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 हींग और केसर की पैदावार को बढ़ावा देने के लिए सीएसआईआर-आईएचबीटी ने हिमाचल के साथ किया समझौता

नई दिल्ली। केसर और हींग दुनिया के सबसे मूल्यवान मसालों में गिने जाते हैं। भारतीय व्यंजनों में सदियों से हींग और केसर का व्यापक रूप सेउपयोग कियाहोता रहा है। इसके बावजूद देश में इन दोनों ही कीमती मसालों का उत्पादन सीमित है। 
भारत में,केसर की वार्षिक मांग करीब 100 टन है, लेकिन हमारे देश में इसका औसत उत्पादन लगभग 6-7 टन ही होता है। इस कारण हर साल बड़ी मात्रा में केसर का आयात करना पड़ता है। इसी तरह,भारत में हींग उत्पादन भी नहीं है और हर साल 600 करोड़ रुपये मूल्य की लगभग 1200 मीट्रिक टन कच्ची हींग अफगानिस्तान,ईरान और उज्बेकिस्तान जैसे देशों से आयात करनी पड़ती है।
 सीएसआईआर-आईएचबीटी ने हींग और केसर की खेती के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार के साथ समझौता किया है।
 केसर और हींग का उत्पादन बढ़ाने के लिए हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी (सीएसआईआर-आईएचबीटी) ने परस्पर रूप से रणनीतिक साझेदारी बढ़ाने के लिए हिमाचल प्रदेश के कृषि विभाग के साथ हाथ मिलाया है। यह साझेदारी हिमाचल प्रदेश में कृषि आय बढ़ाने, आजीविका में वृद्धि और ग्रामीण विकास के उद्देश्य को पूरा करने में मददगार हो सकती है। इस पहल के तहत भावी किसानों और कृषि विभाग के अधिकारियों को क्षमता निर्माण, नवाचारों के हस्तांतरण, कौशल विकास और अन्य विस्तार गतिविधियों का लाभ मिल सकता है।
 सीएसआईआर-आईएचबीटी के निदेशक डॉ संजय कुमार ने कहा है कि  इन फसलों की पैदावार बढ़ती है तो इनके आयात पर निर्भरता कम हो सकती है। सीएसआईआर-आईएचबीटी किसानों को इसके बारे में तकनीकी जानकारी मुहैया कराने के साथ-साथ राज्य कृषि विभाग के अधिकारियों एवं किसानों को प्रशिक्षित भी करेगा। राज्य में केसर और हींग के क्रमश: घनकंद और बीज उत्पादन केंद्र भी खोले जाएंगे। 
 वर्तमान में जम्मू और कश्मीर में करीब 2,825 हेक्टरेयर क्षेत्र में केसर की खेती होती है। सीएसआईआर-आईएचबीटी ने केसर उत्पादन की तकनीक विकसित की है, जिसका उपयोग उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के गैर-परंपरागत केसर उत्पादक क्षेत्रों में किया जा रहा है। संस्थान में रोग-मुक्त घनकंद के उत्पादन के लिए टिश्यू कल्चर प्रोटोकॉल भी विकसित किए गए हैं। सीएसआईआर-आईएचबीटी ने नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज (एनबीपीजीआर), नई दिल्ली की मदद से हींग से संबंधित छह पादप सामग्री पेश की हैं, और उसके उत्पादन की पद्धति को भारतीय दशाओं के अनुसार मानक रूप प्रदान करने का प्रयास किया है।
 हींग एक बारहमासी पौधा है और यह रोपण के पांच साल बाद जड़ों से ओलियो-गम राल का उत्पादन करता है। इसे ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र की अनुपयोगी ढलान वाली भूमि में उगाया जा सकता है। इस पहल के शुरू होने बाद इन दोनों फसलों की गुणवत्तापूर्ण रोपण सामग्री के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए अत्याधुनिक टिश्यू कल्चर लैब की स्थापना की जाएगी।
 डॉ कुमार ने कहा है कि परियोजना के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए तकनीकी सहायता के अलावा केसर उत्पादन क्षेत्रों की निगरानी और किसानों के लिए अन्य क्षेत्रों के दौरे भी आयोजित किए जाएंगे। अगले पांच वर्षों में राज्य में कुल 750 एकड़ भूमि इन फसलों के अंतर्गत आने की उम्मीद व्यक्त की जा रही है। हिमाचल प्रदेश सरकार के कृषि विभाग के निदेशक डॉ आर.के. कौंडल ने कहा है कि यह परियोजना किसानों की आजीविका में वृद्धि करने के साथ-साथ राज्य और देश को लाभान्वित करने में मददगार हो सकती है।
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