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मौसम विभाग समय - समय पर मौसम के हिसाब से रेड, आरेंज और यलो अलर्ट जारी करता है। यह मौसम विभाग का लोगों को मौसम के बारे में सचेत करने का अपना तरीका है। इसके लिए विभाग कुछ चुनिंदा रंगों का इस्तेमाल करता है, जैसे कि रेड, आरेंज और यलो और ग्रीन अलर्ट। मौसम विभाग के अनुसार अलर्ट जारी करने के लिए रंगों का चुनाव कुछ एजेंसियों के साथ मिलकर किया जाता है।
भीषण गर्मी, सर्द लहर, मानसून या फिर चक्रवाती तूफान आदि की सूचना देने के लिए ही इस प्रकार के रंगों का इस्तेमाल लिया जाता है। जैसे- जैसे मौसम अपने चरम पर पहुंचता है, यानी तेज गर्मी, ठंड या फिर बारिश, वैसे - वैसे अलर्ट का रंग गहरा लाल हो जाता है। किसी चक्रवाती तूफान की भीषणता की सूचना भी इन्हीं रंगों के माध्यम से दी जाती है। जितना भीषण तूफान होगा, उसकी सूचना के लिए उतने ही गहरे लाल रंग का इस्तेमाल किया जाएगा।
आइये जाने इस रंगों के अलर्ट का क्या अर्थ है-
1. ग्रीन अलर्ट- यानी कहीं से कोई खतरा नहीं है।
2. यलो अलर्ट-इस रंग का अर्थ है कि खतरे से सचेत रहे। मौसम विभाग इस रंग का इस्तेमाल लोगों को सचेत करने के लिए करता है।
3. आरेंज अलर्ट- इस रंग का अर्थ है खतरा, तैयार रहें। जैसे- जैसे मौसम और खराब होता जाता है, तो यलो अलर्ट को आरेंज अलर्ट कर दिया जाता है। इसके माध्यम से लोगों को यहां- वहां नहीं जाने और सावधानी बरतने की सलाह दी जाती है।
4. रेड अलर्ट- इस रंग का अर्थ है खतरनाक स्थिति। जब मौसम अपने खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है और भारी नुकसान की आशंका रहती है, तब मौसम विभाग रेड अलर्ट जारी करता है। -
कद्दू का नाम सुनते ही अधिकांश लोग नाक-मुंह बनाने लगाते हैं। लेकिन इस पीले से फल में ढेर सारे गुण भरे हैं। इसमें खूब रेशा यानी की फाइबर होता है जिससे पेट हमेशा साफ रहता है। यह फ्री रैडिकल से भी बचाता है।
प्राचीन काल से भारत में इसके उपयोग सब्जी और हलवे के रूप में किया जा रहा है। भारत में यह बहुतायक में उगाया जाता है। आहार विशेषज्ञ भी इसके गुणों के कारण लोगों को इसे खाने की सलाह दे रहे हैं। अब तो बाजार में इसके भुने हुए बीज भी मिलने लगे हैं, जो अलसी की तरह खाए जाते हैं। कद्दू के बीज भी आयरन, जिंक, पोटेशियम और मैग्नीशियम के अच्छे स्रोत हैं।
दरअसल कद्दू में मुख्य रूप से बीटा केरोटीन पाया जाता है, जिससे विटामिन ए मिलता है। पीले और संतरी कद्दू में केरोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। बीटा केरोटीन एंटीऑक्सीडेंट होता है जो शरीर में फ्री रैडिकल से निपटने में मदद करता है। कद्दू और इसके बीज में विटामिन सी और ई, आयरन, कैलशियम, मैग्नीशियम, फॉसफोरस, पोटैशियम, जिंक, प्रोटीन और फाइबर आदि होते हैं। इसमें श्वेतसार, कुकुर्बिटान नामक क्षाराभ, प्रोटीन-मायोसिन, वाईटेलिन शर्करा क्षार आदि पाए जाते हैं।
कद्दू बलवर्धक होता है और रक्त तथा पेट साफ करता है, पित्त व वायु विकार दूर करता है और मस्तिष्क के लिए भी बहुत फायदेमंद होता है। कद्दू के छिलके में भी एंटीबैक्टीरिया तत्व होता है जो संक्रमण फैलाने वाले जीवाणुओं से रक्षा करता है। शायद इन्हीं खूबियों के कारण कद्दू को प्राचीन काल से ही गुणों की खान माना जाता रहा है। यह खून में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने में सहायक होता है और अग्नयाशय को भी सक्रिय करता है। इसी वजह से चिकित्सक मधुमेह के रोगियों को कद्दू के सेवन की सलाह देते हैं।
माना जाता है कि कद्दू की उत्पत्ति उत्तरी अमेरिका में हुई होगी। इसके सबसे पुराने बीज 7 हजार से 5 हजार ईसा पूर्व के हैं। पश्चिमी एशिया में इसका इस्तेमाल मीठे व्यंजन बनाने में किया जाता है। अमेरिका, मेक्सिको, चीन और भारत इसके सबसे बड़े उत्पादक देश हैं। इसके साथ ही यह विश्व के अनेक देशों की संस्कृति के साथ जुड़ा है। उपवास के दिनों में फलाहार के रूप में भी इससे बने विशेष पकवानों का सेवन किया जाता है।
आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति में कद्दू का इस्तेमाल कई रोगों के इलाज करने में प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में इसको काफीफल, कद्दू, रामकोहला, तथा संस्कृत में कुष्मांड, पुष्पफल, वृहत फल, वल्लीफल कहते हैं। इसका लेटिन नाम बेनिनकासा हिष्पिड़ा है। यह कोशातकी (कुकुर्बिटेसी) कुल का फल है। यह अंटार्कटिका को छोड़कर बाकी पूरी दुनिया में उगाया जाता है। -
हिंदू धर्म में जहां तैतीस करोड़ देवी- देवता हैं, वहीं अनेक सम्प्रदाय भी हैं। प्राचीनकाल में देव, नाग, किन्नर, असुर, गंधर्व, भल्ल, वराह, दानव, राक्षस, यक्ष, किरात, वानर, कूर्म, कमठ, कोल, यातुधान, पिशाच, बेताल, चारण आदि जातियां हुआ करती थीं। देव और असुरों के झगड़े के चलते धरती के अधिकतर मानव समूह दो भागों में बंट गए। पहले बृहस्पति और शुक्राचार्य की लड़ाई चली, फिर गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र की लड़ाई चली। इन लड़ाइयों के चलते समाज दो भागों में बंटता गया।
हजारों वर्षों तक इनके झगड़े के चलते ही पहले सुर और असुर नाम की दो धाराओं का धर्म प्रकट हुआ, यही आगे चलकर यही वैष्णव और शैव में बदल गए। लेकिन इस बीच वे लोग भी थे, जो वेदों के एकेश्वरवाद को मानते थे और जो ब्रह्मा और उनके पुत्रों की ओर से थे। इसके अलावा अनीश्वरवादी भी थे। कालांतर में वैदिक और चर्वाकवादियों की धारा भी भिन्न-भिन्न नाम और रूप धारण करती रही।
शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के झगड़े के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई जिसने दोनों ही संप्रदायों में समन्वय का काम किया। इसके पहले अत्रि पुत्र दत्तात्रेय ने तीनों धर्मों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव के धर्म) के समन्वय का कार्य भी किया। बाद में पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।
इस तरह वेद और पुराणों से उत्पन्न 5 तरह के संप्रदायों माने जा सकते हैं- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5 वां वैदिक संप्रदाय। वैष्णव जो विष्णु को ही परमेश्वर मानते हैं, शैव जो शिव को परमेश्वर ही मानते हैं, शाक्त जो देवी को ही परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं। अंत में वे लोग जो ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानते हैं।
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भारत की नदियां देश की प्राचीन सभ्यताओं का एक महत्वपूर्ण अंग है। यहां नदियों की पूजा की जाती है। भारत की कई पुरानी सभ्यताओं का विकास इन नदियों के किनारे ही हुआ है। एक नजर भारत में बहने वाली प्रमुख नदियों पर।
गंगा- गंगा भारत की सबसे प्रमुख नदियों में से एक है। यह उत्तराखंड राज्य में हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर से निकलती है। करीब 2525 किलोमीटर लंबी यह नदी उत्तर प्रदेश, बिहार होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इस नदी का इतिहास उतना ही पुराना माना जाता है, जितनी भारतीय सभ्यता। यह नदी भारत में पवित्र नदी भी मानी जाती है तथा इसकी उपासना मां तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौन्दर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किये गये हैं। इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियां तो पायी जाती ही हैं, तथा मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाई जाती है। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएं भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। इसलिए गंगा का पानी कभी खराब नहीं होता है।
ब्रह्मपुत्र- ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत में हिमालय के अंगशी ग्लेशियर से निकलती है और यह भारत में अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है। यहां इसे दिहांग के नाम से जाना जाता है जबकि असम में इसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है। इसके बाद यह नदी बांग्लादेश पहुंचती है। यहां इसे जमुना कहा जाता है। गंगा नदी के साथ मिलकर यह एक डेल्टा सुंदरबन का निर्माण करती है और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इसकी कुल लंबाई करीब 2900 किलोमीटर है।
