाज में गाए गीत की तुलना में थोड़ा लंबा है क्योंकि इसमें मां दुर्गा की स्तुति भी की गई है।फिल्म के एक गाने जय जगदीश हरे में गीता रॉय की आवाज ली गई थी जिसमें उनका साथ दिया था हेमंत कुमार ने। इस गाने को 60-90 के दशक में सिनेमाहॉल में फिल्म शुरू करने से पहले बजाया जाता है। यहां मैं महासमुन्द की एक टॉकीज का जिक्र करना चाहूंगी। मुझे याद है जब बचपन में हम फिल्म देखने के लिए राम टॉकीज जाया करते थे, तो फिल्म शुरू होने से पहले ये गाना जरूर बजता था। टॉकीज में हॉरर , एक्शन या रोमांटिक किसी भी मूड की फिल्म क्यों न लगी हो, फिल्म शुरू करने से पहले इस गाने का बजना जैसे एक परंपरा बन गई थी। इसका कारण क्या था, पता नहीं, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि उस वक्त यह गीत किसी शासकीय अनिवार्यता का हिस्सा तो नहीं था। कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन इसी माध्यम से ही सही, यह गीत बरसों तक जनमानस के दिल और जुबां पर बसा रहा। फिल्म आनंद मठ में यह गाना पृथ्वीराज कपूर और गीता बाली पर फिल्माया गया है।आनंदमठ फिल्म से ही अभिनेता प्रदीप कुमार ने हिन्दी फिल्मों में कदम रखा था। वे बांगला स्टार थे और हेमंत दा ही उन्हें इस फिल्म से हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में लेकर आए थे। फिल्म के रिलीज के बाद वंदेमातरम गीत काफी लोकप्रिय हुआ और फिर इसे स्वतंत्रता दिवस और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के मौके पर आयोजित हर समारोह में बजाया जाने लगा और यह परंपरा आज भी कायम है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब इस गाने को लिखा था, तब उन्होंने शायद नहीं सोचा रहा होगा, कि मूल रूप से संन्यासी विद्रोह से जुड़ा यह गीत एक दिन देश की आनबान का प्रतीत बनकर राष्ट्रीय गीत बनेगा। इस फिल्म की चर्चा के बीच एक कलाकार को हम जरूर याद करना चाहेंगे और वे हैं अजीत। फिल्म जंजीर के मोना डार्लिंग वाले खलनायक अजीत की आनंदमठ प्रारंभिक फिल्मों से एक थी। यह वह दौर था जब अजीत नायक की भूमिका अदा किया करते थे। उनका पूरा नाम हामिद अली खान था।----
- -बोलचाल बंद होने के बाद भी दिलीप कुमार - मधुबाला ने फिल्म पूरी की-दिलीप कुमार ने 19 साल तक यह फिल्म नहीं देखीआलेख-मंजूषा शर्माफिल्म मुगल-ए-आज़म 60 साल पहले आज ही के दिन रिलीज हुई थी। फिल्म के गाने इतने लोकप्रिय हुए थे कि आज की पीढ़ी भी इसे गुनगुनाती है। वर्ष 1960 में फिल्मकार के. आसिफ की ब्लॉक बस्टर फिल्म रही मुगल-ए-आज़म को आज भी दर्शक देखना पसंद करते हैं। फिल्म में मधुबाला, दिलीप कुमार और पृथ्वीराज कपूर की दमदार अदाकारी और प्रभावशाली सेट ने दर्शकों के दिलों पर अपनी छाप छोड़ी।हिंदी सिनेमा की सबसे सफल फिल्मों से एक, मुगल-ए-आज़म में अनारकली और राजकुमार सलीम की दुखद प्रेम कहानी के माध्यम से प्यार, वफादारी, परिवार और युद्ध को बड़े ही अनोखे तरीके से पर्दे पर उतारा गया था। फिल्म हिन्दी में बनी, लेकिन इसे तमिल और अंग्रेजी में भी शूट किया गया। हिन्दी में तो फिल्म सफल रही, लेकिन तमिल में लोगों ने इसे पसंद नहीं किया, जिसके बाद इसे अंग्रेजी में रिलीज करने का खयाल फिल्मकार को छोडऩा पड़ा। ये फिल्म डिजिटली रंगीन होने वाली पहली ब्लैक एंड व्हाइट हिंदी फिल्म थी। इसके अलावा ये किसी भी भाषा में बनने वाली पहली फिल्म थी जिसे दोबारा रिलीज़ किया गया था।मुगल ए- आजम, फिल्म को वर्ष 2009 में जब रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया, तो किसी ने नहीं सोचा था कि इसे इतना शानदार रिस्पांस मिलेगा। फिल्म के गाने अपने दौर में तो सर्वश्रेष्ठ रहे ही हैं और आज भी जब बजते हैं, तो लोगों के दिलों को सुकून ही देते हैं। इस बारे में शायद ही किसी को शक हो कि फिल्मी इतिहास में इसका संगीत नौशाद का सर्वोत्तम संगीत रहा है। नौशाद साहब ने एक-एक खालिस मोती चुन-चुनकर उसे ऐसे सुरों में पिरोया कि हर गाना अपना कहानी आप कह जाता है।नौशाद का दिलकश संगीतइस फिल्म के ज्यादातर गानों में नौशाद साहब ने कहानी के मूड के लिहाज से अपनी पसंदीदा गायिका लता मंगेशकर की आवाज ली है। हर गाने में शास्त्रीयता की झलक मिलती है। इन गानों में कम से कम म्यूजिक इंस्टूमेंट्स का इस्तेमाल किया गया और कहीं भी तेज ऑर्केस्ट्रा या कम्प्यूटरीकृत तकनीकी या आधुनिकता का आभास नहीं होता। शायद इसीलिए पुराने गानों में गायकों की आवाज ज्यादा स्पष्ट तौर से उभरकर सामने आती थी। फिल्म में लताजी का राग गारा में गाया हुआ गीत -मोहे पनघट पे नंद लाल छेड़ गयो रे.....एक तरह से कव्वाली भी है और लोक परंपरा, मान्यताओं के अनुरूप कान्हा के साथ गोपियों की छेड़-छाड़ भी इसमें नजर आती है। इस गाने में नायिका मधुबाला की खूबसूरती देखते ही बनती है। इस गाने की हर बात उम्दा है- फिर उसका ट्रैक हो या फिर खालिस उर्दू के साथ प्रचलित लोक भाषा का इस्तेमाल और फिर उनको लेकर रचा गया नौशाद का बे-नायाब सुरों का जाल, जिसमें श्रोता अंदर तक घुसता चला जाता है।इसी फिल्म में नौशाद साहब ने रागदरबारी में एक गाना रचा- प्यार किया तो डरना क्या.. काफी खूबसूरत है। इसी गाने में शीश महल के साथ मधुबाला की झलक उस जमाने की बेहतरीन तकनीक को पेश करती है। इस गाने से जुड़ा एक अनूठा इतिहास भी है। 60 के दशक में जब एक पूरी फिल्म 10 लाख रुपये में बन जाया करती थी, उस वक्त इस फिल्म के सिर्फ इस गाने को शूट करने में 10 लाख रुपये से अधिक खर्च हो गए थे । इस गाने को फिल्माने के लिए खासतौर पर शीश महल बनवाया गया था जिसमें हर तरफ सिर्फ शीशे ही शीशे लगे हुए थे। लता मंगेशकर की आवाज का जादू ऐसा चला कि क्या कहने। कहा जाता है कि इस गाने को लिखते समय गीतकार शकील बदायुनी ने सौ से कहीं अधिक बार पन्नों को फाड़ा, तब जाकर उनका यह गाना फिल्मकार के. आसिफ को पसंद आया था। लता मंगेशकर ने फिल्म के हर गाने के लिए काफी रियाज किया। इस बात का खुलासा खुद लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू के दौरान किया था। उन्होंने कहा था- जब वो इस फिल्म के गानों की रिकॉर्डिंग करती थीं तब उन्हें लगता था कि उनके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और कैसे भी करके उन्हें ये पूरी करनी है। फिल्म का यही गाना रंगीन फिल्माया गया था, बाकी फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट में थी।बड़े गुलाम अली खां साहब का जादूफिल्म का एक और गाना राग यमन में है जिसके बोल हैं- खुदा निगेबान..जिसमें नफीस उर्दू के बोल हैं तो उनमें रची बसी लता की मिठास भी है। फिल्म में नौशाद साहब ने उस्ताद बड़े गुलाम अली साहब से काफी मनुहार करके दो गीत गाने के लिए मना लिया था - प्रेम जोगन बन के और शुभ दिन आयो राज दुलारा...। जिसमें से प्रेम जोगन.. गाना भी पूरी तरह से ठुमरी स्टाइल का ठेठ शास्त्रीय था और इसे दिलीप कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गया था, जो फिल्मी इतिहास का सबसे रोमांटिक सीन कहा जाता है। इस सीन में नायक दिलीप कुमार प्रेम रस में डूबी नायिका मधुबाला के चेहरे पर जब बड़े-बड़े मखमली पंखों से अपना प्यार उड़ेलते हैं, सारा माहौल रोमांटिक हो उठता है। इस की गाने की खासियत ये भी है कि इसे बड़े गुलाम अली खां साहब ने गाया है। नौशाद अच्छी तरह से जानते थे कि इस ठुमरी के साथ खां साहब ही न्याय कर सकते हैं। काफी मनुहार के बाद खां साहब दो ठुमरी गाने के लिए तैयार हुए थे।इस फिल्म में कुल 12 गाने थे। एक गाने में रफी साहब और एक अन्य गाने में शमशाद बेगम की आवाज का इस्तेमाल नौशाद साहब ने किया। फिल्म के एक गाने जिंदाबाद जिंदाबात ऐ मुहब्बत जिंदाबाद गाने के कोरस में नौशाद साहब ने 100 से अधिक गायकों को कोरस के रूप में शामिल किया था।सबके लिए अलग कपड़े तैयार हुएमुग़ल-ए-आज़म के सेट और प्रत्येक कलाकार के लिए अलग-अलग कपड़े तैयार किए गए थे। जिसके चलते यह फि़ल्म ऐतिहासिकता को दर्शाने में सफल रही थी। इसके किरदारों के कपड़े तैयार करने के लिए दिल्ली से विशेष तौर पर दर्जी और सूरत से काशीदाकारी के जानकार बुलाये गए थे। हालांकि विशेष आभूषण हैदराबाद से लाए गए थे। अभिनेताओं के लिए कोल्हापुर के कारीगऱों ने ताज बनाया था। राजस्थान के कारीगरों ने हथियार बनाए थे और आगरा से जूतियां मंगाई गई थीं। फि़ल्म के एक दृश्य में भगवान कृष्ण की मूर्ति दिखाई गई है, जो वास्तव में सोने की बनी हुई थी।दिलीप कुमार और मधुबाला की अनबनफिल्म के सेट तैयार करने में काफी वक्त लगता है जिसका कारण फिल्म निर्माण में भी काफी वक्त लग गया। इस दौरान मधुबाला और दिलीप कुमार के रिश्ते में ऐसी खटास आ गई कि बोलचाल तक बंद हो गई थी। कहा जाता है कि इसके बाद भी दोनों कलाकारों ने अपने रोमांटिक सीन भी इस संजीदगी से किए कि किसी को भान ही नहीं रहा कि दोनों के रास्ते अलग हो चुके हैं। फिल्म के युद्ध के सीन के लिए भारतीय सेना की मदद ली गई थी। इसी दौरान के. आसिफ के साथ दिलीप कुमार की ऐसी नाराजगी रही कि दिलीप कुमार फिल्म के प्रीमियर में नहीं गए और करीब 19 साल तक उन्होंने यह फिल्म ही नहीं देखी।फिल्म 5 अगस्त 1960 को 150 प्रिंट के साथ रिलीज हुई, जो एक रिकॉर्ड था। मुंबई के मराठा मंदिर में इसे प्रदर्शित किया गया। फिल्म का रिस्पांस काफी धीमा रहा, लेकिन बाद में इसने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की। फिल्म को अनेक पुरस्कार भी मिले।
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जयंती पर विशेष
आलेख- मंजूषा शर्मा
महान गायक, संगीतकार, फिल्मकार और अभिनेता किशोर कुमार ने एक से बढ़कर एक गाने दिए हैं। कलाकारों की कई पीढिय़ों के लिए उन्होंने गाना गाया है। उनकी आवाज यदि सुनील दत्त पर अच्छी लगी तो उनके बेटे संजय दत्त के लिए भी उन्होंने गाने गाए। यदि वे आज जीवित होते तो नए युवा कलाकारों के लिए भी गा रहे होते, क्योंकि उन्होंने तो जैसे सिर्फ फिल्मों में गाने और अभिनय करने के लिए ही जन्म लिया था।आज उनके जन्मदिन के मौके पर उनके गाए कुछ हिट गाने हम यहां पेश कर रहे हैं-रूप तेरा मस्ताना- किशोर कुमार की आवाज अपने दौर के हर नायक के ऊपर अच्छी लगती है। रूप तेरा मस्ताना गाना राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर पर फिल्माया गया है। यह फिल्म थी आराधना, जो 1969 में प्रदर्शित हुई था। यह अपने दौर की सुपर हिट फिल्म थी। आज भी यह गाना बॉलीवुड का सबसे रोमांटिक गानों में शुमार किया जाता है। राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की शानदार केमेस्ट्री से सजी इस फिल्म में किशोर कुमार की आवाज राजेश खन्ना पर एकदम फिट बैठती है।जाने जां ढूंढता फिर रहा- फिल्म जवानी दीवानी में यह गाना शामिल किया गया था। इस गाने में किशोर कुमार का साथ दिया था आशा भोंसले ने और यह गाना फिल्म के नायक रणधीर कपूर और नायिका जया बच्चन पर फिल्माया गया था। 1972 में आई इस फिल्म में आर. डी. बर्मन ने संगीत दिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ग्लैमरस अवतार में नजर आई थीं। यह एक रोमांटिक फिल्म थी और यह पहला मौका था जब किसी फिल्म में रणबीर और जया की जोड़ी बनी थी। गाने का पिक्चराइजेशन भी काफी खूबसूरत है। नायिका, नायक के साथ लुका छिपी का खेल खेलती है और नायक उसे यह गाना गाकर ढूंढता फिर रहा है। गाने में आशा भोंसले ने भी अपनी आवाज के साथ कमाल का मॉड्यूलेशन किया है, जो पंचम दा की खास स्टाइल रही है।फूलों के रंग से- किशोर कुमार ने देवआनंद के लिए भी काफी हिट गाने गाए हैं। हालांकि देव साहब की प्रारंभिक फिल्मों में उनके लिए प्लेबैक सिंगिग का काम हेमंत कुमार और रफी साहब ने किया था। लेकिन बाद की फिल्मों में तो किशोर कुमार जैसे देव साहब की ही आवाज बन गए थे। फूलों से रंग से ... गाना फिल्म प्रेम पुजारी का है जिसका निर्माण देव साहब ने अपनी ही फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले किया था। यह वह आखिरी फिल्म है जिसका निर्देशन उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था। इसके बाद वे इस बैनर से हमेशा के लिए अलग हो गए थे। फूलों से रंग से ,,, गाने में देव साहब के साथ नायिका वहीदा रहमान की एक झलक मिलती है, साथ ही सह नायिका नादिया भी नजर आती हैं। गाने के बोल भी दिल को छू लेने वाले हैं। गाने का संगीत सचिन देव बर्मन ने तैयार किया था और यह फिल्म 1970 में रिलीज हुई थी।मेरे सामने वाली खिड़की में- यह गाना इसलिए भी लोगों खास तौर से पसंद आता है, क्योंकि इसमें किशोर दा भी अपने खास अंदाज में नजर आते हैं। पड़ोसन फिल्म में नायक सुनील दत्त नायिका सायरा बानो को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन वे बेहद बेसुरे हैं। इसलिए गायक किशोर कुमार उनकी मदद के लिए सामने आते हैं और खिड़की के पीछे खड़े वे यह गाना गाते हैं और सुनील दत्त साहब केवल होंठ हिलाते हैं। साथ ही अभिनेता मुकरी, केस्ट्रो मुखर्जी और राजकिशोर टीपा, झाडू लिए म्यूजिक देते हैं। 1968 की इस फिल्म में भी पंचम दा का संगीत था। कॉमेडी से भरपूर इस फिल्म में किशोर कुमार, सुनील दत्त और मेहमूद ने लोगों को काफी हंसाया था। मेरे सामने वाली खिड़की गाने के अलावा फिल्म में कहना है... गीत भी हिट हुआ था।ईना मीना डीका- यह गाना किशोर कुमार साहब पर ही फिल्माया गया है और यह फिल्म थी आस्था। इस फिल्म में किशोर कुमार की नायिका का रोल वैजयंतीमाला ने निभाया था। गाने में किशोर दा की हुडदंगी स्टाइल साफ झलकती है। गाने में काफी रोमांच है और एक ही सांस में इसे किशोर दा के जैसे इसे गाना किसी आम कलाकार के लिए सहज बात नहीं है। गाने के बोल काफी उटपटांग हैं, लेकिन इसका अपना मजा है। फिल्म में किशोर कुमार मुख्य भूमिका में थे। यह गाना आशा भोंसले की आवाज में भी है, लेकिन किशोर दा वाला वर्जन ज्यादा लोकप्रिय हुआ था। फिल्म का प्रदर्शन 1957 में हुआ था। फिल्म के गीतों को सुरों से सजाया था-सी. रामचंद्र ने।कुछ तो लोग कहेंगे- राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की मुख्य भूमिका वाली फिल्म अमर प्रेम का यह गाना किशोर दा ने इतनी खूबी से गाया है कि आज भी इसे सुनकर सुकून मिलता है। फिल्म का प्रदर्शन 1972 में हुआ था। आर. डी. बर्मन साहब ने आनंद बख्शी के दिल को छू लेने वाले बोलों को इतने सुंदर ढंग से सुरों में पिरोया है कि आज भी इस फिल्म के गाने लोगों की जुबां पर हैं। इस गाने का फिल्मांकन कोलकाता में हुगली नदी पर बड़े ही पारंपरिक अंदाज में छोटी नाव यानी डोंगी पर हुआ है। इस गाने में किशोर कुमार की आवाज का जादू आज भी बरकरार है। गाने में रोमांस भी है और नायक, नायिका को उसके दुख से निकालने का प्रयास बड़ी ही सरलता से दुनियादारी का आईना दिखाते हुए करता है।ये जो मोहब्बत है- 70 के दशक में राजेश खन्ना के साथ किशोर दा की आवाज की ऐसी स्पेशल बांडिंग हो गई थी कि हर निर्माता, इस जोड़ी को फिल्म में लेना पसंद कर रहा था। यदि इसमें पंचम दा यानी आर. डी हर्मन साहब भी जुड़े जाते थे, तो गाने तो शानदार बनने ही थे। ये जो मोहब्बत है, इसी तिकड़ी का एक हिट गाना है। यह गाना फिल्म फिल्म कटी पतंग में शामिल किया गया था। 1971 में प्रदर्शित इस फिल्म में राजेश खन्ना के अपोजिट आशा पारेख थीं। इस बार भी पंचम दा का संगीत लोगों के सिर चढ़कर बोला। फिल्म में हर मूड के गाने थे खासकर ये जो मोहब्बत है, में नायक राजेश खन्ना अपने टूटे हुए दिल का दुख बड़े ही बेफिक्री से झटकते हुए नजर आते हैं और प्यार करने से तौबा करते हैं। गाने में राजेश खन्ना की देवदास स्टाइल भी काफी पसंद की गई थी।मेरे सपनों की रानी - किशोर कुमार और राजेश खन्ना के गानों की बात हो और मेरे सपनों की रानी... गाने का जिक्र न हो तो, बात अधूरी सी लगती है। यह गाना फिल्म आराधना का है। गाने में राजेश खन्ना के साथ अभिनेता सुजीत कुमार भी नजर आते हैं। फिल्म में सुजीत कुमार ने राजेश खन्ना के अच्छे दोस्त का रोल निभाया था। गाने में बॉलीवुड का टिपिकल मसाला एक्शन देखने को मिलता है। राजेश खन्ना खुली जीप में बैठे यह रोमांटिक गाना गाते हैं और सुजीत कुमार माउथऑर्गन पर उनका साथ देते हैं। गाने में नायिका शर्मिला टैगोर की एक झलक मिलती है जो ट्रेन में बैठी हुई है। गाने में खूबसूरत वादियां और पहाड़ों पर खासतौर से चलने वाली छोटी ट्रेन के दर्शन होते हैं। सचिन देव बर्मन साहब ने गाने में ऐसे- वाद्यों का प्रयोग किया है कि गाने के साथ- साथ चलती ट्रेन की आवाज भी संगीत में शामिल हो गई है।किशोर दा के गाए और भी कई बेहतरीन गाने हैं, जिनकी चर्चा यदि करते जाएं तो न जाने कितने ही दिन बीत जाएं, लेकिन बात खत्म नहीं होगी। फिर कभी इन गानों से जुड़ी यादों को हम ताजा करेंगे।------------- - -बॉलीवुड में भाई-बहन के अटूट बंधन पर आधारित कुछ सुपर हिट गीतआलेख - मंजूषा शर्मारक्षा बंधन का त्यौहार बॉलीवुड का सबसे लोकप्रिय त्यौहार रहा है। होली के बाद इस पर्व को लेकर ही सबसे ज्यादा गाने बनाए गए हैं। पुरानी फिल्मों की बात करें, तो अधिकांश फिल्मों में नायक की मां और कम से कम एक बहन का होना अनिवार्य होता था। राखी का त्यौहार जैसे फिल्म की कहानी का हिस्सा बन चुका था। आजकल की ज्यादातर फिल्मों की कहानी तेजी से भागती है और उसमें बहन और भाई के रिश्ते का ताना-बाना ज्यादा नहीं बुना जाता यदि होता भी है, तो वह अदब से ज्यादा फ्रैंडली और कभी - कभी प्रतिस्पर्धी होता है।खैर आज हम बॉलीवुड के कुछ ऐसे गानों की चर्चा कर रहे हैं, जो आज भी राखी के मौके पर सुनाई दे जाते हैं। फिर वह चाहे रेडियो हो या फिर टीवी सीरियल। ये गाने अपने जमाने में काफी लोकप्रिय भी रहे हैं।1. बहना ने भाई की कलाई में.. फिल्म -रेशम की डोरी-1974 में बनी इस फिल्म में धर्मेन्द्र और सायरा बानो मुख्य भूमिकाओं में थे। भाई - बहन के रिश्ते पर आधारित इस फिल्म में धर्मेन्द्र की बहन का रोल कुमुद छुगानी ने निभाया था, जो उस दौर की अधिकांश फिल्मों में बहन के रोल में नजर आईं। गीतकार इंदीवर के गीत बहना ने भाई की कलाई में ... को आवाज दी है सुमन कल्याणपुर ने। फिल्म में वैसे तो छह गाने थे, लेकिन राखी वाला गाना सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। फिल्म में भाई और बहन के अटूट प्रेम को दर्शाया गया है। निर्देशक आत्माराम की इस फिल्म में संगीतकार शंकर-जय किशन ने एक भी गाना लता मंगेशकर से नहीं गवाया था, बल्कि नायिका के लिए आशा भोंसले और बहन के लिए उन्होंने सुमन कल्याणपुर की आवाज में गीत तैयार किए थे।2. भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना-फिल्म छोटी बहन भी भाई और बहन के रिश्तों पर आधारित थी। वर्ष 1959 में प्रदर्शित इस फिल्म में छोटी बहन का रोल अभिनेत्री नंदा ने निभाया था और कॅरिअर के आरंभ में ही बहन का रोल करने के कारण उनका कॅरिअर टाइप्ड हो गया था। बाद में उन्हें नायिका के रोल काफी मुश्किलों के बाद मिले। इस फिल्म में वे बलराज साहनी और रहमान की छोटी बहन के रोल में नजर आईं। लता मंगेशकर का गाया भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना गीत आज भी रक्षा बंधन का एक लोकप्रिय गीत बना हुआ है। फिल्म में सात गाने थे और सबसे लोकप्रिय गाना रहा भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना, जिसे 1959 में बिनाका गीत माला के सालाना लोकप्रिय गीतों में शुमार किया गया था। जिसे शैलेन्द्र ने लिखा है। फिल्म के सात गानों में पांच तो लता मंगेशकर के ही हिस्से में आए थे। फिल्म का निर्देशन प्रसाद ने किया था।