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- कुछ सबसे पसंदीदा पेट्स में से एक खरगोश भी होते हैं. लोग इन्हें पसंद भी खूब करते हैं और छोटे होने की वजह से इन्हें पालना भी बेहद आसान होता है. लोग इन्हें हाथों में लेकर खूब प्यार और दुलार करते हैं क्योंकि इनका वज़न भी कम होता है. हालांकि आज हम आपको जिस खरगोश से मिलवाने जा रहे हैं, वो न तो छोटा है, न ही हल्का बल्कि ये घर में पले तो आपको डॉग्स की तरह इसके लिए इंतज़ाम करना पड़ेगा.एक ऐसे खरगोश का वीडियो वायरल हो रहा है, जो देखने में किसी डॉग जितना लंबा चौड़ा है. इतना ही नहीं इसका वज़न इतना ज्यादा होता है कि इसे उठाना बच्चों का खेल नहीं होता. ये बेल्जियम की एक खरगोश (Belgium rabbits) की प्रजाति है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा खरगोश (World’s Largest Breed of Rabbit) माना जाता है. अगर इसे किसी डॉग के साथ बिठाया जाए, तो फर्क करना ही मुश्किल हो जाएगा.डील-डौल में खरगोशों से अलगफ्लैमिश जाएंट बेल्जियम नाम के इस खरगोश का एक वीडियो इस वक्त वायरल हो रहा है, जिसमें एक शख्स इसे लेकर खड़ा है. आप देख सकते हैं कि खरगोश को हाथ में लेने में वो थका जा रहा है क्योंकि इनका वज़न 22 किलोग्राम तक हो सकता है. इनकी लंबाई 2 फीट से लेकर 4 फीट तक भी हो सकती है. फिलहाल शख्स के हाथ में ढाई फीट का खरगोश है. ये दिखने में भले ही भड़कीले हों, लेकिन पालने के लिहाज से ये काफी शांत और सौम्य होते हैं. जिसने भी वीडियो में इस भारी-भरकम खरगोश को देखा, वो हैरान रह गया.16वीं सदी से पाले जा रहे हैं ये खरगोशइन बड़े खरगोशों की डाइट भी दूसरे और छोटे खरगोशों की तुलना में ज्यादा होती है. अगर आप सोच रहे हैं कि ये कोई नई ब्रीड हैं, तो ऐसा नहीं है, रिपोर्ट की मानें तो इन जीवों के मिलने का दावा 16वीं सदी से किया जा रहा है. माना जाता है कि ये बेल्जियन स्टोन रैबिट से विकसित हुए हैं. इन्हें ज्यादातर फर और मांस के लिए पाला जाता है लेकिन ये काफी फ्रेंडली होते हैं. पालतू जानवर के तौर पर इन्हें अच्छा माना जाता है.
- बुरहानपुर. मुगल काल में राजा-महाराजा ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करते थे, जिससे उनको कोई मार न सके. उस दौरान ऐसी तकनीक इस्तेमाल होता था, जो आज शायद ही कहीं देखने को मिले. ऐसा ही एक गिलास था, जो जहर पहचान सकता था. यह गिलास कासा-कांच से बनाया जाता था.इस गिलास में चारों ओर से कासा होता था और अंदर कांच लगा होता था. यह कांच जहर को पहचान लेता था. अगर कोई पानी या किसी पेय पदार्थ में जहर मिलाकर देता था तो ये गिलास साजिश का पर्दाफाश कर देता था. मुगल काल की इस निशानी को आज भी बुरहानपुर में संग्रहकर्ताओं ने संभाल कर रखा हुआ है.400 साल पुराना बर्तनपुरातत्व संग्रहणकर्ता और वैद्य डॉ. सुभाष माने ने बताया कि यह मुगल काल का 400 साल पुराना गिलास है, जो कासा धातु से बना होता था. इसके अंदर एक कांच लगा होता है. यह कांच जहर को पहचान लेता है. यदि पानी के साथ राजाओं को कोई कीटनाशक या जहर मिलाकर देता था तो गिलास में नीचे से अलग ही रंग दिखने लगता था, जिससे उनको साजिश का पता चल जाता था. राजा-महाराजा के समय में अक्सर जहर देकर मारने की साजिश रची जाती थी. ऐसे में गिलास काफी उपयोगी होता था.गिलास के नीचे से आता था रंगइस गिलास में यदि पानी के साथ जहर या कीटनाशक मिलाया जाता है तो जब कांच से आप देखते हैं तो उसमें हरा या लाल रंग नजर आने लगता है. इससे पुष्टि होती है कि इस पानी में कुछ मिलाया गया है. पहचान होने के बाद लोग इस पानी को नहीं पीते थे, जिससे उनकी जान बच जाती थी.शाहजहां-मुमताज की तस्वीरमुगल काल के कलाकारों ने इस गिलास पर शाहजहां और मुमताज की तस्वीर टकसाल से उकेरी है. इस गिलास की लंबाई आधा फीट की है. इसमें आधा लीटर पानी आता है.विद्यार्थियों को दे रहे फ्री जानकारीपुरातत्व संग्रहणकर्ता वैद्य डॉ. सुभाष माने 40 साल से पुरातत्व की वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं. वह स्कूली विद्यार्थियों को इस बारे में निशुल्क जानकारी भी देते हैं.
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साल का पहला चंद्र ग्रहण 25 मार्च (होली के दिन) लगने जा रहा है, तो 2024 का पहला सूर्य ग्रहण 8 अप्रैल को लगेगा। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहण का काफी महत्व है, तो वहीं खगोलीय घटनाओं में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए यह बेहद खास होता है। चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोनों भारत में दिखाई नहीं देंगे। हम आपको ग्रहण को लेकर विज्ञान से जुड़ी बातें बताएंगे। चंद्र ग्रहण क्यों लगता है? सू्र्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण में क्या अंतर है? सबसे पहले जानते हैं कि चंद्र क्यों लगता है...
सूर्य का धरती परिक्रमा करती है, तो चंद्रमा सूर्य और धरती दोनों का चक्कर लगाता है। इस दौरान कई बार चंद्रमा और सूर्य के बीच धरती आ जाती है। इसकी वजह से सूर्य की सीधी रोशनी चंद्रमा तक नहीं पहुंच पाती है और पृथ्वी की परछाई चंद्रमा पर पड़ती है। इसकी घटना को चंद्र ग्रहण कहते हैं। हालांकि पूरी तरह आसमान में चंद्रमा गायब नहीं होता है, बल्कि लाल रंग का नजर आता है।
क्यों लाल हो जाता है चंद्रमा?
धरती के वायुमंडल से टकराकर रोशनी चंद्रमा तक पहुंचती, जिसकी वजह से चंद्रमा लाल नजर आता है। इस दौरान धरती की परछाई भी दो तरह की होती है। पहला उम्ब्रा और दूसरी पेनुंब्रा। उम्ब्रा परछाई काफी गहरी होती है, जबकि पेनुंब्रा हल्की होती है। 25 मार्च को चंद्र ग्रहण के बाद 8 अप्रैल को सूर्य ग्रहण लगेगा। यह सूर्य ग्रहण पूर्ण ग्रहण होगा, जो अमेरिका में दिखाई देगा।
क्या होता है सूर्य ग्रहण?
जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा एक सीध में आ जाते हैं यानी सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाता है, तो ऐसी स्थिति को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। अमावस्या को ही सूर्य ग्रहण लगता है। सूर्य और पृथ्वी के बीच जब चंद्रमा आता है, तो पृथ्वी पर उसकी छाया पड़ती है। इस दौरान वह सूर्य के प्रकाश को पूरी तरह या आंशिक रूप से ढक लेता है। बता दें कि एक साल में चार या पांच ग्रहण लग सकते हैं। इनमें सूर्य और चंद्र ग्रहण दोनों होते हैं।
50 साल बाद लगेगा ऐसा सूर्य ग्रहण
8 अप्रैल 2024 को पहली बार सबसे लंबा सूर्य ग्रहण लगेगा। पूर्ण सूर्य ग्रहण का ऐसा अद्भुद नजारा 50 साल पहले दिखाई दिया था। 8 अप्रैल को लगने वाला सूर्य ग्रहण करीब 7.5 मिनट तक रहेगा। इस दौरान सूर्य नजर नहीं आएगा, सिर्फ उसका कोरोना दिखाई देगा। इससे पहले साल 1973 में इतना लंबा सूर्य ग्रहण दिखाई दिया था।
100 साल बाद होली के दिन होगा ऐसा
गणना के मुताबिक, 100 साल बाद होली और चंद्र ग्रहण एक ही दिन होंगे। खगोलविदों के मुताबिक, अगर आसमान साफ हो तो चंद्र ग्रहण को धरती से रात के समय देखा जा सकता है। कुछ स्थानों पर चंद्र ग्रहण नजर आएगा, तो वहीं अन्य इलाकों में ग्रहण के दौरान चंद्रमा उदय या अस्त होगा। भारत में चंद्र ग्रहण दिखाई नहीं देगा। चंद्र ग्रहण सुबह 10.23 मिनट से शुरू होगा और दोपहर बाद 3.02 बजे समाप्त होगा। यह चंद्र गहण उपछाया ग्रहण होगा।
इन देशों में नजर आएगा चंद्र ग्रहण
यह चंद्रग्रहण भारत में नहीं नजर आएगा। इस खगोलीय घटना को आयरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, इंग्लैंड, दक्षिण नॉर्वे, इटली, पुर्तगाल, रूस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड और फ्रांस के कुछ इलाकों में देखा जा सकेगा। भारतीय उपमहाद्वीप में यह ग्रहण नहीं दिखेगा, जिसकी वजह से होली के त्योहार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा।
जानिए कहां दिखेगा सूर्य ग्रहण
साल का पहला सूर्य ग्रहण भारत में नजर नहीं आएगा। 8 अप्रैल को लगने वाला सूर्य ग्रहण पश्चिमी यूरोप पेसिफिक, अटलांटिक, आर्कटिक मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका, कनाडा, मध्य अमेरिका, दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग, इंग्लैंड के उत्तर पश्चिम क्षेत्र और आयरलैंड में नजर आएगा। -
वाशिंगटन. खगोलविदों को हमारे सौर मंडल में तीन ऐसे चंद्रमा दिखे हैं जो पहले अज्ञात थे। इनमें से दो चंद्रमा वरुण और एक चंद्रमा अरुण के चारों ओर चक्कर लगा रहा है। हवाई और चिली में शक्तिशाली भूमि-आधारित दूरबीनों का उपयोग करके दूर स्थित इन छोटे चंद्रमाओं को देखा गया, और अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ (आईएयू) के लघु ग्रह केंद्र ने शुक्रवार को इसकी घोषणा की। इसी के साथ वरुण के चारों ओर चक्कर लगा रहे चंद्रमा की ज्ञात संख्या 16 और अरुण के चारों ओर घूम रहे चंद्रमा की ज्ञात संख्या 28 हो गई है। इस खोज में मदद करने वाले वाशिंगटन स्थित ‘कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस' के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने बताया कि वरुण के नए चंद्रमाओं में से एक की ज्ञात कक्षीय यात्रा अब तक सबसे लंबी है। उन्होंने बताया कि छोटे बाह्य चंद्रमा को सूर्य से सबसे दूर स्थित विशाल बर्फीले ग्रह वरुण के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में लगभग 27 साल लगते हैं। उन्होंने बताया कि अरुण की परिक्रमा कर रहा नया चंद्रमा इस ग्रह के चंद्रमाओं में संभवतः सबसे छोटा है और इसका अनुमानित व्यास केवल पांच मील (आठ किलोमीटर) है। उन्होंने कहा, “हमें लगता कि अभी ऐसे कई और छोटे चंद्रमा हो सकते हैं, जिनकी खोज की जानी बाकी है।