यमुना- यमुना नदी भारत के उत्तराखंड स्थित बंदरपूंछ के दक्षिणी ढाल पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है. इसकी लंबाई करीब 1,370 किलोमीटर है। मथुरा वृंदावन होते हुए यह नदी इलाहाबाद में गंगा नदी से मिल जाती है। हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि जो लोग इसके पानी में स्नान कर लेते हैं, उन्हें मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है, लेकिन अब भारत की सबसे दूषित नदियों में से एक है।
यमुना- यमुना नदी भारत के उत्तराखंड स्थित बंदरपूंछ के दक्षिणी ढाल पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है। इसकी लंबाई करीब 1,370 किलोमीटर है। मथुरा वृंदावन होते हुए यह नदी इलाहाबाद में गंगा नदी से मिल जाती है. हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि जो लोग इसके पानी में स्नान कर लेते हैं, उन्हें मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है, लेकिन अब भारत की सबसे दूषित नदियों में से एक है।
कावेरी- कावेरी नदी का उद्गम कर्नाटक के पश्चिमी घाट में तलकावेरी से हुआ है। इसकी शुरुआत एक छोटे तालाब से होती है, जिसे कुंडीके तालाब के नाम से भी जाना जाता है। कर्नाटक और तमिलनाडु में करीब 760 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद यह नदी बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।
कृष्णा -कृष्णा नदी महाराष्ट्र के महाबालेश्वर के समीप पश्चिमी घाट से निकलती है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश होते हुए करीब 1,290 किलोमीटर की यात्रा के बाद यह बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है. हिंदू धर्म में इस नदी का काफी महत्व है। इस नदी पर दो बड़े बांध श्रीसैलम और नागार्जुन सागर बांध बने हैं।
नर्मदा- नर्मदा नदी मध्य प्रदेश के जिले अमरकंटक से निकलती है. पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली यह नदी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात होते हुए करीब 1289 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अरब सागर में मिल जाती है। दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा सरदार सरोवर बांध नर्मदा नदी पर ही बना है।
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थेरगाथा, खुद्दक निकाय का आठवां ग्रंथ है। इसमें 264 थेरों के उदान संगृहित हैं। ग्रंथ 21 निपातों में है। पहले निपात में 12 वर्ग हैं, दूसरे निपात में 5 वर्ग हैं, और शेष निपातों में एक एक वर्ग है। गाथाओं की संख्या 1279 हैं।
थेरगाथा में परमपद को प्राप्त थेरों की उद्गारपूर्ण गाथाएं हैं। अधिकांश गाथाओं में सीधे निर्वाण के प्रति संकेत है। कुछ गाथाओं में साधकों की साधना को सफल बनाने में सहायक प्रेरणाओं का उल्लेख है। कुछ गाथाओं में परमपद को प्राप्त थेरों द्वारा ब्रह्मचारियों या जनसाधारण को दिए गए उपदेशों का भी उल्लेख है।
थेरगाथा में भगवान् बुद्ध द्वारा स्थापित संघ का एक सुंदर चित्र मिलता है। -
आज के मध्य अमेरिका के , मैक्सिको में स्थित चिचेन इत्जा एक मंदिर-नगरी है। यह मंदिर-नगरी पुरानी माया सभ्यता का अवशेष है। यह सभ्यता यहां पर 750 से 1200 सदी के बीच फली-फूली और यह शहर इनकी राजधानी और धर्मिक नगरी थी।
शहर के बीचों बीच कुकुलकन का मंदिर है , जो 79 फीट की ऊंचाई तक बना है। इसकी चार दिशाओं में 91 सीढिय़ां हैं, प्रत्येक सीढ़ी साल के एक दिन का प्रतीक है और 365 वां दिन ऊपर बना चबूतरा है। इस पुरातात्विक स्थल को यूनिस्को द्वारा विश्व विरासत की श्रेणी में शामिल किया गया है। इसके अलावा यह दुनिया के साथ आश्चर्यों में से एक है।