3. फूलों का तारों का सबका कहना है- फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा 1971 में प्रदर्शित हुई थी। देवानंद ने इस फिल्म का निर्माण अपनी कंपनी नवकेतन के बैनर तले किया था। इसमें देवानंद की बहन का रोल जीनत अमान ने निभाया था। फिल्म में दिखाया गया है कि माता-पिता के बिगड़ते सम्बन्धों से बच्चों का जीवन किस प्रकार अभिशप्त बन जाता है, नशे की गिरफ्त में युवा पीढ़ी किस प्रकार बर्बाद हो रही है और इसका खामियाजा माता-पिता को बेटी की मौत से चुकाना पड़ता है। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग काठमांडू में हुई थी। देवानंद के अपोजिट मुमताज थीं। फिल्म में फूलों का तारों का गीत काफी प्रभावशाली है। किशोर और लता मंगेशकर दोनों ने अलग-अलग इसे गाया है। आनंद बख्शी के इस गीत को सुरों से सजाया है राहुल देव बर्मन ने।4. देख सकता हूं मैं कुछ भी होते हुए... फिल्म मजबूर में यह गाना शामिल किया गया था। अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म में फरीदा जलाल बहन के रोल में थीं। फिल्म के इस गाने में अमिताभ बच्चन , अपनी बहन के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करते हैं। इसमें फरीदा ने एक नि:शक्त बहन का रोल निभाया था ,जिनका नाम इस रोल के लिए उस वर्ष फिल्म फेयर के बेस्ट सर्पोटिंग एक्ट्रेस पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। वहीं, नायिका के रोल में परवीन बॉबी थीं। सलीम- जावेद की कहानी पर बनी इस फिल्म का संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने तैयार किया था। यह फिल्म 1974 में प्रदर्शित हुई थी।5. ये राखी बंधन है ऐसा- फिल्म बेईमान में यह गीत शामिल किया गया था, जो 1972 में बनी थी। फिल्म में राखी और मनोज कुमार मुख्य भूमिकाओं में थे। अभिनेत्री नजीमा पर यह गाना फिल्माया गया है। निर्देशक सोहनलाल कंवर की इस फिल्म में संगीत शंकर -जयकिशन की जोड़ी का था और राखी का यह गाना लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज में है जिसे लिखा वर्मा मलिक ने है। इस गाने में अभिनेत्री नजीमा राखी के महत्व को बयान करती है और मनोज कुमार को अपना भाई स्वीकार कर उसे भाई- बहन के पवित्र रिश्ते का अहसास कराती हैं।6. मेरे भईया मेरा चंदा मेरे अनमोल रतन- फिल्म काजल का यह गीत आशा भोंसले की आवाज में है और यह अपने दौर का सुपर हिट गीत है। 1965 की इस फिल्म में मीना कुमारी, राजकुमार और धर्मेन्द्र मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वह दौर था, जब धर्मेन्द्र और मीना कुमारी की नजदीकियां चर्चा में थीं। साहिर लुधियानवी के गीतों को रवि ने सुरों में ढाला था। यह फिल्म गुलशन नंदा के उपन्यास माधवी पर आधारित थी। राखी के इस गाने में एक बहन अपने छोटे भाई के प्रति अपने प्यार को प्रदर्शित करती है और भगवान से उसकी सलामती के लिए दुआ करती है। फिल्म में मीना कुमारी अपने यह मनोभाव अपने छोटे भाई के प्रति प्रदर्शित करती है । फिल्म में धर्मेन्द्र ने मीना कुमारी के भाई का रोल निभाया था।7. अब के बरस भेज भैया को बाबुल- फिल्म बंदिनी का यह गाना एक बहन के दर्द को बयां करता है। बहन जेल में है और सावन का महीना आया हुआ है। वह अपने गीत के माध्यम से सावन, तीज और राखी के त्यौहार का जिक्र करते हुए अपने पीहर को याद करती है। फिल्म में नूतन , अशोक कुमार और धर्मेन्द्र मुख्य भूमिकाओं में थे। आशा भोंसले ने इस गाने को इतनी खूबी से गाया है कि इसके मनोभाव सीधे दिल तक लगते हैं। 1963 की यह फिल्म बिमल रॉय की बेहतरीन फिल्मों में से है। फिल्म की कहानी नबेन्दु घोष ने लिखी थी। फिल्म में शैलेन्द्र और गुलजार ने गीत लिखे थे जिसे सुरों से सजाया था सचिन देव बर्मन साहब ने। 1964 में इस फिल्म ने विभिन्न श्रेणियों में छह फिल्म फेयर पुरस्कार जीते थे। अब के बरस भेज ... गीत शैलेन्द्र ने लिखा था।8. राखी धागों का- फिल्म राखी (रिलीज वर्ष-1962) में यह गीत शामिल किया गया था। फिल्म में अशोक कुमार की बहन का रोल वहीदा रहमान ने निभाया था। यह गाना मोहम्मद रफी के हिट गानों में शामिल है। फिल्म में यह गाना प्लैबैक में चलता है। फिल्म में वहीदा रहमान के अपोजिट प्रदीप कुमार थे। फिल्म के लिए अशोक कुमार ने बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड जीता था। वहीं ये फिल्म बेस्ट फिल्म की श्रेणी के लिए नामित हुई थी। साथ ही मेहमूद का नाम भी बेस्ट सर्पोटिंग एक्टर की श्रेणी में नामांकित किया गया था। यह तमिल फिल्म पासामलार की हिन्दी रीमेक थी। गीत राजेन्द्र कृष्ण के और संगीत रवि का था।
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जन्मदिन पर विशेष
आलेख-मंजूषा शर्मा
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- तंगहाल पिता जन्म के बाद छोड़ आए थे अनाथालय
-मीना की जिंदगी की रंगत शराब के आस पास ही सिमट कर रह गई थीं
पाकीजा फिल्म रिलीज हुए कुछ हफ्ते ही हुए थे कि अभिनेत्री मीना कुमारी बुरी तरह बीमार पड़ गईं। उनके लीवर में तकलीफ थी और किस्से हैं कि इसकी वजह जरूरत से ज्यादा शराब थी। फिल्म तो खूब चल निकली। साहिबजां यानि मीना कुमारी और सलीम अहमद खान (राजकुमार) के इश्क के चर्चे हर जुबान पर थे और ट्रेन में गुजरते वक्त तो जेहन में जरूर कौंधता था, आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं.. उन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे।बैजू बावरा, दिल अपना और प्रीत पराई और भाभी की चूडिय़ां जैसी दर्जनों फिल्मों की कामयाबी ने मीना कुमारी को बॉलीवुड की ट्रेजडी क्वीन बना दिया। हुस्न पर उनकी अदाकारी भारी पड़ती थी या अदाकारी पर हुस्न, इस पर तो अब भी बहस हो सकती है, लेकिन हुस्न और अदाकारी के बीच उनकी तन्हाई और खामोशी किसी को नहीं दिखी। अभिनेत्री मीना कुमारी ने हिन्दी सिनेमा जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी अस्पर्शनीय है । वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी। अपने दिली जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयां चुभो रहा हो। गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है। गम का ये दामन शायद अल्लाह ताला की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने -
कहां अब मैं इस गम से घबरा के जाऊं
कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको
आज मीना कुमार के जन्मदिवस पर उनसे जुड़ी खास बातें।
बंबई की एक चॉल में उनकी मां इक़बाल बानो और पिता मास्टर अली बख़्श रहते थे, जो थियेटर आर्टिस्ट थे। पिता थियेटर में हार्मोनियम भी बजाते थे। बहुत तंगहाली थी। फिर 1 अगस्त 1932 को उनके घर मीना जन्मीं। घर में दो बेटियां पहले से थीं इसलिए उनके पैदा होने पर कोई खुशी मनाने की संभावना नहीं थी। डिलीवरी करने वाले डॉक्टर को फीस देने तक के पैसे नहीं थे। बताया जाता है कि अली बख़्श इतने निराश थे कि बच्ची को दादर के पास एक मुस्लिम अनाथालय के बाहर छोड़ दिया। लेकिन कुछ दूर गए थे कि बच्ची की चीखों ने उन्हें तोड़ दिया। वे लौटे और गोद में उठा लियाछ। बच्ची के शरीर पर लाल चींटियां चिपकी हुई थीं। उन्होंने उसे साफ किया और घर ले आए। नाम रखा महजबीं। परिवार हो या वैवाहिक जीवन मीना कुमारी को ताउम्र तन्हाईयां हीं मिली। उनकी लिखी नज्म में यह बात जाहिर होती है-
चांद तन्हा है,आस्मां तन्हा
दिल मिला है कहां -कहां तन्हां
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थात्थारता रहा धुआं तन्हां
जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हां है और जां तन्हां
हमसफऱ कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हां
जलती -बुझती -सी रौशनी के परे
सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा
मीना कुमारी जाते जाते सचमुच सारे जहां को तन्हां कर गईं । जब जिन्दा रहीं सरापा दिल की तरह जिन्दा रहीं । दर्द चुनते रहीं संजोती रहीं और कहती रहीं -
टुकडे -टुकडे दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली
जितना -जितना आंचल था, उतनी हीं सौगात मिली
जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसा कोई कहता हो, ले फिऱ तुझको मात मिली
होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे
जलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली
मीना कुमारी कोई साधारण अभिनेत्री नहीं थी, उनके जीवन की त्रासदी, पीड़ा, और वो रहस्य जो उनकी शायरी में अक्सर झांका करता था। इसके अलावा उनके फिल्मी किरदारों में भी उनका दर्द बखूबी झलकता रहा। फिल्म साहब बीबी और गुलाम में छोटी बहु के किरदार को भला कौन भूल सकता है। न जाओ सैया छुडाके बैयां.. गाती उस नायिका की छवि कभी जेहन से उतरती ही नहीं। 1962 में मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए तीन नामांकन मिले एक साथ- ये फिल्में थीं- साहब बीबी और गुलाम , मैं चुप रहूंगी और आरती यानी कि मीना कुमारी का मुकाबला सिर्फ मीना कुमारी ही कर सकती थीं। सुंदर चांद सा नूरानी चेहरा और उस पर आवाज़ में ऐसा मादक दर्द, सचमुच एक दुर्लभ उपलब्धि का नाम था मीना कुमारी। इन्हें ट्रेजेडी क्वीन यानी दर्द की देवी जैसे खिताब दिए गए। पर यदि उनके सपूर्ण अभिनय संसार की पड़ताल करें तो इस तरह की छवि बंदी उनके सिनेमाई व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी ही होगी।
15 साल बड़े शादीशुदा कमाल अमरोही पर जब मीना का दिल आया, तो वह सिर्फ 19 की थीं। फिर भी दोनों ने शादी की। कहते हैं कि दोनों की शख्सियत इतनी बुलंद थी कि एडजस्ट करना दूभर हो गया और आठ साल बाद दोनों अलग हो गए। मीना के दिल से कमाल नहीं निकल पाए. फिर प्यार की कमी प्याले से भरने की कोशिश की। कमाल भी कम परेशान न थे। तलाक हो चुका था पर चाहत नहीं घटी थी। 1964 में दोनों ने फिर शादी कर ली, लेकिन तब तक प्यार में प्याले की गांठ लग चुकी थी। मीना कुमारी नशे के आगोश में ऐसी बह चुकी थीं कि कमाल अमरोही बताते हैं कि घर के बाथरूम में डिटॉल की शीशी में भी ब्रांडी भरी होती थी। अमरोही ने कई शीशियां हटाईं, मीना को लेकर ख्वाबों की फिल्म पाकीजा पूरी की, भले ही इसमें 16 साल क्यों न लग गए हों। ब्लैक एंड व्हाइट गानों को दोबारा रंगीन में शूट क्यों न किया गया, लेकिन मीना की जिंदगी की रंगत शराब के आस पास ही सिमट कर रह गई।
एक बार गुलज़ार साहब ने मीना को एक नज़्म दिया था, जिसमें उन्होंने लिखा था -
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी
इसे पढ़ कर मीना जी हंस पड़ी । कहने लगी - जानते हो न, वे तागे क्या हैं ?उन्हें प्यार कहते हैं । मुझे तो प्यार से प्यार है । प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है । इतना प्यार कि कोई अपने तन से लिपट कर मर सके तो और क्या चाहिए? महजबीं से मीना कुमारी बनने तक (निर्देशक विजय भट्ट ने उन्हें ये नाम दिया), और मीना कुमारी से मंजू (ये नामकरण कमाल अमरोही ने उनसे निकाह के बाद किया ) तक उनका व्यक्तिगत जीवन भी हजारों रंग समेटे एक गज़़ल की मानिंद ही रहा। बैजू बावरा,परिणीता, एक ही रास्ता, शारदा, मिस मेरी, चार दिल चार राहें, दिल अपना और प्रीत पराई, आरती, भाभी की चूडिय़ां मैं चुप रहूंगी, साहब बीबी और गुलाम, दिल एक मंदिर, चित्रलेखा, काजल, फूल और पत्थर, मंझली दीदी, मेरे अपने, पाकीजा जैसी फिल्में उनकी लम्बी दर्द भरी कविता सरीखे जीवन का एक विस्तार भर है जिसका एक सिरा उनकी कविताओं पर आकर रुकता है -
थका थका सा बदन,
आह! रूह बोझिल बोझिल,
कहां पे हाथ से,
कुछ छूट गया याद नहीं....
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मोहम्मद रफी- पुण्यतिथि पर विशेष
आलेख -मंजूषा शर्मासुहानी रात ढल चुकी , न जाने तुम कब आओगे, यह गाना मोहम्मद रफी साहब ने गाया है और आज उनकी पुण्यतिथि के मौके पर इसी गाने और इस फिल्म तथा इसके कलाकारों की चर्चा हम यहां कर रहे हंै।फिल्म थी दुलारी और इसका निर्माण 1949 में हुआ था। फि़ल्म के मुख्य कलाकार थे सुरेश, मधुबाला और गीता बाली। फि़ल्म का निर्देशन अब्दुल रशीद कारदार साहब ने किया था। 1949 का साल गीतकार शक़ील बदायूनी और संगीतकार नौशाद के लिए ढेर सारी खुशियां लेकर आया। 1949 में महबूब ख़ान की फि़ल्म अंदाज़ , ताजमहल पिक्चर्स की फि़ल्म चांदनी रात , तथा ए. आर. कारदार साहब की दो फि़ल्में दिल्लगी और दुलारी प्रदर्शित हुई थीं और ये सभी फि़ल्मों का गीत संगीत बेहद लोकप्रिय सिद्ध हुआ था। फिल्म दुलारी 1 जनवरी 1949 को प्रदर्शित हुई थी। पूरी फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट है।आज जब दुलारी के इस गाने की चर्चा हो रही है, तो हम बता दें कि इसी फिल्म में लता मंगेशकर और रफ़ी साहब ने अपना पहला डुएट गीत गाया था और यह गीत था-मिल मिल के गाएंगे दो दिल यहां, एक तेरा एक मेरा । फिल्म में दोनों का गाया एक और युगल गीत था -रात रंगीली मस्त नज़ारे, गीत सुनाए चांद सितारे । लता और रफी की यह जोड़ी काफी पसंद की गई और उसके बाद तो उन्होंने ऐसे- ऐसे यादगार गाने दिए हैं कि यदि उनका जिक्र करते जाएं तो न जाने कितने ही दिन गुजर जाएंगे, लेकिन बातें खत्म नहीं होंगी।फिल्म में मोहम्मद रफ़ी की एकल आवाज़ में नौशाद साहब ने सुहानी रात ढल चुकी गीत.. -राग पहाड़ी पर बनाया । इसी फि़ल्म का गीत तोड़ दिया दिल मेरा.. भी इसी राग पर आधारित है। राग पहाड़ी नौशाद साहब का काफी लोकप्रिय शास्त्रीय राग रहा है और उन्होंने इस पर आधारित कई गाने तैयार किए हैं। इसमें से जो गाने रफी साहब की आवाज में हैं, वे हैं-1.. आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले (फिल्म-राम और श्याम)2. दिल तोडऩे वाले तुझे दिल ढ़ूंढ रहा है (सन ऑफ़ इंडिया)3. दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात (कोहिनूर)4. कोई प्यार की देखे जादूगरी (कोहिनूर)5. ओ दूर के मुसाफिऱ हम को भी साथ ले ले (उडऩ खटोला)फिल्म दुलारी में कुल 12 गाने थे। 14 रील की इस फिल्म में ये गाने कहानी की तरह ही चलते हैं । नायिका मधुबाला के लिए लता मंगेशकर ने अपनी आवाज दी थी। वहीं गीता बाली के लिए शमशाद बेगम ने दो गाने गाए थे। जिसमें से शमशाद बेगम का गाया एक गाना - न बोल पी पी मोरे अंगना , पक्षी जा रे जा...काफी लोकप्रिय हुआ था। नायक सुरेश के लिए रफी साहब ने आवाज दी थी। इसमें से 9 गाने लता मंगेशकर ने गाए जिसमें रफी साहब के साथ उनका दो डुएट भी शामिल है। रफी साहब ने केवल एक गाना एकल गाया और वह है -सुहानी रात ढल चुकी जिसे आज भी रफी साहब के सबसे हिट गानों में शामिल किया जाता है। पूरा गाना इस प्रकार है-सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेजहां की रुत बदल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेअंतरा-1. नज़ारे अपनी मस्तियां, दिखा-दिखा के सो गयेसितारे अपनी रोशनी, लुटा-लुटा के सो गयेहर एक शम्मा जल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेसुहानी रात ढल...अंतरा- 2- तड़प रहे हैं हम यहां, तुम्हारे इंतज़ार मेंखिजां का रंग, आ-चला है, मौसम-ए-बहार मेंहवा भी रुख बदल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेसुहानी रात ढल......गाने में नायक की नायिका से मिलने की बैचेनी और इंतजार का दर्द शकील साहब ने अपनी कलम से बखूबी उतारा है, तो रफी साहब ने अपनी आवाज से इस गाने को जीवंत बना दिया है। गाने में शब्दों का भारी भरकम जाल नहीं है बल्कि बोल काफी सिंपल हैं, जो बड़ी सहजता से लोगों की जुबां पर चढ़ जाते हैं। गाने की यही खासियत इसे आज तक जिंदा रखे हुए है। गाने के शौकीन आज भी किसी कार्यक्रम में इसे गाना नहीं भूलते हैं। राग पहाड़ी के अनुरूप इसका फिल्मांकन भी हुआ है और दृश्य में नायक चांदनी रात में सुनसान जंगल में नायिका का इंतजार करते हुए यह गाना गाता है। दृश्य में एक टूटा फूटा खंडहर भी नजर आता है, तो नायक की विरान जिंदगी को दर्शाता है, जिसे बहार आने का इंतजार है।दुलारी फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार थी-प्रेम शंकर एक धनी व्यावसायिक का बेटा होता है जिसकी शादी उसके माता-पिता रईस खानदान में करना चाहते हंै। प्रेम शंकर को एक बंजारन लड़की दुलारी से प्यार हो जाता है। यह लड़की बंजारन नहीं बल्कि एक रईस खानदान की बेटी शोभा रहती है, जिसे बंजारे लुटेरे बचपन में उठा लाए थे। यह रोल मधुबाला ने निभाया है। प्रेमशंकर इस लड़की को इस नरक से निकालने के लिए उससे शादी करने का फैसला लेता है। बंजारन की टोली में एक और लड़की रहती है कस्तूरी जिसका रोल गीता बाली ने निभाया है। वह इसी टोली के एक बंजारे लड़के से प्यार करती है, लेकिन उसकी नजर दुलारी पर होती है। प्रेमशंकर के पिता इस शादी के खिलाफ हैं। काफी जद्दोजहद के बाद प्रेमशंकर , दुलारी को इस नरक से निकालने में कामयाब हो जाता है और उनके पिता को भी इस बात का पता चल जाता है कि दुलारी और कोई नहीं उनके ही मित्र की खोई हुई बेटी है जिसे वे बचपन से ही अपनी बहू बनाने का फैसला कर चुके थे। फिल्म के अंत में सब कुछ ठीक हो जाता है और नायक को अपना सच्चा प्यार मिल जाता है। फिल्म में मधुबाला से ज्यादा खूबसूरत गीता बाली नजर आई हैं, लेकिन उनके हिस्से में सह नायिका की भूमिका ही थी। लेकिन फिल्म के प्रदर्शन के एक साल बाद ही उन्हें फिल्म बावरे नैन में राजकपूर की नायिका बनने का मौका मिला और इसके कुछ 5 साल बाद उन्होंने शम्मी कपूर के साथ शादी कर ली। दुलारी फिल्म मधुबाला की प्रारंभिक फिल्मों में से है। मधुबाला ने जब यह फिल्म की उस वक्त उनकी उम्र मात्र 16 साल की थी।फिल्म की पूरी कहानी चंद पात्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। सुरेश के पिता के रोल में अभिनेता जयंत थे जिनका असली नाम जकारिया खान था, लेकिन उन्हें जाने-माने फिल्म निर्माता और निर्देशक विजय भट्ट ने जयंत नाम दिया था। विजय भट्ट आज की फिल्मों के निर्माता-निर्देशक विक्रम भट्ट के दादा थे। जयंत के बेटे अमजद खान हैं जिन्हें आज भी गब्बर सिंह के रूप में पहचाना जाता है। फिल्म दुलारी में नायक सुरेश की मां का रोल प्रतिमा देवी ने निभाया था, जो ज्यादातर फिल्मों में मां का रोल में ही नजर आईं। उनकी फिल्मों में अमर अकबर एंथोनी, पुकार प्रमुख हैं। आखिरी बार वे वर्ष 2000 में बनी फिल्म पलकों की छांव में दिखाई दी थीं। मधुबाला के पिता के रोल में अभिनेता अमर थे। अभिनेता श्याम कुमार ने खलनायक का रोल निभाया था, जो बाद में रोटी, जख्मी जैसी कई फिल्मों में खलनायक के रूप में नजर आए।कभी फुरसत मिले तो इस फिल्म को जरूर देखिएगा, अपने दिलकश गानों की वजह से यह फिल्म दिल तो सुकून देती है। हालांकि अब इसके प्रिंट काफी धुंधले पड़ गए हैं। फिल्म की तकनीक और कहानी आज की पीढ़ी को भले ही पुरानी लगे, लेकिन अपने दौर की यह हिट और क्लासी फिल्म है। -
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- उत्साह और अनुभव भरी यात्रा
- छत्तीसगढ़ के शिमला जाने की बात हो तो कुछ अलग ही माहौल बन जाता है
- हवा बादलों को अपने साथ उड़ाती हुई नजर आई
