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- --जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज भगवतपथ पर चल रहे साधक के लिये कुछ आवश्यक बातें बता रहे हैं, जिनका पालन करना साधक की उन्नति के लिये परमावश्यक है। यदि साधक इन बातों में सावधानी न बरतकर लापरवाही करेगा तो निश्चित ही उसे साधना-मार्ग में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। अत: आइये जानें कि ऐसी कौन-कौन सी बातें हैं, जिनका पालन करना साधक के लिये महत्वपूर्ण है :::::::(आचार्य श्री के शब्द/मार्गदर्शन यहां से है...)(1) द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें। उदासीन रहें।(2) आज कोई नास्तिक भी है, तो कल उच्च साधक बन सकता है। अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका। सूरदास आदि सन्त उदाहरण हैं।(3) गुरु की सेवा करने वाला साधक तो गुरु का प्रिय ही है। अत: उससे द्वेष करना पाप है।(4) सचमुच कोई अपराधी भी हो, तो भी, मन से भी उसके भूतपूर्व अपराधों को न सोचें, न बोलें।(5) संसार में भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी अपराधी हैं। बड़े-बड़े साधकों का भी पतन एवं बड़े-बड़े पापियों का भी उत्थान एक क्षण में हो सकता है।(6) सबमें श्रीकृष्ण का निवास है, अत: उनको ही महसूस करें।सन्दर्भ पुस्तक - भक्ति की आधारशिला, पृष्ठ संख्या 6सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत यह प्रवचन न केवल आध्यात्म पथ के पथिकों के लिये महत्वपूर्ण है, बल्कि यह तो समस्त विश्व के प्रत्येक देश के प्रत्येक नागरिक के लिये महत्व रखती है। सीधे शब्दों में मनुष्य जाति के लिये यह लाभप्रद है। इसका संबंध भगवत्प्राप्ति जैसे सर्वोच्च लक्ष्य के साथ ही जीवन के विविध पक्षों, नैतिक सदाचारों, देश, राज्य तथा घर-गृहस्थी में शान्ति तथा सुख से भी है। अत: इन लाभों को दृष्टिगत रखते हुये आइये इस अंश से हम कुछ समझने की चेष्टा करें :::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)...भगवान को मानने से अथवा यूं कहो, भक्ति करने से अंत:करण शुद्ध होगा। वास्तविकता तो यह है कि श्रीकृष्ण भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि होना असम्भव है और सत्य, अहिंसा आदि सदाचार का आचरण अंत:करण की शुद्धि के बिना असम्भव है। ये सब दैवी गुण तभी आयेंगे जब हमारे अंत:करण की शुद्धि होगी।हमारे अंत:करण की शुद्धि जितनी मात्रा में होगी उतना ही हमारा संसार से वैराग्य होगा। अंत:करण शुद्ध केवल ईश्वरीय भक्ति से ही होगा। जब तक यह निश्चय न हो जाय कि संसार में सुख नहीं है भगवान में ही सुख है, संसार की संपत्ति बटोरने की कामना रहेगी। जब यह निश्चय हो जायेगा शान्ति भौतिक पदार्थों से नहीं, भगवान से ही मिलेगी, जितनी मात्रा में यह निश्चय होगा उतनी मात्रा में संसार का सामान संग्रह करने की कामना कम होगी, तो उतनी मात्रा की चार सौ बीसी कम हो जायेगी। संसार से संपत्ति बटोरने की कामना खतम होगी। आज एक आदमी अरबपति है, खरबपति बनना चाहता है।तो अगर ईश्वरीय भावना होगी, अंत:करण शुद्ध होगा तो समझेगा कि संसार में सुख नहीं है। आवश्यकता की पूर्ति के अलावा जो हमारे पास है वो गरीबों को दान दे दो, तब ये भावना पैदा होगी। अत: भक्ति के द्वारा ही वास्तविक परोपकार की भावना जाग्रत की जा सकती है।