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कब मनाया जाएगा डोल ग्यारस का पर्व, जानें पूजा विधि, शुभ मुहूर्त और धार्मिक महत्व

सनातन परंपरा में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि का बहुत ज्यादा धार्मिक महत्व है क्योंकि इसी दिन परिवर्तनी एकादशी या फिर कहें डोल ग्यारस का पर्व मनाया जाता है. यह पावन पर्व मुख्य रूप से मध्य प्रदेश एवं उत्तरी भारत में मनाया जाता है. इसी पावन तिथि को जलझूलनी एकादशी पर्व के रूप में भी जाना जाता है. इस दिन भगवान श्री कृष्ण के बाल स्वरूप का श्रृंगार करके उनके लिए विशेष रूप से डोल तैयार किया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु की कृपा बरसाने वाला एकादशी व्रत पूरे विधि-विधान से रखा जाता है. डोल ग्यारस या फिर कहें जलझूलनी एकादशी का पर्व इस साल 06 सितंबर 2022 को मनाया जाएगा. आइए इस पावन पर्व के धार्मिक महत्व, पूजा विधि आदि के बारे में विस्तार से जानते हैं.
डोल ग्यारस का शुभ मुहूर्त--
भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की एकादशी 06 सितंबर को प्रात:काल 05:54 बजे से प्रारंभ होकर 07 सितंबर 2022 को पूर्वाह्न 03:04 बजे तक रहेगी. जबकि व्रत के पारण का (व्रत तोड़ने का) समय प्रात:काल 08:19 से 08:33 बजे तक रहेगा.
डाेल ग्यारस अथवा जल झूलनी एकादशी की पूजा विधि--
श्री हरि की पूजा के लिए समर्पित इस पावन तिथि पर प्रात:काल स्नान ध्यान करने के बाद साधक को भगवान विष्णु या फिर उनके वामन अवतार अथवा भगवान श्री कृष्ण की धूप, दीप, पीले पुष्प, पीले फल, पीली मिठाई आदि से पूजा करनी चाहिए. डोल ग्यारस की पूजा के दिन सात तरह के अनाज भर कर सात कुंभ स्थापित किए जाते हैं और इसमें से एक कुंभ के ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रखकर विधि विधान से पूजा की जाती है. इन कुंभों को अगले दिन व्रत पूर्ण होने के बाद किसी ब्राह्मण को दान कर दिया जाता है. इस व्रत में चावल का भूलकर भी सेवन नहीं करना चाहिए.
डोल ग्यारस अथवा परिवर्तनी एकादशी का धार्मिक महत्व--
डोल ग्यारस का पावन पर्व मुख्य रूप से भगवान विष्णु की पूजा, व्रत एवं उनके अवतार भगवान श्रीकृष्ण की सूरज पूजा के लिए मनाया जाता है. मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण इसी दिन पहली बार माता यशोदा और नंद बाबा के साथ नगर भ्रमण के लिए निकले थे. यही कारण है कि इस दिन कान्हा को नए वस्त्र आदि को पहना कर भव्य श्रृंगार किया जाता है. इसके बाद गाजे-बाजे के साथ भगवान श्री कृष्ण को पालकी में बिठाकर शोभा यात्रा निकाली जाती है. इस दिन भक्तगण भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करने के बाद उनकी पालकी के नीचे से परिक्रमा लगाते है. इस पावन पर्व को जलझूनी एकादशी भी कहते हैं और इस दिन विधि-विधान से व्रत रखते हुए भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा की जाती है. मान्यता है कि इसी दिन भगवान विष्णु करवट बदलते हैं, इसीलिए इसे परिवर्तनी एकादशी भी कहते हैं.

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