ये हंसी वादियां ये खुला आसमां..... हिन्दी फिल्म का यह गीत कानों में पड़ते ही कुछ अलग तरह के दृश्य जेहन में उभरने लगते हैं और इनकी केवल कल्पना मात्र दिलो दिमाग में नई ऊर्जा का संचार करती है। कश्मीर और शिमला की वादियां यदि छत्तीसगढ़ में देखनी हो, तो एक बार मैनपाट की सैर जरूर कर लें। छत्तीसगढ़ और तिब्बती संस्कृति का मिला जुला रूप यहां देखने को मिल जाएगा। प्राकृतिक खूबसूरती भगवान ने यहां जी भर के दी है। .आप चाहे घर को कितना ही सर्वसुविधा युक्त ही क्यों न बना लें, फिर भी आप का दिल प्राकृतिक सौंदर्य को देखने के लिए ललकता ही रहेगा। आप धरती और आकाश के बीच कौतूहल से दूर जिज्ञासा एवं रोमांचकारी स्थल की तलाश करने और प्राकृतिक सौंदर्य देखने, हरी-भरी वादियों की गोद में ही जाना पसंद करेंगे। इसी प्रकार मैं और मेरा परिवार जीवन की एकरसता भरी जिंदगी से दूर पर्यटन का लुफ्त उठाने के लिहाज से निकल पड़ा मैनपाट हिल स्टेशन के लिए, जो छत्तीसगढ़ का शिमला कहलाता है। यूं तो पर्यटन की कल्पना से ही मन उत्साह एवं रोमांच का अनुभव करने लगता है, फिर छत्तीसगढ़ के शिमला जाने की बात हो तो कुछ अलग ही माहौल बन जाता है।परिवार साथ हो तो कार से यात्रा करने का मजा ही कुछ और होता है। हालांकि मैनपाट जाने के लिए दुर्ग-अंबिकापुर ट्रेन भी उपलब्ध है, जो रात 9.30 बजे रायपुर से रवाना होकर अंबिकापुर सुबह 8.30 बजे पहुंच जाती है। खैर हमारा पूरा परिवार सुबह-सुबह ही दो कार में चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर। रास्ते में चर्चा- गपशप और गाने- खाने का दौर चल रहा था। अंबिकापुर शहर काफी अच्छा लगा। लोग काफी मिलनसार हैं। अंबिकापुर में प्रसिद्ध शक्तिपीठ में मां महामाया के दर्शन का मोह हमें मंदिर तक ले गया। ऐसी मान्यता है कि जो भी यहां सच्चे दिल से मांगे, वह मुराद अवश्य पूरी होती है। देवी दर्शन के समय ऐसा लगा मानो माता इस स्थान पर साक्षात बैठी हों। उनके दर्शन मात्र से शरीर में अब तक की यात्रा की सारी थकान मिट गई और एक नई शक्ति का संचार होने लगा। मंदिर परिसर में विशाल बरगद के वृक्ष के प्रति लोगों की आस्था भी अटूट नजर आई।इसके बाद हम लोग मैनपाट के लिए निकल पड़े। दरिमा-हवाई पट्टी के रास्ते से मैनपाट 33 किलोमीटर दूर है। रास्ते भर नए-नए अनुभव हो रहे थे। बडेÞमेदनी गांव में जो नवानगर के समीप ही था, यहां चारो ओर हरे-भरे खेत में लोग एक साथ मिलकर काम करते नजर आए। बरगई गांव से ही घाटी आरंभ हो जाती है। 2-3 किलोमीटर ऊपर पहाड़ों की ओर दुर्गम दृश्य का अवलोकन करते हुए यह पहाडिय़ां हरी-भरी प्रकृति की गोद में ले जाती हैं। यहां मौसम हमेशा सुहावना और मस्ताना होता है। मस्ताना इसलिए कि यहां की घाटियां हरे-भरे वृक्षों एवं पौधों से रंग बिरंगे फूलों से महकती हुई, आप के मन को मदमस्त करती हुई आपके भीतर अलौकिक अनुभूति का अहसास कराती है। मैनपाट वैसे तो कभी भी जाया जा सकता है, लेकिन हर मौसम का अपना अलग ही मजा होता है। बंसत से ग्रीष्म तक लोग गर्मी से बचने के लिए छत्तीसगढ़ के शिमला में जाना पसंद करते हैं, क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में बच्चों के स्कूल व कॉलेजों की छुट्टियां होती हैं। मौसम के लिहाज से जून से अगस्त-सितंबर का समय वर्षा का होता है। इसमें पहाड़ों की रानी को भीगते हुए देखा जा सकता है। जब बरसात होती है, तो मैनपाट ऐसा लगता होगा मानों एक पहाड़ को भिगोते हुए बादल दूसरे पहाड़ों की तरफ दौड़ लगा रहे हों। इन सुंदर पर्वत श्रेणियों को भिगोने में बादल इस तरह व्यस्त रहते हंै, जैसे आकाश और धरती एक साथ होली खेल रहे हों । आकाश बादल रूपी पिचकारी में इतना सारा जल भर देता है, ताकि कोई स्थान अछूता न रह जाए। वैसे तो नवंबर से जनवरी के दिनों में यहांं बर्फ-बारी होने के कारण यहांं का प्राकृतिक सौंदर्य देखने लायक होता है। जब ऊपर से बर्फ के छोटे-छोटे कण गिरते हैं, तो ऐसा लगता है कि प्रकृति रुई की वर्षा कर रही हो। यही बर्फ जब पत्तियों पर गिरती है, तो ठंड के कारण जम जाती है। सुबह-सुबह ओस की बूंदों को आप बर्फ की भांति जमा हुआ पाएंगे। यह एकदम परीकथाओं जैसा लगता है।मैनपाट में बहुत से दर्शनीय स्थल हैं, जैसे- माटीघाट रोपणी, मेहता प्वाइंट, परपटिया का विहंगम दृश्य, सैला टूरिस्ट रिसोर्ट मैनपाट, टाइगर प्वाइंट, मछली प्वाइंट लेक-व्यू, देवप्रवाह, बौद्ध मठ, तिब्बती कैंप नं.-1 कमलेश्वरपुर है। मैनपाट वैसे तो समुद्रतल से 1080 मीटर ऊंचाई पर 62 पठारों में 40 किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है। यहां मैन मिट्टी की अधिकता होने के कारण इसका नाम मैनपाट पड़ा है। मैन मिट्टी का उपयोग स्थानीय महिलाएं अपने बाल धोने के लिए करती हैं। उनका मानना है कि मैन मिट्टी में दही मिलाकर बाल धोने से रूसी दूर हो जाती है।हमारा गंतव्य सीधे सैला टूरिस्ट रिसोर्ट था। जहां रात्रि विश्राम और खाने की अच्छी व्यवस्था है। सैला टूरिस्ट रिसोर्ट मैनपाट के जिस मोटल में हम रुके थे, यह लगभग 11 एकड़ में फैला है। इसमें 4 बडेÞ़ भवन, 30 बिस्तर की डॉरमेट्री एवं 22 लक्जरी कमरे हैं। इसमें आप शादी, सगाई या कांफ्रेंस मीटिंग कर सकते हंै। बीच में कैंटीन है, जिसमें तीन बड़ेÞ-बड़े दरवाजे हैं। इससे ठंडी हवा अंदर की ओर प्रवेश करते हुए शानदार तरीके से गुम्मदनुमा रास्ते से होकर ऊपर बाहर की ओर चली जाती है। सुंदर बगीचों में बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे से होते हुए आप अपने कमरों तक जा सकते हैं।हवा बादलों को अपने साथ उड़ाती हुई नजर आईसुबह-सुबह हम तैयार होकर मैनपाट को और करीब से जानने के लिए निकल पड़े। जब हम मेहता प्वाइंट पहुंचे, तब हवा बादलों को अपने साथ उड़ाती हुई नजर आई और ये बादल शनैै-शनै बरसते हुए एक-एक पहाड़ों को भिगाते हुए नजर आ रहे थे। इसी प्रकार धूप को भी एक पर्वतमाला से दूसरी पर्वतमालाओं तक जाते आप आसानी से देख सकते हैं। कभी-कभी तो एक पहाड़ में धूप नजर आती है, तो दूसरे में छांव, ऐसा लगता है जैसे इन हरी-भरी वादियों में कहीं रात तो कहीं दिन है। धूप-छांव खेलते हुए सूरज ऐसा सुहावना मौसम तैयार करता है, कि आपका मन प्रफुल्लित हो उठता है। सबसे आकर्षक स्थान परपटिया है जहां का विहंगम दृश्य मन को मोह लेने वाला होता है। बहुत ही सुंदर दर्शनीय बंदरकोट व अनेक पर्वत श्रेणियों का निकटम भूदृश्य प्रस्तुत करता है। यहां से जनजातियों के आस्था का प्रतीक दूल्हा-दुल्हन पर्वत, बनरईबांध, श्यामघुनघुट्टा बांध के साथ ही मेघदूतम की रचना स्थली रामगढ़ की पर्वत श्रृखंलाएं भी दृष्टिगोचर होती हैं। आलू के खेतों में भालू रात को विचरण करते मिलते हैं। भुट्टा, कोदो, आलू यहां की मुख्य फसल है और गर्मी के दिनों में यहां लीची की बहार भी छाई रहती है।महादेव मुड़ा नदी और टाइगर प्वाइंटजब हम टाइगर पांइट पहुंचे तो लोगों से पूछा इसका नाम ऐसा क्यों रखा गया है, तो वहां के स्थानीय आदिवासियों ने बताया कि पूर्व काल में इस स्थान पर शेरों का रहवास व विचरण क्षेत्र होने के कारण इसका नाम टाइगर प्वाइंट पड़ा। इस क्षेत्र में महादेव मुड़ा नदी अपने सुंदरतम स्वरूप से बहते हुए 60 मीटर की ऊंचाई से गिरते हुए, चित्ताकर्षक मनोहारी परिदृश्य प्रस्तुत करती हुई, खल-खल करती अपनी मदमस्त चाल में प्रवाहित हो रही थी। इसे देखने से ऐसा लगता है कि चारों ओर से घेरे पहाड़ों को कह रही हो तुम यहीं रहो, मुझे सागर से मिलने की जल्दी है। मुझे बहुत दूर रास्ता तय करना है। जलप्रपात के कारण हवा नमीयुक्त रहती है। जलप्रपात के गिरने से कुंड जैसा प्रतीत होता है। जब आप सीढिय़ों से नीचे उतरने लगते हैं, तो आपको ऐसा लगे कि आप प्रकृति की गोद में उतर रहे हैं। इस वनक्षेत्र में अनेक प्रकार की वनौषधियां प्राप्त होती हैं, जैसे- सफेद मूसली, काली मूसली, भोजराज, कामराज, वायविंडग, बच, बाम्ही, केउकंउ, बिदारीकंद, भईआंवला, भईचम्पा, भईनीम, पाताल कुम्हड़ा, शतावर आदि। कुछ प्रजातियां लुफ्त हो रही हैं, जैसे कीटभक्षी पौधा, सनउयू, तून, पारसपीपल, धूई आदि। वन्य प्राणी भी पाए जाते हैं, जैसे-तेंदुआ, कोटरी, भालू जंगली सूअर, बंदर, चीतल, साही, खरगोश, कहट आदि।उल्टा पानीयहीं पर एक लोकप्रिय जगह उल्टा पानी है, जहां पहाड़ी पर पानी नीचे से ऊपर ही ओर बहता है। साथ ही बंद गाडिय़ां अपने आप ऊपर की ओर धीरे-धीरे बढऩे लगती है। यहां के इस अद्भुत आश्चर्य पर अनेक शोध हो रहे हैं।देवप्रवाह (जलजली)यह एक प्राकृतिक झील है जो आगे चलकर एक लहरदार नयनाभिराम नाले का रूप धारण करती हुई 80 फीट उंचाई से गिरते हुए झरना रूप धारण करती है। सबसे अच्छी बात यह है कि इस झील के ऊपर मिट्टी और जलीय पौधों के जमावा के कारण आप इसके ऊपर उछलकूद सकते हैं। यह आप को साकअप (स्प्रिंग) जैसे ऊपर की ओर उछालती है।बौद्धमठ और तिब्बती संस्कृतिमैनपाट छत्तीसगढ़ी और तिब्बती संस्कृति का मिला जुला रूप है। इस पवित्र स्थल पर बौद्ध मंदिरों का निर्माण वास्तुकला के अनुसार किया गया है तथा पूजा-अर्चना भी पंरपरागत बौद्ध संस्कृति के अनुरूप की जाती है। हमें यहां जाने से पता चला कि तिब्बती लोगों का त्यौहार जनवरी- फरवरी के मध्य मनाया जाता है जिसे कार्निवल ऑफ मैनपाट कहते हैं। इस त्यौहार का इंतजार पूरे साल लोगों को रहता है। इस त्यौहार को गौतम बुद्ध और दलाईलामा से संबंधित होने के कारण तिब्बती खूब धूमधाम से मनाते हैं।रीति-रिवाज के तहत यहां तिब्बती वस्त्रों के बड़े-बड़े झंडे व तोरन लगाते हैं। यहां अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाने को मिलते हंै। इसमें मोमो विश्व प्रसिद्ध है। बौद्ध मंदिर के दर्शन के बाद हम लोग स्थानीय बाजार घूमने के लिए निकल पड़े। बाजार में बहुत से तिब्बती पारंपरिक वेशभूषा में नजर आए। उनके मन में छत्तीसगढ़ के लिए जो सम्मान देखा, वो काबिले तारीफ है। मैंने एक वृद्ध महिला से कुछ जानकारी हासिल ली। उन्होंने बताया कि वो सन 1962 में 20 वर्ष की आयु में जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया था, अपने साथियों के साथ भारत आई थी। 54 वर्ष से वह मैनपाट में निवास कर रही है। उसके द्वारा बताया गया कि यहां सात कैंप हैं, जिनमें लगभग 2000 हजार तिब्बती निवासरत हैं। लोग आज भी तिब्बती संस्कृति व धर्म को मानते हैं। पैगोड़ा शैली में बने मठ हैं, जिनमें गौतम बुद्ध व दलाईलामा से संबंधित व महत्वपूर्ण दिवसों पर एवं उनके जन्मदिवस पर सप्ताहभर उत्सव मनाया जाता है। इनके मुख्य नृत्य याकॅ नृत्य, स्नोलाइन नृत्य, क्षेत्रीय लोकनृत्य इत्यादि हैं।मैनपाट में ऊनी वस्त्रों, कालीन और गलीचों का निर्माण किया जाता है। यह एक सहकारी संस्था के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में भेजे जाते हैं। इसके अतिरिक्त तिब्बती नस्ल के कुत्ते बाजार में आसानी से खरीदे जा सकते हैं। सोमवार को कम्लेशपुर बसस्टैंड के पास साप्ताहिक बाजार लगता है। इसमें यहां अनेक जड़ी बूटियां, महुआ, शुद्ध शहद, कालीन व रोजमर्रा की वस्तुएं उपलब्ध होती हंै।मैनपाट में तीन दिन रहने के बाद भी हमारा यहां से मन नहीं भरा था, लेकिन जिंदगी कहां एक जगह पर ठहरती है। एक असीम आनंद और अनुभूति लेकर हमारा कारवां वापस रोजमर्रा की आपाधापी के लिए मैनपाट से निकल पड़ा। -
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- 29 जुलाई पुण्यतिथि पर विशेष
- आलेख -मंजूषा शर्मा
हिंदी फिल्मों में जब भी अच्छे कॉमेडियन की बात चलती है तो उनमें जॉनी वॉकर का नाम प्रमुखता से शामिल किया जाता है। उनको इस दुनिया से विदा हुए 17 साल हो गए हैं, लेकिन अपनी फिल्मों के जरिए वे आज भी हमें हंसाते और गुदगुदाते रहते हैं।जॉनी वाकर वास्तव में हिंदी फिल्म जगत के हास्य सम्राट थे। जॉनी को फिल्म में लाने का श्रेय बलराज साहनी को जाता है। जब वे फिल्म बाजी की कहानी लिख रहे थे, तब एक ऐसे हास्य कलाकार की जरूरत महसूस हुई, जो एक विशेष चरित्र में पटकथा के साथ सही मायनों में न्याय कर सके। एक दिन उनकी नजर एक बस कंडक्टर बदरुद्दीन पर पड़ी, जो यात्रियों को हंसाने में लगा था। बस फिर क्या था, वे उसे लेकर गुरु दत्त के पास पहुंचे। गुरु दत्त ने उन्हें तुरंत अपनी फिल्म के लिए फाइनल कर लिया। बाजी फिल्म से ही गुरुदत्त और जॉनी वाकर की जोड़ी हिट हुई थी और दोनों ने इस दोस्ती को आखिरी दम तक बनाए रखा। जॉनी कहा करते थे कि अगर गुरु दत्त नहीं होते, तो मैं बस कंडक्टर ही रह जाता।जॉनी वाकर का जन्म 1925 में इंदौर में हुआ था और उनका वास्तविक पूरा नाम बदरुद्दीन काजी था। वे 1942 में इंदौर से मुंबई आ गए थे और बतौर बस कंडक्टर काम करने लगे। हिंदी फिल्म उद्योग में बाजी फिल्म से स्थापित होने के बाद उन्होंने मधुमती, प्यासा, नया दौर, सीआईडी और मेरे महबूब में अपने अभिनय का लोहा मनवाया था। उन्हें फिल्म शिकार के लिए 1968 में फिल्मफेयर का बेस्ट कॉमेडियन अवार्ड भी मिला था। उनकी अभिनय क्षमता के सभी कायल थे और उस समय के निर्माताओं और निर्देशकों में उन्हें अपनी फिल्म में लेने की जैसे होड़ मची रहती थी। जॉनी वाकर की सफलता और लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें फिल्म में लेने के लिए विशेष तौर पर उन पर फिल्माए जाने वाले गीत बनाए जाते थे। उन पर फिल्माए गए वे दो गीत- सर जो मेरा चकराए या दिल डूबा जाए और ये है मुंबई मेरी जान आज भी लोगों की जुबान पर है।जॉनी वाकर के आदर्श थे चार्ली चैपलिन और नूर मोहम्मद। वे हास्य में अश्लीलता लाने के विरोधी थे और दूसरे संप्रदाय के लोगों की भावनाओं को आहत कर वे हास्य पैदा करने के खिलाफ थे। वे कहते थे कि ये सब लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाली ओछी हरकते हैं। असली कॉमेडी तो कठिन परिश्रम से ही आती है। फिल्मों से दूर होने के बाद वे 14 साल के अंतराल के बाद कमल हासन की फिल्म चाची-420 में एक ऐसे मेकअप आर्टिस्ट के रूप में नजर आए थे, जो युवा नायक को उम्र का पांचवा दशक पार कर चुकी महिला बनाता है।खलती थी अच्छे कॉमेडियन की कमीजॉनी वाकर को ओशीवाड़ा स्थित अपने घर के गार्डन से बहुत प्यार था। खासकर खुद के द्वारा लगाए गए जैतून और आम के पेड़ों से उन्हें बहुत लगाव था। जीवन के अंतिम दिनों में सफेद कुर्ता-पैजामा पहनने वाले जॉनी वाकर इन पेड़ों की सेवा में लगे रहते थे। इसके अलावा उन्हें एक और चिंता सताती रहती थी। वह चिंता थी बॉलीवुड के प्रतिभाविहीन होने की। बदरुद्दीन काजी उर्फ जॉनी वाकर से किसी भी व्यक्ति को मिलने का मौका मिलता, तो निश्चित रूप से वह व्यक्ति मजाक, चुटकुले और ठहाकों के लिए तैयार हो जाता, लेकिन वास्तविक जीवन में जॉनी साहब बहुत संजीदा थे। जॉनी साहब को यह सवाल अक्सर परेशान करता था कि अब बॉलीवुड में पहले की तरह कॉमेडियन पैदा क्यों नहीं होते। फिल्म इंडस्ट्री में कॉमेडियन की कमी के बारे में जब भी उनसे सवाल किया जाता, वे रोष से भर जाते थे। पलटकर पूछते थे, बताइए असली कॉमेडियन अब हंै कहां? यदि वे वास्तविक कलाकार हैं, तो उन्हें अपने आपको जिंदा रखना चाहिए, अपने दम पर अपना अस्तित्व और नाम बचाए रखने की ताकत विकसित करनी चाहिए।कुछ बातें कुछ यादेंजॉनी वाकर फिल्मों में काम करते-करते एकाएक फिल्मों से दूर हो गए थे, मगर लंबे अरसे बाद उन्हें कमल हसन निर्देशित चाची-420 में देखा गया था। फिल्म के प्रदर्शन के पहले उन्होंने एक पत्रिका को इंटरव्यू दिया था, पेश है उसके कुछ अंश-उनके मुताबिक मैं अपने समय में सभी फिल्में साइन नहीं करता था, बल्कि जिस भूमिका में मुझे अपनापन दिखता था, मैं उसे झट से साइन कर लेता था। हमारे समय में फिल्मों में काम करना आसान नहीं था। माहौल आज की तरह नहीं था, बल्कि बहुत मेहनत करनी होती थी। यदि आपका रोल सिर्फ दो दिनों के लिए है, तो पांच दिनों के लिए साइन किया जाता था और पांचों दिन मैकअप करके सेट पर बैठे रहना होता था। फिल्मों से एकाएक दूर होने के बारे में उन्होंने बताया- एक तो फिल्मों में अश्लीलता आ गई है। दूसरा मैं अपने परिवार से दूर होता जा रहा था। एक बार तो हद हो गई जब मैं शूटिंग से लौटा तो बच्चों ने पहचानने से इनकार कर दिया। तब अहसास हुआ कि फिल्मों ने मुझे परिवार से दूर कर दिया है। फिर क्या था फिल्मों से मैंने अपना किट पैक किया और फिल्मों को टाटा-बाय-बाय कह कर घर में सुकून की जिंदगी जीने का फैसला किया। फिल्मों के चक्कर में मैंने अपने बच्चों को बड़े होते नहीं देखा, मगर अब अपने नाती-पोती को बड़ा होते देखने का मोह नहीं छोड़ सकता। उन्होंने बताया कि युवावस्था में पैसा कमाने के अलावा उनका और कोई सपना नहीं था। जॉनी वाकर के अनुसार फिल्मों में मसखरे और चालबाज जैसे काम करते-करते लोग उन्हें चाचा 420 कहने लगे थे। उनके मुताबिक उन्हें दोस्तों के बीच हंसी मजाक पसंद था और फुर्सत के समय में बीते दिनों को याद करना उनका शौक था। उनके प्रिय गीतों में राजकपूर द्वारा निर्देशित फिल्म मेरा नाम जोकर का गाना जीना यहां मरना यहां.. सबसे पसंदीदा था। -
- पुण्यतिथि पर विशेष -आलेख मंजूषा शर्मा
हिंदी सिनेमा में कई ऐसी मशहूर अभिनेत्रियां रहीं जिन्होंने न सिर्फ अपनी खूबसूरती बल्कि अपने अभिनय से भी लोगों के दिलों में जगह बनाई । ऐसी ही एक अदाकारा हैं लीला नायडू। 50 और 60 के दशक में उनका काफी नाम था। पूर्व मिस इंडिया और फिल्म अनुराधा और द हाउसहोल्डर जैसी फिल्मों में सशक्त अभिनय करने वाली अदाकारा लीला नायडू का निधन आज ही के दिन वर्ष 2009 में हुआ था।लीला नायडू वर्ष 1954 में फेमिना मिस इंडिया का खिताब जीतकर चर्चा में आई। उस वक्त उनकी उम्र मात्र 14 की थी। उसी दौरान वोग मैग्जीन की दुनियाभर में 10 सबसे ज्यादा खूबसूरत महिलाओं की लिस्ट में भी लीला नायडू का नाम शामिल किया गया। इस लिस्ट में रानी गायत्री देवी भी शामिल थीं।कहा जाता है कि राजकपूर लीला नायडू की खूबसूरती के कायल हो गए थे और उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले थे। फिल्म की कहानी मुल्कराज आनंद ने लिखी। जब लीला स्क्रीन टेस्ट के लिए पहुंची को उन्हें पता चला कि फिल्म की कहानी गांव की पृष्ठभूमि की है। जेनेवा और स्विटजरलैंड में पली बढ़ी लीला गांव की जिंदगी से नावाकिफ थी। उसी दौरान राजकपूर ने लीला को बताया कि वे उन्हें अपनी चार फिल्मों के लिए साइन करना चाहते हैं। लेकिन लीला तो गांव की जिंदगी पर बनी राजकपूर की पहली फिल्म में अपने आप को एडजस्ट नहीं कर पा रही थीं। लीला को लगा कि वे इस फिल्म की भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाएंगी। आखिरकार उन्होंने फिल्म से हाथ खींच लिया। इसतरह से राजकपूर की एक नहीं बल्कि चार-चार फिल्में उनके हाथ से निकल गईं। इसी दौरान लीला ने विदेश का रास्ता पकड़ा और फिर पांच साल बाद उनकी वापसी फिल्म अनुराधा से हुई। दरअसल लीला का जन्म भले ही मुंबई में हुआ था, लेकिन उनकी दीक्षा-शिक्षा जेनेवा और स्विटजरलैंड में हुई थी। उनके पिता पट्टीपति रामैया नायड़ू परमाणु भौतिकविद थे और नोबेल पुरस्कारर विजेता मैरी क्यूरी के लिए काम कर चुके थे। .बाद में उन्होंने यूनेस्को से लेकर टाटा कंपनी में सलाहकार के पद पर भी काम किया।वर्ष 1960 में लीला नायडू विदेश से लौटी और मशहूर फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म अनुराधा से बॉलीवुड में कदम रखा। फिल्म में उन्होंने अभिनेता बलराज साहनी की पत्नी का किरदार निभाया था। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था। इस फिल्म का संगीत मशहूर सितारवादक रविशंकर ने तैयार किया था। जिसके गाने काफी लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के लता मंगेशकर के गाए दो गाने काफी मशहूर हुए- हाय रे वो दिन क्यूं न आए... और जाने कैसे सपनों में खो गई अंखिया...। दोनों ही गाने लीला नायडू पर फिल्माए गए थे।लीला को वास्तविक पहचान वर्ष 1963 में रिलीज हुई फिल्म ये रास्ते हैं प्यार के से मिली। फिल्म में उनके साथ अभिनेता सुनील दत्त हीरो थे। फिल्म की कहानी चर्चित नानावटी कांड पर आधारित थी। लीला ने बहुत कम फिल्में कीं। उन्होंने वही फिल्में स्वीकार की जिसके लिए उनका मन गवाही देता था। लीला ने मर्चेंट आइवोरी प्रोडक्शन द्वारा निर्मित फिल्म द हाउसहोल्डर में भी उन्होंने अभिनय किया, जिसका निर्देशन जेम्स आइवोरी ने किया था। फिल्म में उनकी जोड़ी शशिकपूर के साथ काफी पसंद की गई। वर्ष 1969 में द गुरू फिल्म में काम करने के बाद लीला ने फिल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया।लीला ने मात्र 17 साल की उम्र में होटल व्यवसायी तिलक राज ओबराय (टिक्की ओबराय) से शादी कर ली, जो उनसे 16 साल बड़े थे। तिलक राज मशहूर होटल ओबेराय के मालिक थे। उनकी जुड़वा बेटियां हुईं माया और प्रिया। बाद में दोनों में तलाक हो गया। ओबेराय ने दोनों बेटियों की कस्डटी ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपने बचपन के मित्र और साहित्यकार डॉम मॉरिस से शादी कर ली एवं हांगकांग चली गईं। दस वर्ष वहां बिताने के बाद वे फिर भारत वापस आ गईं। 1985 में श्याम बेनेगल की फिल्म त्रिकाल से इन्होंने हिंदी फिल्मी दुनिया में फिर प्रवेश किया। 1992 में प्रदीप कृष्णन द्वारा निर्देशित फिल्म इलेक्ट्रिक मून में इन्होंने आखिरी बार अभिनय किया था।लीला नायडू की निजी जिंदगी उथल-पुथल भरी रही। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने खुद को सभी से अलग कर लिया और गुमनाम जिंदगी बिताने लगीं। आर्थरायटिस की बीमारी के कारण उनका चलने-फिरना भी लगभग बंद हो गया था। इसी दौरान आर्थिक तंगी से भी वे परेशान रहीं। आखिरकार उन्हें अपने घर में किराएदार रखने पड़े। 2009 में उन्हें इन्फ्लूएंजा की बीमारी हुई जिसकी वजह से उनके फेफड़ों ने काम करना बंद कर दिया। 28 जुलाई 2009 को उन्होंने इस संसार को गुमनामी में ही अलविदा कह दिया। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) -
