महापुरुष संसार में काम-क्रोध, लोभ आदि माया के कार्य करते दिखाई देते हैं, ऐसा करते हुये भी वे माया से कैसे दूर रहते हैं?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 223
साधक का प्रश्न ::: महापुरुष माया के कार्य करते हुए भी माया से दूर कैसे रहते हैं?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: भगवान् और महापुरुष, योगमाया से कार्य करते हैं इसलिए माया का कार्य करते हुये भी माया से परे रहते हैं। एक, दो, चार नहीं, करोड़ों मर्डर किया अर्जुन ने, करोड़ों मर्डर किया हनुमानजी ने, ब्राह्मणों की हत्या की। और की कौन कहे। लेकिन उनका ओरिजिनल रूप क्या था ?
निज प्रभुमय देखहिं जगत, का सन करहिं विरोध।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। (गीता 8-7)
मन भगवान् में था और युद्ध हो रहा है। ये कैसे होता है जी! हाँ हाँ, जो उस क्लास में नहीं गया, वो नहीं समझ सकता। एक पाँच वर्ष का बच्चा कहता है कि मम्मी भी हमको बेटा कहती हैं और पापा भी बेटा कहते हैं, तो मैं दोनों का बेटा कैसे हूँ। सब बच्चे आपस में मीटिंग करते हैं पाँच वर्ष के क्योंजी...? हाँ जी! चलो हम लोग पूछेंगे आज मम्मी पापा से। मम्मी-पापा से पूछा तो उन्होंने कहा ऐसे ही है बेटा! बस याद कर ले, मम्मी के भी हम बेटे हैं, पापा के भी हैं। हूँ! कैसे याद कर लूँ? उनको आता ही नहीं जवाब, मम्मी-पापा को। हाँ। सबने मीटिंग करके, बच्चों ने, यही तय किया कि सबके मम्मी-पापा बेवकूफ हैं; वो जवाब ही नहीं देते सही-सही। हम दोनों के बेटे कैसे हैं? और अगर वो स्पष्ट रूप से कहें भी ये देखो, मम्मी का रज और डैडी का वीर्य मिल करके पेट में बच्चा बन जाता है। ये क्या है रज? क्या है वीर्य? क्या है पेट में बच्चा? ये क्या, ये तो हमको समझ में नहीं आता। अभी नहीं आएगा। जब वो कामयुक्त अवस्था तक उसकी उम्र होगी, वो प्रैक्टिकल उसको एक्सपीरियंस होगा, तब कहेगा, अरे! मम्मी-पापा ने ठीक बताया था। अब समझ में आया।
तो जैसे पाँच वर्ष के बच्चे को स्त्री-पति के मिलन का अनुभव न होने से बोध नहीं हो सकता ऐसे ही जब तक मायाबद्ध जीव है, वो माया के अंडर में है, तब तक वो ये नहीं मान सकता, समझ सकता कि काम का कार्य करते हुये, काम से परे हैं। क्रोध का कार्य करते हुये क्रोध से परे हैं। करोड़ों वर्ष राज्य करते हुये भी ध्रुव, प्रहलाद लोभ से परे हैं, मायातीत हैं। ये योगमाया का कार्य होता है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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