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नयी दिल्ली. खगोलविदों ने अब तक के सबसे तेजी से बढ़ने वाले ब्लैक होल की खोज की है जो ब्रह्मांड में सबसे चमकदार ज्ञात वस्तु है और यह हर दिन एक सूर्य के बराबर के आकार को निगल रहा है। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी (एएनयू) के अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि सूर्य से लगभग 17 अरब गुना अधिक द्रव्यमान वाले ब्लैक होल ने एक ऐसा रिकॉर्ड बनाया है जिसे शायद कभी नहीं तोड़ा जा सकेगा। एएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर और अनुसंधान रिपोर्ट के प्रमुख लेखक क्रिश्चियन वुल्फ ने कहा, "इसकी वृद्धि की अविश्वसनीय दर का मतलब भारी मात्रा में प्रकाश और गर्मी निकलना भी है।" वुल्फ ने एक बयान में कहा, "तो, यह ब्रह्मांड में सबसे चमकदार ज्ञात वस्तु भी है। यह हमारे सूर्य से 500 लाख करोड़ गुना अधिक चमकीला है।" ब्लैक होल अंतरिक्ष का एक ऐसा क्षेत्र होता है जहां गुरुत्वाकर्षण इतना मजबूत होता है कि प्रकाश सहित कुछ भी इससे बच नहीं सकता है। ‘नेचर एस्ट्रोनॉमी' पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के सह-लेखक क्रिस्टोफर ओंकेन ने कहा, ‘‘यह आश्चर्य की बात है कि ब्लैकहोल का अब तक पता नहीं चला, जबकि हम कई अन्य, कम प्रभावशाली वस्तुओं के बारे में जानते हैं।'' मेलबर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राचेल वेबस्टर ने कहा, "इस ब्लैक होल से प्रकाश को हम तक पहुंचने में 12 अरब वर्ष से अधिक का समय लगा है।
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पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं। इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-
1. ब्रह्म पुराण :-ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।2. पद्म पुराण :-पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।3. विष्णु पुराण :-विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था।इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।4. शिव पुराण :-शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।5. भागवत पुराण :-भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।6. नारद पुराण :-नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं।7. मार्कण्डेय पुराण :-अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।8. अग्नि पुराण :-अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।9. भविष्य पुराण :-भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है।इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है।ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।10. ब्रह्मवैवर्त पुराण :-ब्रह्मवैवर्त पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।11. लिंग पुराण :-लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।12. वराह पुराण :-वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।13. सकन्द पुराण :-सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।14. वामन पुराण :-वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।15. कुर्मा पुराण :-कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।16. मतस्य पुराण :-मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है17. गरुड़ पुराण :-गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है।साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है।समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिये प्रोत्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके।18. ब्रह्माण्ड पुराण :-ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। -
नयी दिल्ली. तमिलनाडु में किये गए एक अध्ययन के अनुसार लोगों के सहयोग से स्थानीय स्तर पर उपायों को बढ़ावा देकर सर्पदंश के मामलों को घटाया जा सकता है और कई व्यक्तियों की जान बचाई जा सकती है। यह अध्ययन, तमिलनाडु के ग्रामीण कृषक समुदायों के 535 लोगों पर किया गया। इसके तहत उनसे यह पूछा गया कि वे सर्पदंश रोधी क्या उपाय करेंगे तथा अपनी सुरक्षा के लिए और अधिक प्रयास करने की उनकी राह में क्या बाधक है। अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि तमिलनाडु में भारत की आबादी का केवल पांच प्रतिशत हिस्सा निवास करता है लेकिन देश में सर्पदंश से होने वाली मौतों में करीब 20 प्रतिशत इस राज्य में होती है। अध्ययन के नतीजे कंजरवेशन साइंस एंड प्रैक्टिस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इसमें कहा गया है कि ज्यादातर लोग (69 प्रतिशत) सर्पदंश को रोकने के उपाय करते हैं। सर्पदंश को रोकने के उपाय करने वाले लोगों में आधे से अधिक (59 प्रतिशत) साक्ष्य समर्थित उपाय करते हैं और सरकारी दिशानिर्देशों का पालन करते हैं। अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि इन उपायों में घरों और आसपास के स्थान को साफ-सुथरा रखना और रात में टॉर्च का इसतेमाल करना शामिल है। अध्ययन दल में मद्रास क्रोकोडाइल बैंक ट्रस्ट के विशेषज्ञ भी शामिल हैं।
अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि हालांकि 41 प्रतिशत लोग पूरी तरह से या आंशिक रूप से उन उपायों पर निर्भर करते हैं जिन्हें शोध या आधिकारिक परामर्श द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है जैसे कि प्रतिरोधक के रूप में नमक, लहसुन, हल्दी आदि का छिड़काव करना। ब्रिटेन के एक्सटर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई के तहत अध्ययन का नेतृत्व करने वाले हैरिसन कार्टर ने कहा, ‘‘असल में इस महत्वपूर्ण चीज का पता लगाना है जो एक खास स्थान में कारगर हो और लोगों को उसका उपयोग व्यवाहरिक लगे तथा वे आसानी से कर सकें।'' अब ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययनरत कार्टर ने कहा, ‘‘उदाहरण के तौर पर, तमिलनाडु में कुछ किसानों को पूर्व में सुरक्षा के लिए घुटने तक के जूते दिये गए, लेकिन ज्यादातर लोग धान के खेतों में काम करते हैं जहां ये जूते तुरंत कीचड़ में फंस जाते हैं। लेकिन इसकी अनदेखी कर दी गई कि लोगों से बातचीत करना और उनसे उनकी जरूरत के बारे में पूछने की जरूरत है।'' अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि अपने समुदायों का विश्वास रखने वाले स्थानीय साझेदारों के साथ कम कर वास्तविक बदलाव लाने के लिए आसान उपायों को बढ़ावा दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि विश्वभर में हर साल करीब 1.4 लाख लोगों की सर्पदंश से मौत हो जाती है और अन्य चार लाख लोग स्थायी रूप से अशक्तत हो जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने सर्पदंश को एक ‘अनदेखी की गई उष्णकटिबंधीय रोग' की श्रेणी में अब रखा है और यह सर्पदंश से होने वाली मौतों एवं अशक्तता को 2030 तक आधा करने के प्रति प्रतिबद्ध है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, तमिलनाडु में ऐसे चार जहरीले सांपों की अधिक संख्या है जो मानव को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं। इनमें कोबरा, रसेल वाइपर, सॉ-स्केल्ड वाइपर, सामान्य करैत शामिल हैं। -
कैंब्रिज. बुढ़ापा जीवन का एक अपरिहार्य हिस्सा है, जो दीर्घायु की खोज के प्रति हमारे मजबूत आकर्षण को समझा सकता है। शाश्वत यौवन का आकर्षण अपने जीवनकाल को बढ़ाने की उम्मीद रखने वाले लोगों के लिए अरबों पाउंड के उस उद्योग को संचालित करता है, जो बुढ़ापा रोधी उत्पादों से लेकर पूरक और आहार तक का कारोबार करते हैं। यदि आप 20वीं सदी की शुरुआत पर नजर डालें तो ब्रिटेन में औसत जीवन प्रत्याशा लगभग 46 वर्ष थी। आज ये 82 साल के करीब है. हम वास्तव में पहले से कहीं अधिक लंबे समय तक जी रहे हैं, संभवतः चिकित्सा प्रगति और बेहतर रहने और काम करने की स्थितियों के कारण। लेकिन लंबे समय तक जीवित रहने की भी कीमत चुकानी पड़ी है। अब हम पुरानी और अपक्षयी बीमारियों की उच्च दर देख रहे हैं - हृदय रोग इस सूची में लगातार शीर्ष पर है। इसलिए जबकि हम इस बात से रोमांचित हैं कि हमें लंबे समय तक जीने में क्या मदद मिल सकती है, शायद हमें लंबे समय तक स्वस्थ रहने में अधिक रुचि होनी चाहिए। हमारी "स्वस्थ जीवन प्रत्याशा" में सुधार करना एक वैश्विक चुनौती बनी हुई है। दिलचस्प बात यह है कि दुनिया भर में कुछ ऐसे स्थानों की खोज की गई है जहां उल्लेखनीय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य वाले शतायु लोगों का अनुपात अधिक है। उदाहरण के लिए, सार्डिनिया, इटली के एकेईए अध्ययन ने एक "ब्लू जोन" की पहचान की (यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसे नीले पेन से चिह्नित किया गया था), जहां व्यापक सार्डिनियन समुदाय के मुकाबले मध्य-पूर्वी पहाड़ी इलाकों में रहने वाले ऐसे स्थानीय लोगों की संख्या अधिक थी जो अपने 100 वें जन्मदिन पर पहुंच गए थे। । इस दीर्घायु हॉटस्पॉट का तब से विस्तार हुआ है, और अब इसमें दुनिया भर के कई अन्य क्षेत्र भी शामिल हैं, जिनमें लंबे समय तक जीवित रहने वाले, स्वस्थ लोगों की संख्या भी अधिक है। सार्डिनिया के साथ-साथ, इन ब्लू जोन में अब लोकप्रिय रूप से शामिल हैं: इकारिया, ग्रीस; ओकिनावा, जापान; निकोया, कोस्टा रिका; और लोमा लिंडा, कैलिफ़ोर्निया। अपने लंबे जीवन काल के अलावा, इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग कुछ अन्य समानताएं भी साझा करते दिखाई देते हैं, जो एक समुदाय का हिस्सा होने, जीवन का उद्देश्य रखने, पौष्टिक, स्वस्थ भोजन खाने, तनाव के स्तर को कम रखने और उद्देश्यपूर्ण दैनिक व्यायाम या शारीरिक कार्य करने पर केंद्रित हैं। उनकी दीर्घायु उनके पर्यावरण से भी संबंधित हो सकती है, ज्यादातर ग्रामीण (या कम प्रदूषित) होने के कारण, या विशिष्ट दीर्घायु जीन के कारण। हालाँकि, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि आनुवंशिकी केवल लगभग 20-25% दीर्घायु के लिए जिम्मेदार हो सकती है - जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति का जीवनकाल जीवनशैली और आनुवंशिक कारकों के बीच एक जटिल तालमेल है, जो लंबे और स्वस्थ जीवन में योगदान देता है। क्या इसका रहस्य हमारे आहार में है?