- पुण्यतिथि पर विशेष
आज भी जब हास्य फिल्मों की बात होती है, तो इसमें फि़ल्म जाने भी दो यारो का नाम भी होता है। इसी फिल्म के एक कलाकार रवि वासवानी की आज पुण्यतिथि है। 27 जुलाई 2010 को दिल का दौरा पडऩे से शिमला में उनका निधन हो गया। उस वक्त वे 64 साल के थे।उन्होंने 1981 में फि़ल्म चश्मेबद्दूर से अपने फि़ल्मी कॅरिअर की शुरुआत की थी। जाने भी दो यारो और चश्मेबद्दूर जैसी फि़ल्मों में रवि वासवानी के अभिनय को काफी सराहा गया। रवि का जब निधन हुआ, वे एक फिल्म पर काम कर रहे थे। वे अपनी ही फिल्म जाने भी दो यारो जैसी महान ऐतिहासिक फि़ल्म की अगली कड़ी बनाने के लिए वो हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में पहुंचे थे। इसके अलावा रवि वासवानी हिमाचल में अपनी पहली फि़ल्म का निर्देशन करने के लिए भी आए थे, लेकिन 27 जुलाई 2010 की शाम शिमला से दिल्ली लौटते हुए उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे अपना काम अधूरा छोड़कर ही इस दुनिया से चले गए।चश्मे के पीछे वो लंबूतरा चेहरा, बड़ी और हैरानी से फैली हुई सी आंखें, लंबा कद और व्यक्तित्व का ऐसा निरालापन की उनमें लोगों को हमेशा एक आम इंसान ही नजर आया। यही उनके अभिनय की सहजता भी थी।रवि वासवानी सिनेमा में हास्य और विद्रूप और विडंबना और मार्मिकता के अभिनय की उस महान कलाकार बिरादरी का हिस्सा थे जो चार्ची चैप्लिन से शुरू होती थी। वे हिंदी सिनेमा में अपने ढंग के चैप्लिन थे। उन्होंने बेशुमार ताबड़तोड़ फि़ल्में नहीं की, लेकिन जितनी की और जैसी भी भूमिका निभाई उसमें अपनी छाप छोड़ दी। किरदार की जटिलता तनाव और ऊंच-नीच को रवि वासवानी जज़्ब कर लेने के माहिर अभिनेता थे।जाने भी दो यारो फिल्म में अपने हास्य किरदार के लिए उन्हें 1984 में फि़ल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। वासवानी को उनके विनोदी स्वभाव और बेहतरीन कॉंमिक टाइमिंग के लिए जाना जाता था। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे वासवानी ने कभी घर नहीं बसाया। उन्होंने 30 से भी ज़्यादा फि़ल्मों के साथ-साथ कुछ टीवी धारावाहिकों में भी काम किया था।रवि का व्यक्तित्व बंजारा किस्म का था। वे हमेशा ख़ुश रहने वाले और दूसरों की मदद के लिए तैयार रहने वाले इंसान के रूप में पहचाने जाते थे। रवि वासवानी ने बंटी और बबली , प्यार तूने क्या किया जैसी कई सफल हिंदी फि़ल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में भी काम किया। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) -
- जन्मदिन पर विशेष
हिन्दी फिल्म जगत में जब भी देशभक्तिपूर्ण फिल्मों का जिक्र होता है, तो सबसे पहले भारत कुमार यानी मनोज कुमार ही याद किए जाते हैं। उनकी फिल्मों ने अपने दौर में एक अलग ही पहचान बनाई थी। मनोज कुमार की फिल्मों की कहानी , उसका संगीत ्आज भी कालजयी कहलाते हैं।हरिशंकर गिरि गोस्वामी यानी मनोज कुमार आज अपना 83 वां बर्थडे सेलिब्रेट कर रहे हैं। उनके नाम के साथ अनेक हिट फिल्में जुड़ी हुई है। भगत सिंह के जीवन पर आधारित शहीद फिल्म के बाद देशभक्ति आधारित फिल्मों में उनका खूब नाम हुआ। एक लंबे समय तक बॉलीवुड पर राज करने वाले मनोज कुमार को उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपडा और मकान, क्रांति, नील कमल, हरियाली और रास्ता, वो कौन थी, हिमालय की गोद में, दो बदन और शोर जैसी फिल्मों के लिए जाना जाता है। उन्हें भारत कुमार के नाम से अधिक पहचान मिली है, क्योंकि अपनी ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने अपना नाम भारत ही रखा।मनोज कुमार का जन्म का जन्म 24 जुलाई 1937 को ऐबटाबाद (पाकिस्तान) में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया और फिर मुंबई। जब उन्होंने फिल्मी दुनिया में कदम रखा तो वे दिलीप कुमार साहब से बहुत प्रभावित थे। दिलीप कुमार से ही प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी नाम हरिशंकर गिरि गोस्वामी से मनोज कुमार रखा और इसी नाम ने उन्हें अपार सफलता, लोकप्रियता दिलाई।मनोज कुमार ने अपने बॉलीवुड करिअर की शुरुआत डायरेक्टर लेखराज भाकरी की 1957 में आई फिल्म फैशन से की थी, लेकिन ये बात कम ही लोग जानते हैं कि लेखराज भाकरी असल जिंदगी में मनोज के रिश्तेदार ही थे। अपनी पहली फिल्म मनोज ने 80 साल के एक भिखारी का किरदार निभाया था। फिल्म सफल नहीं रही तो मनोज कुमार को किसी ने खास नोटिस भी नहीं किया। आखिरकार फिल्म शहीद से उन्हें सही पहचान मिली । इस फिल्म में उन्होंने भगत सिंह के रोल में जैसे जान ही डाल दी थी। यह फिल्म सुपर हिट हुई और मनोज कुमार भी निर्माता-निर्देशकों की पसंद बन गए। यहां तक भगत सिंह की असली मां विद्यावती भी मनोज कुमार को भगत सिंह के रूप में देखकर बोली थीं कि मेरा बेटा ऐसा ही लगता था।मनोज कुमार के जीवन से जुड़ी खास बातें- मनोज कुमार हवाई जहाज में सफर नहीं करते हैं। फिल्म पूरब और पश्चिम की शूटिंग के लिए हवाई जहाज में बैठने पर उनके मन में डर बैठ गया था, जिसके बाद से उन्होंने आज तक दुबारा हवाई सफर नहीं किया है।- फिल्म उपकार की प्रेरणा मनोज कुमार को तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मिली थी। दरअसल शास्त्री जी को मनोज कुमार की फिल्म शहीद बेहद पसंद आई थी जिसे देखने के बाद उन्होंने मनोज कुमार को जय जवान,जय किसान पर फिल्म बनाने का सुझाव दिया था। शास्त्री जी के सुझाव से मनोज इतने प्रभावित हुए कि शास्त्री जी से मुलाकात के बाद ट्रेन से दिल्ली से मुंबई लौटते वक्त ही उन्होंने फिल्म उपकार की कहानी तैयार कर ली थी। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुआ।- पूरब और पश्चिम से तो मनोज कुमार भारत कुमार के रूप में और भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए. इसका एक कारण यह भी था कि इस फिल्म के लिए इंदीवर ने एक गाना लिखा था- भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं। यह गीत उस समय इतना लोकप्रिय हुआ कि हर किसी की जुबान पर यह गीत चढ़ गया। आज भी यह गीत इतना लोकप्रिय है कि हमारे स्वतंत्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस पर यह रेडियो टीवी सहित स्कूल, कॉलेज आदि के समारोह में खूब गाया, बजाया जाता है।- बॉलीवुड की 16 फिल्मों में साथ काम कर चुके अमिताभ बच्चन और शशि कपूर को सबसे पहले स्क्रीन पर मनोज कुमार अपनी फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान में साथ लाए थे। इस फिल्म से पहले अमिताभ बच्चन का करिअर ढलान पर आ गया था और वो मुंबई छोडऩे का मन बना चुके थे, लेकिन मनोज कुमार ने उन्हें मुंबई छोड़ कर जाने से रोका और अपनी फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान का ऑफर दिया। फिल्म सुपर हिट हुई।- भारत कुमार के रूप में लोकप्रियता हासिल करने के बाद मनोज कुमार को सार्वजनिक जीवन में सिगरेट पीने पर एक लड़की की डांट भी सुननी पड़ी थी। एक बार मनोज कुमार ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया था। उन्होंने बताया- एक बार मैं परिवार के साथ किसी रेस्तरा में खाना खाने गया। खाने का ऑर्डर देने के बाद मैं सिगरेट पीने बैठ गया। तभी सामने बैठी एक लड़की बड़े गुस्से से मेरे पास आकर बोली- आप कैसे भारत कुमार हैं । भारत कुमार होकर सिगरेट पीते हैं। उस लड़की की यह बात सुन मैं और मेरा परिवार दंग रह गया लेकिन मैंने तभी सिगरेट फेंक दी थी।-मनोज कुमार ने देशभक्ति पूर्ण फिल्मों के अलावा ध्वनि प्रदूषण पर एक फिल्म बनाई थी- शोर। फिल्म में दिव्यांगों की जि़ंदगी की समस्याओं को भी बहुत ही संजीदगी से दिखाया गया था। फिल्म में संतोष आनंद के लिखे मधुर गीत एक प्यार का नगमा है, का जादू आज भी बरकरार है।-मनोज कुमार के पसंदीदा हीरो दिलीप कुमार थे, तो वहीं नायिकाओं में उन्हें कामिनी कौशल पसंद थी, जिनके साथ उन्होंने फिल्म शहीद में काम किया था।- मनोज कुमार को वर्ष 1992 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया था। इसके साथ ही उन्हें हिंदी सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के अवॉर्ड भी मिल चुका है।(छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)--- -
- मेहमूद की पुण्यतिथि पर विशेष
लोगों को हंसाने की विलक्षण प्रतिभा के धनी प्रख्यात हास्य कलाकार महमूद को कॉमेडी को भारतीय फिल्मों का अभिन्न अंग बनाने का श्रेय जाता है। हंसी-मजाक में बड़ी खूबसूरती से जिंदगी का फलसफा बयान करने का हुनर रखने वाले इस कलाकार ने हास्य भूमिका को नए आयाम और मायने दिये।महमूद ने भारतीय फिल्मों में महज औपचारिकता मानी जाने वाली कॉमेडी को एक अलग और विशेष स्थान दिलाया। उन्होंने कॉमेडी को एक नया स्तर और ऊंचाई देने के साथ-साथ यह भी साबित किया कि फिल्म का हास्य कलाकार उसके नायक पर भी भारी पड़ सकता है।महमूद को भारतीय फिल्मों में कॉमेडी के नए युग की शुरुआत करने वाला कलाकार माना जाता है। इस फनकार ने कॉमेडी को भारतीय फिल्मों के कथानक का अंतरंग हिस्सा बनाया। उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था कि 60 के दशक में फिल्मों पर कॉमेडी हावी होने लगी थी और महमूद अभिनय की इस विधा के बेताज बादशाह बन गए थे। महमूद ने 60 के दशक में अपने अभिनय की विशिष्ट शैली के जादू से हिन्दी फिल्मों में कॉमेडियन की भूमिका को विस्तार दिया और एक वक्त ऐसा भी आया जब महमूद दर्शकों के लिये अपरिहार्य बन गए।महमूद का जन्म 29 सितम्बर 1932 को मुम्बई में हुआ था। अपने माता-पिता की आठ में से दूसरे नम्बर की संतान महमूद ने शुरुआत में बाल कलाकार के तौर पर कुछ फिल्मों में काम किया था।बॉलीवुड में कदम रखने के लिए महमूद सभी तरह के प्रयास करते थे। महमूद ने इसके लिए ड्राइविंग तक सीख ली और निर्माता ज्ञान मुखर्जी के ड्राइवर बन गए। महमूद ने सोचा की अब उन्हें कलाकारों और निर्माता, निर्देशक के करीब जाने का मौका मिलेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही। यही से खुली महमूद की किस्मत और उन्हें दो बीघा जमीन , प्यासा जैसी फिल्मों में छोटे-मोटे रोल मिलने शुरू हो गए। 1958 में आई फिल्म परवरिश से महमूद को बड़ा ब्रेक मिला। इस फिल्म में उन्होंने राजकपूर के भाई की भूमिका निभाई थी। महमूद के अभिनय को हर किसी ने पसंद किय। इसके बाद छोटी बहन फिल्म उनके करिअर की अहम फिल्म साबित हुई। इन फिल्मों की सफलता के बाद तो महमूद के लिए बॉलीवुड के दरवाजे पूरी तरह से खुल गए। महमूद ने फिल्म गुमनाम में एक दक्षिण भारतीय रसोइये का कालजयी किरदार अदा किया। उसके बाद उन्होंने प्यार किये जा, प्यार ही प्यार, ससुराल, लव इन टोक्यो और जिद्दी जैसी हिट फिल्में दीं।बॉलीवुड में महमूद की धाक का अंदाज आप इस तरह से लगा सकते हैं कि उन्होंने अमिताभ बच्चन को पहला सोलो रोल दिया था। ये वही महमूद हैं जिन्होंने आर.डी बर्मन और पंचम दा जैसे संगीत के धुरंधरों को पहला ब्रेक दिया था। अपनी अनेक फिल्मों में महमूद नायक के किरदार पर भारी नजर आए। यह उनके अभिनय की खूबी थी कि दर्शक अक्सर नायक के बजाय उन्हें देखना पसंद करते थे।फिल्मों में अपनी बहुविविध कॉमेडी से दर्शकों को दीवाना बनाने के बाद महमूद ने अपनी फिल्म निर्माण कम्पनी पर ध्यान देने का फैसला किया। उनकी पहली होम प्रोडक्शन फिल्म छोटे नवाब थी। बाद में उन्होंने बतौर निर्देशक सस्पेंस-कॉमेडी फिल्म भूत बंगला बनाई। जिसमें उन्होंने अपने दोस्त और संगीतकार आर. डी. बर्मन को भी अभिनय करने का मौका दिया। उसके बाद उनकी फिल्म पड़ोसन 60 के दशक की जबरदस्त हिट कॉमेडी फिल्म साबित हुई। पड़ोसन को हिंदी सिने जगत की श्रेष्ठ हास्य फिल्मों में गिना जाता है। इसमें सुनील दत्त भी एक अच्छे कॉमेडी कलाकार बनकर उभरे।अभिनेता, निर्देशक, कथाकार और निर्माता के रूप में काम करने वाले महमूद ने बॉलीवुड के मौजूदा किंग शाहरुख खान को लेकर वर्ष 1996 में अपनी आखिरी फिल्म दुश्मन दुनिया बनाई , लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नाकाम रही। अपने जीवन के आखिरी दिनों में महमूद का स्वास्थ्य काफी खराब हो गया। उन्हें अनेक बीमारियां हो गई थी। वह इलाज के लिये अमेरिका गए जहां 23 जुलाई 2004 को उनका निधन हो गया। उनकी बीमारी का एक कारण उनका अत्यधिक धूम्रपान करना भी था। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)---- -
- अमर गायक मुकेश की जयंती पर विशेष
- फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाले पहले पुरुष गायक थे मुकेश
मुकेश चंद माथुर (जन्म - 22 जुलाई 1923, दिल्ली, भारत - निधन- 27 अगस्त 1976), लोकप्रिय तौर पर सिर्फ़ मुकेश के नाम से जाने वाले, हिन्दी सिनेमा के एक प्रमुख पाश्र्व गायक थे, जिनके गाने आज की पीढ़ी भी बड़े चाव से गुनगुनाती है।मुकेश की आवाज़ बहुत खूबसूरत थी पर उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने उन्हें तब पहचाना जब उन्होंने उसे अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिए रियाज़ का पूरा इन्तजाम किया। इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फि़ल्म निर्दोष (1941) में मुख्य कलाकार का काम मिला। पाश्र्व गायक के तौर पर उन्हें अपना पहला काम 1945 में फि़ल्म पहली नजऱ में मिला। मुकेश ने हिन्दी फि़ल्म में जो पहला गाना गाया, वह था दिल जलता है तो जलने दे ....जिसमें अदाकारी मोतीलाल ने की। इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक के एल सहगल के प्रभाव का असर साफ़-साफ़ नजऱ आता है। 1959 में अनाड़ी फि़ल्म के सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायन का पहला फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। 1974 में मुकेश को रजनीगन्धा फि़ल्म में कई बार यूं भी देखा है .... गाना गाने के लिए राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार मिला।60 के दशक में मुकेश का करिअर अपने चरम पर था और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नये प्रयोग शुरू कर दिये थे। उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाये गीत। 70 के दशक का आगाज़ मुकेश ने जीना यहां मरना यहां गाने से किया। उस वक्त के हर बड़े फि़ल्मी सितारों की ये आवाज़ बन गये थे। साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फि़ल्म पहचान के गीत के लिए दूसरा फि़ल्मफेयर मिला और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फि़ल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फि़ल्मफेयर पुरस्कार दिया गया।इस दौर में मुकेश ज़्यादातर कल्याणजी-आंनदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर. डी. बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। अपने उत्कृष्ट गायन के लिये ऐसा कौन सा पुरस्कार है जिसे मुकेश ने प्राप्त न किया हो। वे फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाले पहले पुरुष गायक थे। वे उस ऊंचाई पर पहुंच गए थे कि पुरस्कारों कि गरिमा उनसे बढऩे लगी थी, लोकप्रियता के उस शिखर पर विद्यमान थे जहां पहुंच पाना किसी के लिए एक सपना होता है। करोड़ों भारतवासियों के हृदयों पर मुकेश का अखंड साम्राज्य था और रहेगा।मुकेश ने विनोद मेहरा और फिऱोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी गाने गाये। 70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये जैसे— फि़ल्म धरम करम का एक दिन बिक जाएगा। फि़ल्म आनंद और अमर अकबर एंथनी की वो बेहतरीन नगमें। साल 1976 में यश चोपड़ा की फि़ल्म कभी कभी के इस शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करिअर का चौथा फि़ल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करिअर में फिर से एक नयी जान फूंक दी। मुकेश ने अपने करिअर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फि़ल्म के लिए ही गाया था। मुकेश की राजकपूर के साथ अच्छी दोस्ती थी, लेकिन उन्होंने दिलीप कुमार के लिए सबसे अधिक गाने गाए।अपने करीब 35 साल के कॅरिअर में मुकेश ने हजारों कर्णप्रिय और लोकप्रिय गाने गाए जो आज भी उतने ही हसीन लगते हैं जितने पहली बार लोगों ने इन्हें सुना था। मुकेश ने हर तरह के गीत गाए हैं - रोमांस, देशभक्ति, खुशी और गम में डुबे हुए, लेकिन जो भी गाया पूर्णता और परिपक्वता से। रियाज़ से सन्तुष्ट होने पर ही रिकार्डिंग की सहमति देते थे। मेरा नाम जोकर का कालजयी गीत, जाने कहां गए वो दिन, उन्होंने सत्रह दिनों के अभ्यास के बाद रिकार्ड कराया था। पाश्चात्य और शास्त्रीय संगीत क अद्भुत संगम है इस गीत में। मुकेश की मधुर आवाज़ में उभरते दर्द ने इसे सर्वकालिक महान गीत बना दिया है।मुकेश का निधन 27 अगस्त, 1976 को अमेरिका में एक स्टेज शो के दौरान दिल का दौरा पडऩे से हुआ। उस समय वह गा रहे थे, एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल । उस कार्यक्रम का लता मंगेशकर और नितिन मुकेश भी हिस्सा थे।- मुकेश साहब के गाए 15 लोकप्रिय गाने..
