मनुष्य को अपने जीवन में एक महापुरुष अथवा गुरु की आवश्यकता क्यों है? जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 221
(मनुष्य को, विशेषकर साधना-मार्ग में जो बढ़ना चाहते हैं, उनके जीवन में एक महापुरुष की क्या नितांत आवश्यकता है, इस संबंध में आचार्य श्री के उदबोधन पढ़ें..)
जीव में जब तक देहाभिमान है, तब तक वह आसानी के साथ स्वयं अपने आपको कभी भी गिरा हुआ नहीं मानता। अतएव, नित्य होश में रहने वाले एक महापुरुष की आवश्यकता होती है जो उस बेहोश साधक की त्रुटियों को बता-बताकर उसे होश में लाता रहता है अन्यथा जीव तो सदा ही अपने को अच्छा समझता है। वह भले ही पराकाष्ठा का मूर्ख क्यों न हो, उसे यह कथन बिल्कुल ही प्रिय नहीं कि ‘तुम मूर्ख हो।’
तात्पर्य यह कि तीनों गुणों से अभियुक्त बुद्धि प्रतिक्षण स्वतः परिवर्तनशील है, उसका नियामक गुणातीत महापुरुष अवश्य होना चाहिये ।
कुसंग का बीज प्रत्येक देहाभिमानी जीव के अंतःकरण में नित्य निहित रहता है एवं वह अपने अनुकूल बाह्य गुण-विषय को पाकर अत्यन्त बढ़ जाता है। तुम अनुभव करते होगे, दिन में कई बार ऐसा होता है कि तुमको जैसा भी वातावरण मिलता है, वैसी ही तुम्हारी मनोवृत्तियाँ भी बदलती जाती हैं। कभी तो यह विचार होता है कि ‘अरे ! पता नहीं कब टिकट कट जाय, शीघ्र से शीघ्र कुछ साधना कर लेनी चाहिये। संसार तो अपने आप छोड़ देगा नहीं। फिर संसार ने पकड़ भी तो नहीं रखा है, मैं स्वयं ही जा-जाकर उसमें (संसार में) पिस रहा हूँ।’ कभी यह बिचार उत्पन्न होता है, ‘अरे ! कर लेंगे, कल कर लेंगे, जल्दी क्या है? समय बहुत पड़ा है, ऐसी भी क्या जल्दी है। फिर अभी अमुक-अमुक संसार का काम (ड्यूटी) भी तो करना है। रात तक कर लेंगे, कल कर लेंगे,’ इत्यादि। कभी-कभी यह विचार पैदा होता है, ‘अरे यार खाओ, पियो , मौज उड़ाओ, चार दिन की जिन्दगी है, आगे किसने देखा है क्या होगा, भगवान् वगवान् तो बिगड़े हुए दिमाग की उपज है।’ पता नहीं वह मौज उड़ाने का क्या अर्थ समझता है। अरे मौज ही तो महापुरुष भी चाहता है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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