जब आहार की बात आती है, तो प्रत्येक ब्लू जोन का अपना दृष्टिकोण होता है - इसलिए एक विशिष्ट भोजन या पोषक तत्व उल्लेखनीय दीर्घायु की व्याख्या नहीं करता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि पौधों के खाद्य पदार्थों (जैसे स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियां, फल और फलियां) से भरपूर आहार इन क्षेत्रों में उचित रूप से सुसंगत प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, लोमा लिंडा के सेवेंथ-डे एडवेंटिस्ट मुख्यतः शाकाहारी हैं। ओकिनावा में सौ साल के लोगों के लिए, बैंगनी शकरकंद, सोया और सब्जियों से फ्लेवोनोइड्स (आमतौर पर पौधों में पाया जाने वाला एक रासायनिक यौगिक) का उच्च सेवन बेहतर हृदय स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है - जिसमें निम्न कोलेस्ट्रॉल स्तर और स्ट्रोक और हृदय रोग की कम घटनाएं शामिल हैं। निकोया में, स्थानीय रूप से उत्पादित चावल और फलियों की खपत को टेलोमेयर की अधिक लंबाई के साथ जोड़ा गया है। टेलोमेयर हमारे गुणसूत्रों के अंत में संरचनात्मक भाग हैं जो हमारी आनुवंशिक सामग्री की रक्षा करते हैं। हर बार कोशिका के विभाजित होने पर हमारे टेलोमेयर छोटे हो जाते हैं - इसलिए जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, वे उत्तरोत्तर छोटे होते जाते हैं। कुछ जीवनशैली कारक (जैसे धूम्रपान और खराब आहार) भी टेलोमेयर की लंबाई को छोटा कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि टेलोमेयर की लंबाई उम्र बढ़ने के बायोमार्कर के रूप में कार्य करती है - इसलिए लंबे टेलोमेयर का होना, आंशिक रूप से, दीर्घायु से जुड़ा हो सकता है। लेकिन पौधे आधारित आहार ही एकमात्र रहस्य नहीं है। उदाहरण के लिए, सार्डिनिया में, स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियों और पारंपरिक खाद्य पदार्थों जैसे कि एकोर्न ब्रेड, पैन कारासौ (एक खट्टी रोटी), शहद और नरम पनीर के अधिक सेवन के साथ ही मांस और मछली का सेवन कम मात्रा में किया जाता है। कई ब्लू ज़ोन क्षेत्रों में जैतून का तेल, वाइन (संयम के साथ - दिन में लगभग 1-2 गिलास), साथ ही चाय का भी समावेश देखा गया है। इन सभी में शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो उम्र बढ़ने के साथ हमारी कोशिकाओं को क्षति से बचाने में मदद कर सकते हैं। शायद फिर, यह इन शतायु लोगों के आहार में विभिन्न पोषक तत्वों के सुरक्षात्मक प्रभावों का एक संयोजन है, जो उनकी असाधारण दीर्घायु की व्याख्या करता है। इन दीर्घायु गर्म स्थानों का एक और उल्लेखनीय अवलोकन यह है कि भोजन आमतौर पर घर पर ताजा तैयार किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पारंपरिक ब्लू ज़ोन आहार में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ, फास्ट फूड या शर्करा युक्त पेय शामिल नहीं होते हैं जो उम्र बढ़ने में तेजी ला सकते हैं। तो जितना यह जानना जरूरी है कि ये लंबे समय तक जीवित रहने वाली आबादी क्या कर रही है, उतना ही यह जानना भी जरूरी है कि वह क्या नहीं कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि 80% पेट भरने तक खाने का एक पैटर्न है (दूसरे शब्दों में आंशिक कैलोरी में कमी। यह इस बात का समर्थन करने में भी महत्वपूर्ण हो सकता है कि हमारी कोशिकाएं उम्र बढ़ने के साथ क्षति से कैसे निपटती हैं, जिसका अर्थ लंबा जीवन हो सकता है। इन ब्लू ज़ोन आहारों को बनाने वाले कई कारक - मुख्य रूप से पौधे-आधारित और प्राकृतिक संपूर्ण खाद्य पदार्थ - हृदय रोग और कैंसर जैसी पुरानी बीमारियों के कम जोखिम से जुड़े हैं। ऐसे आहार न केवल लंबे, स्वस्थ जीवन में योगदान दे सकते हैं, बल्कि अधिक विविध आंत माइक्रोबायोम का समर्थन कर सकते हैं, जो स्वस्थ उम्र बढ़ने के साथ भी जुड़ा हुआ है। जब दीर्घायु की बात आती है तो आहार बड़ी तस्वीर का केवल एक हिस्सा है, यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसके बारे में हम कुछ कर सकते हैं। वास्तव में, यह न केवल हमारे स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार के केंद्र में हो सकता है, बल्कि हमारी उम्र बढ़ने की गुणवत्ता में भी सुधार ला सकता है। - नई दिल्ली। अयोध्या के राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की गई रामलला की मूर्ति के सामने आने के बाद करोड़ों श्रद्धालुओं ने उसका दर्शन किया। रामलला की मूर्ति के जिस काले पत्थर यानी कृष्णशिला का उपयोग किया गया ।इसे तैयार करने वाले शिल्पकार अरुण योगीराज की पत्नी विजेता योगीराज ने कहा कि रामलला की मूर्ति बनाने के लिए इस पत्थर का उपयोग करने की एक खास वजह है। कृष्ण शिला में ऐसे गुण हैं कि जब आप अभिषेक करते हैं, यानी जब आप दूध प्रतिमा पर चढ़ाते हैं, तो आप उसका उपभोग कर सकते हैं। यह आपके स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं डालता है। इस पत्थर से दूध के गुणों में कोई बदलाव नहीं होता है। इस कारण से इस पत्थर का चयन किया गया है, क्योंकि यह किसी भी एसिड या आग या पानी से कोई रिएक्शन नहीं करता है। यह आने वाले हजार साल से भी अधिक वक्त तक कायम रहने वाला है। विजेता योगीराज ने यह भी कहा कि भव्य राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापना के लिए रामलला की मूर्ति को बनाते समय अरुण योगीराज ने एक ऋषि के समान जीवन शैली अपनाई। इस दौरान अरुण योगीराज ने ‘सात्विक भोजन’, फल और अंकुरित अनाज जैसे सीमित आहार के साथ छह महीने का समय बिताया।क्या है कृष्णशिलादक्षिण भारत के मंदिरों में , देवी- देवताएं की अधिकांश मूर्तियां नेल्लिकारू चट्टानों से बनाई गई है, जिन्हें भगवान कृष्ण के साथ मेल खाने वाले रंग के कारण कृष्णशिला कहा जाता है। कृष्णशिला पत्थर कर्नाटक के एचडी कोटे और मैसूर जिलों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। मूर्ति को तलाशने के लिए इसके व्यापक उपयोग के पीछे कारण यह है कि कृष्णशिला के पत्थर की प्रकृति में नरम होते हैं जिनमें ज्यादातर लाख होते हैं। खदानों में ताजा लाने पर पत्थर नरम रहता है। हालांकि 2-3 साल तक उपयोग नहीं करने पर यह सख्त हो जाता है और ठोस आकार ले लेता है। पत्थर के ब्लॉक को शुरू में मनचाहे डिजाइन के अनुसार चिंहित किया जाता है और कारीगर जटिल पैटर्न प्राप्त करने के लिए विभिन्न आकारों की छेनी का उपयोग करके इसे आकार देते हैं। इसके बाद पत्थर को मूर्तियों में बदल दिया जाता है। मैसूर में कृष्णशिला पत्थर की नक्काशी का इतिहास कई शताब्दियों पुराना है और इसे शाही राज्यों द्वारा संरक्षण दिया गया है।
- प्राचीन काल से ही जोंक थैरेपी का तमाम बीमारियों से पार पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। यह प्रक्रिया रक्तस्राव के जरिए सम्पन्न किया जाता है जिसके तहत अशुद्ध रक्त को बाहर निकाला जाता है जिससे स्वस्थ होने में मदद मिलती है। कई बार तो जोंक थैरेपी औषधीय चिकित्सा से भी बेहतर कारगर होता है। जोंक थैरेपी के असंख्य फायदों के कारण ही यह पारंपरिक चिकित्सकीय पद्धति आज भी अस्तित्व में मौजूद है।वस्कुलर डिजीज से लडऩे के लिए सदियों से जोंक के लार का इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल जोंक के लार में सौ से ज्यादा बायोएक्टिव तत्व होते हैं जो कि वस्कुलर डिजीज के लिए लाभकर है। हिरुडिन इनमें से एक तत्व है। हिरुडिन एंटीकोग्यूलेशन एजेंट की तरह काम करता है। कैलिन भी जोंक के लार में पाया जाने वाला तत्व है। यह रक्त को गाढ़ा करने में मदद करता है। बहरहाल जोंक के लार में ऐसे तत्व भी होते हैं जो हमारे रक्त प्रवाह को बेहतर करते हैं जिससे हमारे स्वास्थ्य अच्छा रहता है। जिन वस्कुलर डिजीज मरीजों पर जोंक थैरेपी का इस्तेमाल किया जाात है, वे आसानी से इसके लिए स्वास्थ्य लाभ कर पाते हैं।20 वीं सदी से ही कार्डियोवस्कुल डिजीज से लडऩे के लिए जोंक थैरेपी का इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल जोंक के लार में पाया जाने वाला हिरुडिन एंजाइम कार्डियोवस्कुलर डिजीज के लिए लाभकर है। जैसा कि पहले ही जिक्र किया गया है इसमें एंटीकोग्यूलेशन एजेंट होते हैं जो कि इस बीमारी के लिए प्रभावशाली होते हैं। इसके अलावा चिकित्सक जोंक थैरेपी हृदय सम्बंधी बीमारियों से जुड़े मरीजों के लिए भी सलाह स्वरूप देते हैं।