अपना सुख नहीं, एकमात्र श्रीकृष्ण का सुख ही साधक का लक्ष्य रहे, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा पारमार्थिक मार्गदर्शन!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 250
(भूमिका - साधना अथवा प्रेमराज्य में निष्कामता के विषय में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रवचन अंश, यह अंश उनके द्वारा निःसृत प्रवचन श्रृंखला 'नारद भक्ति दर्शन' की व्याख्या से लिया गया है..)
भगवान् सम्बन्धी कामना निन्दनीय नहीं है लेकिन वन्दनीय भी नहीं है, ऐसा हमारा खयाल है। साधक के लिये डेन्जर है क्योंकि अगर हमने कोई कामना बना ली, उनका (भगवान) दर्शन हो जाय, चलो और कुछ नहीं चाहते, स्पर्श भी नहीं चाहते, लेकिन दर्शन हो जाय और नहीं हुआ, रोते रहे एक दिन, दो दिन, एक महीना, एक साल, दस साल, हजार साल, करोड़ साल। हमारे रोने से भगवान् आ जायेंगे ये अगर अहंकार है तो रोने से नहीं आयेंगे। भगवान् तो अपनी इच्छा से आते हैं, हमारी किसी साधना के चाबुक से नहीं आ सकते वो।
अरे! रोने का मतलब क्या है? रोने का मतलब ये है माँगना। माँगना? माँगना दो प्रकार से होता है न। आप लोग टिकट माँगते हैं रेलवे का, रुपया हाथ में लेकर डालते हैं.. ऐ... टिकट बम्बई का। वो रुपया दिया, उसने टिकट दिया। एक तो ये माँगना है, इसमें किसी का कोई एहसान नहीं क्योंकि तुमने रुपया दिया, उसने टिकट दिया। और एक माँगना होता है, बाबूजी भूख लगी है, चार पैसा दे दो, एक माँगना ये होता है। इसमें तो हमने उसके लिये कुछ किया-विया नहीं। केवल माँगा और अगर उसने दे दिया, तो फिर क्या बात है, थैंक्यू।
तो भगवान् से हम माँग रहे हैं - स्प्रिचुअल सामान, स्प्रिचुअल प्रेम, स्प्रिचुअल हैप्पीनेस। दे नहीं रहे कुछ। आँसू दे रहे हैं। आँसू दे रहे हैं? आँसू कोई देने की वस्तु है? अरे! ये बोलो माँग रहे हैं, और वह भी अभी माँगने में मिलावट है। अभी क्लीन स्लेट हार्ट होकर के विशुद्ध हृदय से नहीं माँग रहे हैं। अभी कुछ गड़बड़ है। इसलिये हमारे माँगने से उन्होंने दिया, ये अहंकार नहीं होना चाहिये। हमने भी तो साधना की है। क्या साधना की है? अरे, कीर्तन किया है, आँसू बहाये हैं। अरे! तो कीर्तन और आँसू का मतलब क्या होता है - माँगना। तुमने दिया क्या? अरे! देते क्या, अभी तो मिले ही नहीं वो, और अगर मिल भी जायें तो हम देंगे क्या? हमारे पास जो कुछ है वो तो उनके काम का है नहीं कुछ शरीर, मन, बुद्धि संसार का सामान और फिर ये तो उन्हीं का है। अगर हम यह भी सोच लें कि हमने दे दिया, तो हमसे पूछा जायेगा ये किसका था? ये सारा विश्व उनका है। उस विश्व में भी भारत, भारत में भी एक छोटा-सा शहर लखनऊ, लखनऊ में भी एक मुहल्ला, मुहल्ले में भी दो-तीन मकान हमारे थे, उसको हमने दान कर दिया। बड़ा कमाल किया आपने। अरे, ये तो उसी का सामान है। इसमें अहंकार क्यों आया? तो अगर अहंकार युक्त होकर के हमने याचना भी की तो स्वीकार नहीं होगी।
लेकिन अगर ठीक-ठीक याचना करेगा तो उसको वो वस्तु मिलेगी। लेकिन, एक बड़ी गड़बड़ बात ये होगी कि वस्तु मिलने के बाद तुरन्त कामना बढ़ती है आगे, वो चाहे संसारी कामना हो चाहे पारमार्थिक हो। तुरन्त उसके आगे वाली कामना पैदा हो जाती है, अपने आप हो जाती है, तो जैसे संसार में तमाम स्तर हैं, ये साइकिल से जा रहा है, ये स्कूटर से जा रहा है, ये मोटर साइकिल से जा रहा है, ये एम्बेसेडर से जा रहा है, ये अम्पाला से जा रहा है, एक से एक ऊँचा स्तर है न? तो जब किसी को साइकिल मिल जाती है - ए! साइकिल तो मिल गयी लेकिन वो मोटर साइकिल होती तो जरा अच्छा रहता। अब चलाओ उसको, मेहनत करो, तुरन्त कामना बढ़ गयी। मोटर साइकिल हो गयी, ए! ये मोटर साइकिल क्या खोपड़ा खा लेती है, ये भी कोई गाड़ी है, कार हो तो उसमें साहब बनकर चलें। कार भी हो गयी, हाँ कार है, फटीचर कार है, कोई कार है? वो लम्बी वाली गाड़ी हो, दस लाख वाली। यानी ये बीमारी ऐसी है कि;
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
न दुह्यन्ति मनः प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते॥