अगर कोई, कोई भी भक्ति करेगा तो अंत:करण शुद्धि होगी, अंत:करण शुद्ध होगा तो स्वाभाविक रुप से दैवी गुण (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, गरीबों की सहायता आदि) आयेंगे। यही दैवी गुण आधार हैं विश्व-शान्ति के। हमारी अंत:करण की शुद्धि पर ही हमारा हिन्दू धर्म जोर देता है ताकि हमारे विचार शुद्ध हों, जब विचार शुद्ध होंगे तो ये राग-द्वेष अशान्ति जो संसार में फैल रही है, अपने आप समाप्त हो जायेंगे। जातिवाद आदि की बीमारी ये सब बीमारियाँ समाप्त हो जायें अगर कोई सही-सही हिन्दू धर्म को मान ले।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ पुस्तक - विश्व-शांति; पृष्ठ 9 एवं 10, श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विश्व-शांति के विषय में दिये गये प्रवचन का पुस्तक रुपसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अगर कुंडली में सूर्य और मंगल का दोष हो तो घर में गुड़हल का पौधा लगाना चाहिए। यह पौधा सूर्य और मंगल ग्रह से जुड़ा हुआ है। मान्यता है कि मंगल ग्रह को प्रसन्न करने लिए पवनसुत हनुमान को गुड़हल का फूल अर्पित करना लाभदायक होता है। साथ ही सूर्यदेव को जल अर्पित करते समय इसमें गुड़हल का फूल डालकर अध्र्य दें। ऐसे करने से जातक को अत्यंत लाभ होता है और वास्तुदोष भी दूर होते हैं। गुड़हल का पौधा घर में कहीं भी लगा सकते हैं। यह अत्यंत लाभकारी होता है।औषधीय गुणों से भरपूर गुड़हल का फूल बहुत ही ऊर्जावान माना जाता है। देवी और सूर्यदेव की उपासना में इसका विशेष रूप से प्रयोग होता है। मान्यता है कि नियमित रूप से देवी मां तो गुड़हल का फूल अर्पित करने से शत्रु और विरोधियों से राहत मिलती है। गुड़हल का फूल डालकर सूर्यदेव को जल अर्पित करने से दीघार्यु और आरोग्य की प्राप्ति होती है।गुड़हल के फूल में मां दुर्गा का वास माना जाता है। पुष्प के हरे भाग में बुध और केतू होते हैं। वहीं केसरिया भाग मंगल को दर्शाता है। गुड़हल के रक्त वर्ण में सूर्य का प्रतिनिधित्व माना गया है। वहीं पुष्प की जहां से उत्पत्ति होती है, वहां गुरु का वास माना गया है। अंकुरण के मध्य में राहू और अंत में शनि मौजूद होते हैं। वहीं पुष्प के बीज भाग में चंद्रमा उपस्थित होता है। वास्तु की दृष्टि से गुड़हल का फूल बहुत ही शुभ माना जाता है। घर में गुलदस्ते का लगा गुड़हल का फूल परिवार के सदस्यों के बीच प्यार, अपनेपन और बॉन्ंिडग को दर्शाता है। दांपत्य जीवन में जोश को बनाए रखने के लिए भी गुड़हल का फूल बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। यह आप और आपके पार्टनर के बीच पैशन को दर्शाता है।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का निम्नांकित प्रवचन अंश उनके नारद-भक्ति-दर्शन पर दी गई प्रवचन श्रृंखला से है। यह प्रवचन श्रृंखला उन्होंने वर्ष 1990 में भक्तिधाम मनगढ़ (उ.प्र.) में दिया था। इस अंश में श्री कृपालु महाप्रभु जी संसार में छह प्रकार के लोगों के विषय में संक्षिप्त में बता रहे हैं। छठे प्रकार में महापुरुष, संत-महात्माओं के स्वभाव का निरुपण किया गया है। आइये इस संक्षिप्त अंश से हम अपने आत्मिक-लाभ का कुछ आधार प्राप्त करें ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहां से है....)...महापुरुष लोग अपना अनिष्ट करके हम लोगों का इष्ट करते हैं -