जोंक थेरेपी रक्तसंचार बेहतर करने के लिए भी जाना जाता है। यही कारण है कि जोंक थैरेपी को सिर पर जहां बाल कम है, जैसे स्थान पर लगाया जाए तो वहां बाल आने की उम्मीद बढ़ जाती है। दरअसल जोंक थैरेपी से शरीर में पौष्टिकता बढ़ती जो बालों के लिए आवश्यक है। यही नहीं यह बालों को जड़ों से मजबूत करते हैं जिससे बालों को उगने में आसानी होती है। जो लोग डैंड्रफ या फंगल संक्रमण के कारण गंजेपन से जूझ रहे हैं, उनके लिए जोंक थैरेपी एक रामबाण इलाज है। जोंक का लार फंगल संक्रमण को खत्म करने में मदद करता है।समूचे विश्व में जोंक की संभवत: 600 से ज्यादा प्रजातियां मौजूद हैं। लेकिन इनमें से महज 15 जोंक की प्रजातियां ही ऐसी हैं जो चिकित्सकीय जगत में इस्तेमाल की जाती है। ये कभी अर्थराइटिस के लिए इस्तेमाल की जाती हैं तो कभी अन्य बीमारियों को खत्म करने में मदद करती हैं। अर्थराइटिस को ठीक करने के जोंक थैरेपी एक सहज और आसान तरीका है। इसका डंक मच्छर के काटने के समान ही लगता है। जोंक के लार में ऐसे तत्व होते हैं जो जलन और जोड़ों के दर्द को कम करने में लाभकर है। चिकित्सकीय जोंक मरीज के शरीर में तकरीबन एक घंटे तक चिपके रहते हैं। प्रक्रिया पूरी होने के बाद मरीज रिलैक्स महसूस करता है। जोंक हटाने के बाद अंग विशेष को साफ किया जाता है। जोंक थैरेपी सामान्यतत: 6 से 8 माह में दोहराया जाता है। इसके अलावा यह मरीज की स्थिति से भी तय होता है कि यह थैरेपी उस पर कितनी बार इस्तेमाल की जाए।जोंक के लार में पाया जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण तत्व है हिरुडिन। यह तत्व रक्त में थक्के जमने नहीं देता। डायबिटीज के मरीजों के लिए भी जोंक थैरेपी कारगर साबित हुई है।----------
- मोरिगांव. असम के पोबितोरा वन्य अभयारण्य में प्रत्येक पक्षियों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है लेकिन जलपक्षी गणना के दौरान दो नयी प्रजातियां देखी गई। एक वन अधिकारी ने यह जानकारी दी। पक्षियों की शुक्रवार को हुई गणना में 7,225 पक्षी दर्ज किए गए जिनकी संख्या 2022-23 की गणना में 8,441 थी। अभयारण्य वन रक्षक नयन ज्योति दास ने कहा कि इस वर्ष पहचानी गई प्रजातियों की संख्या 72 थी जो पिछली गणना में दर्ज हुई 70 से अधिक है। उन्होंने कहा कि अभयारण्य में पहली बार देखी गई दो नई प्रजातियां ग्रेटर 'व्हाइट-फ्रंटेड गूज' और 'बैकाल टील' हैं। प्रोफेसरों, अनुसंधान विद्वानों, स्थानीय पक्षीविदों और वन कर्मचारियों सहित 45 विशेषज्ञों के एक दल ने यह सर्वेक्षण किया। अधिकारियों ने बताया कि अभयारण्य के जलाशयों को इस वर्ष सात खंडों में विभाजित किया गया था। वहीं, अभयारण्य में अब तक एवियन फ्लू का कोई मामला सामने नहीं आया है।
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बेंगलुरु. भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के प्रोफेसर और सहयोगियों ने एक कृत्रिम एंटीजन डिजाइन किया है जिसे कोविड-19 के संभावित टीका के रूप में निर्मित किया जा सकता है। कोविड-19 महामारी की शुरुआत के बाद से आणविक जैव-भौतिकी इकाई (एमबीयू), आईआईएससी के प्रोफेसर राघवन वरदराजन और सहयोगी एक टीका विकसित करने पर काम कर रहे हैं जो सार्स कोव-2 के वर्तमान और भविष्य के विभिन्न स्वरूपों से सुरक्षा प्रदान कर सकता है। आईआईएससी द्वारा बुधवार को जारी एक विज्ञप्ति के अनुसार शोध पत्रिका ‘एनपीजे वैक्सीन्स' में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि उनका टीका सार्स कोव-2 के सभी मौजूदा स्वरूपो के खिलाफ प्रभावी है और इसे भविष्य के स्वरूपों के लिए भी जल्दी से तैयार किया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि वर्तमान टीके अधिकांश सार्स कोव-2 उप स्वरूपों के खिलाफ प्रभावी साबित हुए हैं, लेकिन वायरस के तेजी से उत्परिवर्तन के कारण उनकी प्रभावकारिता में गिरावट आई है। वायरस में पाए जाने वाले विभिन्न प्रोटीन का विश्लेषण करने के बाद, शोधकर्ताओं ने अपने टीके के लिए सार्स कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन के दो भागों-एस2 सबयूनिट और रिसेप्टर बाइंडिंग डोमेन (आरबीडी) का चयन किया। टीम ने चूहों पर दोनों मॉडल में प्रोटीन के प्रभावों का परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि हाइब्रिड प्रोटीन ने एक मजबूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न की और पूरे स्पाइक प्रोटीन वाले टीकों की तुलना में बेहतर सुरक्षा प्रदान की। वरदराजन ने बताया कि उनकी टीम ने भारत में महामारी के व्यापक प्रसार से पहले ही टीके पर काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने कहा, ‘‘उस समय, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने हमें वित्तीय मदद प्रदान की थी।'
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नयी दिल्ली. जैसे-जैसे सर्दी बढ़ती जा रही है, स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने दिल के दौरे के बढ़ते खतरों को लेकर चिंता व्यक्त की है तथा ठंड के महीनों के दौरान आंखों की निवारक देखभाल के महत्व पर भी जोर दिया है। विशेषज्ञों ने कहा कि हाल के अध्ययनों में भी सर्दियों के मौसम के दौरान दिल के दौरे की दर में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। उन्होंने कहा कि हाड़ कंपकंपाती ठंड और अद्वितीय मौसमी कारक हृदय संबंधी समस्याओं और आंखों से संबंधित जटिलताओं की बढ़ती संवेदनशीलता में योगदान करते हैं। चिकित्सकों ने कहा कि ठंड का मौसम रक्त वाहिकाओं को संकुचित कर देता है और रक्तचाप बढ़ाता है, जिससे संभावित रूप से दिल का दौरा पड़ सकता है, खासकर वैसे व्यक्तियों के लिए जिन्हें पहले से हृदय संबंधी समस्याएं मौजूद हैं। उन्होंने जनता को सर्दियों के दौरान नियमित व्यायाम, दिल को स्वस्थ रखने वाले आहार और शरीर को पर्याप्त गर्मी प्रदान करके दिल के स्वास्थ्य के बारे में सतर्क रहने की सलाह दी है। ‘उजाला सिग्नस ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स' के वरिष्ठ सलाहकार इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. विजय कुमार ने कहा, "सर्दियों के मौसम के दौरान दिल के दौरे के बढ़ते जोखिम से निपटना जरूरी है। यह घटना पर्यावरणीय कारकों के संगम के कारण होती है।" उन्होंने कहा, ‘‘इस दौरान प्रदूषण के स्तर में वृद्धि न केवल सूजन को बढ़ाती है, बल्कि अस्थमा और धूम्रपान करने से उत्पन्न बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए श्वसन संबंधी चुनौतियां भी बढ़ाती है।'' कानपुर के रीजेंसी अस्पताल में सलाहकार हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ अभिनीत गुप्ता ने कहा कि ठंड के मौसम में रक्त वाहिकाओं का संकुचन विशेष रूप से उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा करता है, जिससे दुर्बल मस्तिष्क स्ट्रोक की संभावना बढ़ जाती है। उन्होंने कहा, ‘‘परेशान करने वाली बात यह है कि आंकड़ों से पता चलता है कि गर्मियों के महीनों की तुलना में सर्दियों में दिल के दौरे के कारण मृत्यु दर अधिक होती है।'' डॉ. गुप्ता ने कहा, ‘‘हालांकि, इन जोखिमों का मुकाबला करने के लिए सक्रिय जीवनशैली उपायों को अपनाने की उम्मीद है। नियमित व्यायाम, सामान्य खान-पान की आदतें और गुनगुने पानी के साथ शरीर में पानी की आपूर्ति सर्दियों में होने वाले हृदयाघात की घटना को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।" वैश्विक गैर-लाभकारी संगठन ऑर्बिस इंटरनेशनल के कंट्री-निदेशक डॉ. ऋषि राज बोरा ने सर्दियों के दौरान आंखों की देखभाल के महत्व पर जोर दिया। ऑर्बिस उस तरह के अंधेपन की रोकथाम और उपचार के लिए समर्पित है, जिसे टाला जा सकता हो। उन्होंने कहा कि सर्दियों के महीनों में आंखों का अपेक्षित स्वास्थ्य बनाए रखने में विशिष्ट चुनौतियां पेश होती हैं, क्योंकि शुष्क हवा, घर के अंदर की गर्मी और कठोर हवाओं के संपर्क में आने से आंखें शुष्क हो सकती हैं, जलन हो सकती है और इससे भी अधिक गंभीर स्थिति पैदा हो सकती है। डॉ बोरा ने कहा, "इस मौसम के दौरान शरीर में पानी की कमी बनाये रखना, कृत्रिम आंसू का इस्तेमाल करना और कठोर मौसम की स्थिति से आंखों की रक्षा करना जैसे निवारक उपाय आंखों को स्वस्थ रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
