राम पुनः आ जाओ
मर्यादित करने इस जग को , हे राम पुनः आ जाओ ।
माया छल में लिप्त मनुज को , शुचिता की राह दिखाओ ।।
भाई-भाई में स्नेह नहीं है , माया आँगन को बाँटे ।
स्वजन स्वार्थ की तुला विराजे , ढुलमुल होते हैं काँटे ।
मात-पिता का अंतस छलनी , होकर निज सुध बुध खोता ।
सिंचित ममता की धारा से , तुलसी का बिरवा रोता ।
लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न जैसे , भ्रातृप्रेम इन्हें बताओ ।
राजा होकर भी निषाद को , राम आपने गले लगाया ।
मित्र की वेदना के आगे ,अपना दुख भी बिसराया ।
निश्छल प्रेम भक्ति को माना , वंचित को अपना कर ।
चखे बेर जूठे शबरी के , जाति वर्ग सभी भुला कर ।
जाति पाति की गहरी खाई , बढ़ती है इन्हें मिटाओ ।।
सिया राम की थी परछाई ,विलग हुई वह तुमसे क्यों कर ।
धन वैभव सुख त्याग चली जो , मोहित वह स्वर्ण हिरण पर ।
ज्ञानी बुद्धि अतुल बलशाली , परनारी का हरण किया ।
ध्वस्त हुई रावण की लंका , दानव दल का क्षरण किया ।
पैठे दुष्ट कई उनको भी , स्त्री का सम्मान सिखाओ ।।
-डॉ. दीक्षा चौबे
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