भुर्ज तरु सम सन्त कृपाला।भोजपत्र का पेड़ होता है, उस पेड़ की छाल होती है तो एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक। सब निकाल लो तो पेड़ जीरो बटा सौ, वो छालों का लिपटा हुआ एक पुंज ही पेड़ होता है। देखिये! छ: प्रकार के लोग होते हैं। हाँ, जल्दी समझियेगा ध्यान देकर, अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना। आप लोग सोचते तो हैं और बोलते भी हैं, अपने छोटों के आगे - हैं, हैं, हैं, मैं भी कुछ अकल रखता हूँ और छोटी सी बात जल्दी नहीं समझते, हमको डिटेल करना पड़ता है। अपना अनिष्ट करके भी दूसरे का अनिष्ट करना, ये सबसे निम्न क्लास के लोग होते हैं। हमारा नुकसान हो जाय तो हो जाय लेकिन उसका नुकसान जरुर करना है।अरे! ये कौन सी समझदारी की बात है कि अपना नुकसान कर रहे हो, उसके नुकसान करने के चक्कर मे। लेकिन होते हैं ऐसे -जे बिनु काज दाहिने बाएँ।तो अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना, सबसे खराब, नम्बर एक। इससे अच्छा, अपने इष्ट के लिये दूसरे का अनिष्ट करना यानी अपने फायदे के लिये दूसरे का नुकसान कर देना। ये पहले वाले से कुछ अच्छे हैं, नम्बर दो और तीसरा अपने इष्ट के लिये दूसरे का इष्ट करना यानी अपना भी लाभ हो इसका भी हो, फिफ्टी-फिफ्टी, ये उससे भी अच्छा है, नम्बर तीन और नम्बर चार अपने इष्ट के लिये दूसरे का अनिष्ट न करना। नम्बर पाँच, दूसरे का ही इष्ट करना और नम्बर छ:, अपना अनिष्ट करके दूसरे का इष्ट करना। अपना नुकसान भले ही हो जाय लेकिन इसका लाभ हो जाय। महाराज! हमको नरक में वास दे दो लेकिन इन जीवों का कल्याण करो, ये महापुरुषों का सिद्धान्त है। आप लोग इसको सोच नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते।(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नारद-भक्ति-दर्शन की 11-दिवसीय व्याख्या के 9 वें दिन के प्रवचन से (1990)सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन का यह अंश हमारे लिये इस दिशा में मार्गदर्शन है कि हम अपना मन किधर से हटावें और किसमें लगावें? यह समझना और अच्छे से समझना बहुत आवश्यक है क्योंकि मन का ही सारा खेल है, बंधन और मोक्ष दोनों का कारण मन है। निम्नांकित प्रवचन अंश श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित पद - सुनो मन, एक काम की बात; की व्याख्या से ली गई है, जो उनके द्वारा भक्तिधाम मनगढ़ में सन 1984 में की गई थी। यह बाद में "कामना और उपासना" नाम से पुस्तक रुप में प्रकाशित हुई। आइये इस अंश से आध्यात्मिक लाभ हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करें ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहां से है....)...हमारे मन का, मायिक जगत में जितने भी चर अचर जीव हैं, चेतन अचेतन जीव हैं वहां मन का अटैचमेन्ट न हो। मायाबद्ध, ये शब्द न भूलना। नहीं तो कहीं आपके मायिक जगत में तुलसीदास, सूरदास भी हों और आप कहें ये मायिक जगत में हैं इसलिये इनसे भी अटैचमेन्ट न किया जाय। मायिक जगत में जो जड़ चेतन माया के अण्डर में हैं।इस जगत में तो सन्त लोग, मायातीत भी आते हैं और भगवान मायाधीश भी आता है, उनको छोड़कर जो माया के अण्डर में है वो तीन कैटेगरी में आते हैं, उनका तीन क्लास है - सात्त्विक, राजस, तामस। ये तीन प्रकार की जेल है - ए क्लास, बी क्लास, सी क्लास। हमारे देश में भी तीन क्लास की जेल होती है। तो महापुरुष और भगवान को छोड़कर के मायिक जगत के समस्त जड़ चेतन मनुष्य यानी जीव अथवा जड़ पदार्थ जिनमें जीव नहीं है, निर्जीव, इनमें कहीं भी मन का अटैचमेन्ट न हो। न अनुकूल भाव से न प्रतिकूल भाव से, उसका नाम वैराग्य।