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नयी दिल्ली. जीवन के शुरुआती दिनों में सीखे गए शब्दों के उपयोग को लेकर एक अध्ययन में रोचक जानकारी सामने आई है। क्यों लोग कुछ शब्दों को याद रखते हैं और जीवन भर उनका उपयोग करते हैं जबकि कुछ अन्य शब्द उनकी शब्दावली से बाहर हो जाते हैं? एक अध्ययन में पाया गया है कि जीवन के शुरुआती दिनों में सीखे गए शब्द और जो शब्द ‘‘उत्तेजक'' और ‘‘विचारोत्तेजक'' होते हैं, वे लोगों द्वारा लंबे समय तक उपयोग में बने रहने वाले शब्दों में शुमार होते हैं। इसमें यह भी पाया गया कि लोग जो देख सकते हैं या कल्पना कर सकते हैं, उससे जुड़े शब्द और जिन्हें ‘ठोस' शब्द के रूप में वर्णित किया गया है, प्राकृतिक रूप से लोगों की याददाश्त में लंबे समय तक बने रहने की अधिक संभावना रखते हैं। उदाहरण के लिए, ‘बिल्ली' को ‘जानवर' शब्द की तुलना में अधिक ‘ठोस' कहा जा सकता है। शोधकर्ताओं ने ‘सेक्स' और ‘लड़ाई' ऐसे कुछ उदाहरण दिए हैं, जो ऐसे शब्दों के उदाहरण हैं जो अधिक उत्तेजित और विचारोत्तेजक'' होते हैं। ब्रिटेन में वारविक विश्वविद्यालय के अध्ययन ने इस पहलू पर प्रकाश डाला कि क्यों कुछ शब्द आधुनिक भाषाई परिदृश्य में बने रहते हैं, जबकि अन्य नहीं। वारविक विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर एवं प्रमुख शोधकर्ता थॉमस हिल्स ने कहा कि निष्कर्ष इस बात पर प्रकाश डालने में मदद करते हैं कि मानव मस्तिष्क सूचनाओं को कैसे संसाधित और उपयोग करता है।
- नयी दिल्ली. अगर आप सुबह आठ बजे तक नाश्ता और रात आठ बजे रात का खाना खा लेते हैं तो एक हालिया अध्ययन के मुताबिक आप हृदय रोग के जोखिम को कई गुना कम कर सकते हैं। व्यस्त और भागदौड़ भरी दिनचर्या वाले लोगों के लिये चिकित्सक इसे हृदय संबंधी बीमारियों से बचने का एक मंत्र मानते हैं। एक अध्ययन का हवाला देते हुए डॉक्टरों ने जल्दी, नियमित और सही समय पर भोजन के महत्व पर जोर दिया है। फ्रांस में यूनिवर्सिटी सोरबोन पेरिस नॉर्ड के नेतृत्व में एक अध्ययन में भोजन के समय और हृदय रोग (सीवीडी) के जोखिम के बीच संबंध बताया गया है, जो भारत के लिए विशेष रुचि का विषय है। ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज-2022' अध्ययन के अनुसार, भारत में प्रति एक लाख जनसंख्या पर हृदय संबंधी मृत्यु दर 272 है, जो वैश्विक औसत 235 से बहुत अधिक है। सीवीडी हृदय और रक्त वाहिकाओं के विकारों का एक समूह है और इसमें कोरोनरी हृदय रोग, सेरेब्रोवास्कुलर रोग, रूमेटिक हृदय रोग और अन्य स्थितियां शामिल हैं। ‘नेचर कम्युनिकेशंस' पत्रिका में प्रकाशित फ्रांसीसी अध्ययन में पाया गया कि दिन का पहला और आखिरी भोजन जल्दी खाने के साथ-साथ रात के समय लंबे समय तक उपवास करने से हृदय रोगों का खतरा कम हो सकता है। यह 2019 में 1.86 करोड़ वार्षिक मौतों के साथ दुनिया में मृत्यु दर का प्रमुख कारण है, जिनमें से लगभग 79 लाख मौतें आहार के कारण होती हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, निष्कर्ष में अतिरिक्त वैज्ञानिक अध्ययनों के माध्यम से हृदय रोग को रोकने में भोजन के समय की संभावित भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। यह अध्ययन विशिष्ट रूप से भारत को ध्यान में रखकर नहीं किया गया है लेकिन उत्तर प्रदेश के कानपुर में रीजेंसी अस्पताल के कन्सलटेंट हृदय रोग विशेषज्ञ अभिनीत गुप्ता ने कहा कि देश में हृदय रोगों के बढ़ते बोझ को देखते हुए इसके निष्कर्षों का आबादी पर प्रभाव पड़ सकता है। गुप्ता ने बताया, “एक डॉक्टर के रूप में, मैं भारत में लोगों को सलाह दूंगा कि वे अपने भोजन के समय का ध्यान रखें और पोषण के प्रति संतुलित दृष्टिकोण अपनाएं।” उन्होंने कहा, “हालांकि अलग-अलग लोगों की आहार की जरूरतें अलग-अलग हो सकती हैं, नियमित, दो भोजन के बीच समय अंतराल पर जोर देना और सोने से पहले भारी भोजन से बचना महत्वपूर्ण है।” डॉ. गुप्ता ने कहा, “यह सलाह स्वस्थ जीवन शैली बनाए रखने के स्थापित सिद्धांतों के अनुरूप है, जिसमें एक संतुलित आहार, नियमित शारीरिक गतिविधि और अन्य कारक शामिल हैं जो हृदय को स्वस्थ रखने में योगदान देते हैं।” दिल्ली के उजाला सिग्नस ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स के वरिष्ठ परामर्शदाता, इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट, विजय कुमार ने कहा, समय पर भोजन करने के ज्ञान का पालन करना, विशेष रूप से शाम को, अब हृदय संबंधी समस्याओं को रोकने में अपनी भूमिका के लिए वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त कर चुका है। फ्रांसीसी अध्ययन में कहा गया था कि सूर्य का प्रकाश के अलावा, उपवास की अवधि के साथ भोजन सेवन (भोजन, नाश्ता, आदि) का दैनिक चक्र शरीर के विभिन्न अंगों की सर्कडीयन (शरीर की आंतरिक घड़ी) लय को लयबद्ध करता है, जो रक्तचाप विनियमन जैसे हृदय संबंधी चयापचयी कार्यों को प्रभावित करता है। सर्कडीयन लय हमारे शरीर की आंतरिक घड़ी है जो पूरे दिन शारीरिक कार्यों को व्यवस्थित करती है।अध्ययन में 103,389 (एक लाख से अधिक) प्रतिभागियों के आंकड़ों का उपयोग किया गया, जिनमें से 79 प्रतिशत महिलाएं थीं, जिनकी औसत आयु 42 वर्ष थी। नतीजे बताते हैं कि दिन में पहला भोजन बाद में करना, जैसे कि नाश्ता न करना, हृदय रोग के उच्च जोखिम से जुड़ा है, प्रति घंटे की देरी से जोखिम में छह प्रतिशत की वृद्धि होती है। अध्ययनकर्ताओं ने कहा, इसका मतलब है कि जो लोग सुबह नौ बजे दिन में पहली बार नाश्ता करते हैं उनमें उन लोगों के मुकाबले हृदय रोग से पीड़ित होने का खतरा छह प्रतिशत ज्यादा होता है जो सुबह आठ बजे नाश्ता करते हैं। उन्होंने कहा कि रात 8 बजे से पहले खाने की तुलना में देर से (रात 9 बजे के बाद) खाने से सेरेब्रोवास्कुलर रोग जैसे हृदयाघात का खतरा 28 प्रतिशत बढ़ जाता है, खासकर महिलाओं में। अध्ययन से यह भी पता चलता है कि रात के समय उपवास की लंबी अवधि - दिन के आखिरी भोजन और अगले दिन के पहले भोजन के बीच का समय - सेरेब्रोवास्कुलर रोग के कम जोखिम से जुड़ा होता है, जो दिन में अपना पहला और आखिरी भोजन जल्द खाने के विचार का समर्थन करना। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, हृदय रोगों के कारण दुनिया भर में होने वाली कुल 1.77 करोड़ मौतों में से भारत का पांचवां हिस्सा है, खासकर युवा आबादी में। कुमार ने बताया, “नवीनतम अध्ययन इन बीमारियों के विकास और प्रगति पर आहार के महत्वपूर्ण प्रभाव को रेखांकित करता है।”
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नयी दिल्ली. एक अध्ययन में दावा किया गया है कि पौधों में पाया जाने वाला एक तत्व ‘साइटिसिन', प्लसीबो की तुलना में सफलतापूर्वक धूम्रपान छोड़ने की संभावना को दो गुना बढ़ा देता है और ‘निकोटिन रिप्लेसमेंट थेरेपी' से अधिक प्रभावी हो सकता है। शोधकर्ताओं ने कहा कि कम लागत वाले एवं धूम्रपान रोकने में मददगार ‘साइटिसिन' का उपयोग पूर्वी यूरोप में 1960 के दशक से किया जा रहा है और इसके उपयोग के बाद कोई गंभीर सुरक्षा चिंताएं नहीं देखी गई हैं। प्लसीबो, ऐसी चिकित्सा को कहते हैं जिसका वैज्ञानिक आधार नहीं होता। ऐसी चिकित्सा पद्धति या तो प्रभावहीन होती है, या फिर यदि कोई सुधार दिखता भी है तो उसका कारण अन्य होता है। साइटिसिन को मध्य और पूर्वी यूरोप के बाहर के अधिकतर देशों में लाइसेंस प्राप्त नहीं है और ना ही इसका विपणन किया जाता है, जिसके चलते यह दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में उपलब्ध नहीं है। इस सूची में निम्न और मध्यम आय (एलएएमआई) वाले देश भी शामिल हैं, जहां यह वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य क्षेत्र में बड़ा बदलाव ला सकती है। जर्नल ‘एडिक्शन' में प्रकाशित अध्ययन में लगभग 6,000 रोगियों पर प्लसीबो के साथ साइटिसिन की तुलना करने वाले आठ परीक्षणों के परिणामों को एकत्रित किया गया। शोधकर्ताओं के मुताबिक, संयुक्त परिणामों से पता चला है कि साइटिसिन, प्लसीबो की तुलना में धूम्रपान बंद करने की संभावना को दो गुना से अधिक बढ़ा देता है। उन्होंने यह भी पाया कि ‘निकोटिन रिप्लेसमेंट थेरेपी' की तुलना में साइटिसिन अधिक प्रभावी हो सकता है।
