जीवन के लिये बोधकथा (1) : कर्मशीलता में ही शान्ति सम्भव है!! (कहानी)
जीवन के लिये बोधकथायें - भाग 1
'कर्मशीलता से ही शान्ति सम्भव है!'
एक राजा राजकाज से मुक्ति चाहते थे। एक दिन उन्होंने राजसिंहासन अपने उत्तराधिकारी को सौंपा और राजमहल छोड़ कर चल पड़े। उन्होंने विद्वानों के साथ सत्संग किया, तपस्या की, पर उनके मन में अतृप्ति बनी रही। मन में खिन्नता का भाव लिये वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े।
एक दिन चलते-चलते वे काफी थक गये और भूख के कारण निढाल होने लगे। राजा पगडण्डी से उतरकर एक खेत में रुके और एक पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे। खेत में आये पथिक को देखकर एक किसान उनके पास जा पहुँचा। वह उनका चेहरा देखकर समझ गया कि यह व्यक्ति थका होने के साथ ही भूखा भी है।
किसान में हाँडी में उबालने के लिये चावल डाले फिर राजा से कहा - 'उठो, चावल पकाओ। जब चावल पक जाय, तब मुझे आवाज दे देना। हम दोनों इससे पेट भर लेंगे।'
राजा मंत्रमुग्ध होकर किसान की बात सुनते रहे। किसान के जाने के बाद उन्होंने चावल पकाने शुरू कर दिये। जब चावल पक गये, तो उन्होंने किसान को बुलाया और दोनों ने भरपेट चावल खाये। फिर किसान काम में लग गया और राजा को ठण्डी छाँव में गहरी नींद आ गई। सपने में उन्होंने देखा कि एक दिव्य पुरुष खड़ा होकर कह रहा है - 'मैं कर्म हूँ और मेरा आश्रय पाये बगैर किसी को शान्ति नहीं मिल सकती। तुम्हें सब कुछ बिना कर्म किये प्राप्त हो गया है। तुम एक बनी-बनाई प्रणाली का संचालन कर रहे हो। इसलिये तुम्हें जीवन से विरक्ति हो रही है। तुम कर्म करो। कर्म करने का एक अलग ही सुख है। इससे तुम्हारे भीतर जीवन के प्रति लगाव पैदा होगा।'
राजा की आँखें खुल गईं। उन्हें लगा कि उन्हें रास्ता मिल गया।
०० साभार : 'कल्याण' बोधकथा विशेषांक
(प्रस्तुति : अतुल कुमार 'श्रीधर')
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