जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के जगद्गुरु बनने के सम्बन्ध में यह रहस्य अलौकिक और अद्भुत है!!
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला-
जगद्गुरुत्तम् के संबंध में अनोखा रहस्य
आज यह सर्वविदित है कि जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् के पद पर विराजित हैं। अन्य समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के विशेष मतों के प्रतिष्ठापन से इतर आपने समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए एक समन्वयात्मक वेदसम्मत सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। आपके संबंध में यद्यपि अनेकानेक गूढ़ातिगूढ़ रहस्य हैं तथापि उनमें से एक गूढ़ रहस्य और आपकी दिव्य प्रेमोन्मत्त अवस्था के विषय में थोड़ा प्रकाश डालकर आपकी अलौकिकता का परिचय प्राप्त करते हैं।
सुश्री ब्रज वनचरी देवी जी श्री कृपालु महाप्रभु जी की कृपाप्राप्त वरिष्ठतम प्रचारिका हैं और वे बचपन से कृपालु महाप्रभु जी के सत्संग का लाभ ले रही हैं। उनके पिता श्री महाबनी जी श्री महाराज जी (कृपालु महाप्रभु) के अनन्य भक्त थे। श्री महाराज जी के प्रति उनका वात्सल्य स्नेह था। प्रतापगढ़ में जगद्गुरु बनने के पहले श्री महाराज जी इनके घर ही रुकते थे और वहीं से 'जगद्गुरुत्तम्' बनने काशी विद्वत् परिषत् पधारे थे। उन्होंने (सुश्री वनचरी देवी जी) श्री महाराज जी के जगद्गुरु बनने के पूर्व के कुछ विचित्र रहस्यों का उल्लेख किया है।
उन्होंने बताया कि....
"...यद्यपि उस समय मैं बहुत ही छोटी थी किन्तु मुझे अभी भी याद है कि एक दिन श्री महाराज जी ने कहा कि मुझे तुम्हारे घर पर एक कमरा एकांत चाहिए और एक कागज और कलम। श्री महाराज जी एक कमरे में एकांतवास करने लगे। हमें श्री महाराज जी के इस लीला की उत्सुकता होने लगी। हमारी उत्सुकता तब और बढ़ गई जब श्री महाराज जी के कमरे से विचित्र-विचित्र आवाज़ें आने लगी जैसे बहुत से व्यक्ति बैठकर किसी दूसरी भाषा में गंभीर चर्चा कर रहे हों जबकि उस कमरे में केवल श्री महाराज जी ही थे। ऐसा लगभग रोज ही होता था लेकिन श्री महाराज जी की आज्ञानुसार हमनें उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया और इस रहस्य से पर्दा उठने का इंतजार करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् श्री महाराज जी बाहर आये तब हमने उनसे पूछा कि आप तो कमरे में अकेले ही थे, फिर ऐसी विचित्र आवाज़ें किनकी थीं, आप किनके साथ वार्तालाप कर रहे थे? पहले तो श्री महाराज जी ने टालने की कोशिश की परंतु पिताश्री (महाबनी जी) के उत्सुकतावश अत्यधिक पूछने पर अंतत: रहस्योद्घाटन किया। उन्होंने कहा,
"...महाबनी ! क्या करुँ? इस समय समस्त वेदों-शास्त्रों का वास्तविक स्वरुप विकृत हो गया है। अत: समस्त शास्त्र-वेद मेरे समक्ष मूर्तिमान प्रकट होकर मेरे सम्मुख खड़े थे और मुझसे कह रहे थे कि आप हमें हमारे वास्तविक रूप में इस युग में जनता के सम्मुख प्रकट कीजिये..."
वस्तुत: यहीं से श्री कृपालु महाप्रभु जी के जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु बनने का उपक्रम प्रारम्भ हुआ। इस घटना के पश्चात् श्री महाराज जी ने चित्रकूट एवं कानपुर में ऐतिहासिक पब्लिक स्पीच दी जिनमें लाखों लोगों ने उनके दिव्य प्रवचनों को सुना।
इसके पूर्व उन्होंने कभी पब्लिक स्पीच नहीं दी थी और वस्तुत: प्रेम की उन्मत्त दशा में ही रहते थे। घंटों-घंटों प्रेम रस परिप्लुत संकीर्तन कराते, रात्रि जागरण और महीनों अखण्ड संकीर्तन भी। सदैव ब्रजरस में डूबे रहते और सभी साधकों को भी प्रेम रस पिलाकर उन्मत्त सा बनाये रखते। करुण क्रन्दन हृदय विदारक रुदन श्यामा-श्याम गुणगान प्रिय मिलन की व्याकुलता - बस यही दिनचर्या थी। स्वयं ही मृदंग बजाते और संकीर्तन कराते-कराते मूच्र्छित हो जाते। नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती, वस्त्र भींग जाते, दीवारों का आलिंगन करते, कभी नृत्य, कभी अट्टाहास। दिव्य महाभाव की बड़ी विचित्र दशा थी वह।
किन्तु वे विश्व कल्याण का उद्देश्य लेकर इस धराधाम पर अवतरित हुए और वर्तमान युग में जीवों को भगवदीय तत्वज्ञान की महती आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना कोई भी भक्तिमार्ग पर आरुढ़ व स्थिर नहीं हो सकता। इसलिए इस दिव्य प्रेमोन्मत्त अवस्था का गोपन करके उन्होंने प्रेम प्लस ज्ञान मिश्रित स्वरुप को प्रकट किया और 'जगद्गुरुत्तम्' का पद स्वीकार कर वेदों एवं शास्त्रों को पुन: उनके वास्तविक स्वरुप में प्रतिष्ठापित किया। उन्होंने ऐसा सिद्धांत स्थापित किया है जो अब तक के आध्यात्मिक इतिहास में अद्वितीय है। इसी से समस्त जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम 'जगद्गुरुत्तम्' की उपाधि से काशी विद्वत् परिषत् की 500 सर्वमान्य अग्रगण्य विद्वानों की सभा द्वारा एकमत से 14 जनवरी, 1957 के दिन घोषित किये गए। इस समय उनकी आयु मात्र 34 वर्ष थी। उनके सर्वदर्शन समन्वयात्मक सिद्धांत के कारण उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' एवं 'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य' को उपाधि भी प्रदान की गई है।
ऐसी अद्वितीय विभूति ने जिस भूमि पर अवतार धारण किया और अपने लीला का सौरस्य प्रदान किया, भारतवर्ष की उस भूमि जो भक्तिधाम नाम से प्रसिद्ध हुई है, आज यह भक्तिधाम अपनी गोद में भक्ति-मंदिर, भक्ति-भवन तथा कृपालुं वन्दे जगदगुरूम-भक्ति मंदिर जैसे तीन महान एवं अद्वितीय स्मारकों को धारण किये है, जो कि सनातन परम्परा के चिरयुगी संवाहक हैं।
लेख सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2012 अंक, पृष्ठ 39
सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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