(भागवत 9-19-13)
नालमेकस्य पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्।।
(विष्णु पुराण)
अनन्त ब्रह्माण्ड की साम्राज्य श्री मिल जाय तो भी उसके आगे प्लानिंग होगी। और यही बात ईश्वरीय जगत् में भी है। वहाँ भी अनेकों स्तर हैं, जैसे मैंने बताया था न, ये ब्रह्मानन्द है, ये बैकुण्ठानन्द है, ये द्वारिकानन्द है, ये मथुरानन्द है, ये ब्रजानन्द है, वृन्दावनानन्द है, कुंजानन्द है, निकुंजानन्द है, तमाम आनन्द वहाँ भी होते हैं। तो कामना बनायेंगे अगर हम तो उसके पूरी होने के बाद फिर कामना आगे बढ़ेगी और साधनावस्था में कामना पूरी हो जाय ये कम्पल्सरी नहीं। इसलिए अगर साधनावस्था में कामना पूरी ना हुई तो निराशा आयेगी और निराशा आयेगी तो अबाउट टर्न हो जायेगा। अरे यार, इतने दिन तक रोये-गाये, सब कुछ, वो सब बकवास है। न कहीं भगवान् है न कहीं कुछ है। लोगों ने खामखां फैला रखा है बवाल, एक बिना वजह खोपड़ा भंजन करने के लिये। ये भगवान्-वगवान् जो है ये तो जिनके दिमाग खराब हो गये बुढ़ापे में, ऐसे लोग जंगलों में पड़े रहते थे, खाने-पीने को ढंग से मिलता नहीं था, हाफ मैड हो गये थे। तो उन्होंने कहा हम तो बरबाद हुए ही हैं, ये दुनियाँ वालों को भी ऐसी बीमारी लगा दो भगवान् की, कि ये भी टेन्शन में पड़े रहें।
जब निराशा आती है मनुष्य में तो इतनी निम्न कक्षा की बात सोच जाता है। उसको होश-हवाश नहीं रहता कि मैं क्या सोच रहा हूं भगवान् के लिये भी, गुरु के लिये भी, पाताल में पहुँच जाता है। इसलिये कामना रखकर भक्ति तो करनी ही नहीं है। साधक को तो बहुत ही डेन्जर है, अगर सिद्ध हो जाय कोई तो पृथक् बात है, उसका पतन होने का सवाल ही नहीं रहेगा कोई। लेकिन अभी ये सोचना है जो नारद जी कहते हैं;
यत्प्राप्य न किंचिद् वाञ्छति।
वो कुछ नहीं चाहता। अरे! आनन्द तो चाहता होगा? आनन्द, सबसे कठिन परीक्षा यही है। जहाँ बड़े-बड़े जीवन्मुक्त अमलात्मा परमहंस भी फेल हो जाते हैं, वे भी सकाम हो गये। भगवान् से ब्रह्मानन्द माँगते हैं, मोक्ष माँगते हैं। ये मोक्ष माँगना क्या है? कामना। आनन्द माँगना क्या है? कामना। अरे! हम संसार की जो वस्तु चाहते हैं वो भी तो आनन्द के लिये ही तो चाहते हैं। अगर आनन्द माँगना सही है तो हम जो संसारी आनन्द चाहते हैं वो भी सही होना चाहिये। तो मोक्ष की कामना भी सकामता है।
लेकिन निष्कामता और सकामता में जो बारीक अन्तर है, वो क्या है? हम भगवान् की सेवा चाहते हैं। सेवा चाहते हैं - ये भी कामना है। वाह! वाह! वाह! बड़े आप अच्छे हुए, सेवा चाहते हैं और कहते हैं हम निष्काम हैं। अरे! आपका एम (लक्ष्य) तो है कुछ, सेवा चाहते हैं न? हाँ, लेकिन हम सेवा चाहते हैं अपने प्रियतम की, सेव्य की। हाँ, हाँ, सेव्य की सेवा चाहते हो, जैसे माँ बच्चे की सेवा करती है, उसे खुशी होती है, ऐसे ही न? नहीं, नहीं, हम श्यामसुन्दर की सेवा इसलिये चाहते हैं कि श्यामसुन्दर को सुख मिले। अब आनन्द की हमारी कामना भी समाप्त, अब हम निष्काम होंगे। श्यामसुन्दर को सुख मिले, इस उद्देश्य से उनकी सेवा माँगते हैं। उस सेवा के लिये उनका दिव्य निष्काम प्रेम माँगते हैं। यहाँ से चलो। निष्काम प्रेम चाहिये, क्यों? उनकी सेवा करेंगे, क्यों? उनके सुख के लिये। इसके लिये नारदजी ने एक सूत्र बनाया है;
तत्सुखसुखित्वम्।
तो क्यों जी, फिर हमको आनन्द कहाँ मिला? ऐसा लेबर इतना लम्बा चौड़ा हमने किया, बेकार हो गया। नहीं, जब श्यामसुन्दर को आप सुख देंगे सेवा से, तो श्यामसुन्दर उसको और मधुर बनाकर लौटा देंगे आपको। तब आपको वो उससे अधिक आनन्द मिलेगा। फिर आप उसको श्यामसुन्दर को दे देंगे। फिर वो आपको लौटा देंगे, फिर आप उनको दे देंगे - ये क्रम अनन्तकाल तक चलता जायगा। इसलिये आनन्द बढ़ता जायगा।
(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
०० सन्दर्भ : 'नारद भक्ति दर्शन' पुस्तक (जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा व्याख्या)
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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