अब ठीक इसके विपरीत परिभाषा बन गई भगवान की। भगवान, उनका नाम, उनका रुप, उनकी लीला, उनके गुण, उनके धाम, उनके सन्त, इनमें कहीं भी मन का अटैचमेन्ट हो, अनुकूल भाव से, वहां प्रतिकूल (विपरीत या उल्टा) भाव न लगाना। यद्यपि प्रतिकूल भाव से उपासना करके बड़े बड़े राक्षसों ने भगवान का धाम प्राप्त किया है, लेकिन आपको नहीं करना है वह। अनुकूल भाव से आपके मन का अटैचमेन्ट हो जाय। जड़ वस्तु में हो जाय, तो भी काम बन जायेगा। संसार में जैसे रसगुल्ला जड़ वस्तु है न, ऐसे ही आपका ब्रजरेणु (ब्रजधाम की धूल) में हो जाय अटैचमेन्ट, गोलोक के किसी कण में हो जाय आपके मन का अटैचमेन्ट तो भी आप भगवान का लोक प्राप्त करेंगे।लेकिन मन बहुत चंचल है। इसलिये सबमें लगाये रहना चाहिये, भगवान, उनका नाम, उनका रुप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके सन्त। सबमें मन को घुमाते रहो ताकि थके न मन।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
संदर्भ -कामना और उपासना पुस्तक, भाग - 1, प्रवचन - 1सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::
-- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज - प्रगटित ब्रजरस साहित्यजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज रसिक शिरोमणि हैं, जिन्होंने अपने अनगिनत प्रवचनों में न केवल श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च भक्ति अर्थात माधुर्य भाव और उसमें भी समर्था रति, जिसे गोपी-प्रेम कहा जाता है; का सांगोपांग निरुपण किया बल्कि अपने द्वारा प्रगट किये गये ब्रजरस-साहित्यों में उस रस-साम्राज्य की हर एक झाँकी को साक्षात कर दिया है। इन रस-साहित्यों की सर्वप्रमुख विशेषता है कि इनमें स्वसुख की कामना की किंचित मात्र भी गंध नहीं है अपितु यह साहित्य-समुद्र तो हृदय को श्रीराधाकृष्ण की नाम, रुप, लीला, गुण, धाम आदि माधुरियों में बरबस निमज्जित, बरबस ओतप्रोत कर देता है।भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित ब्रजरस साहित्यों की सूची इस प्रकार है : प्रेम रस मदिरा (पद ग्रन्थ), राधा गोविन्द गीत (दोहा ग्रन्थ), श्यामा श्याम गीत (दोहा ग्रन्थ), भक्ति-शतक (दोहा ग्रन्थ), युगल शतक (कीर्तन ग्रन्थ), युगल रस (कीर्तन ग्रन्थ), ब्रज रस माधुरी (4 भाग, कीर्तन ग्रन्थ), श्री राधा त्रयोदशी (पद ग्रन्थ), श्री कृष्ण द्वादशी (पद ग्रन्थ), युगल माधुरी (कीर्तन ग्रन्थ)इन ग्रन्थों के एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति में ज्ञान, प्रेम तथा रस की ऐसी गहराई है जिसकी कोई थाह नहीं है। जो जैसा और जितना बड़ा पैमाना लेकर जायेगा, वह वैसा और उतना अधिक इसका अनुभव कर सकेगा।आज हम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा विरचित प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ के विषय में कुछ जानेंगे, इस ग्रन्थ की विशेषतायें इस प्रकार हैं :::::::प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थविशेषतायें एवं सम्मतियां(1) आनन्दकन्द श्रीकृष्ण-चन्द्र को भी क्रीतदास बना लेने वाला उन्हीं का परम अन्तरंग प्रेम तत्व है तथा यही प्रत्येक जीव का परम चरम लक्ष्य है। प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ में इसका विशद निरुपण किया गया है तथा इसकी प्राप्ति का साधन भी बतलाया गया है।