- 1. दिल जलता है, तो जलने दे
- 2. जाने कहां गए वो दिन
- 3. सावन का महीना
- 4. चंदन सा बदन चंचल चितवन
- 5. कहीं दूर जब दिन ढल जाए
- 6. कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
- 7. ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना
- 8. जीना यहां मरना यहां
- 9. तारो में सजके अपने सूरज से
- 10. कई बार यूं भी देखा है
- 11. मेरा जूता है जापानी
- 12. मेहबूब मेरे
- 13. आवारा हूं
- 14. दुनिया बनाने वाले
- 15. डम डम डिगा डिगा
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- 21 जुलाई- जन्मदिन पर विशेष
- आलेख- मंजूषा शर्मा
हिन्दी फिल्म जगत के जाने-माने गीतकार आनंद बख्शी (जन्म21 जुलाई 1930 — निधन 30 मार्च 2002) को गुजरे हुए 18 साल बीत गए हैं, लेकिन अपने गीतों के माध्यम से वे आज भी लोगों की जुबां पर जीवित हैं। यदि वे आज सशरीर जीवित होते तो यकीनन आज के माहौल के हिसाब से गीत लिख रहे होते।गीतकार आनंद बख्शी ने एक बार भारतीय गीत-संगीत के स्तर पर टिप्पणी करते हुए एक वाकये का जिक्र किया था- दो अमरीकी पत्रकारों ने मुझसे पूछा था कि उन्होंने इतनी सारी हिन्दी फिल्में देखीं पर उन्हें कहीं भी भारतीय संगीत की झलक देखने नहीं मिली?दरअसल यह बदला हुआ संगीत था , जिसमें भारतीय शब्द तो थे, लेकिन सब कुछ पाश्चात्य हो चुका था। न शब्दों की सरलता थी, न धुनें दिल को छू लेने वाली। यह आनंद बख्शी के अंदर के कवि का दुख था। रौशन, मदन मोहन, सचिन देव बर्मन, आर. डी. बर्मन , लक्ष्मी-प्यारे जैसे संगीतकारों के साथ करने के बाद बख्शी साहब नए संगीतकारों से भी यादगार धुनों की उम्मीद रखते थे। उनकी कलम से उम्दा शायरी भी निकली और जुम्मा चुम्मा दे दे, चोली के पीछे क्या है, जैसा लोगों की जुबां पर चढऩे वाला गीत भी। हालांकि उस वक्त बख्शी साहब को इन्हीं गानों की वजह से आलोचना भी सहनी पड़ी, लेकिन उनकी कलम में समय के बदलाव की झलक हमेशा दिखाई देती रही। फिल्म गदर का यह गीत - मैं निकला गड्डïी लेकर, आनंद बख्शी ने समय की नब्ज़ पहचान कर ही लिखा।जिन फिल्मी सितारों, फिल्मकारों के साथ बख्शी साहब एक बार जुड़ जाते, उनकी जोड़ी जम जाती थी। यश चोपड़ा, शक्ति सामंत, सुभाष घई राजकपूर, ऐसे कुछ नाम हैं, जिनकी फिल्मों की घोषणा होने के साथ, गीतकार का नाम भी जुड़ जाता था और वे अक्सर बख्शी साहब ही होते थे। यश चोपड़ा के साथ तो उन्होंने एक लंबी पारी खेली। बी. आर. चोपड़ा. और यश चोपड़ा जब एक साथ फिल्में बनाया करते थे, तभी से आनंद बख्शी को उन्होंने चोपड़ा खेम में शामिल कर लिया। बी. आर. और यश जब अलग हुए, तो बख्शी साहब का साथ किसी भाई ने नहींं छोड़ा। लम्हे, चांदनी, दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे, दिल तो पागल है, और मोहब्बतें। यश चोपड़ा के बैनर के लिए बख्शी साहब का लिखा हर गाना हिट होता था। यश मानते थे कि उनका इतना लंबा साथ इसलिए रहा , क्योंकि बख्शी साहब धरती के नजदीक थे। वे फिल्म की हर परिस्थिति को अच्छी तरह समझते थे। सही मायने में वे एक कवि , सिंगर थे। वे लव टु सिंग पर विश्वास रखते थे। हमने बरसों साथ काम किया और बेटे आदित्य के साथ भी बक्खी साहब उसी सहजता से जुड़े थे।आनंद बख्शी और यश चोपड़ा का साथ इसलिए भी एक अटूट बंधन में बंध गया था, क्योंकि दोनों ही पंजाब की धरती से जुड़े थे और जब- जब उनकी जोड़ी जमती, पंजाब की मिट्टïी की वह सोंधी-सोंधी और सरसों की तीखी खुशबू उनके गीतों में महसूस होने लगती। दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे पंजाबी पृष्ठïभूमि की फिल्म थी। बख्शी साहब ने खुद ये माना था कि इस फिल्म के गाने लिखने में उन्हें जितना मजा आया , उससे अधिक प्रसन्नता गीतों के फिल्मांकन को लेकर हुई। घर आ जा परदेसी तेरा देस बुलाए रे, उनका सबसे पसंदीदा गाना था।शक्ति सामंत की हिट फिल्मों में संगीत का सबसे बड़ा योगदान रहा है।। शक्ति सामंत जब भी किसी फिल्म की घोषणा करने वाले होते, पहले बख्शी के पास जाते और उन्हें पटकथा दिखाकर गाने लिखने को कहते। शक्ति सामंत, आनंद बख्शी को अपनी आधी जिदंगी मानते थे। करवटें बदलते रहे, सारी रात हम... जैसा रोमांटिक गीत और जय जय शिवशंंकर जैसा हुड़़दंगी गीत आनंद बख्शी ने राजेश खन्ना के लिए लिखा। राजेश खन्ना के वे अजीज दोस्त थे। राजेश खन्ना आज भी मानते हैं कि बख्शी साहब न सिर्फ कवि, बल्कि खुद एक कविता थे, जिसे बार-बार पढऩे को जी चाहता था।सुभाष घई जब फिल्म ताल बना रहे थे, तब उन्होंने इसके गीतों की जिम्मेदारी भी आनंद बख्शी को सौंपी। उन्होंने इस फिल्म की पटकथा दिखाते हुए कहा कि इस संगीत प्रधान फिल्म की जान इसके गीत ही हैं। आनंद बख्शी ने इस फिल्म के गीतों के साथ पूरा न्याय किया और इसी फिल्म के गानों के लिए उन्हें उस वर्ष का फिल्म फेयर, वीडियोकॉन, स्क्रीन और लक्स जी सिने अवाड्र्स मिला। मंच पर लक्स जी सिने अवार्ड लेते समय आनंद बख्शी काफी भावुक हो गए थे और उन्होंने अच्छी धुन के लिए ए. आर. रहमान को धन्यवाद भी दिया। अपना अनुभव सुनाते हुए उन्होंने बताया था कि किस तरह रहमान को उनके साथ काम करने में परेशानी आई। हालांकि रहमान के साथ काम करना उनके लिए प्रेरणादायक रहा। उन्होंने बताया- मैं जैसे ही गीत पूरा करता, रहमान उसकी धुन बनाने लग जाते। रहमान अपने चेन्नई के स्टुडियो में ही धुनें बनाया करते हैं। बख्शी साहब बार-बार चेन्नई नहीं जा सकते थे, इसलिए वे मुंबई में काम करते और रहमान चेन्नई में गाने रिकॉर्ड करते। सुभाष घई दोनों के बीच की कड़ी बनते और उन्हें बार-बार मुंबई से चेन्नई दौड़ लगानी पड़ती। यदि रहमान कोई परिवर्तन चाहते तो वे सुभाष घई को कहते और घई उनके पास दौड़े-दौड़े आते। यह काफी जटिल प्रक्रिया थी, लेकिन जब ताल का संगीत मैंने सुना तो बहुत खुशी हुई। रहमान ने उनके गीतों के साथ पूरा न्याय किया था। फिल्मांकन भी बहुत बढिय़ा हुआ था। बख्शी साहब जानते थे किए सुभाष घई इन परेशानियों से बचने के लिए कोई भी गीतकार ले सकते थे , लेकिन उन्हें क्वालिटी चाहिए थी। सुभाष घई ने ही अपनी पहली फिल्म में बख्शी साहब को मौका दिया था और वे फिर उनके साथ ऐसे जुड़े कि फिल्म यादें तक उनकी जोड़ी बनी रही । घई की प्रेरणा से ही बख्शी साहब ने कर्मा का गीत हर करम अपना सहेंगे, में हिन्दू-मुस्लिम सिख ईसाई वाला अंतरा लिखा था।आनंद बख्शी जब बयालिस साल के थे, तब राजकपूर ने उन्हें फिल्म बॉबी के लिए रोमांटिक गाने लिखने कहा था। चाबी खो जाए, मैं शायर तो नहीं, जैसे रोमांटिक गीत के साथ उन्होंने -मैं नहीं बोलना जा जैसा गंभीर गीत भी लिखा तो 50 बरस में उन्होंने सौदागर के इलु इलु गीत को अपनी कलम दी।67 बरस की उम्र में आनंद बख्शी नेे दिल तो पागल के लिए गाने लिखे। अशोका के लिए उन्होंने सन सनन सन गीत 72 वें बरस में प्रवेश करने के बाद लिखा, लेकिन आनंद बख्शी अपने आप को महाकवि तो क्या एक कवि भी नहीं मानते थे। साहिर लुधियानवी और रामप्रकाश अश्क उनके प्रेरणा स्रोत थे। ऐसा नहीं है कि आनंद बख्शी को संघर्ष नहीं करना पड़ा। वे तो निराश होकर फिल्म इंडस्ट्री ही छोड़ चुके थे, लेकिन 1957 वे फिर लौटे और जब जब फूल खिले, मिलन से उनका सितारा चमका, तो आराधना के गीतों ने उन्हें शीर्ष पर पहुंचा दिया।बख्शी साहब की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उनकी कलम ने समय की मांग को पहचाना और सिर्फ फिल्मी गीत ही लिखे। एक गीतकार के रूप में ही विकसित हुए और लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई। वे मानते थे कि शास्त्रीय संगीत और लोकधुनों पर आधारित गीत ही स्थायी रहेंगे बाकी सब उन बरसाती मकानों की तरह साबित होंगे, जो बरसात के आते ही ढह जाया करते हैं। - आलेख- डॉ. दिनेश मिश्रवरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञअध्यक्ष अंधश्रद्धा निर्मूलन समितिफोन नंबर- 9827400859E mail dr.dineshmishra@ gmail.comसावन के महीने में जब बरसात हो रही है,चारों ओर हरियाली बिखरी हुई हो, वैसा नजारा तो छत्तीसगढ़ जैसे कृषि प्रधान प्रदेश के लिये अत्यन्त महत्व का है। गर्मी के बाद बरसात की बौछारों और खुशनुमा हरियाली का स्वागत करने को सब आतुर रहते हैं। सावन में हरेली में ही जहां किसान खेती की प्रारंभिक प्रक्रियाएं पूरी कर फसल के लिये स्वयं को तैयार करते है, अपने खेतों,गाय-बैलों,औजारों की पूजा करते हैं व हरियाली का उत्सव मनाते हैं। वहीं आज भी सुदूर अंचल में अमावस्या की रात को लेकर मन ही मन आशंकित रहते हंै, जबकि वर्ष में साल भर अमावस्या हर पखवाड़े में आती है,चन्द्रमा के न दिखने के कारण रात अंधेरी होती है तथा बारिश के कारण ,हवाओं, बादलों के गरजने के कारण यह अंधेरा रहस्यमय बन जाता है जबकि इसमें रहस्य व डर जैसी कोई बात नहीं है।आज भी ग्रामीण अंचलों में हरेली अमावस्या की रात के नाम से अनजाना सा भय छाने लगता है। किसी अनिष्ठ की आशंका बच्चों, बड़ों को, पशुओं को नुकसान पहुंचने का डर, गांव बिगडऩे का ख्याल ग्रामीणों को बैगा के द्वार पर जाने को मजबूर कर देता है तथा सहमें ग्रामीण न केवल गांव बांधने की तैयारियां करते हैं, अनुष्ठान पूर्वक गांव के चारों कोनों को कथित तंत्र-मंत्र से बांधते हंै साथ ही गांवों में लोग शाम ढलते ही दरवाजे बंद कर लेते हैं। बैगा के निर्देशानुसार किसी भी व्यक्ति के गांव से बाहर आने-जाने की मनाही कर दी जाती है। कथित भूत-प्रेत, विनाशकारी जादू-टोने से बचाने के लिये नीम की डंगलियां घरों-घर खोंस ली जाती है। घरों के बाहर गोबर से आकृति बनायी जाती है। कही सुनी बातों, किस्से कहानियों के आधार पर पले-बढ़े भ्रम व अंधविश्वासों के आधार पर माहौल इतना रहस्यमय बन जाता है कि यदि हरेली की रात कोई आवश्यकता पडऩे पर घर का दरवाजा भी खटखटायें तो लोग दरवाजा खोलने को तैयार नहीं होते। जादू-टोने के आरोप में महिला प्रताडऩा की घटनाएं भी घट जाती हंै।पिछले पच्चीस वर्षो से अंचल के ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वासों एवं जादू-टोने के संदेह में होने वाली महिला प्रताडऩा, टोनही प्रताडऩा के खिलाफ अभियान चलाने के लिये हम गांवों में सभाएं लेते हैं व जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करते हैं। जिन स्थानों पर महिला प्रताडऩा की घटनाएं होती है वहां जाकर उन महिलाओं व उनके परिजनों से भी मिलते हंै। उन्हें सांत्वना देते हैं,उनसे चर्चा करते हैं व आवश्यकतानुसार उनके उपचार का भी प्रबंध करते हैं। 2200 से अधिक गांवों में सभाएं लेने के दौरान अनेक प्रताडि़त महिलाओं से चर्चा हुई,उनके दुख सुने कि कैसे अनेक बरसों से उस गांव में सबके साथ रहने व सुख दुख में भागीदार बनकर जिंदगी गुजारने के बाद कैसे वे कुछ संदेहों व बैगाओं के कारण पूरे गांव के लिये मनहूस घोषित कर दी गई। उन्हें तरह-तरह से प्रताडि़त किया गया, सरेआम बेईज्जती की गई। जब उन्होंने चिल्लाकर अपने बेगुनाह होने की दुहाई दी तब भी उनकी बात नहीं सुनी गई, उन्हें सजा दे दी गई। न ही उन्हें बचाने कोई आगे आया व न ही किसी ने उन्हें सांत्वना दी। शरीर व मन के जख्मों को लिये वे कहा-कहां नहीं भटकती रही। किसी-किसी गांवों में महिलाओं ने बताया उनके सामने जीवन यापन की मजबूरी उठ खड़ी हुई तथा अपने गांव व आस पास के गांवों में मजदूरी न मिलने के कारण भीख मांगकर काम चलाना पड़ा।डायन /टोनही के आरोप में प्रताडि़त होने वाली अधिकांश महिलाएं गरीब,असहाय,विधवा व परित्यक्ता होती है। जिन पर आरोप लगाना बैगा व उसके बहकावे में आये ग्रामीणों के लिये आसान होता है। डायन/टोनही प्रताडऩा के खिलाफ अभियान चलाते समय इन महिलाओं से जब बातचीत का अवसर मिलता है तब अपनी कहानी बताते हुए उनकी आंखें डबडबा जाती है, गला भर जाता है, आवाज रूंध जाती है उनके आंसू उनकी निर्दोषिता बयान कर देते हैं।दुर्ग जिले के खुड़मुड़ी के नजदीक एक गांव में जब हम हरेली की रात पहुंचे तब कुछ ग्रामीणों ने कहा हरेली की रात टोनही सुनसान स्थान, श्मशान में मंत्र साधना करती है व शक्ति प्राप्त करने के लिये निर्वस्त्र होकर पूजा अनुष्ठान करती है, लाश जगाती है, उसके मंत्र से चावल बाण जैसे घातक बन जाते है। ऐसी बात और भी अनेक गांवों में ग्रामीणों ने कही। तब हमने उनसे कहा कि हम रात में ही श्मशान घाट जाने को तैयार है तथा पिछले वर्षो में खुड़मुड़ी, घुसेरा, बीरगांव, मंदिर हसौद, रायपुरा सहित अनेक गांवों के श्मशान भी गये, हमारे साथ ग्रामीण भी गये, निर्जन स्थानों तालाबों के किनारे, जंगलों में गये पर सारी बातें असत्य सिद्ध हुई। न ही कहीं कोई अनुष्ठान करती महिला न ही कोई अन्य डरावनी बात। अलबत्ता खराब मौसम, तेज बारिश, तेज हवाएं, बादलों से जरूर सामना हुआ।जामगांव के पास एक गांव में जब हम रात में सभा कर रहे थे तब कुछ ग्रामीणों ने कहा हमने टोनही के संबंध में पुराने लोगों से सुना जरूर है पर देखा नहीं है। जब हमने वहां एक करीब सत्तर वर्ष के वृद्ध से बात की तब उसने भी स्वयं देखने से इंकार किया। ग्रामीणों ने बैगाओं के तंत्र-मंत्र के जानकार होने व झाड़ फूंक करने वाले बैगाओं ने तंत्र-मंत्र के जानकार होने का दावा भी किया पर कभी किसी महिला ने यह नहीं कहा कि वह कोई तंत्र मंत्र जानती है, वह जादू के छोटे से खेल भी नहीं दिखा पाती। मात्र अफवाहों व गलत सूचनाओं के आधार पर किसी महिला पर जादू टोने का संदेह करना व प्रताडि़त करने की घटनाएं घटती हैं।हरेली के संबंध में बहुत से मिथक व किस्से कहानियां हमें गांवों से सुनने को मिलती है जिसका कारण अंचल में शिक्षा व स्वास्य चेतना का अपेक्षित प्रचार-प्रसार न होना ही है जिसके कारण आज भी मनुष्य व पशुओं को होने वाली शारीरिक व मानसिक बीमारियों को जादू-टोने के कारण होना माना गया व तंत्र मंत्र व झाड़ फूंक से ही इनका निदान मानकर बैगाओं के पास जाने का विकल्प अपनाना पड़ा। गांवों में बैगा-गुनियां भी बीमारियों की झाड़-फूंक करके ठीक करने का प्रयास करते, पर बीमार व्यक्ति के ठीक न हो पाने पर सारा दोष किसी निर्दोष महिला की तंत्र-मंत्र शक्ति, जादू पर डाल देते हैं। किसी महिला को दोषी ठहरा कर उसे बीमारी को दूर करने को कहा जाता है तथा उस महिला के आरोपों से इंकार करने व इलाज करने में असमर्थता बताने पर उसे तरह-तरह से प्रताडि़त किया जाता है,पहले गांवों में विद्युत व्यवस्था व चिकित्सा सुविधा भी बिल्कुल नहीं थी। इसलिये ऐसी धारणाएं बढ़ती चली गई।कथित जादू टोने की शक्तियों से आज भी ग्रामीण अंचल में खौफ बरकरार रहता है। ग्राम जुनवानी में कुछ वर्षो पहले टोनही प्रताडऩा की एक घटना हुई थी,जिसमें बैगा के कहने पर एक महिला को घर से घसीट कर बाहर लाया गया, सार्वजनिक चौक पर उसे सरेआम पीटा गया। मैला खिलाया गया व उसे जान से मारने की कोशिश की गई। सुबह जानकारी मिलने पर हम वहां गये तथा ग्रामीणों व पंचों से चर्चा की। हमने उन्हें समझाईश देते हुए कहा यदि उस महिला में कोई चमत्कारिक शक्ति होती,जादू-टोने की ताकत होती, किसी को भी मार सकती तो क्या वह चुपचाप आप सबसे मार खा लेती उसकी सार्वजनिक बेईज्जती करना आसान होता? वह अपनी ताकत से अपने उपर पडऩे वाले प्रहारों को रोक क्यों नहीं लेती,जिसके पास ताकत होगी व न केवल अपना बचाव कर सकता है बल्कि मारपीट का प्रत्युत्तर भी दे सकता है,पर यहां कुछ ऐसा नहीं हुआ। बेचारी महिला कुछ नहीं कर पायी एवं अंधविश्वास में पड़कर अकेली औरत को गांव में मारा पीटा गया है जो बिलकुल गलत है। एक निर्दोष महिला के साथ ऐसा सलूक करना शर्मनाक है। हमारी बात सुनकर वहां सन्नाटा छा गया। भीड़ में मौजूद लोगों ने भी माना उनसे गलती हो गई है तथा हमारे कहने पर वे उस महिला को पुन: वहां रखने को तैयार हो गये। हम उस प्रताडि़त महिला से मिले,उसे व उसके परिवार को सांत्वना दी,उसके इलाज का इंतजाम किया।हम हरेली व अन्य अवसरों पर आयोजित सभाओं में बताते हैं कि सावन में, बरसात में, मौसम में नमी व उसमें के चलते तापमान में अनियमितता आती है जिसके कारण बीमारियां फैलाने वाले कीटाणु, बैक्टीरिया,वायरस तेजी से पनपने लगते हैं व संक्रमण तेजी से फैलता है। गांवों में गंदगी गड्ढों में रूका हुआ पानी,नम वातावरण,संक्रमित पानी व दूषित भोजन बीमारी बढ़ाने में सहायक होता है। नीम की डंगाल तोड़ तोड़कर घर के सामने,गाडिय़ों के सामने लगाने की बजाय नीम के पौधे लगाने की आवश्यकता अधिक है। मच्छर व मक्खियां बीमारियां फैलाने के प्रमुख कारक है। बीमारियों व उनके जिम्मेदार कारकों पर नियंत्रण के लिये तंत्र मंत्र गांव बांधने की जरूरत नहीं है बल्कि साफ सफाई से रहने, उबला हुआ पानी पीने, स्वच्छता व स्वास्थ्य के सरल नियमों का पालन करने की जरूरत है। मक्खियों व मच्छरों से अधिक खतरनाक कोई तंत्र-मंत्र नहीं हो सकता। इस कोरोना काल में जब संक्रमण के मामले बढ़ रहे हंै तब डॉक्टरों एवम सरकार के द्वारा मास्क पहिनने, आपसी दूरी बनाए रखने ,बार-बार हाथ धोने की सलाह को भी अनेक लोग नजरअंदाज कर रहे है और संक्रमण को फैलाने में मददगार बन रहे हैं। सावधानी ,वैज्ञानिक दृष्टिकोण, अंधविश्वास को न मानने से बीमारियों से बचा जा सकता है।