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नामीब रेगिस्तान नामीबिया में स्थित है। यह रेगिस्तान काफ़ी गर्म और शुष्क है। यह बोत्सवाना, पूर्वी नामीबिया तथा दक्षिण अफ्रीका का उत्तरी भाग है, जो 1 लाख 35 हजार वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में विस्तारित हैं। नामीब रेगिस्तान के विषय में यह माना जाता है कि यह संसार का सबसे पुराना रेगिस्तान है। यहाँ वर्षा बहुत कम मात्रा में होती है। यहां की चट्टानों में विभिन्न रंग के शैवाल उगते हैं। पृथ्वी के बड़े जीव हाथी सहित यहां अनेक प्रकार के जीव-जंतु भी निवास करते हैं। ॉ
नामीब मरुस्थल, अटलांटिक तट और कालाहारी के रेगिस्तान देखने हर साल 10 लाख से ज्यादा लोग आते हैं।
पिछले कऱीब 8 करोड़ वर्षों से यह रेगिस्तान शुष्क या अर्धशुष्क रहा है। इस रेगिस्तान की रचना दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका के तटीय किनारों के साथ बेगुंएला की ठंडी जल धाराओं द्वारा शुष्क वायु से ठंडा होने पर संभव हुई है। इस रेगिस्तान की चैड़ाई लगभग 160 कि.मी. तथा लंबाई 1300 कि.मी. है। यहां के बालू के टीले अस्थिर होते हैं। इस रेगिस्तान के बालू के कुल टीलों में से स्टार टिब्बा लगभग 10 प्रतिशत है। यहां वार्षिक वर्षा का औसत 15 मि.मी. से कम ही रहता है। नमी का मुख्य स्रोत तटीय क्षेत्र का कोहरा होता है।
नामीब रेगिस्तान लगभग ऊसर है, लेकिन फिर भी यहां वनस्पति तथा जीवों की अनेक प्रजातियां पाई जाती हैं। विश्व की एक दुर्लभ वनस्पति प्रजाति वेलविटचिअ मिरेबिलिस यहां उगती है। झाड़ी के प्रकार के ये पौधे काफ़ी लंबाई तक बढ़ते हैं। इन पौधों में चौड़ी-चौड़ी पत्तियां निकलती रहती हैं। यह पत्तियां बहुत लंबी हो जाती हैं तथा तेज हवा के कारण घुमावदार आकृति ग्रहण कर लेती हैं। यह पौधा विपरीत परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व बनाए रखता है। यहां की वनस्पतियां तटीय क्षेत्र के कोहरे से नमी सोखने की क्षमता रखती हैं। नामीब रेगिस्तान की चट्टानों पर लाइकेन यानी शैवाल नामक रंग-बिरंगी वनस्पतियाँ बहुतायत में पाई जाती हैं। अफ्रीका के हाथी समेत यहां अनेक प्रकार के पशु निवास करते हैं।
इस रेगिस्तान में मानव का वास नहीं है तथा वहां पर पहुंचना बहुत कठिन है। हालांकि इस रेगिस्तान का सैसरीम क्षेत्र वर्ष भर आबाद रहता है। इस रेगिस्तान में खनिज सम्पदा प्रचुर मात्रा में मौजूद है। यहां से टंगस्टन, नमक तथा हीरा मुख्य रूप से निकाला जाता है। -
फ्रांसीसी क्रांति और उसके नारे स्वतंत्रता, समानता और उसके नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का भारतीय राष्टï्रवाद पर गहरा असर पड़ा। सन् 1830 में जब राजा राममोहन राय इंग्लैंड जा रहे थे, तो उन्हें एक फ्रांसीसी जहाज पर फ्रांस का झंडा लहराता दिखाई दिया। उसमें भी तीन रंग थे। 1857 की क्रांति ने भारतवासियों के दिल में आजादी के बीज बो दिए। बीसवीं शताब्दी में जब स्वदेशी आंदोलन ने जोर पकड़ा तो एक राष्टï्रीय ध्वज की जरूरत महसूस हुई। स्वामी विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने सबसे पहले इसकी परिकल्पना की।
7 अगस्त 1906 को कोलकाता में बंगाल के विभाजन के विरोध में एक रैली हुई जिसमें पहली बार तिरंगा झंडा फहराया गया। समय के साथ इसमें परिवर्तन होते रहे लेकिन जब अंग्रेजों ने भारत छोडऩे का फैसला किया तो देश के नेताओं को राष्टï्रीय ध्वज की चिंता हुई। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद शुक्ल की अध्यक्षता में एक ध्वज समिति का गठन किया गया और उसमें यह फैसला किया गया कि भारतीय राष्टï्रीय कांगे्रस के झंडे को कुछ परिवर्तनों के साथ राष्टï्र ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया जाए। ये तिरंगा हो और इसके बीच में अशोक चक्र हो।