‘निकोटिन रिप्लेसमेंट थेरेपी' तंबाकू के अलावा अन्य माध्यमों से निकोटिन लेकर तंबाकू सेवन विकार वाले लोगों के इलाज के लिए एक चिकित्सकीय रूप से अनुमोदित तरीका है। अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स स्थित ‘सेंट्रो नेशनल डी इन्टॉक्सिकेशियंस' (सीएनआई) से जुड़े एवं शोधकर्ता ओ. डी. सैंटी ने कहा, ‘‘हमारा अध्ययन इस सबूत को पुख्ता करता है कि साइटिसिन धूम्रपान रोकने में एक प्रभावी और सस्ता तरीका है। यह एलएएमआई देशों में धूम्रपान की समस्या से निपटने में बहुत उपयोगी साबित हो सकता है, जहां धूम्रपान छोड़ने वाली किफायती दवाओं की तत्काल आवश्यकता है। -
गक्बेरहा (दक्षिण अफ्रीका)। पिछले 15 वर्षों में, चिन्हों और निशानों के हमारे वैज्ञानिक अध्ययन के माध्यम से, हमने दक्षिण अफ्रीका के केप दक्षिणी तट से 350 से अधिक जीवाश्म कशेरुकी ट्रैकसाइट्स की पहचान की है। अधिकांश सीमेंटेड रेत के टीलों में पाए जाते हैं, जिन्हें एओलियनाइट्स कहा जाता है, और सभी प्लेइस्टोसिन युग के हैं, जिनकी उम्र लगभग 35,000 से 400,000 वर्ष तक है। उस दौरान हमने अपने पहचान कौशल को निखारा है और ट्रैकसाइट्स को खोजने और उनकी व्याख्या करने के आदी हो गए हैं - एक क्षेत्र जिसे इच्नोलॉजी कहा जाता है। और फिर भी, कभी-कभार, हमारा सामना किसी ऐसी चीज़ से होता है जिसके बारे में हमें तुरंत पता चलता है कि यह इतना अनोखा है कि यह पृथ्वी पर कहीं और नहीं पाया गया है।
अप्रत्याशित खोज का ऐसा क्षण 2019 में केप टाउन से लगभग 200 किमी पूर्व में डी हूप नेचर रिजर्व के समुद्र तट पर हुआ। जीवाश्म हाथियों के ट्रैक के समूह से दो मीटर से भी कम दूरी पर 57 सेमी व्यास वाली एक गोल संरचना थी, जिसमें संकेंद्रित वलय विशेषताएं थीं। इस सतह से लगभग 7 सेमी नीचे एक और परत उजागर हुई। इसमें कम से कम 14 समानांतर खांचे थे। खांचे छल्लों के पास पहुंचकर उनकी ओर थोड़ा सा मुड़ गए थे। इस संरचना को देखकर हमने जिन दो निष्कर्षों की परिकल्पना की थी, वे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे और एक ही मूल के प्रतीत होते थे। हाथी ज़मीन पर रहने वाले सबसे बड़े, भारी जानवर हैं। वे बड़े, गहरे, आसानी से पहचाने जाने योग्य निशान छोड़ते हैं। हमने अपने अध्ययन क्षेत्र में 35 जीवाश्म हाथी ट्रैक साइटों का दस्तावेजीकरण किया है, साथ ही जीवाश्म हाथी ट्रंक-ड्रैग इंप्रेशन का पहला सबूत भी प्राप्त किया है। हाथियों को, विशाल भूमि प्राणियों के एक अन्य समूह, डायनासोर की तरह, भूवैज्ञानिक इंजीनियरों के रूप में देखा जा सकता है जो जिस जमीन पर चलते हैं, उस पर छोटे-मोटे पृथ्वी-चालित बल बनाते हैं। इसे हाथियों की एक उल्लेखनीय क्षमता से भी जोड़ा जा सकता है: भूकंपीय तरंगें उत्पन्न करके संचार करना। ये ऊर्जा का एक रूप है जो पृथ्वी की सतह के नीचे यात्रा कर सकता है। 2019 में हमें जो निशान मिले, वह ऐसी ही एक घटना को प्रतिबिंबित करते प्रतीत हुए: एक हाथी जो लहरों को ट्रिगर कर रहा था जो बाहर की ओर तरंगित हो रही थी। अतिरिक्त जांच और वैकल्पिक स्पष्टीकरणों की गहन खोज के बाद, हम हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में रिपोर्ट कर सकते हैं कि हमारा मानना है कि हमें हाथियों के बीच भूकंपीय, भूमिगत संचार का दुनिया का पहला जीवाश्म निशान मिला है।
1980 के दशक के बाद से, साहित्य के एक निरंतर बढ़ते समूह ने इन्फ्रासाउंड के माध्यम से ‘‘हाथी भूकंपीयता'' और भूकंपीय संचार का दस्तावेजीकरण किया है। मानव श्रवण की निचली सीमा 20एचजैड है; उससे नीचे, कम आवृत्ति वाली ध्वनियों को इन्फ्रासाउंड के रूप में जाना जाता है। हाथी की ‘‘गड़गड़ाहट'', जो स्वरयंत्र से उत्पन्न होती है और अंगों के माध्यम से जमीन में संचारित होती है, इन्फ्रासोनिक रेंज के अंतर्गत आती है। उच्च आयाम पर इन्फ्रासाउंड (थोड़ी अधिक आवृत्ति पर यह हमें बहुत तेज़ लगेगा) उच्च आवृत्ति ध्वनियों की तुलना में 6 किमी तक की दूरी तक यात्रा कर सकता है। यहां हाथियों को फायदा है। हल्के जीव आवाज के माध्यम से कम आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगें उत्पन्न नहीं कर सकते। ऐसा माना जाता है कि लंबी दूरी का भूकंपीय संचार हाथियों के समूहों को पर्याप्त दूरी तक संवाद करने का अवसर दे सकता है, और यह दिखाया गया है कि रेतीले इलाके संचार को सबसे दूर तक यात्रा करने में मदद देते हैं।
वैज्ञानिकों के लिए हाथी की भूकंपीयता अध्ययन का एक अपेक्षाकृत नया क्षेत्र है। हालाँकि, जो लोग हाथियों के करीब रह चुके हैं उन्हें जानवरों के कंपन के माध्यम से संचार करने के विचार पर आश्चर्य नहीं होगा। वास्तव में, हाथियों की गड़गड़ाहट से होने वाले कंपन को कभी-कभी चतुर पर्यवेक्षक द्वारा महसूस किया जा सकता है (सुनने के बजाय)। और ऐसा प्रतीत होता है कि यह ज्ञान एकदम नया नहीं है। हमारी टीम के रॉक कला विशेषज्ञों ने रॉक कला की पहचान की है और उसकी व्याख्या की है, जिससे पता चलता है कि हजारों साल पहले स्वदेशी सैन लोगों ने दक्षिणी अफ्रीका में इस ज्ञान का पता लगाया था। सैन के लिए हाथियों का अत्यधिक महत्व था और उनकी कला कृतियों में इन्हें प्रमुखता से दर्शाया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि कई शैल कला स्थलों में ध्वनि या कंपन के संबंध में हाथियों के चित्र मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, सेडरबर्ग में मोंटे क्रिस्टो साइट पर कलाकार ने कई समूहों में 31 हाथियों को चित्रित किया है। वे एक यथार्थवादी व्यवस्था में हैं. प्रत्येक हाथी को महीन लाल रेखाएँ घेरती हैं; टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ पेट, कमर, गले, धड़ और विशेष रूप से पैरों को छूती हैं। कई टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ हाथी को ज़मीन से जोड़ती हैं। बेहतरीन रेखाएँ हाथियों के सबसे करीब होती हैं, और प्रत्येक हाथी रेखाओं के इस सेट से जुड़ा होता है। ये बदले में हाथी समूह के आसपास की व्यापक रेखाओं से जुड़े होते हैं, जो संकेंद्रित वलय के रूप में हाथियों से बाहर और दूर तक विकीर्ण होते हैं। इसकी व्याख्या सैन कलाकार द्वारा हाथियों के बीच भूकंपीय संचार के संभावित चित्रण के रूप में की गई है। झटकों और कंपन की अनुभूति, जिसे सैन थारा एन|ओम कहते हैं, हाथी गीत और हाथी नृत्य सहित सैन उपचार नृत्यों के लिए महत्वपूर्ण है। ऊर्जा की रेखाएँ, जिन्हें एन|ओएम कहा जाता है, एक जीवंत जीवन देने वाली शक्ति के रूप में मानी जाती हैं जो सभी जीवित प्राणियों को अनुप्राणित करती हैं और सभी प्रेरित ऊर्जा का स्रोत हैं। हमारा मानना है कि हाथियों की भूकंपीयता को समझने के लिए ज्ञान के तीन निकायों के एकीकरण की आवश्यकता है: मौजूदा हाथियों की आबादी पर शोध, पैतृक ज्ञान (अक्सर रॉक कला में प्रकट) और ट्रेस जीवाश्म रिकॉर्ड। हाथी का भूकंपीय संचार एक ऐसा निशान छोड़ सकता है जिसका जीवाश्म रिकॉर्ड पहले कभी रिपोर्ट नहीं किया गया था, या यहां तक कि अनुमान भी नहीं लगाया गया था। हमारे निष्कर्षों में इस क्षेत्र में बहु-विषयक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने की क्षमता हो सकती है। इसमें आधुनिक गड़गड़ाते हाथियों के आसपास रेत में उप-सतह पैटर्न की एक समर्पित खोज शामिल हो सकती है। -
स्मार्टफोन के बिना अब जिंदगी की कल्पना करना संभव नहीं। स्मार्टफोन हैं, तो तरह-तरह के ऐप हैं। अपने इस नए कॉलम के जरिए हम आपको देंगे, ऐसे ही उपयोगी ऐप्स की जानकारी। ताकि आपकी जिंदगी बन सके, पहले से कुछ ज्यादा आसान, कुछ ज्यादा मजेदार!
ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों के लिए फायदेमंद 'AUTISMBASICS'-
जो काम एक्सपर्ट कर सकते हैं, वह काम हम आम लोगों के लिए कर पाना कई गुना मुश्किल हो जाता है। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे की परवरिश ऐसी ही एक चीज है। बच्चों की परवरिश यूं ही मुश्किल भरा काम है, उस पर बच्चे को अलग से थेरेपी की जरूरत हो तो चुनौती कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों को नियमित रूप से मनोविशेषज्ञ, स्पीच थेरेपिस्ट, बिहेवियरल थेरेपिस्ट और ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट की जरूरत होती है। हर अभिभावक की इन तक पहुंच हो, यह संभव नहीं। ऐसे में अपने खास बच्चे की परवरिश को थोड़ा आसान बनाने और उनमें सभी जरूरी स्किल्स को विकसित करने के लिए आप इस ऐप की मदद ले सकती हैं। इसकी मदद से ना सिर्फ आपके लिए अपने बच्चे को नियमित रूप से विभिन्न थेरेपी देना आसान होगा बल्कि यहां अपने जैसे अभिभावकों द्वारा पोस्ट किए गए वीडियो को देखकर भी काफी कुछ सीख सकेंगी।
करियर से जुड़ा सही निर्णय लेने के लिए 'AMBITIONBOX'-
अच्छी पढ़ाई, बेहतरीन करियर और खुशहाल जिंदगी...अधिकांश लोगों के सपनों का क्रम अमूमन यही होता है। पर, कई दफा अच्छी पढ़ाई करने के बावजूद करियर की राह इतनी आसान नहीं होती। योग्यता के अनुरूप नौकरी नहीं मिलती। नौकरी मिलती है, तो सैलरी अपेक्षा के अनुरूप नहीं होती। नौकरी तलाशने की आपकी राह को आसान करने में यह ऐप एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। यहां ना सिर्फ आप नौकरी की तलाश कर सकती हैं, बल्कि करियर में आगे बढ़ने के लिए जरूरी तैयारियों की रूपरेखा भी तय कर सकती हैं। ऐप पर 32 लाख से ज्यादा कंपनियों के रिव्यू उपलब्ध हैं। कंपनियों द्वारा दिए जा रहे वेतनमान की जानकारी यहां है, साथ ही इंटरव्यू में किस तरह के सवाल पूछे जा सकते हैं, उसकी जानकारी भी आप ऐप के माध्यम से प्राप्त कर सकती हैं। अपने करियर के बारे में सही निर्णय लेने में यह ऐप आपके लिए मददगार साबित हो सकता है।
स्ट्रेस फ्री रहने के लिए LEVELSUPERMIND-
मन की शांति की तलाश में हम सब हैं, पर बहुत कम लोग ही ऐसे हैं जो अपने इस लक्ष्य तक पहुंच पाते हैं। मन की शांति पाने में गूगल द्वारा 2023 के सबसे अच्छे ऐप्स में चुना गया यह ऐप आपके लिए मददगार साबित हो सकता है। यह ऐप ध्यान, नींद और रिलैक्सेशन तकनीकों की मदद से मानसिक शांति पाने में आपकी मदद करेगा। आज के समय में तनाव, एंग्जाइटी और जिंदगी की दैनिक जिम्मेदारियां साथ मिलकर कभी-कभार हम पर पूरी तरह से हावी हो जाती हैं। यह ऐप ध्यान, प्राणायाम, व्यायाम, सकारात्मक बातें, अच्छी नींद व अपनों की बातों को एक जगह लिखने के लिए आपको प्रेरित कर मन की उथल-पुथल को शांत करने में आपकी मदद करेगा। यह ऐप अभी हिंदी और अंग्रेजी के अलावा पांच अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है।
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नयी दिल्ली. एक अध्ययन से पता चला है कि चीन, जापान और भारत जैसे देशों में मिलने वाले शाकाहारी और पारंपरिक भोजन अल्जाइमर रोग के खतरे को कम कर सकते हैं, खासकर पश्चिमी देशों के भोजन की तुलना में। अमेरिकी संस्था ‘सनलाइट, न्यूट्रीशन और हेल्थ रिसर्च सेंटर' के शोधकर्ताओं ने पाया कि इन देशों में पोषण युक्त भोजन को पश्चिमी भोजन में बदल दिया जाता है तो इससे अल्जाइमर रोग भी बढ़ जाता है। ‘जर्नल ऑफ अल्जाइमर डिजीज' में प्रकाशित अध्ययन में अल्जाइमर रोग के जोखिम को कम करने में आहार की भूमिका के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस अध्ययन में मनोभ्रम के जोखिम के कारकों की पहचान की गई है, जिसमें संतृप्त वसा, मांस, विशेष रूप से हैम्बर्गर तथा बारबेक्यू जैसे कच्चे मांस, साथ ही हॉट डॉग जैसे प्रसंस्कृत मांस और अधिक मात्रा में चीनी तथा परिष्कृत अनाज वाले अत्याधिक-प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ का अधिक सेवन करना शामिल हैं। अध्ययन में इस बात का भी विशेलषण किया गया है कि आखिर क्यों कुछ खाद्य पदार्थ अल्जाइमर रोग के खतरे को बढ़ाते या कम करते हैं। उदाहरण के लिए, मांस का सेवन सूजन-जलन, इंसुलिन प्रतिरोध, ऑक्सीडेटिव तनाव, संतृप्त वसा, उन्नत ग्लाइकेशन अंत उत्पाद और ट्राइमेथिलैमाइन एन-ऑक्साइड जैसे जोखिम कारकों को बढ़ाकर मनोभ्रम के खतरे को और अधिक तेज कर देता है। यह भी बताया गया कि शाकाहारी भोजन जैसे कि हरी पत्तेदार सब्जियां, फल, फलियां (जैसे बीन्स), बादाम, और साबुत अनाज अल्जाइमर रोग से हमें एक तरीके से बचाने का काम करते हैं। शोधकर्ताओं ने कहा कि अत्याधिक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ मोटापे और मधुमेह के खतरे को बढ़ा सकते हैं, जो अल्जाइमर रोग के लिए जोखिम कारक हैं।
- किसी भी प्राणी के लिए जीवित रहने से लेकर हेल्दी और फिट रहने तक खून की सही मात्रा बेहद जरूरी है। दुनियाभर में मौजूद सभी लोगों के खून का रंग लाल ही होता है। खून के लाल होने के बावजूद लोगों की नसें नीली और जामुनी रंग की दिखाई देती हैं। लेकिन चोट लगने या इंजरी होने पर हर व्यक्ति के शरीर से निकलने वाला ब्लड या खून लाल रंग का ही होता है। खून में दो तरह की रक्त कणिकाएं पाई जाती हैं, एक सफेद रक्त कणिकाएं और दूसरी लाल रक्त कणिकाएं। लेकिन हमें दिखने वाले खून के रंग की बात करें तो वह लाल रंग का ही होता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि आखिर खून का रंग लाल होने के पीछे क्या कारण है और किस वजह से शरीर में मौजूद ब्लड या खून का रंग लाल ही होता है। आइये इस लेख में विस्तार से जानते हैं खून का रंग लाल क्यों होता है इसे कारण के बारे में।खून का रंग लाल क्यों होता है?साइंस के मुताबिक बिना ऑक्सीजन वाला खून लाल नहीं बल्कि नीले रंग का होता है। हम सभी जानते हैं कि खून में मौजूद रेड ब्लड सेल्स और वाइट ब्लड सेल्स खून की मात्रा को पूरा करते हैं। लाल रक्त कोशिकाओं या रेड ब्लड सेल्स में प्रोटीन ऑक्सीजन होता है, जिसे हम हीमोग्लोबिन के नाम से जानते हैं। शरीर में खून की कमी होने को हीमोग्लोबिन की कमी के नाम से भी जाना जाता है। खून का रंग लाल होने के पीछे ब्लड में मौजूद लाल रक्त कोशिकाओं का अहम रोल होता है। दरअसल ब्लड में मौजूद हीमोग्लोबिन के कारण इसका रंग लाल होता है।"हीमोग्लोबिन में आयरन के चार अणु मौजूद होते हैं। जब इनपर लाइट पड़ती है, तो इनका रंग लाल हो जाता है। यही कारण है कि जब भी हम खून देखते हैं, तो यह लाल रंग का दिखाई देता है। खून में ऑक्सीजन की कमी होने पर इसके रंग में बदलाव भी देखने को मिल सकता है। हीमोग्लोबिन एक तरह का प्रोटीन है, जो आयरन अणु के सतह मिलकर एक कॉम्प्लेक्स बनता है और शरीर में ऑक्सीजन के अणु का प्रवाह मैनेज करता है।शरीर में खून की कमीएनीमिया को शरीर में खून की कमी या हीमोग्लोबिन की कमी भी कहते हैं। यह समस्या कई कारणों से किसी भी उम्र के व्यक्ति में हो सकती है। कारणों के आधार पर एनीमिया की बीमारी को अलग-अलग तरह से देखा जाता है। कुछ लोगों में एनीमिया की समस्या आनुवांशिक कारणों से भी हो सकता है। इस स्थिति में जांच और इलाज दोनों ही अलग तरीके से होता है।एनीमिया की जांच आमतौर पर सीबीसी से हो जाती है, लेकिन कुछ लोगों में यह समस्या एडवांस स्टेज पर होती है। ऐसे में इनका पता लगाने के ये टेस्ट किये जा सकते हैं। एनीमिया होने पर शरीर में थकान, भूख कम लगना, कमजोरी के साथ चक्कर आना और उल्टी व पतली की समस्या हो सकती है।
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ह्यूस्टन. बैक्टीरिया यानि जीवाणु ऐसी यादों की रचना कर सकते हैं कि कब ऐसी रणनीतियां बनाई जाएं, जो लोगों में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध जैसे खतरनाक संक्रमण पैदा कर सकती हैं। एक अध्ययन में यह पाया गया है। अमेरिका के ऑस्टिन में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के शोधकर्ताओं ने कहा कि ये रणनीतियां जीवाणु को एक ऐसी समूह की रचना में भी मदद करती हैं, जहां लाखों की तादाद में इस तरह के सूक्ष्मजीव एक साथ इकट्ठा हो जाते हैं। जर्नल प्रोसीडिंग ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित निष्कर्षों में बैक्टीरियाल संक्रमण से लड़ने व उन्हें रोकने और एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया की समस्या को हल करने की क्षमता दिखाई देती है। शोधकर्ताओं ने कहा कि यह खोज एक ऐसे सामान्य रासायनिक तत्व से जुड़ी हुई है, जिसका उपयोग जीवाणु कोशिकाएं यादों को बनाने और भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए कर सकती हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि ई. कोली नाम का जीवाणु अलग-अलग व्यवहारों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए आयरन के स्तर को एक तरीके के रूप में उपयोग करते हैं, जो कुछ विशिष्ट प्रकार की उत्तेजना होने पर सक्रिय हो जाते हैं। अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता सौविक भट्टाचार्य ने कहा, ''जीवाणु का दिमाग नहीं होता लेकिन वे अपने अनुकूल माहौल से जानकारी इकठ्ठा कर सकते हैं और अगर वे बार-बार उस माहौल के संपर्क में आते रहेंगे तो वे जानकारियां संग्रहित कर सकते हैं और अपने फायदे के लिए बाद में उस तक आसानी से पहुंच बना सकते हैं।'' शोधकर्ताओं ने चिन्हित किया कि इन सबकी वजह आयरन ही है, जो पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में मौजूद तत्वों में से एक है। हर बैक्टीरिया में आयरन का स्तर अलग-अलग होता है। उन्होंने पाया कि जिन जीवाणु में आयरन का स्तर निम्न था उनमें समूह में रहने की प्रवृति दूसरे जीवाणुओं के मुकाबले ज्यादा बेहतर थी। शोधकर्ताओं ने कहा कि इसके विपरीत जो जीवाणु बायोफिल्म बनाते हैं उनकी कोशिकाओं में आयरन का स्तर अधिक होता है। वे बैक्टीरिया, जिनमें एंटीबायोटिक को सहन करने की क्षमता होती है उनमें भी आयरन का स्तर संतुलित पाया गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार, आयरन के स्तर से जुड़ी ये यादें कम से कम चार पीढ़ियों तक बनी रहती हैं और सातवीं पीढ़ी तक नष्ट हो जाती हैं।
