राम पुनः आ जाओ
- गीत
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
मर्यादित करने इस जग को , हे राम पुनः आ जाओ ।
माया छल में लिप्त मनुज को , शुचिता की राह दिखाओ ।।
भाई-भाई में स्नेह नहीं है , माया आँगन को बाँटे ।
स्वजन स्वार्थ की तुला विराजे , ढुलमुल होते हैं काँटे ।
मात-पिता का अंतस छलनी , होकर निज सुध बुध खोता ।
सिंचित ममता की धारा से, तुलसी का बिरवा रोता ।
लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न जैसे, भ्रातृप्रेम इन्हें बताओ ।
राजा होकर भी निषाद को, राम आपने गले लगाया ।
मित्र की वेदना के आगे, अपना दुख भी बिसराया ।
निश्छल प्रेम भक्ति को माना, वंचित को अपना कर ।
चखे बेर जूठे शबरी के, जाति वर्ग सभी भुला कर ।
जाति पाति की गहरी खाई , बढ़ती है इन्हें मिटाओ ।।
सिया राम की थी परछाई, विलग हुई वह तुमसे क्यों कर ।
धन वैभव सुख त्याग चली जो, मोहित वह स्वर्ण हिरण पर ।
ज्ञानी बुद्धि अतुल बलशाली, परनारी का हरण किया ।
ध्वस्त हुई रावण की लंका, दानव दल का क्षरण किया ।
पैठे दुष्ट कई उनको भी, स्त्री का सम्मान सिखाओ ।।
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