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वर्ष 1929 लाहौर सत्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज घोषणा, या भारत की आजादी की घोषणा का प्रचार किया और 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में घोषित किया। कांग्रेस ने भारत के लोगों से सविनय अवज्ञा करने के लिए स्वयं प्रतिज्ञा करने व पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति तक समय-समय पर जारी किए गए कांग्रेस के निर्देशों का पालन करने के लिए कहा।
इस तरह के स्वतंत्रता दिवस समारोह का आयोजन भारतीय नागरिकों के बीच राष्ट्रवादी भावना को मजबूत करने और स्वतंत्रता देने पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार को मजबूर करने के लिए भी किया गया। कांग्रेस ने 1930 और 1956 के बीच 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया। इसमें लोग मिलकर स्वतंत्रता की शपथ लेते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इनका वर्णन किया है कि ऐसी बैठकें किसी भी भाषण या उपदेश के बिना, शांतिपूर्ण व गंभीर होती थीं। गांधी जी ने कहा कि बैठकों के अलावा, इस दिन को, कुछ रचनात्मक काम करने में खर्च किया जाएं जैसे कताई कातना या हिंदुओं और मुसलमानों का पुनर्मिलन या निषेध काम, या अछूतों सेवा । वर्ष 1947 में वास्तविक आजादी के बाद ,भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को प्रभाव में आया; तब के बाद से 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।
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भारत की संविधान सभा ने नई दिल्ली में संविधान हॉल में 14 अगस्त को 11 बजे अपने पांचवें सत्र की बैठक की। सत्र की अध्यक्षता राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने की।
सभा के सदस्यों ने औपचारिक रूप से देश की सेवा करने की शपथ ली। महिलाओं के एक समूह ने भारत की महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया व औपचारिक रूप से विधानसभा को राष्ट्रीय ध्वज भेंट किया। आधिकारिक समारोह नई दिल्ली में हुए जिसके बाद भारत एक स्वतंत्र देश बन गया। नेहरू ने प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में पद ग्रहण किया, और वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पहले गवर्नर जनरल के रूप में अपना पदभार संभाला। महात्मा गांधी के नाम के साथ लोगों ने इस अवसर को मनाया। गांधी ने हालांकि खुद आधिकारिक घटनाओं में कोई हिस्सा नहीं लिया। इसके बजाय, उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच शांति को प्रोत्साहित करने के लिए कलकत्ता में एक भीड़ से बात की, उस दौरान ये 24 घंटे उपवास पर रहे।
संविधान सभा के सत्र में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत की आजादी की घोषणा करते हुए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी नामक भाषण दिया। तत्कालीन स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ट्रिस्ट विद डेस्टिनी (नियति के साथ वादा) नामक अपना प्रसिद्ध भाषण दिया-
कई सालों पहले, हमने नियति के साथ एक वादा किया था, और अब समय आ गया है कि हम अपना वादा निभायें, पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक तो निभायें। आधी रात के समय, जब दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जाग जाएगा। ऐसा क्षण आता है, मगर इतिहास में विरले ही आता है, जब हम पुराने से बाहर निकल नए युग में कदम रखते हैं, जब एक युग समाप्त हो जाता है, जब एक देश की लम्बे समय से दबी हुई आत्मा मुक्त होती है। यह संयोग ही है कि इस पवित्र अवसर पर हम भारत और उसके लोगों की सेवा करने के लिए तथा सबसे बढ़कर मानवता की सेवा करने के लिए समर्पित होने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं।... आज हम दुर्भाग्य के एक युग को समाप्त कर रहे हैं और भारत पुन: स्वयं को खोज पा रहा है। आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो केवल एक क़दम है, नए अवसरों के खुलने का। इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीडि़तों की सेवा करना। इसका अर्थ है निर्धनता, अज्ञानता, और अवसर की असमानता मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही इच्छा है