(2) यह पद-ग्रन्थ है तथा ब्रजभाषा में रचित है। इसमें कुल 1008 पद हैं।(3) ये सभी 1008 पद कुल 21 माधुरियों में विभक्त हैं।(4) ये 21 माधुरियां हैं - सद्गुरु, आरती, सिद्धान्त, दैन्य, धाम, प्रेम, श्रीकृष्ण बाललीला, श्रीराधा बाललीला, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, युगल, लीला, महासखी, निकुन्ज, मिलन, मान, मुरली, होरी, विरह, रसिया तथा प्रकीर्ण माधुरी।(5) इस ग्रन्थ के पदों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया है। रस-साहित्य का यह अद्वितीय ग्रन्थ है।(6) सगुण-साकार ब्रम्ह की सरस लीलाओं का रस-वैलक्षण्य विशेषरूपेण श्री कृष्णावतार में ही हुआ है। अत: इन सरस पदों का आधार उसी अवतार की लीलायें हैं तथा ये वेद शास्त्र, पुराणादि सम्मत तथा अनेक महापुरुषों की वाणियों के मतानुसार हैं।(7) श्रीराधाकृष्ण की रुप-माधुरी पर आधारित एक पद दृष्टव्य है। यह पद प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ की युगल-माधुरी से है (संख्या 19) ::::हमारे मन, बसे युगल सरकार।गौर वरनि वृषभानुनन्दिनी, नील वरन रिझवार।गरबाहीं दीने दोउ ठाढ़े, मंजु निकुंज मझार।उत पहिरे नीलांबर सोहति, इत पीतांबर धार।उत सोरह सिंगार सजीं उत, नटवर भेष सँवार।उत सिंगार मध्य छवि सोहति, इत छवि मधि श्रृंगार।बड़भागी 'कृपालु' जिन छिन-छिन, जोरी युगल निहार।।(8) सिद्धान्त-पक्ष का भी इस ग्रन्थ में बड़ा सुन्दर तथा विशद निरुपण किया गया है, सिद्धान्त-माधुरी का यह पद दृष्टव्य है (संख्या 77) ::::मिलत नहिं नर तनु बारम्बार।कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार।उलटो टाँगि बाँधि मुख गर्भहीनज़ समुझायेहु जग सार।दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नन्दकुमार।भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार।यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार।।(9) प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ के विषय में हिन्दी-साहित्य जगत के कुछ विद्वानों की सम्मतियां ::::...संत कृपालुदास की प्रस्तुत कृति सूर, मीरा, नन्ददास, रसखान, भारतेन्दु आदि समर्थ कवियों की कला कृतियों की परम्परा का एक नवीन पुष्प है, जिसका हास-विलास लोकोत्तर भावों की सफल अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। उनके पदों की कोमल पदावली संगीतात्मक है, उसमें अनुभूति की तीव्रता है और उसकी कुशल अभिव्यक्ति भी है...(डॉ. रामकुमार वर्मा, साकेत-12 सितम्बर 1955, एम.ए. पी.एच. डी. एवं रीडर, हिन्दी डिपार्टमेन्ट, प्रयाग विश्वविद्यालय)
...प्राय: सामान्य कवि प्रेम और भक्ति पर लिखा ही करते हैं; किन्तु इस प्रकार लिखना कि उससे भक्ति-प्रेमरस संचरित हो, केवल उन्हीं पवित्रात्माओं और भावानुभूत सहृदयों का काम है जिनमें वस्तुत: प्रेम और भक्ति का सत्य स्वरुप प्रकाशित होता है। प्रेम और भक्ति पर लिखा तो प्राय: जाता है और बहुत लिखा जाता है, किन्तु उसमें सत्यता और शुद्धता का यथेष्टांश प्राय: बहुत ही कम रहता है। मुझे हर्ष है कि यह रचना हिन्दी-साहित्य-सेवियों को श्री कृपालुदास जी की कृपा से प्राप्त हुई है...(सुमित्रानन्दन पंत, डायरेक्टर, ऑल इण्डिया रेडियो, हिन्दी प्रोग्राम)(10) इस प्रकार इस रस-साहित्य का यह किंचित मात्र माहात्म्य वर्णन है, क्योंकि रसिकों के उद्गार की माहात्म्यता का वर्णन कोरी शुष्क तथा मायिक बुद्धि से कर पाना तो सर्वथा असम्भव है। आशा है कि सुधि रसिक पाठकगण इस ग्रन्थ का अवलोकन करने को प्रेरित होंगे।ग्रन्थ प्राप्ति के स्थान :::::