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योजना ले आत्मनिर्भरता अउ रोजगार के मिलही लाभ
विशेष लेखः- तेजबहादुर सिंह भुवाल
छत्तीसगढ़ मं ये बखत हरेली तिहार म खुशहाली डबल होही। राज्य शासन ह महत्वाकांक्षी योजना ‘‘गोधन न्याय योजना’’ के शुरूआत जो करत हे। गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ राज्य के सपना ला साकार करे बर छत्तीसगढ़ म पाछू साल हरेली तिहार म सामान्य छुट्टी देके प्रदेश के सबो लोगन ला भेंट दे रीहिस। ‘‘सुराजी गांव योजना’’ चालू करके किसान मन बर उखर नदाये लोक संस्कृति अउ पारंपरिक चार चिन्हारी ला वापस लाईस हे। इही योजना ला आगे बढ़ा के गोधन न्याय योजना ले किसान मन ला रोजगार के अवसर अउ आर्थिक रूप ले लाभ पहुंचाय बर चालू करत हे। गोठान म गोवंशीय अउ भैंसवंशीय पशु के पालक मन ले गोबर ला शासकीय दर 2 रूपया किलो खरीदे के शुरूआत करत हे। इही गोबर ला गुणवत्ता युक्त वर्मी कम्पोस्ट खाद बनाके 8 रूपया किलो में बेचे जाहीं। येखर बर गांव-गांव में बनाए गौठान म स्व सहायता समूह मन काम कराही। किसान अउ मजूदर मन ला ऐखर ले रोजगार अउ आर्थिक फायदा मिलही।
योजना ले जैविक खेती ला बढ़ावा मिलही, गांव अउ शहर म रोजगार घलो मिलही, गौपालन अउ गौ-सुरक्षा ला प्रोत्साहन के संगे-संग पशुपालक मन ला आर्थिक लाभ प्राप्त होही। राज्य के महात्वाकांक्षी ‘‘सुराजी गांव योजना’’ के अंतर्गत नरवा, गरवा, घुरवा अउ बाडी के संरक्षण अउ संर्वधन करे जावत हे। येखर बर सबे गांव म गौठान बनाए जाए के काम शुरू हवय।
शासन ह गोधन न्याय योजना लागू करके पशुपालक मन के आय मं वृद्धि, पशुधन विचरण अउ खुल्ला चरई म रोक, जैविक खाद के उपयोग ला बढ़ावा अउ रासायनिक खातू के उपयोग म कमी लाना चाहत हे। खरीफ अउ रबी फसल सुरक्षा होही अउ दु फसली रकबा ह बाडही, स्थानीय स्तर म जैविक खाद के उपलब्धता बनाये बर, स्थानीय स्व सहायता समूह ला रोजगार दे बर, भुइंया ल अउ उपजाउ बनाए बर, विष रहित अन्न उपजाए बर अउ सुपोषण ल बढ़ाए बर जोर देवत हे। गोठान में स्व सहायता समूह द्वारा कई प्रकार के सामग्री बनाए जाही। ऐमा दुग्ध, सब्जी, वर्मी खाद अउ गोबर ले कई प्रकार के समान बना के बेचे जाही।
हमन सभे झन जानथन की देश मा कोरोना वायरस महामारी के आये ले रोजगार, काम-बूता के कमी होगे हे। बड़े संख्या मा मजदूर भाई मन हा अलग-अलग शहर में कमाये-खाये बर गे रीहिस। उहा ले ओमन वापस गांव आवत हे। ओ मन आ तो गे हे फेर काम-बूता बर चिन्ता-फिकर सतावत हे। छत्तीसगढ़ सरकार हा सबेझन के दुख-दर्द दूर करे बर हर संभव प्रयास करते हे। गांव-गांव मा मजदूर मन के पंजीयन करावत हे, जेखर ले ओखर मन बर पर्याप्त काम-बूता दे सकय। मजदूर मन बर उखर योग्यता के अनुसार काम दे जाही। राज्य के महत्वाकांक्षी योजना नरवा, गरूवा, घुरूवा व बाडी के माध्यम से मनरेगा अउ स्व सहायता समूह में सबे ला जोड़े के काम चलत हे। ऐखरे सगे-संग गोधन न्याय योजना से गोठान मा बड़े संख्या मा रोजगार उपलब्ध कराये जाही। कोनो मजदूर, किसान ला गांव-शहर छोड़ के जाए के जरूरत नई पड़ये। सभे झन ला पर्याप्त काम-बूता मिलही।
त बताओ संगवारी हो ये सब खुशी मिलही त हमर पहिली हरेली तिहार ला बने मनाबो ना। तिहार ला खेती-किसानी के बोअई, बियासी के बाद बने सुघ्घर मनाबो। जेमा नागर, गैंती, कुदारी, फावड़ा ला चक उज्जर करके अउ गौधन के पूजा-पाठ करके संग मा कुलदेवी-देवता ला सुमरबो। धान के कटोरा छत्तीसगढ़ महतारी ला, हमर खेती-किसानी के उन्नति अउ विकास बर सुमरबो।
ऐसो गांव मा घरो-घर गुड़-चीला, फरा के संग गुलगुला भजिया, ठेठरी-खुरमी, करी लाडू, पपची, चौसेला, अउ बोबरा घलो बनही। जेखर ले हरेली तिहार के उमंग अउ बढ़ जाही। ये साल हरेली अमावस्या सावन सोमवार के पड़त हे। सब किसान भाई मन अपन किसानी औजार के पूजा-पाठ कर गाय-बैला ला दवई खवाही, ताकि वो हा सालभर स्वस्थ अउ सुघ्घर रहाय। ये दिन गाय-गरवा मन ला बीमारी ले बचाय बर बगरंडा, नमक खवाही अउ आटा मा दसमूल-बागगोंदली ला मिलाके घलो खवाये जाही। ये दिन शहर के रहईयां मन घलो गांव जाके तिहार ला मनाथे।
हरेली तिहार मा लोहार अउ राऊत मन घरो-घर मुहाटी मा नीम के डारा अउ चौखट में खीला ठोंकही। मान्यता हे कि अइसे करे ले ओ घर म रहैय्या मन के विपत्ति ले रक्षा होथे। हरेली अमावस ला गेड़ी तिहार के नाम से घलो जाने जाथे। ये दिन लईका मन बांस में खपच्ची लगाके गेड़ी खपाथे। गेड़ी मा चढ़के लईका मन रंग-रंग के करतब घलो दिखाते अउ लईका मन अपन साहस और संतुलन के प्रदर्शन घलो करथे। राज्य शासन हा पाछू साल ले गांव मा विशेष आयोजन करत हे, जेमा गांव मा लईका मन बर गेड़ी दउड़, खो-खो, कबड्डी, फुगड़ी, नरियल फेक अउ सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन घलो करे जाथे।
छत्तीसगढिया मन ल हरेली तिहार के गाड़ा-गाड़ा बधई, जय छत्तीसगढ़ महतारी। - -मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम का मुफलिसी में बीता उम्र का अंंतिम पड़ाव(पुण्यतिथि पर विशेष)नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वालेये दुआ मांगते हैं नैन ये रोने वालेनींद उड़ जाए तेरी..ये गीत 1968 में आई फिल्म जुआरी का है। इस गीत को आवाज़ देने वाली हिन्दी फिल्मों की मशहूर गायिका मुबारक बेगम की आज पुण्यतिथि है। मुबारक बेगम का एक और गाना काफी लोकप्रिय रहा- कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी...। आज से चार साल पहले 18 जुलाई 1916 को मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम में अंतिम सांस ली।मुबारक बेगम जिनकी आवाज़ सुनकर बिजलियां कौंध जाती हैं, दिल थम जाता है। 1950 से 1970 के बीच उनकी आवाज़ से हिंदी सिनेमा की गलियां रोशन थीं। उस दौर में शंकर-जयकिशन, खय्याम, एसडी बर्मन जैसे बड़े संगीतकारों के सुरों के साथ अपनी जादुई आवाज़ घोली।1950 और 60 के दशक में मुबारक बेगम की सुरीली आवाज का जादू चला। उन्होंने हमराही, हमारी याद आएगी, देवदास, मधुमती, सरस्वतीचंद्र जैसे कई हिट फिल्मों के गाने गाए। उम्र के अंतिम पड़ाव में मुबारक बेगम के दिन काफी मुफलिसी में बीते। उम्र की बीमारियों ने उन्हें जकड़ लिया और उनके बेटे के पास उनके इलाज के लिए पैसे नहीं थे। टैक्सी चलाकर वह किसी तरह अपने परिवार का खर्च चला रहा था। .बेटी के निधन के बाद से मुबारक बेगम की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी। उन्होंने लोगों से मदद मांगी, सरकार को से भी गुहार लगाई। कुछ मदद मिली भी, लेकिन वह काफी नहीं थी। आखिरकार सुनील दत्त ने उनकी मुश्किल को समझा और अपने प्रभाव का उपयोग कर जोगेश्वरी में सरकारी कोटे से उनको एक छोटा-सा फ्लैट दिलवा दिया। उन्हें सात सौ रुपये माहवार की पेंशन भी मिलने लगी। मुबारक बेगम की आवाज के दीवाने दुनियाभर में फैले हुए हैं। उनकी दयनीय हालत देख उनके प्रशंसक कुछ न कुछ रुपये हर महीने उन्हें भिजवाते रहे। आखिर सात सौ रुपये महीने में गुजारा कैसे संभव था। बेटा टैक्सी चलाने लगा। पड़ोसी विश्वास नहीं कर पाते कि यह बूढ़ी, बीमार और बेबस औरत वह गायिका है जिसके गीत लोगों को दीवाना बना दिया करते थे। आखिरकार 18 जुलाई को वे इस दुनिया से ही रुखसत हो गईं।मुबारक बेगम के बारे में कहा जाता है कि वे पढ़ी- लिखी नहीं थीं, लेकिन गाने को इसकदर कंठस्थ कर रिकॉर्डिंग किया करती थीं कि कहीं कोई चूक नहीं हो पाती थी। मुबारक बेगम जब बुलंदियों को छू रही थीं तभी फि़ल्मी दुनिया की राजनीति ने उनकी शोहरत पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया। मुबारक को जिन फि़ल्मों में गीत गाने थे, उन फि़ल्मों में दूसरी गायिकाओं की आवाज़ को लिया जाने लगा। मुबारक बेगम का दावा है कि फि़ल्म जब जब फूल खिले का गाना परदेसियों से ना अंखियां मिलाना उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया, लेकिन जब फि़ल्म का रिकॉर्ड बाजाऱ में आया तो गीत में उनकी आवाज़ की जगह लता मंगेशकर की आवाज़ थी। यही घटना फि़ल्म काजल में भी दोहराई गयी। और सातवां दशक आते आते मुबारक बेगम फि़ल्म इंटस्ट्री से बाहर कर दी गयीं। 1980 में बनी फि़ल्म राम तो दीवाना है में मुबारक का गाया गीत सांवरिया तेरी याद में उनका अंतिम गीत था। करीब सवा सौ फि़ल्मों में अपनी आवाज़ का जादू जगाने वाली मुबारक बेगम को कभी कोई बड़ा फि़ल्मी पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला, क्योंकि वे तो काम के प्रति समर्पित , निश्छल थी और राजनीति करना नहीं जानती थीं।. (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- जन्मदिन पर विशेष-आलेख- मंजूषा शर्माये जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया, प्यार ही में खो गया, लता मंगेशकर का यह मशहूर गाना फिल्म अनारकली का है। इस गाने को जब भी याद किया जाएगा, फिल्म की नायिका बीना राय भी कहीं न कहीं जेहन में होंगी। बला की खूबसूरत बीना राय ने अनारकली के रोल में उस वक्त ऐसा रंग जमाया कि उनका कॅरिअर ऊंचाइयों पर पहुंच गया।हालांकि इस फिल्म के कुछ साल बाद के. आसिफ ने मुगले आजम फिल्म में एक्ट्रेस मधुबाला ने अनारकली का रोल निभाया और बहुत से मामलों में यह फिल्म अनारकली से बेहतर साबित हुई। लेकिन नन्दलाल जसवंत लाल की फिल्म अनारकली और नायिका बीना राय को कभी भुलाया नहीं जा सकता और न ही सी. रामचंद्र के सुमधुर संगीत को। 1953 में बनी इस फिल्म में बीना राय के अपोजिट प्रदीप कुमार हीरो थे। तिरछी चितवन और खूबसूरत बोलती उनकी आंखों ने बहुत से दिलों को घायल किया था।पांचवें दशक के आसपास की बात है। अठारह वर्षीया कृष्णा सरीन को निर्माता-निर्देशक किशोर साहू ने अपनी फिल्म काली घटा में दो अन्य युवतियों के साथ पेश किया। इन दो युवतियों में इंद्रा पांचाल किशोर साहू से झगड़ कर इस फिल्म के बाद बॉलीवुड ही छोड़ गई और दूसरी आशा माथुर ने चंद फिल्में करने के बाद निर्माता-निर्देशक मोहन सहगल से शादी कर ली। काली घटा में काम करने वाली युवती कृष्णा सरीन बाद में बीना राय के नाम से हीरोइन बनकर लंबे समय तक लोकप्रिय रहीं।उनकी पहली फिल्म काली घटा ने अभिनय की दृष्टि से कोई कमाल नहीं किया, लेकिन मासूम चेहरे वाली बीना राय ने दर्शकों के दिल में अपनी एक जगह जरूर बना ली। इस फिल्म के तुरंत बाद ही बीना राय ने औरत फिल्म साइन की, जिसमें उनके नायक प्रेमनाथ थे। दरअसल, जिन दिनों औरत का निर्माण चल रहा था, प्रेमनाथ अपने जमाने की हीरोइन मधुबाला के साथ पहले से ही तीन-चार फिल्में कर रहे थे। पत्र-पत्रिकाओं के गॉसिप कॉलम प्रेमनाथ व मधुबाला के इश्क के चर्चे से भरे रहते थे। बहुत से लोगों को यह यकीन था कि प्रेमनाथ और मधुबाला जल्दी ही विवाह बंधन में बंध जाएंगे, लेकिन तभी औरत फिल्म ने अपना कमाल दिखाया और बीना राय की सादगी पर प्रेमनाथ मुग्ध हो गए। मधुबाला पीछे छूट गई। हालांकि मधुबाला से अलगाव की एक वजह थे उनके पिता पठान अताउल्लाह खां।जिस समय बीना राय ने औरत की शूटिंग आरंभ की, वे बॉलीवुड के लिए बिल्कुल नई थीं , जबकि पृथ्वी थियेटर की देन अभिनेता प्रेमनाथ सन् 1948 में पहली गोवाकलर फिल्म अजीत में हीरो बनकर आए। जीजा राजकपूर ने उन्हें अपनी फिल्म आग और उसके बाद बरसात में लिया। इस फिल्म से वे चर्चा में आए और सफल नायकों में शुमार हो गए। औरत फिल्म की शूटिंग के दौरान प्रेमनाथ बीना राय का लंच शेयर करते।उस समय शूटिंग के दौरान सभी का खाना निर्माता अरेंज करते थे, जो बाहर से आता था, लेकिन प्रेमनाथ उसे न खाकर बीना राय के लाए खाने को तवज्जो देते। धीरे-धीरे इस निकटता पर प्रेम का रंग चढऩे लगा। शूटिंग के दौरान दोनों का ज्यादा वक्त साथ-साथ बीतता और उसके बाद घंटों फोन पर बातें होतीं। आखिरकार 1953 के अप्रैल में प्रेमनाथ बीना राय के पति बन गए। इस शादी ने बॉलीवुड को चौंका दिया। बीना राय के साथ ने प्रेमनाथ पर कुछ ऐसा जादू डाला कि वे पहली ही फिल्म में न सिर्फ दिल दे बैठे, बल्कि उन्हें दुल्हन बनाकर अपने घर भी ले आए। सच तो यह है कि यह वैवाहिक बंधन बीना राय के लिए बहुत लकी रहा। शादी के बाद फिल्म अनारकली में उनके किरदार ने देश भर के दर्शकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी। बॉलीवुड के बहुत से लोगों का यह मानना था कि यदि बीना राय की शादी से पहले अनारकली रिलीज हुई होती, तो यह रिश्ता यूं न जुड़ता। न ही बीना राय इतनी शीघ्रता से दिलफेंक प्रेमनाथ के गले में वर माला डालतीं!बीना राय के अनारकली बनने की कहानी भी दिलचस्प है। उन दिनों के. आसिफ ने अनारकली और सलीम की प्रेम कहानी पर आधारित फिल्म मुगल-ए-आजम की जोर-शोर से शुरुआत की थी। फिल्म में मधुबाला और दिलीप कुमार लीड रोल में थे। पर किसी न किसी कारण फिल्म की शूटिंग आगे बढ़ रही थी। इसी दौरान एक छोटे फिल्मकार नन्दलाल जसवंत लाल ने सलीम -अनारकली की कहानी को लेकर अनारकली फिल्म का निर्माण शुरू किया। सलीम बने प्रदीप कुमार और अनारकली का रोल बीना राय के हिस्से में आया। संगीत सी. रामचंद्र तैयार कर रहे थे। फिल्म जल्द बनकर तैयार हो गई और प्रदर्शन के साथ ही फिल्म ने हर मायने में अपना लोहा मनवा लिया। फिल्म के गाने और बीना राय की खूबसूरती ने फिल्म को हिट बना दिया। फिल्म के एक गाने मोहब्बत में ऐसे कदम लडख़ड़ाए जमाने ने समझा हम पी के आये.. में नशे में झूमती अनारकली के रूप में बीना राय की अदाकारी दिलकश और गजब की थी। लोग इस एक गीत के लिए अनारकली को देखने बार-बार गये। उस समय बीना राय के माथे पर बालों की एक घूमती लट के साथ उनका पोस्टर काफी मशहूर हुआ था। 1954-55 में बीना राय को नागिन और देवदास फिल्मों के प्रस्ताव भी मिले थे, मगर बीना राय ने दोनों बड़े प्रस्ताव ठुकरा दिये। बाद में ये दोनों भूमिकाएं वैजयंतीमाला को मिल गयीं। इन दोनों फिल्मों ने वैजयंतीमाला को टॉप पर पहुंचा दिया था।बीना राय और मधुबाला का अंतिम मुकाबला 1960 में हुआ, जब बीना राय को घूंघट और मधुबाला को मुगल-ए-आजम के लिए फिल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की श्रेणी में नामित किया गया। उम्मीद की जा रही थी कि मधुबाला यह पुरस्कार जीतेंगी, पर यह पुरस्कार बीना राय को घूंघट में अपनी पारिवारिक भूमिका के लिए मिला।बीना राय की एक और फिल्म ताजमहल 1963 में रिलीज हुई, जिसमें उनके हीरो एक बार फिर प्रदीप कुमार थे। फिल्म संगीत के लिहाज से भी लोकप्रिय रही। जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी, ....जैसे गाने काफी पसंद किए गए। इस फिल्म में बीना राय मुमताज महल की भूमिका में थीं।बीना राय की आखिरी फिल्म थी दादी मां, जो वर्ष 1966 में आई थी। इसके बाद उन्होंने हमेशा के लिए फिल्मी कैमरे को अलविदा कर दिया। अपने 18 साल के फिल्मी कॅरिअर में बीना राय ने केवल 28 फिल्में कीं, लेकिन उनका नाम उस दौर की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में गिना जाता था।शादी के बाद बीना ने अच्छी गृहणी की तरह अपना घर बार संभाला। पति की मौत के बाद उन्होंने बेटे प्रेमकिशन को अभिनेता बनने की प्रेरणा दी ,लेकिन प्रेमकिशन असफल अभिनेता साबित हुए। दूसरे बेटे मोंटी ने भी कुछेक फिल्में कीं। 6 दिसबंर, 2009 को बीना राय ने इस संसार से विदा ली। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)----