कि हर आंख से आंसू मिटे। संभवत: ये हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों कि आंखों में आंसू हैं, तब तक हमारा कार्य समाप्त नहीं होगा। आज एक बार फिर वर्षों के संघर्ष के बाद, भारत जागृत और स्वतंत्र है। भविष्य हमें बुला रहा है। हमें कहां जाना चाहिए और हमें क्या करना चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानों और श्रमिकों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम निर्धनता मिटा, एक समृद्ध, लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश बना सकें। हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं को बना सकें जो प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके? कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण हैं।
— ट्रिस्ट विद डेस्टिनी भाषण के अंश, जवाहरलाल नेहरू
इस भाषण को 20वीं सदी के महानतम भाषणों में से एक माना जाता है।
इसके बाद तिरंगा झण्डा फहराया गया और लाल कि़ले की प्राचीर से राष्ट्रीय गान गाया गया।
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जन गण मन संस्कृत मिश्रित बंगाली में लिखा गया भारत का राष्ट्रीय गीत है। ये ब्रह्म समाज की एक प्रार्थना के पहले पांच बन्द हैं जिनके रचियता नोबल पुरस्कार से सम्मानित रविन्द्रनाथ टैगोर हैं। सबसे पहले इसे 27 दिसम्बर 1911 को नेशनल कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन में गाया गया। 1935 में इस गीत को दून स्कूल ने अपने विद्यालय के गीत के रूप में अपनाया। 24 जनवरी, 1950 को संविधान द्वारा इसे अधिकारिक रूप से भारत के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया गया।
ऐसा माना जाता है कि इसकी वर्तमान धुन को राम सिंह ठाकुर जी के एक गीत से लिया गया है, लेकिन इस बारे में विवाद हैं। औपचारिक रूप से राष्ट्रीय गीत को गाने में 48-50 सैकेंड का समय लगता है लेकिन कभी-कभी इसे छोटा कर के सिर्फ इसकी प्रथम और अंतिम पंक्तियों को ही गाया जाता है जिसमें लगभग 20 सैकेंड का समय लगता है । -
हमारा राष्ट्रीय ध्वज हमारी शान और गौरव का प्रतीक है। हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी को झंडा फहराया जाता है। लेकिन 15 अगस्त और 26 जनवरी को झंडा फहराने में कुछ फर्क होता है।
15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस वाले दिन राष्ट्रीय ध्वज को ऊपर खींचा जाता है और फिर फहराया जाता है। इसे ध्वजारोहण कहा जाता है। वहीं 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस वाले दिन राष्ट्रीय ध्वज ऊपर बंधा रहता है। उसे खोलकर फहराया जाता है जिसे झंडा फहराना कहते हैं। अंग्रेजी में ध्वजारोहण के लिए (Flag Hoisting) और झंडा फहराने के लिए (Flag Unfurling) शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
15 अगस्त को आयोजित होने वाले मुख्य कार्यक्रम में देश के प्रधानमंत्री शामिल होते हैं। इस मौके पर प्रधानमंत्री ही ध्वजारोहण करते हैं। 26 जनवरी को आयोजित होने वाले मुख्य कार्यक्रम में राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं।
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मुख्य कार्यक्रम का आयोजन लाल किले पर होता है। वहीं प्रधानमंत्री ध्वजारोहण करते हैं। प्रधानमंत्री इस मौके पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं। वहीं गणतंत्र दिवस के मुख्य कार्यक्रम का आयोजन राजपथ पर होता है। गणतंत्र दिवस वाले दिन राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं।
प्रधानमंत्री देश के राजनीतिक प्रमुख होते हैं जबकि राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख। देश का संविधान 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ। उससे पहले न देश में संविधान था और न राष्ट्रपति। इसी वजह से हर साल 26 जनवरी को राष्ट्रपति राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं।
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