जगद्गुरु कृपालु परिषत के मुख्य आश्रम,जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रचारक-गणजगद्गुरु कृपालु परिषत की साहित्य वेबसाइट www.jkpliterature.orgयूट्यूब चैनल www.youtube.com/JKP Prem Ras Madira(यह ग्रन्थ बिना अर्थ के तथा अर्थ सहित दोनों रुप में उपलब्ध है। अर्थ सहित यह 2 भागों में प्रकाशित हुई है।)
सन्दर्भ : जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::
-- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज - संकीर्तन पद्धतिजगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु संकीर्तन के माध्यम से नित्य नवायमान दिव्य सुधा रस का पान कराते थे। जब वह स्वयं संकीर्तन कराते थे, वह रस अवर्णनीय है। प्रत्येक साधक यही अनुभव करता था, मानो अंग प्रत्यंग में अमृत का संचार हो रहा हो। प्रेमावतार गुरुदेव के एक एक अंग से, एक एक रोम से ऐसी सुधा धारा प्रवाहित होती थी कि मन करता था सहस्त्रों नेत्रों से, सहस्त्रों कर्णों से इस सौंदर्य, रुप, सुधा माधुरी का पान किया जाय। किन्तु इन प्राकृत इन्द्रियों द्वारा एक बूँद का आस्वादन भी नहीं हो सकता। कोई रसिक ही समझ सकता था कि वे संकीर्तन गाते समय अथवा नयी पंक्तियाँ बनाते समय प्रेमराज्य की किस भूमिका पर होते थे।संकीर्तन शिरोमणि कृपालु महाप्रभु ने संकीर्तन की 3 पद्धतियों (व्यास, नारद तथा हनुमत) को अपनाया है। किन्तु उनका अपना ही विलक्षण अद्वितीय ढंग है। श्री राधाकृष्ण के नित्य नवायमान एवं प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम से ओतप्रोत नित्य नवीन रचनाओं द्वारा ब्रजरस वितरित करना उनका स्वभाव है। प्रेमोन्मत्त अवस्था में आचार्य श्री के श्रीमुख से नित्य नवीन संकीर्तन नि:सृत होते थे। एक ही भाव के संकीर्तन विभिन्न प्रकार से प्रकट कर दिए और उनका नए नए प्रकार से गान किसी भी साधक के मन को श्यामा श्याम में सहज रुप से ही आसक्त कर देता है।ईश्वरीय प्रेम को नारद जी ने प्रतिक्षण वर्धमानं कहा है इसी रस को कृपालु महाप्रभु ने संकीर्तन में स्थापित करके यह सिद्ध कर दिया है कि नाम और नामी समान हैं। इनके अनुसार जिस दिन जीव को यह विश्वास हो जायेगा कि भगवान् और उनका नाम दो नहीं है, एक ही है, तुरंत भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भक्तियुक्त चित्त द्वारा संकीर्तन को ही कलियुग में भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है जो वेद शास्त्र सम्मत है।इसके अनुसार जीव का चरम लक्ष्य श्रीकृष्ण का माधुर्य भाव युक्त निष्काम प्रेम प्राप्त करना है तदर्थ श्रवण, कीर्तन, स्मरण इन 3 साधनों में भी स्मरण भक्ति प्रमुख है। सरलता से भगवत्स्मरण हो सके एतदर्थ नित्य नवीन नवीन रचनाओं की अमूल्य निधि द्वारा इन्होंने दुर्लभ युगल रस का वितरण करके कलिमल ग्रसित अधम जीवों को भी ब्रजरस में निमज्जित किया।