- पुण्यतिथि पर विशेष- आलेख- मंजूषा शर्माफिल्म अभिनेता प्राण, जन्म 12 फरवरी, 1920, निधन- 12 जुलाई 2013, उपलब्धियां- अनगिनत। एक अच्छे इंसान, एक अच्छे अभिनेता और एक शानदार शख्सियत। ज्यादातर लोग उन्हें एक खलनायक और चरित्र अभिनेता के रूप में ही जानते हैं। आज उनके जन्मदिन पर हम उनकी जिदंगी के कुछ अनछुए पहलुओं का जिक्र कर रहे हैं।प्राण साहब ने खलनायकी शुरू करने से पहले कुछ फिल्मों में बतौर हीरो काम भी किया। उस दौरान उनके ऊपर कई गाने भी फिल्माए गए। लेकिन वो गाने इतने लोकप्रिय नहीं हुए, कि लोग उन्हें याद रख सकें। लेकिन कई फिल्मों में खलनायक, सहायक कलाकार होने के बाद भी उन पर कई गाने फिल्माए गए हैं, जो यादगार हैं। आज उन्हीं गानों की चर्चा....प्राण साहब पर फिल्माए गए कुछ गाने मुझे जो याद आ रहे हैं, उनमें फिल्म उपकार का गाना - कश्मे वादे प्यार वफा, जंजीर- यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिंदगी, आके सीधी लगी दिल पे जैसे कटरिया... (फिल्म हाफ टिकट) इत्यादि। जहां तक मुझे याद है प्राण साहब पर कम से कम 25 गाने तो फिल्माए ही गए हैं। आज सिलसिलेवार उनकी ही चर्चा...नूरजहां के हीरो बनेवर्ष 1942 में प्राण साहब ने जब फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा तो वे हीरो बनकर आए। उन्होंने उस वक्त सोचा भी नहीं था कि वे एक दिन हीरो नहीं, बल्कि खलनायक के रूप में इतने मशहूर होंगे कि लोग अपने बच्चों का नाम भी उनके नाम पर रखना पसंद नहीं करेंगे। फिल्म 1942 में प्राण खानदान फिल्म में नूरजहां के साथ हीरो बनकर आए थे। इस फिल्म में प्राण रोमांटिक हीरो थे। हालांकि उस वक्त हीरो अपने लिए प्लेबैंक सिगिंग खुद किया करते थे, लेकिन प्राण साहब का संगीत की दुनिया से कोई वास्ता नहीं था। लिहाजा उन्होंने गाने से इंकार कर दिया और भविष्य में कभी कोशिश भी नहीं की। इस फिल्म में उनके लिए जिस गायक ने गाना गाए , उसका नाम भी उपलब्ध नहीं है। मेरा अनुमान है कि यह आवाज गुलाम हैदर की है। फिल्म में प्राण के किरदार का नाम भी प्राण ही रखा गया था। इस फिल्म में नूरजहां और प्राण पर एक रोमांटिक गाना था.... गाने के बोल उड़ जा पंछी....जिसे नूरजहां और संगीतकार गुलाम हैदर ने गाया था। फिल्म में प्राण को शहजादा जहांगीर के रूप में देखकर लगता ही नहीं, कि ये प्राण हैं। इसी गाने के बोल हैं - उड़ जा पंछी, इंसान को इंसान से आजाद कराएं , उड़ जा पंछी, जो प्राण साहब की जिंदगी के साथ आज सटीक उतरता नजर आ रहा है।शारदा के साथ रोमांटिक फिल्म कीफिल्म गृहस्थी में जो 1948 में रिलीज हुई थी, में भी प्राण पर एक गाना फिल्माया गया था जिसके बोल थे- तेरे नाज उठाने को जी चाहता है। यह गाना प्राण और शारदा पर फिल्माया गया था। फिल्म में प्राण साहब के लिए मुकेश ने गाने गाए थे। वहीं देवआनंद साहब की फिल्म मुनीम जी तक आते प्राण साहब को निगेटिव शेड्स में मजा आने लगा था। 1955 में यह फिल्म रिलीज हुई थी। फिल्म में देवआनंद और नलिनी जयवंत मुख्य भूमिकाओं में थे और प्राण खलनायक बने थे। फिल्म का एक गाना -दिल की उमंगे हैं जवान...में देवआनंद, नलिनी और प्राण पर फिल्माया गया था। जिसे हेमंत कुमार और गीता दत्त ने गाया था। फिल्म में यह गाना देवआनंद , प्राण और नलिनी जयवंत पर फिल्माया गया था, लेकिन यह पहला गाना था, जिसमें प्राण ने काफी बेसुरे तरीके से गाया था और यह आवाज किसकी है, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता, यहां तक कि इसके कैसेट या रिकॉड्र्स में भी नहीं।है आग हमारे सीने मेंराजकपूर ने जब फिल्म जिस देश में गंगा बहती है, बनाई तो उन्होंने प्राण साहब को इसमें महत्वपूर्ण रोल दिया। इस फिल्म में एक गाना- है आग हमारे सीने में ... तुम भी हो हम भी हैं दोनों हैं आमने -सामने,, में राजकपूर और पद्मिनी के साथ प्राण भी नजर आते हैं। इस गाने में प्राण के लिए मन्ना डे साहब ने अपनी आवाज दी थी। यह फिल्म 1961 में रिलीज हुई थी।प्राण का डांस करने का खास अंदाजप्राण पर फिल्माए गए मजेदार गानों में फिल्म हाफ टिकट का एक मशहूर गाना है - आके सीधी लगी दिल पे तेरी कटरिया...शामिल है। फिल्म में यह गाना किशोर कुमार ने डबल आवाज में गाया है, यानी प्राण के लिए किशोर कुमार ने गाया और लड़की की आवाज में किशोर कुमार ने खुद ही आवाज बदली। फिल्म में प्राण का डांस का अंदाज आज भी लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट ला देता है। वहीं 1963 आई फिल्म दिल ही तो है, में राजकपूर और नूतन पर एक गाने का फिल्मांकन हुआ है- तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी... में प्राण केवल यही कहते नजर आते हैं... मुश्किल होगी, मुश्किल होगी, क्या मुश्किल होगी?--कश्मे वादे प्यार वफा, सब बातें हैं बातों का क्या...प्राण साहब के यादगार गानों में 1967 में आई मनोज कुमार की फिल्म उपकार का नाम सबसे ऊपर रखा जा सकता है। इस फिल्म में प्राण ने मलंग चाचा का किरदार निभाया था। प्राण ने इस फिल्म की शूटिंग के लिए बड़ी मेहनत की। फिल्म की पूरी शूटिंग के दौरान उनका दायां पैर घुटने से बंधा रहता था। इसी फिल्म में एक अर्थपूर्ण गाना प्राण पर फिल्माया गया था जिसके बोल हैं- कश्मे वादे प्यार वफा, सब बातें हैं बातों का क्या...। इस फिल्म के बाद तो जैसे प्राण , मनोज कुमार की फिल्मों का एक अभिन्न हिस्सा ही बन गए। प्राण का कॅरिअर ग्राफ बीच में काफी नीचे पहुंच गया था, क्योंकि उस वक्त तक कई खलनायक उभर कर सामने आ रहे थे। ऐसे में मनोज कुमार ने उपकार में मलंग चाचा के रोल में प्राण को लेकर जैसे उनके कॅरिअर में फिर से जान डाल दी। फिल्म बेईमान (1972) में प्राण और मनोज कुमार पर एक गाना पिक्चाइज हुआ था- हम दो मस्त मलंग।वहीं 1969 में फिल्म नन्हा फरिश्ता में एक गाना था बच्चे में हैं भगवान.. इस गाने को तीन लोगों ने गाया था मोहम्मद रफी, मन्ना डे और महेन्द्र कपूर। यह गाना प्राण, अनवर हुसैन और अजीत पर फिल्माया गया था। इसके अलावा फिल्म विक्टोरिया नंबर 203, प्राण साहब के काफी करीब थी, क्योंकि उन्होंने इसमें काफी हटकर किरदार निभाया था। इस फिल्म में वे अशोक कुमार के साथ गाना गाते नजर आते हैं- दो बेचारे बिना सहारे फिरते हैं मारे - मारे। इस गाने में गायक महेन्द्र कपूर ने प्राण के लिए प्लैबैक सिंगिग की थी।जंजीर फिल्म से चरित्र भूमिकाएं शुरू कीवर्ष 1973 में आई फिल्म जंजीर फिल्म ने अमिताभ बच्चन को एक एंग्री यंग मैन का दर्जा दे दिया तो उनके शेरखान दोस्त यानी प्राण के कॅरिअर में चरित्र भूमिकाओं का एक नया दौर शुरू हुआ। इस फिल्म के एक गाने यारी है ईमान मेरा, का फिल्मांकन जब हो रहा था, प्राण की पीठ में जबर्दस्त दर्द था। बावजूद इसके उन्होंने इस गाने पर शानदार डांस किया, जबकि डांस के मामले में वे हमेशा कच्चे समझे जाते थे। इस फिल्म के बाद तो जैसे प्र्राण और अमिताभ की जोड़ी हिट हो गई। दोनों ने साथ में 14 फिल्में कीं। जिस फिल्म जंजीर ने अमिताभ की किस्मत बदली, वह उन्हें प्राण की सिफारिश से ही मिली थी। फिल्म शराबी में प्राण, अमिताभ के पिता के रोल में थे। अमिताभ के साथ ही उन्होंने 1974 में कसौटी फिल्म की जिसका एक गाना प्राण गाते हैं, काफी रोचक तरीके से फिल्माया गया है- हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है....। फिल्म में प्राण नेपाली की भूमिका में थे और उनके संवाद बोलने का नेपाली अंदाज काफी लोकप्रिय हुआ था।वहीं अमिताभ की ही फिल्म मजबूर में प्राण ने हेलेन के साथ -फिर न कहना माइकल दारू पीके दंगा करता है.. में जमकर ठुमके लगाए।राज की बात कह दूं तोप्राण साहब पर एक कव्वाली भी फिल्माई गई है जो काफी मशहूर हुई थी। यह कव्वाली फिल्म धर्मा की है जिसके बोल हैं- राज की बात कह दूं तो जाने महफिल में क्या ...इस गाने में प्राण साहब बिन्दू के साथ तकरार करते नजर आते हैं। इस गाने को रफी साहब और आशा भोंसले ने गाया था। फिल्म में नवीन निश्चल और रेखा मुख्य भूमिकाओं में थे।ऐसे ही कई और गाने हैं, जिसका हिस्सा प्राण साहब रहे थे। आज जब भी ये गाने बजते हैं, लोगों को प्राण साहब का चेहरा जरूर याद आता है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- जन्मदिन पर विशेषफिल्मी परदे पर सबको हंसाने वाली प्यारी टुनटुन (जन्म11 जुलाई 1923 - निधन 23 नवम्बर 2003) की आज बर्थ एनिवर्सिरी है। वे लोगों के दिलों में ऐसे छाई कि आज भी यदि कोई मोटी महिला दिख जाती है, तो लोग मजाक में उसे टुनटुन कह देते हैं। टुनटुन ने अपना कॅरिअर पाश्र्वगायिका के रूप में अपने मूल नाम उमा देवी खत्री से शुरू किया था। अफसाना लिख रही रही हूं... गीत उन्होंने ही गाया है।नूरजहां के प्रति दीवानगी और गायिकी के जुनून ने उन्हें मथुरा से मुंबई पहुंचाया। चाचा के घर में पली-बढ़ी उमा देवी की हैसियत परिवार में एक नौकर के समान थी। घरेलू काम के सिलसिले में उमादेवी का दिल्ली के दरियागंज इलाके में रहने वाले एक रिश्तेदार के घर अक्सर आना-जाना लगा रहता था। वहीं उनकी मुलाक़ात अख्तर अब्बास क़ाज़ी से हुई, जो दिल्ली में आबकारी विभाग में निरीक्षक थे। काज़ी साहब उमा देवी का सहारा बने, लेकिन वे लाहौर चले गए।इस बीच उमा देवी ने भी गायिका बनने का ख्वाब पूरा करने के लिए मुंबई जाने की योजना बना ली। दिल्ली में जॉब करने वाली उनकी एक सहेली की मुंबई में फि़ल्म इंडस्ट्रीज के कुछ लोगों से पहचान थी। एक बार जब वो गांव आई, तो उसने उमा देवी को निर्देशक नितिन बोस के सहायक जव्वाद हुसैन का पता दिया। वर्ष 1946 था और उमादेवी 23 बरस की थी। वे किसी तरह हिम्मत जुटाकर गांव से भागकर मुंबई आ गई। जव्वाद हुसैन ने उन्हें अपने घर पनाह दी। मुंबई में उमा देवी की दोस्ती अभिनेता और निर्देशक अरूण आहूजा और उनकी पत्नी गायिका निर्मला देवी से हुई, जो मशहूर अभिनेता गोविंदा के माता-पिता थे। इस दंपत्ति ने उमा देवी का परिचय कई प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से करवाया। उस समय तक अख्तर अब्बास काज़ी साहब भी मुंबई आ गए थे। 1947 में उमा देवी और काज़ी साहब ने शादी कर ली।उसके बाद उमा देवी काम की तलाश करने लगी। उन्हें कहीं से पता चला कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद करदार फि़ल्म दर्द बना रहे हैं. वे उनके स्टूडियो पहुंचकर उनके सामने खड़े हो गई। उन्होंने पहले कभी करदार साहब को नहीं देखा था। बेबाक तो वो बचपन से ही थी, उनसे ही सीधे पूछ बैठी, करदार साहब कहां मिलेंगे? मुझे उनकी फि़ल्म में गाना गाना है। शायद उनका ये बेबाक अंदाज़ करदार साहब को पसंद आ गया, इसलिए बिना देर किये उन्होंने संगीतकार नौशाद के सहायक गुलाम मोहम्मद को बुलाकर उमा देवी का टेस्ट लेने को कह दिया। उस टेस्ट में उमादेवी ने फिल्म जीनत में नूरजहां द्वारा गाया गीत आँधियां गम की यूं चली गाया। हालांकि उमा देवी एक प्रशिक्षित गायिका नहीं थी, लेकिन रेडियो पर गाने सुनकर और उन्हें दोहराकर वे अच्छा गाने लगी थी। बरहलाल, उनका गया गाना सबको पसंद आया और वो 500 रुपये की पगार पर नौकरी पर रख ली गई।जब उमा देवी की मुलाक़ात नौशाद से हुई, तो उनसे भी बेबकीपूर्ण अंदाज़ में उन्होंने कह दिया कि उन्हें अपनी फि़ल्म में गाना गाने का मौका दें, नहीं तो वे उनके घर के सामने समुद्र में डूबकर अपनी जान दे देंगी। नौशाद साहब भी उनकी बेबाकी पर हैरान थे। खैर, उन्होंने उमा देवी को गाने मौका दिया और दर्द फिल्म का गीत अफ़साना लिख रही हूं ...उनसे गवाया। यह गीत बहुत हिट हुआ और आज तक लोगों की ज़ेहन में बसा हुआ है। उस फि़ल्म के अन्य गीत आज मची है धूम, ये कौन चला, बेताब है दिल .. भी लोगों को बहुत पसंद आये।फिर क्या था , उमा देवी की गायिका के रूप में गाड़ी चल पड़ी। कई फि़ल्मी गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज़ से सजाया। 1947 में ही बनी फि़ल्म नाटक में उन्हें गाने का मौका मिला और उन्होंने गीत दिलवाले जल कर मर ही जाना गाया। फिर 1948 की फि़ल्म अनोखी अदा में दो सोलो गीत काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए, दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया और फि़ल्म चांदनी रात में शीर्षक गीत'चांदनी रात है, हाय क्या बात है, में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी। उमादेवी को गाने के मौके मिलते रहे और वो गाती रहीं। उन्होंने कई फि़ल्मों में गाने गए। उनके द्वारा गाये गए गीत लगभग 45 के आस-पास हैं।बच्चों के जन्म के साथ उनकी पारिवारिक जि़म्मेदारियां बढ़ रही थी। साथ ही लता मंगेशकर , आशा भोंसले जैसी संगीत की विधिवत् शिक्षा प्राप्त गायिकाओं का भी बॉलीवुड फि़ल्म इंडस्ट्रीज में पदार्पण हो चुका था। उमादेवी ने गायन का प्रशिक्षण नहीं लिया था। इसलिए धीरे-धीरे उनका गायन का काम सिमटता गया और एक दिन वह अपना गायन करिअर छोड़कर पूरी तरह अपने परिवार में रम गई। परिवार चलाना मुश्किल हुआ तो उमादेवी ने फिर से फि़ल्मों में काम करने का मन बनाया।वे अपने गुरू नौशाद साहब से मिली। उमादेवी फिर से फि़ल्मों में गाना चाहती थीं, लेकिन समय आगे निकल चुका था। स्थिति को देखते हुए नौशाद साहब ने उन्हें कहा, तुम अभिनय में हाथ क्यों नहीं आजमाती? उमादेवी ने अपने बेबाक अंदाज़ में उन्होंने कह दिया, मैं एक्टिंग करूंगी, लेकिन दिलीप कुमार के साथ। दिलीप कुमार उस समय के सुपरस्टार थे। इसलिए उमादेवी की बात सुनकर नौशाद साहब हंस पड़े, लेकिन इसे किस्मत ही कहा जाए कि अपने अभिनय करिअर की शुरूआत उमादेवी ने दिलीप कुमार के साथ ही की। फिल्म थी - बाबुल जिसमें हिरोइन थीं - नर्गिस। उस वक्त उमा देवी का वजन काफी बढ़ गया था। दिलीप कुमार ने ही मोटी उमा को देखकर टुनटुन नाम दिया और यह नाम हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया। फि़ल्म रिलीज़ हुई और छोटे से रोल में भी उनका अभिनय काफ़ी सराहा गय। उसके बाद आई मशहूर निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्त की फि़ल्म मिस्टर एंड मिस 55 में उन्होंने अपने अभिनय के वे जौहर दिखाए कि हर कोई उनका कायल हो गया.बाद में टुनटुन की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि फि़ल्मकार उनके लिए अपनी फि़ल्म में विशेष रूप से रोल लिखवाया करते थे और टुनटुन भी हर रोल को अपने शानदार अभिनय से यादगार बना देती थीं। 70 के दशक के बाद उन्होंने फि़ल्मों में काम करना कम कर दिया और अधिकांश समय अपने परिवार के साथ गुजारने लगी। उनकी अंतिम फिल्म 1990 में आई कसम धंधे की थी। 24 नवंबर 2003 में उन्होंने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन आज भी वे हिन्दी फिल्मों की पहली और सबसे सफ़ल महिला कॉमेडियन के रूप में याद की जाती हैं।----
- जन्मदिन विशेषमुंबई। हिंदी सिनेमा जगत के बेहतरीन अभिनेता संजीव कुमार आज जिंदा होते तो वे अपना 82 वां जन्मदिन मना रहे होते। साथ ही फिल्मों में अपने शानदार अभिनय से लोगों को प्रभावित कर रहे होतेेे। लेकिन मात्र 47 साल की उम्र में वे इस दुनिया से रुखसत हो गए। उन्होंने हर तरह की फिल्में कीं। सबसे ज्यादा जया भादुड़ी के साथ उन्हें पसंद किया। जया फिल्म इंडस्ट्री की वो एकमात्र एक्ट्रेस हैं, जो संजीव कुमार की प्रेमिका बनी, बेटी बनी और फिर बहू के रूप में भी नजर आईं। फिल्म कोशिश में संजीव और जया के अभिनय को खूब सराहना मिली थी।9 जुलाई 1938 को संजीव कुमार का जन्म सूरत में हुआ था। उनका असली नाम हरिहर जेठालाल जरीवाला था और उनके करीबी उन्हें प्यार से हरी भाई कहकर बुलाते थे। इंडस्ट्री की रवायत थी असल जिंदगी के नाम को भुलाकर पर्दे पर नए चमकते हुए नाम को बनाना और ऐसे ही सिनेमा में आने के बाद हरिहर जेठालाल दुनिया के लिए बन गए संजीव कुमार।घर खरीदने का सपना पूरा नहीं हो पायासंजीव कुमार के दौर की बात हो तो अंजू महेन्द्रू का नाम सुनाई दे ही जाता है। राजेश खन्ना से लेकर संजीव कुमार तक अंजू की करीबियां रही हैं। संजीव अंजू को मुंहबोली बहन मानते थे। एक दफा अंजू महेन्द्र ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था कि संजीव कुमार की एक इच्छा मरते समय तक भी पूरी नहीं हो सकी थी। दरअसल संजीव कुमार मुंबई में अपना एक बंगला खरीदना चाहते थे। जब उन्हें कोई बंगला पसंद आता और उसके लिए पैसे जुटाते तब तक उसके भाव बढ़ जाते। यह सिलसिला कई सालों तक चला। अंजू ने इस इंटरव्यू में कहा था- जब पैसा जमा हुआ, घर पसंद आया तो पता चला की वह प्रॉपर्टी कानूनी पचड़े में फंसी है। मामला सुलझे उससे पहले वह चल बसे। तो ऐसे रुपये होने के बावजूद संजीव कुमार मुंबई में अपने खुद के घर का सपना कभी पूरा ही नहीं कर सके।बहुत शक्की थे संजीव कुमारपर्दे पर अक्सर गंभीर किरदार निभाने वाले संजीव कुमार असल जिदंगी में भी संजीदा ही थे। इसी इंटरव्यू में अंजू महेन्द्रू ने संजीव कुमार को लेकर कई दिलचस्प बातें भी साझा की। उन्होंने कहा था- जिन महिलाओं के साथ भी उनका अफेयर रहा उन पर संजीव बहुत शक किया करते थे। उन्हें लगता था कि वे उन्हें नहीं उनके पैसों को चाहती हैं। इसी धारणा के चलते उनकी शादी नहीं हो पाई। संजीव कुमार हेमामालिनी से बेतहाशा प्यार करते थे। वहीं सुलक्षणा पंडित उनके प्यार में पागल थी। संजीव कुमार के ठुकराए जाने के बाद सुलक्षणा डिप्रेशन में चली गईं और उनका कॅरिअर खत्म हो गया। .मौत का लगा रहता था डरएक दिलचस्प बात यह भी है कि संजीव कुमार को हमेशा एक फिक्र यह भी रहती थी कि उनके परिवार में अधिकतर पुरुषों की मौत 50 की उम्र से पहले ही हुई थी। संजीव के छोटे भाई की मृत्यु भी कम उम्र में होने से उनके मन में यह बात और गहरे से बैठ गई। संजीव अक्सर अपने करीबियों से कहते थे कि वह भी जल्दी चले जाएंगे और नियति का खेल देखिए हुआ भी कुछ ऐसा ही और 6 नवंबर 1985 को 47 साल की उम्र में वह भी चल बसे।मौत के बाद रिलीज हुईं फिल्मेंसंजीव कुमार की मौत के बाद 10 फिल्में रिलीज हुई थीं। इनमें से अधिकांश फिल्मों की शूटिंग बाकी रह गई थी। कहानी में फेरबदल कर इन्हें प्रदर्शित किया गया था। 1993 में उनकी अंतिम फिल्म प्रोफेसर की पड़ोसन प्रदर्शित हुई। इसके अलावा कातिल (1986), हाथों की लकीरें (1986), बात बन जाए (1986), कांच की दीवार (1986), लव एंड गॉड (1986), राही (1986) दो वक्त की रोटी (1988), नामुमकिन (1988), ऊंच नीच बीच (1989) फिल्में उनकी मौत के बाद रिलीज हुई थीं।हम हिन्दुस्तानी फिल्म से शुरू किया संजीव ने फिल्मी सफरसंजीव कुमार ने अपने फिल्मी सफर के दौरान कई यादगार भूमिकाएं निभाई थी। उन्होंने 1960 में आई फिल्म हम हिन्दुस्तानी से फिल्मी सफर शुरू किया था। उन्होंने अनुभव (1971), सीता और गीता (1972), कोशिश (1972), अनामिका (1973), नया दिन नई रात (1974), आंधी (1975), शोल (1975), मौसम (1975), उलझन (1975), नौकर (1979), सिलसिला (1981) सहित कई सुपरहिट फिल्मों में काम किया। (छत्तीसगढ़आजडॉट विशेष)