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नयी दिल्ली. अमेरिका में दस लाख से अधिक लोगों के जीनोम विश्लेषण में दर्जनों ऐसे अनुवांशिक जीन स्वरूप मिले हैं जिनसे गांजे के इस्तेमाल से होने वाले विकार पैदा होने का अधिक खतरा है। येल यूनिवर्सिटी के नेतृत्व में कराए गए इस अध्ययन में ये अनुवांशिक स्वरूप व्यवहार और स्वास्थ्य संबंधी अनेक मुद्दों से जुड़े पाए गए जिनमें फेफड़े का कैंसर भी शामिल है। पिछले अध्ययनों से पता चला है कि कैनबिस या मारिजुआना (गांजे) का उपयोग करने वाले लगभग एक-तिहाई लोगों में कैनबिस यूज डिसऑर्डर विकसित होता है, जिसे कैनबिस के उपयोग के एक समस्याग्रस्त पैटर्न के रूप में परिभाषित किया जाता है। कैनबिस में भांग के पौधे की सूखी पत्तियां होती हैं और इसका धूम्रपान करके या चबाकर इस्तेमाल किया जाता है। नेचर जेनेटिक्स पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में यह दावा किया गया है।
मनोविज्ञान, अनुवांशिकी और तंत्रिका विज्ञान के प्रोफेसर जोएल गेलेर्नटर ने कहा, ‘‘यह कैनबिस यूज डिसऑर्डर का अब तक का सबसे बड़ा जीनोम अध्ययन है और जितने अधिक (अमेरिकी) राज्य मारिजुआना के उपयोग को वैध या अपराधमुक्त करेंगे, ऐसे अध्ययन हमें इसके बढ़ते उपयोग के साथ होने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिमों को समझने में मदद कर सकते हैं। -
बेंगलुरु. अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में भविष्य में सहयोग के अवसरों पर चर्चा की है। नासा जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) की निदेशक लॉरी लेशिन ने यहां इसरो मुख्यालय का दौरा किया और भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के अध्यक्ष एवं अंतरिक्ष विभाग के सचिव एस. सोमनाथ के साथ बैठक की। इसरो ने एक बयान में कहा,'' डॉ. लॉरी लेशिन ने इसरो के यूआर राव उपग्रह केंद्र (यूआरएससी) में जेपीएल और इसरो के अधिकारियों के एक टीम के रूप में संयुक्त प्रयासों पर खुशी प्रकट की, जो नासा-इसरो सिंथेटिक एपर्चर रडार (निसार) को विकसित करने में जुटे हुए हैं।'' इसरो ने कहा कि लेशिन की 15 नवंबर को हुई यात्रा के दौरान निसार के प्रक्षेपण की तैयारी और तकनीकी क्षेत्रों एवं अंतरिक्ष अन्वेषण में पेशेवरों का आदान-प्रदान सहित भविष्य के सहयोग के अवसरों पर भी चर्चा की गई। इसरो सूत्रों ने कहा कि निसार एक पृथ्वी की निचली कक्षा (एलईओ) वाला वेधशाला है जिसे ‘अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन' (नासा) और इसरो संयुक्त रूप से विकसित कर रहा है। निसार का 2024 की पहली तिमाही में श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपण किये जाने की उम्मीद है। इसरो के अनुसार, ''निसार 12 दिनों में पूरी पृथ्वी का मानचित्रण करेगा और इसकी पारिस्थितिकी, ग्लेशियर के द्रव्यमान, वनस्पति जैव भार (बायोमास), समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, भूजल और भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखी एवं भूस्खलन सहित प्राकृतिक आपदाओं के खतरों में परिवर्तन को समझने के लिए स्थानिक डेटा प्रदान करेगा।'
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बेंगलुरु. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने एक अंतरिक्ष प्रतियोगिता के जरिये युवाओं से भविष्य में भेजे जाने वाले रोबोटिक रोवर्स संबंधी मौलिक विचार और डिजाइन भेजने को कहा है। चंद्रमा की सतह पर चंद्रयान-3 के लैंडर विक्रम की सफल ‘सॉफ्ट लैंडिंग' और चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास अन्वेषण के बाद, इसरो ने कहा कि वह चंद्रमा और अन्य खगोलीय पिंडों के लिए भविष्य के रोबोटिक अन्वेषण अभियानों की तैयारी कर रहा है। यहां स्थित मुख्यालय में इसरो ने कहा कि वह संगठन के उद्देश्यों के अनुरूप प्रौद्योगिकी विकास गतिविधियों में भाग लेने के लिए शिक्षा जगत और उद्योगों को अवसर प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है। संगठन ने कहा, ‘‘इस दृष्टिकोण के अनुरूप, यू आर राव उपग्रह केंद्र (यूआरएससी)/इसरो अंतरिक्ष रोबोटिक्स में विकास के अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से एक अंतरिक्ष रोबोटिक्स प्रतिस्पर्धा आयोजित करेगा जिसके माध्यम से भारत के युवाओं से भविष्य के मिशन के लिए रोबोटिक रोवर्स के मौलिक विचारों और डिजाइन का आह्वान किया जाता है। इससे इसरो के अंतर-ग्रहीय मिशन के प्रति देश के युवाओं में रचनात्मक सोच विकसित करने का मौका मिलेगा।'' इसरो ने बयान में कहा कि अंतरिक्ष रोबोटिक्स के क्षेत्र में छात्रों को अवसर प्रदान करने के लिए, ‘इसरो रोबोटिक्स चैलेंज-यूआरएससी 2024 (आईआरओसी-यू 2024)' का आयोजन ‘आओ एक अंतरिक्ष रोबोट बनाएं' की टैगलाइन के साथ किया जाएगा। संगठन ने कहा कि अंतिम प्रतियोगिता अगस्त 2024 में यूआरएससी बेंगलुरु परिसर में आयोजित करने की योजना है।
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नयी दिल्ली. आधुनिक विश्व में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण जल, थल और नभ में इस कदर व्याप्त हो गये हैं कि इनसे किसी भी प्राणी का अछूता रहना लगभग असंभव हो गया है। प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘यूरोप एक्वाकल्चर' में छपे ताजा शोध पत्र के अनुसार हम जिस "टी-बैग" को गर्म पानी में डालकर चाय बनाते हैं, उसके माध्यम से भी ऐसे कण शरीर के भीतर रक्त में घुल रहे हैं। इस शोध पत्र के लेखक पद्मश्री से सम्मानित भारतीय वैज्ञानिक डॉ. अजय कुमार सोनकर ने कहा, ‘‘हमारी कल्पना के परे अनेक माध्यमों से माइक्रॉन व नैनो आकार के प्लास्टिक के कण हमारे खून में निरंतर पहुँच रहे हैं।'' अपने शोध का विवरण देते हुए उन्होंने बताया कि प्लास्टिक एक अप्राकृतिक पदार्थ है, जिसका एक सामान्य गुण होता है कि समय बीतने के साथ वह अपना लचीलापन खो देता है और भंगुर होकर टूटता है। उन्होंने कहा, ‘‘ इन कणों की भंगुर होने की प्रक्रिया धूप और संक्षारक (कोरोसिव) वातावरण में तेज हो जाती है, तो इसके कण ‘माइक्रॉन' और ‘नैनो पार्टिकल' में बदलकर पूरे वातावरण में फैल जाते हैं और बरसात के पानी के साथ हर जल स्रोत (नदी पोखर, सिंचाई के पानी) में पहुंचते हैं। वहां से ये कण वाष्पीकरण के बाद बादलों तक पहुंच जाते हैं और फिर बादलों के माध्यम से उन स्थानों तक भी पहुंच गये हैं, जिन्हें अछूता (वर्जिन) क्षेत्र (पहाड़ों, ग्लेशियर) समझा जाता रहा है। यानी यह हमारी भोजन श्रृंखला में शामिल हो गया है।'' उन्होंने एक उदाहरण देते हुए बताया कि एक "टी-बैग" को गर्म पानी में घोलने के बाद उस चाय की एक बूंद का जब माइक्रोस्कोप में विश्लेषण किया, तो यह बात सामने आयी कि अनगिनत संख्या में माइक्रॉन साइज के प्लास्टिक के कण उस एक बूंद चाय में मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि चाय के माध्यम से यह सूक्ष्म कण मनुष्य के खून में पहुँच जाते हैं। उन्होंने कहा कि ‘‘यह हमारे खून में प्लास्टिक के कण भेजने वाला अकेला माध्यम नहीं है'' तथा विभिन्न माध्यम से ये कण मनुष्य के रक्त में पहुंच रहे हैं। डॉ. सोनकर ने कहा कि जो लोग "सिंगल यूज प्लास्टिक" के प्रतिबंधित होने से खुश हो रहे हैं, उन्हें प्लास्टिक की भयावहता के बारे में पता ही नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘समस्या इतनी विकट है कि यह सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध से खत्म नहीं हो सकती।'' एक वैज्ञानिक अध्ययन का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि एक सामान्य व्यक्ति करीब पांच ग्राम प्लास्टिक के कण हर सप्ताह अपने शरीर में पहुँचा रहा है। उन्होंने कहा, ‘‘ये प्लास्टिक हमारे शरीर में जाकर करता क्या है? प्लास्टिक में बिस्फेनाल-ए, बी़.पी.ए., थैलेट्स, ‘परपालीफ्लोरोअल्काइल सब्सटांस' (पीएफएएस) जैसे तमाम जहरीले रसायन होते हैं, जो कैंसर जैसे गम्भीर रोगजनक रसायन हैं।'' उन्होंने बताया, ‘‘प्रयागराज के अपने सूक्ष्म जीव विज्ञान व टिश्यू कल्चर प्रयोगशाला में एक प्रयोग के दौरान मैं अंडमान के समुद्री सीप के ‘मेंटल टिश्यू' का सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में विश्लेषण कर रहा था, तभी मुझे टिश्यू में कुछ अज्ञात कणों की उपस्थिति दिखी। अध्ययन करने पर पता चला कि वो माइक्रॉन साइज के प्लास्टिक के कण थे। मैं हतप्रभ था कि ये समुद्री सीप के टिश्यू में कहाँ से आया? स्वाभाविक था कि खून से आया होगा, खून में भोजन से आया होगा। मैंने समुद्र के पानी व उसके शैवालों का गहन परीक्षण किया। मुझे पानी व शैवालों के हर नमूने में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण मिले। शैवाल या प्लवक, भोजन श्रृंखला में प्रथम पायदान पर है। वहीं से ये समुद्री सीपों के खून में पहुचा। खून में प्लास्टिक के कण पहुँचने की प्रक्रिया में मनुष्य का खून अपवाद नहीं है।" डॉ. सोनकर ने बताया कि उन्होंने जल के हर सम्भव स्रोतों से नमूने लिये और परीक्षण में हर नमूने में प्लास्टिक के कण मिले। प्लास्टिक के गंभीर खतरों के प्रति चौतरफा मुहिम की वकालत करते हुए डॉ. सोनकर ने कहा, ‘‘आज हमारे हर तरफ प्लास्टिक है। घरों के पानी के पाइप, छत पर रखी पानी की टंकी, भोजन के बर्तन, हमारे रसोई में नमक से लेकर लगभग हर खाद्य पदार्थ प्लास्टिक से दूषित है।'' उन्होंने कहा कि ये प्लास्टिक शरीर में जाकर तमाम जैविक क्रियाओं को बाधित कर मनुष्य के लिवर, गुर्दे सहित तमाम अंगों को नष्ट कर रहा है।