समस्त वेदों शास्त्रों में कलिकाल में भवरोग के निदान के लिए एकमात्र हरिनाम संकीर्तन को ही औषधि बताया गया है। कलियुग में श्रीराधाकृष्ण का गुणानुवाद ही समस्त भवरोगियों के लिए रामबाण औषधि है। किन्तु इस घोर कलिकाल में अनेक अज्ञानियों, असंतों द्वारा ईश्वरप्राप्ति के अनेक मनगढ़ंत मार्गों, अनेकानेक साधनाओं का निरुपण सुनकर भोले भाले मनुष्य कोरे कर्मकांडादि में प्रवृत्त होकर भ्रांत हो रहे हैं।ऐसे में अज्ञानान्धकार में डूबे जीवों के वास्तविक मार्गदर्शन के लिए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने दिव्य प्रेम रस मदिरा से ओतप्रोत स्वरचित अद्वितीय ब्रजरस संकीर्तनों द्वारा 'रूपध्यान' की सर्वसुगम, सर्वसाध्य, सरलातिसरल पद्धति से पिपासु जीवों को हरि नामामृत का पान कराकर ईश्वरीय प्रेम में सराबोर किया।वे स्वयं तो उस दिव्य प्रेमरस में डूबे ही रहते थे और सभी साधकों को भी संकीर्तन के माध्यम से बरबस प्रेम रस में नखशिख सराबोर करते रहते थे। ब्रजरसिकों ने जिस श्री राधाकृष्ण प्रेम माधुरी का वर्णन अपने साहित्य में किया है उसी दिव्य प्रेम रस को जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने कीर्तनों में पूर्ण रूपेण समाविष्ट कर दिया है जिसका श्रवण, मनन व कीर्तन भावुक हृदयों को श्यामा श्याम की प्रेम रस माधुरी से परिप्लुत कर देता है।उनके अनेक संकीर्तन आनंदकंद सच्चिदानंद श्री राधाकृष्ण के सांगोपांग शास्त्रीय रूपध्यान में अत्यंत सहायक है। प्रत्येक अंग का सौंदर्य चित्रण, उनकी लीला माधुरी, श्रृंगार माधुरी इतनी मनोहारी है कि बहुत कम प्रयास से ही साधक के मानस पटल पर युगल सरकार की सजीव झाँकी अंकित हो जाती है। अत: उनके ये अद्वितीय दिव्य प्रेम रस परिपूर्ण संकीर्तन एवं रूपध्यानकी अनूठी पद्धति साधक समुदाय के लिए परम उपयोगी है।ब्रजरसयुक्त उनके द्वारा रचित दिव्य संकीर्तन साहित्य :
1. प्रेम रस मदिरा (1008 पद अर्थ सहित),2. राधा गोविन्द गीत (11111 दोहे),3. भक्ति शतक (100 दोहे और व्याख्या),4. श्यामा श्याम गीत (ब्रजरसपरक 1008 दोहे)5. ब्रज रस माधुरी (भाग 1 से 4),6. युगल शतक (श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण संबंधित 100 कीर्तन)7. युगल माधुरी,8. युगल रस,9. श्री राधा त्रयोदशी (श्रीराधा रुप आदि पर 13 पद)10. श्री कृष्ण द्वादशी (श्रीकृष्ण रुप आदि पर 12 पद)11. संकीर्तन सरगम।इन दिव्य संकीर्तन ग्रन्थों के विषय में कल के लेख में सविस्तार जानेंगे। ये सभी संकीर्तन पुस्तकें उनके आश्रमों (मनगढ़, वृन्दावन, बरसाना, दिल्ली) तथा उनके प्रचारकों के पास उपलब्ध हैं।सन्दर्भ : जगद्गुरु कृपालु साहित्य/ JKP Magazinesसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भारत में प्राचीन मंदिरों का अपना एक अद्भुत इतिहास रहा है। आज हम एक ऐसे मंदिर के बारे में बता रहे हैं, जो अपनी एक अनोखी खासियत के कारण प्रसिद्ध है। ये खासियत है- इस मंदिर के गुंबद की कभी परछाई नहीं पड़ती, जी हां... यह सच है। भगवान भोलेनाथ को समर्पित यह मंदिर है-ब्रहदीश्वर मंदिर।तमिलनाडु राज्य के तंजौर में स्थित ब्रहदीश्वर मंदिर तमिल वास्तुकला में चोलों द्वारा की गई अद्भुत प्रगति का एक प्रमुख नमूना है। वास्तुकला की द्रविड़ शैली में निर्मित, ब्रहदीश्वर मंदिर हिंदू देवता शिव को समर्पित भारत का सबसे बड़ा मंदिर होने के साथ-साथ, भारतीय शिल्प कौशल के आधारस्तम्भों में से एक है। विश्व में यह अपनी तरह का पहला और एकमात्र मंदिर है जो कि ग्रेनाइट का बना हुआ है। बृहदेश्वर मंदिर अपनी भव्यता, वास्तुशिल्प और केन्द्रीय गुम्बद से लोगों को आकर्षित करता है। इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। मान्यता है कि इस मंदिर में सबकी मनोकामना होती है।