प्रत्येक साधक को इन तीन बातों को समझना और करना बहुत आवश्यक है!!!
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित दोहा तथा उसकी व्याख्या, उनके द्वारा यह प्रवचन वीरगंज, नेपाल में 8 दिसम्बर सन 2006 को दिया गया था। आइये हम सभी अपने आत्मकल्याण हेतु इस प्रवचन से लाभ लेवें :::::::::
(स्वरचित दोहा व्याख्या)
दैन्य भाव रूपध्यान गोविन्द राधे।
श्यामा श्याम कीर्तन उनसे मिला दे।।
3 बात समझना है, 3 काम करना है। 3 काम करना है, नंबर एक दीन भाव, नंबर दो रूपध्यान, नंबर तीन श्यामा श्याम का नाम, रूप, गुण, लीलादि संकीर्तन। तो एक तो आप लोग करते हैं, इन 3 में से एक करते हैं आप लोग, श्यामा श्याम नाम, रूप, गुण, लीलादि कीर्तन। किन्तु 2 नहीं करते। उन दोनों के बिना केवल कीर्तन करना रसना से ऐसा ही है जैसे प्राणहीन शरीर, मुर्दा।
वेद से लेकर रामायण तक हर ग्रंथ, हर संत, हर पंथ एक बात कहता है कि दीन भाव रखो। भगवान का स्मरण मन से, फिर इंद्रियों से करो। रसना से भगवन्नाम लो, हाथ से पूजन करो, कुछ करो, लेकिन इसके पहले दीन भाव और रूपध्यान, ये 2 सबसे प्रमुख हैं। गौरांग महाप्रभु ने कहा कि दीनतायुक्त कीर्तन होना चाहिए। तो शिष्यों ने पूछा कि किस तरह की दीनता? तो उन्होंने बताया -
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।
(शिक्षाष्टक)
तृण से बढ़कर दीन भाव, तृण घास, घास के ऊपर पैर रख दो तो घास झुक जाएगी। अब तुम पैर रख के आगे चले गए वो बेचारी झुक गई और फिर धीरे धीरे, धीरे धीरे नॉर्मल हुई, पैर रखने पर। वृक्ष कितना सहिष्णु है, छोटा होता है तो कोई जानवर आया, खा गया। बड़ा हुआ, फल लगा, पक्षी आ-आकर खा गए, मनुष्य तोड़-तोड़ के खा गए, लकड़ी काट-काट के अपनी बिल्डिंग बना रहे हैं लोग, वृक्ष सहन कर रहा है। उसे खुशी हो रही है कि हमसे किसी को सुख मिल रहा है।
तो दीनता जितनी अधिक होगी उतने ही हम भगवान् के समीप पहुँचेंगे, ये स्वर्ण अक्षरों में लिख लो। आप लोग सोचते हैं कि आँसू नहीं आते, कीर्तन करते हैं, आँसू के बिना कीर्तन, कीर्तन नहीं है, तोता रटन्त है, वो तो। जहाँ मन रहेगा उसी का फल भगवान् देते हैं। इंद्रियों का वर्क तो भगवान् नोट ही नहीं करते। लाखों करोड़ों मर्डर किया, अर्जुन ने, हनुमान जी ने, भगवान् ने नोट ही नहीं किया क्योंकि उनका मन भगवान् में था। शरीर का कर्म तो निरर्थक होता है, उसे एक्टिंग कहते हैं, एक्टिंग। जैसे मन्दिर में जा के आप लोग बोलते हैं न -
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
(स्कन्द पुराण)
ये क्या है, भगवान् को बेवकूफ बना रहे हो। तुम कहते हो तुम्हीं मां हो, तुम्हीं पिता हो, तुम्हीं मेरी धन-दौलत हो और तुम्हारे मन का अटैचमेंट संसारी मां, पिता और प्रॉपर्टी, धन-दौलत में है और भगवान् से कहते हो तुम ही मेरे हो। एव माने ही। तो दीनता-नम्रता ये सबसे पहला काम। पहला अध्याय भक्ति के विषय में।
(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन से नि:सृत)
(सन्दर्भ - कृपालु भक्ति धारा (भाग - 3) पुस्तक, पृष्ठ 175, 176
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन)
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