- - ग्रीष्म ऋतु में शर्मिली, संकोची और सिमटी सी ...- बारिश में उछलती, खेलती, कूदती नवयौवना की अनंत ख्वाहिशों की तरह खिलती जलधारा....- सूर्य किरणों का प्रकाश ऐसा प्रतीत हो रहा था , जैसे सफेद धरती को सोने के आभूषणों से सजाया गया हो।-------यात्रा वृतांत: आलेख- सुष्मिता मिश्रारायपुर से 340 किलोमीटर का लंबा सफर। सुखद और रोमांचकारी। सुखद इसलिए क्योंकि चिकनी-चौड़ी सड़क पर चारपहिया में गु्रप के साथ हंसते-बतियाते रहे। ऐसा कांकेर पहुंचने तक ही रहा। उसके बाद के 147 किमी का हमारा सफर रोमांचकारी था। कांकेर में थोड़ी देर स्टे के बाद इस बचे हुए 147 किमी के सफर को हमने पूरी मस्ती के साथ ग्रीन कारपेट पर चलते हुए पूरा किया। बरसात का मौसम, हवा में नमी और कुछ नया देखने की बेसब्री ने सफर को छोटा बना दिया और हम पहुंच गए अपने नियाग्रा यानी चित्रकोट जलप्रपात। 100 मीटर की चौड़ाई में 96 फीट की ऊंचाई से पूरी वेग से गर्जना करते गिर रही मटमैली जलधारा और नीचे उफन रहे दूधिया धुएं के मिश्रण ने पूरे वातावरण को रहस्यमय बना रखा था। अद्भुत, अनोखा और नयनाभिराम। हम और हमारे साथी इंद्रावती के इस दूधिया श्रृंगार को बस निहारते रह गए।वैसे बता दें, इंद्रावती नदी में सालभर पानी रहता है। गर्मी में 100 फीट का चौड़ा पाट गायब हो जाता है, लेकिन नदी की धारा गिरती रहती है। ग्रीष्म ऋतु में नवविवाहिता के समान शर्मिली, संकोची और सिमटी सी लगने वाली यह जलधारा जून-जुलाई की बारिश में उछलती, खेलती, कूदती नवयौवना की अनंत ख्वाहिशों की तरह खिल उठती है।यही वजह है कि जुलाई से दिसंबर तक यहां पर्यटकों की खासी भीड़ रहती है। लोग चित्रकोट के उस विराट रूप से रूबरू होना चाहते हैं, जो इसे एशिया के विश्व प्रसिद्ध नियाग्रा फाल के समकक्ष बनाता है। बाद के महीनों में चित्रकोट की चौड़ाई सिमट जाती है, लेकिन सुकून उतना ही मिलता है, जितना बारिश के दिनों में। खैर, हम और हमारे साथियों ने बारिश के समय ही चित्रकोट के रौद्र रूप का दर्शन करने का प्लान बनाया था और हम पहुंचे भी। यहां पर पूरी इंद्रावती नदी अपनी पूरी चौड़ाई और वेग के साथ नीचे गिर रही थी। सन्नाटा आधा किमी पहले ही टूट चुका था। शोर ही कुछ ऐसा था। वॉटर फाल के करीब पहुंचते ही ठंडी फुहारों ने गुदगुदाना शुरू कर दिया। शरीर में ठंडी झुरझुरी से छूटने लगी। मन उत्साह से भर गया।घंटेभर तक इंद्रावती के इस नायाब देन को निहारने के बाद हमने तय किया कि नीचे कल- कल करती बह रही इंद्रावती तक पहुंचा जाए, छुआ जाए। नदी में जब उफान न हो, तब पर्यटकों को नाव में बैठने की इजाजत होती है। नाविक तैयार थे, लेकिन वे जलप्रपात के करीब जाने को तैयार नहीं थे। जैसे, तैसे कर हमने उनको मनाया और थोड़ा सा रिस्क लेकर उस आलौकिक आनंद को हासिल किया, जिसकी चाहत लेकर हम यहां पहुंचे थे। धुएं को करीब से देखा, जलप्रपात जिस स्थान पर गिरता है, वो स्थान एक कुण्ड की भांति गहरा हरा रंग लिए हुए नजर आया। चट्टान अंदर की ओर पानी की मार से कट चुकी है। उसके ऊपर दूधिया धुआं फैला हुआ था। नाविक जब उसमें प्रवेश करता है, तो ऊपर से प्रतीत होता है कि जैसे पूरी नाव पानी की गुफा में गुम हो गई हो। हमारे आग्रह पर नाविक ने कुछ हिम्मत की, लेकिन हमने ही ज्यादा रिस्क लेना ठीक नहीं समझा।चित्रकोट को निहारते हुए जब दोपहर का वक्त हुआ तो इसका सौंदर्य कुछ और निखर आया। जलकणों पर सूर्य किरणों का प्रकाश ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सफेद धरती को सोने के आभूषणों से सजाया गया हो। यहां की खासियत है इसकी रंगत। चित्रकोट जलप्रपात में उठते हुए जलकणों पर सूर्य की किरणें सुबह पड़ती हैं तो इसका इंद्रधनुषीय रंग पश्चिम में दिखाई देता है और जब यही सूर्य ेिकरणें सूर्यास्त के समय पड़ती हैं, तब यह इन्द्रधनुषीय रंग पूर्व दिशा में अवलोकित होता है। इसकी नैसर्गिक छटा देखते ही बनती है। इस मनोरम दृश्य के आस-पास के क्षेत्रों में प्राकृतिक सौंदर्य अद्वितीय है।अब बात जरा रात की। रात के समय जलप्रपात की आवाज ऐसे लगती है मानो हिमालय से अंलकनंदा प्रवाहित हो रही हो। चन्द्रमा की रौशनी से जलप्रपात ऐसा प्रतीत होता है जैसे अंधरे को चीर कर दूध की धारा आकाशगंगा से धरती पर गिर रही हो। बरसात के दिनों में इसकी छटा ऐसी बिखरती है जैसे जल की धारा को मटमैले रंगों से भर दिया गया हो। यह वही धारा है जो ग्रीष्मऋतु में श्वेत चांदी सी लगती है। रात सुकून भरी रही। रिसार्ट में नींद के आगोश में समाते तक जलप्रपात की आवाज कानों में गूंजती रही।चारों तरफ शांति, सुकून के बीच जल का कल-कल करता मधुर संगीत हमें थपकी देकर सुलाने की चेष्ठा करता रहा। थके तो थे ही, नींद आ ही गई। आखिर दूसरे दिन भोर का नजारा भी तो देखना था। दरअसल, हम जहां रुके थे, वहां से भी इसका मनमोहक नजारा दिखता है। इस जलप्रपात के करीब ही पीडब्ल्यूडी का भवन है, यहां कमरे भी हैं। इसी भवन के पीछे सुंदर लग्जरी रिसोर्ट है, जहां हम ठहरे हुए थे। यह रिसोर्ट पर्यटन मंडल का है। जिसमें एक बड़ा वातानुकूलित कान्फ्रेंस हॉल व 12 लग्जरी कमरे तथा 13 अति सुंदर एसी युक्त टेंट के साथ-साथ जलपान गृह है। जलपान गृह में आप जलप्रपात को निहारते हुए शाकाहारी तथा मांसाहारी भोजन प्राप्त कर सकते हैं।इस जलपान गृह की एक विशेषता है कि इसमें ऊपर की मंजिल से लेकर नीचे तक एक प्रमुख पिल्हर है जो आठ मजबूत पिल्हरों से जुड़ा है जो हमें एक दिन के आठों पहर का अहसास दिलाते हैं। इसकी चौबीस बड़ी-बड़ी खिड़कियां हैं, जो दिन के चौबीस घंटों को दर्शाती हैं। नीचे मंजिल में 14 खिड़कियां हमें दिन के 14 घंटे कार्यरत रहने का संदेश देती है। इसी प्रकार बड़े-बड़े द्वार हमें अपने दिन भर में कुछ बड़े-बड़े कार्य करने को प्रेरित करते हंै। इस लग्जरी रिसोर्ट से ही लगे टेंट हमें राजकीय वैभव का अहसास कराते हैं। यहां के नियम-कायदे भी सख्त हैं। सुबह जब हम इस लग्जरी रिसोर्ट के लिए अंदर जाने की कोशिश कर रहे थे, तो हमें यहां के चौकीदार ने रोक लिया। हमारी पूरी जानकारी ली तथा जांच पड़ताल कर हमें अंदर जाने दिया। हमने बुरा नहीं माना, यह जरूरी भी था। वीराने में ऐसे सर्वसुविधायुक्त रिसोर्ट ने बड़ी राहत दी।जैसे ही हम अंदर की ओर गए वहां पर बहुत बड़ा सुंदर सा हरा-भरा बगीचा देख कर ऐसा लगा मानो किसी ने हरे रंग का कालीन बिछा दिया हो। यहां इतनी हरियाली व सुंदर पुष्प है जिसकी महक से आप तरोताजा हो जाएंगे। इस रिसोर्ट के अंतिम छोर तक आप को हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। गाड़ी पार्किंग के लिए एक सुनिश्चित जगह है। हरे-भरे मधुबन से आप के लिए पगडंडी रूपी रास्ते का निर्माण किया गया है, जिससे होकर आप कमरे में जाते हैं जो अपनत्व का अहसास कराता है। बाल्कनी में बैठकर जब आप चाय की चुस्की लेते हुए इस मनोरम दृश्य को देखते हुए ध्यान से झरने की खिलखिलाहट को सुनेंगे तो आपको प्रकृति की अमर नाद सुनाई देगी। इसी रिसोर्ट में हमने रात गुजारी।ऐसे भी समझेंचित्रकोट जलप्रपात को अगर ऊपर से देखें तो आपको ऐसा लगेगा जैसे घोड़े की नाल जैसे अद्र्धचंद्राकर रूप में जलधारा प्रवाहित हो रही हो। चट्टानों को ध्यान से देखने पर ऐसा लगता है मानो भगवान ने इन्हें फुर्सत में एक के बाद एक आहिस्ते से तह लगाकर किताब के पन्नों की तरह जिल्दसाजी कर इतिहास लिखा हो।कोलकाता, ओडिशा से भीचित्रकोट की ख्याति विदेशों में भी फैली हुई है। विदेशी भी यहां आते हैं। छत्तीसगढ़ के पर्यटकों के अलावा यहां ओडिशा, कोलकाता से बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं। अगर बस्तर से सरगुजा तक टूरिस्ट सर्किट का काम होता है तो पर्यटकों की संख्या में काफी इजाफा हो सकता है। (छत्तीसगढ़ और आवाज से साभार)
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जन्मदिवस पर विशेष
आलेख- मंजूषा शर्मा-------------------नसीम बानो जिसका नाम शायद आज की पीढ़ी को मालूम भी ना हो और अगर उन्हें बताया जाए कि वे सायरा बानो की मां है, तब भी शायद उन्हें नसीम का चेहरा याद ना आए। इसे वक्त का तकाजा है कहिए या और कुछ। नसीम के जमाने के लोग अब भी उसकी खूबसूरती की याद करते हैं। वे अपने दौर की सबसे प्यारी और सुंदर अभिनेत्री थीं। उस समय अभिनेत्रियों की नेचरल खूबसूरती ही सिने पर्दे पर दिखाई देती थी और जिन्हें देखकर लगता था कि भगवान ने वाकई उन्हें फुरसत के क्षणों में बनाया है। आज के कॉस्मेटिक और प्लास्टिक सर्जरी वाले दौर की तरह नहीं, जहां सौ में से 90 फीसदी अभिनेत्रियों को इसका सहारा लेना पड़ रहा है। नसीम बानो का जन्म 4 जुलाई 1916 को हुआ था, वहीं 18 जून 2002 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा।नसीम आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन आज भी उनकी फिल्में उनके नाम को जीवित रखे हुए हैं। फिल्मों में 40 के दशक में आई नसीम उन अभिनेत्रियों में से एक मानी जाती थीं, जिनके पास प्राकृतिक सौंदर्य का भंडार था। उन्हें रजत पटल पर अपने आप को खूबसूरत दिखाने के लिए न तो सौंदर्य प्रसाधनों की जरूरत पड़ती थी आौैर ना ही सुंदर कीमती परिधानों की। खूबसूरत, बड़ी-बड़ी आंखें, पतली-पतली उंगलियां, गोरा रंग उन्हें हार्डी लेमार, एवा गार्डनर, विवियन ली और एलिजाबेथ टेलर जैसी दुनिया की रूपमती नायिकाओं की श्रेणी में शामिल करते थे।उस काल की अधिकांश नायिकाएं आर्थिक विपन्नता की कारण अभिनय क्षेत्र में आयी थीं। कुछ तो केवल प्राथमिक स्तर तक ही शिक्षित थीं। ऐसे में काफी पढ़े- लिखे और संपन्न परिवार से आई नसीम का फिल्म जगत में एक विशिष्टï स्थान बना लेना स्वाभाविक ही था। नसीम की खूबसूरती, रहन-सहन, बातचीत का सलीका, दिखावटीपन से अलग जिंदगी, लोगों को सहज ही प्रभावित कर गई। नसीम का फिल्मों में रूझान था, पर घर-परिवार इतने खुले विचारों का न था कि वह उन्हें अभिनय करने की इजाजत दे देता। फिल्मों में आना भी महज एक संयोग था। दिल्ली की नसीम स्कूल की छुट्टिïयों में बंबई आईं तो उन्हें फिल्म स्टूडियो भी देखने का मौका मिला। इसी दौरान उन्होंने फिल्म की शूटिंग भी देखी। उस वक्त वहां मोतीलाल और सबिता देवी की मुख्य भूमिका वाली फिल्म सिल्वर किंग की शूटिंग चल रही थी। नसीम को सब कुछ बड़ा सहज लगा। जाहिर है उनकी खूबसूरती ने कई निर्माताओं को आकर्षित किया और उन्हें फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव भी मिल गया। परिवार वालों के लिए स्कूल की पढ़ाई पहली प्राथमिकता रही, लेकिन नसीम ने फिल्मों में काम करने का पक्का इरादा कर लिया।उन्हें अचानक एक दिन सोहराब मोदी की फिल्म का प्रस्ताव मिला। नसीम ने परिवार वालों को मनाने के लिए भूख- हड़ताल शुरू कर दी। आखिरकार बेटी की जिद के आगे मां को झुकना पड़ा। नसीम ने वादा किया कि फिल्म में काम करने के बाद वह कॉलेज की पढ़ाई जारी रखेगी, क्योंकि उनकी मां उन्हें डॉक्टर बनाना चाहती थीं। नसीम शूटिंग के बाद दिल्ली लौटी पर कॉलेज में उन्हें प्रवेश नहीं मिला। वजह थी उनका फिल्मों में काम करना। नसीम ने फिर बंबई का रूख किया और अभिनय संसार को ही अपना लिया। खान बहादुर, मीठा जहर, वासंती और फिर आई पुकार। नसीम ने इस फिल्म में नूरजहां की भूमिका निभाई थी और चंद्रमोहन ने जहांगीर की। यह ऐतिहासिक फिल्म बहुत पसंद की गई।इस फिल्म की एक और खासियत थी- वह थी नसीम का गायिका बनना। फिल्म में अपने गाने नसीम ने खुद गाए और इसके लिए उन्होंने दो साल तक रियाज किया। इस फिल्म में उनका गाया गीत जिंदगी का साज भी क्या साज है लोगों की जुबां पर चढ़ गया। मिनर्वा मूवीटोन की फिल्म शीशमहल में उनके अभिनय की तारीफ हुई। फिल्म में नसीम ने बिना मेकअप के सादी वेशभूषा में एक गरीब परिवार की स्वाभिमानी बेटी का किरदार निभाया। इस फिल्म के बाद तो नसीम को मिनर्वा मूवीटोन की महारानी की संज्ञा दी जाने लगी। फिल्मस्तान की फिल्मों में उस वक्त बीना राय, नलिनी जयवंत की तूती बोल रही थी। इनके बीच इस बैनर की फिल्म चल-चल रे नौजवान नसीम को मिली। नायक थे अशोक कुमार। फिल्म जबरदस्त हिट हुई और नसीम 'ब्यूटी क्वीन के नाम से लोकप्रिय हो गई। शबिस्तान भी फिल्मस्तान की हिट फिल्म हुई। फिल्म में नसीम ने स्पैनिश राजकुमारी जैसी वेशभूषा धारण करके लोगों को लुभाया। इसके बाद फिल्मों का एक लंबा सिलसिला चल पड़ा।बाद की फिल्मों में कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिसमें नसीम ने अपने से 10 साल छोटे नायकों के साथ काम बड़ी सहजता के साथ किया। नसीम के पति एहसान ने निर्माता के रूप में कई फिल्में बनाई- उजाला , मुलाकातें, बेगम, चांदनी रात और अजीब लड़की सभी नसीम की झोली में आईं। इसी दौरान नसीम फिल्म जगत से सात साल तक दूर रहीं। यह समय उन्होंने योरोप में गुजारा। इस अंतराल में सुरैया, नरगिस, मधुबाला, खुर्शीद, नूरजहां, स्वर्णलता, रागिनी, सरदार अख्तर जैसी नायिकाएं आईं और अपनी जगह बनाने में सफल रहीं लेकिन नसीम का अपना एक मुकाम बना रहा। बागी और सिंदबाद जैसी सी ग्रेड की फिल्में करने के कारण नसीम की लोकप्रियता को आघात लगा। नसीम ने इसके बाद छोटी भूमिकाएं करने की बजाय फिल्मी दुनिया को अलविदा कहना ज्यादा उचित समझा। कहा जाता है गुरुदत्त अपनी फिल्म प्यासा में उन्हें एक भूमिका देना चाहते थे, पर नसीम ने इंकार कर दिया। बेटी सायरा बानो के फिल्मों में प्रवेश के बाद भी नसीम को फिल्मों के प्रस्ताव मिलते रहे, पर वे राजी नहीं हुई। यहां तक प्रसिद्घ निर्माता आसिफ को भी उन्होंने साफ मना कर दिया। आसिफ नसीम को मुख्य भूमिका में लेकर नूरजहां बनाना चाहते थे। जब उन्होंने इसका कारण पूछा गया तो उनका एक ही जवाब था- वह अपनी बेटी से तुलना पसंद नहीं करेंगी।नसीम अभिनय से भले ही अलग रहीं, पर ड्रेस डिजाइनर के रूप में वे फिल्मी दुनिया से जुड़ी रहीं। फिल्म आई मिलन की बेला में सायरा बानो द्वारा पहनी गई साड़ी जो काफी लोकप्रिय हुई, नसीम ने ही डिजाइन की थी। फिल्मी गतिविधियों से उनका जुड़ाव बाद तक बना रहा। नसीम जहां भी जातीं लोगों की निगाहें, उनकी खूबसूरती की तारीफ करती नजर आतीं। दिलीप कुमार और सायरा की शादी के वे सख्त खिलाफ थीं, पर समय के साथ उन्होंने समझौता करना सीख लिया। जीवन के अंतिम समय तक सायरा बानो ही उनके पास रहीं। नसीम के काफी करीब रहीं बेगमपारा जो दिलीप कुमार के भाई नासिर खान की पत्नी हैं, उनके जाने की खबर सुनकर मायूस हो उठीं- मुझे उनके साथ काम करने का मौका कभी नहीं मिला क्योंकि वे मेरी बहुत सीनियर थी। वे बहुत सभ्य और सुसंस्कृत महिला थीं। नसीम जितनी खूबसूरत दिखती थी उतनी ही खूबसूरत इंसान भी थीं। मेरी उनसे मुलाकात दिलीप सायरा के निकाह के बाद हुई। नसीम सिने जगत का एक परी चेहरा था। वे जहां भी जातीं, आकर्षण का केंद्र बन जाती थीं। सायरा ही उनके काफी करीब थी।संगीतकार नौशाद भी नसीम के करीबी लोगों में से एक थे। नसीम की दो फिल्मों का संगीत नौशाद ने ही दिया था। नौशाद न्हें हमेशा याद करते हुए कहते थे- नसीम को मैं एक अरसे से जानता था। मैंने जब संगीत के क्षेत्र में कदम रखा, उस वक्त नसीम सोहराब मोदी के साथ फिल्म कर रही थीं। फिल्म का नाम था-'पुकार । फिल्म के प्रचार में नसीम का परिचय दिया था- परी चेहरा-नसीम बानो। नसीम वाकई में एक खूबसूरत और उम्दा अभिनेत्री थी जिसे परी कहना ज्यादा सटीक होगा। मैंने उसकी दो फिल्मों में संगीत दिया- अनोखी अदा और चांदनी रात। जिसका निर्माण नसीम के पति एहसान ने ही किया था।नसीम का जिस्म आज कब्र में खामोश सोया हुआ है, लेकिन उनकी फिल्में और खूबसूरती हमेशा सिने प्रेमियों को उन्हें कभी दफन नहीं होने देंगी। फिल्म पुकार में उनका गाया गीत- जिंदगी का साज भी क्या साज है, बज रहा है और बे- आवाज है, का भाव आज उन पर सटीक उतरता नजर आ रहा है।----