बृहदीस्वरा मंदिर को पेरुवुडइयर कोविल, राजराजेस्वरम भी कहा जाता है जिसे 11वीं सदी में चोल साम्राजय के राजा चोल ने बनवाया था। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर भारत के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़े से बने हैं। तमिल भाषा में इसे बृहदीश्वर के नाम से संबोधित किया जाता है। यह मंदिर चोल शासकों की महान कला का केन्द्र रहा है। भगवान शिव को समर्पित बृहदीश्वर मंदिर शैव धर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र स्थल रहा है।हर महीने जब भी सताभिषम का सितारा बुलंदी पर हो, तो मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि राजाराज के जन्म के समय यही सितारा अपनी बुलंदी पर था। एक दूसरा उत्सव कार्तिक के महीने में मनाया जाता है जिसका नाम है कृत्तिका। एक नौ दिवसीय उत्सव वैशाख (मई) महीने में मनाया जाता है और इस दौरान राजा राजेश्वर के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया जाता था।बृहदेश्वर मंदिर वास्तुकला, पाषाण व ताम्र में शिल्पांकन, चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण एवं उत्कीर्णकला का बेजोड़ नमूना है। इसके शिलालेखों में अंकित संस्कृत व तमिल लेख सुलेखों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस मंदिर की उत्कृष्टता के कारण ही इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का स्थान मिला है।मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम यानी द्वार के भीतर एक चौकोर मंडप है तथा चबूतरे पर नंदी जी की विशाल मूर्ति स्थापित है। नंदी की यह प्रतिमा भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नंदी की दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।12 बजे के बाद नहीं नजर आती परछाईयह मंदिर ग्रेनाइट की विशाल चट्टानों को काटकर वास्तु शास्त्र के हिसाब से बनाया गया है। इसमें एक खासियत यह है कि दोपहर 12 बजे के बाद इस मंदिर के गुंबद की परछाई जमीन पर नहीं पड़ती। आज तक वैज्ञानिक भी इस मंदिर के रहस्य को सुलझा नहीं सके हैं, कि आखिर क्यों इस मंदिर के गुम्बद की छाया 12 बजे के बाद जमीन पर नहीं पड़ती है । यानी दोपहर के वक्त मंदिर के हर हिस्से की परछाई तो जमीन पर दिखती है , लेकिन हैरानी की बात यह है कि मंदिर के गुंबद की परछाई धरती पर नहीं पड़ती है और यह बिल्कुल ही नहीं दिखती ।बृहदेश्वर मंदिर पेरूवुदईयार कोविल, तंजई पेरिया कोविल, राजाराजेश्वरम् तथा राजाराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।--
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक की साधना में बाधा पहुँचाने वाले अनेक बाधक तत्वों के विषय में अनेक बार समझाया है, यथा परदोष दर्शन, लोकरंजन, परनिन्दा आदि। इसी में एक बाधक तत्व है अनेकानेक शास्त्रों को स्वयं की बुद्धि के बल पर पढऩे और समझने का प्रयास करना। यद्यपि यह सुनने-पढऩे में थोड़ा अटपटा मालूम होता है तथापि सिद्धान्त अनुसार समझने पर इसे आसानी से समझा जा सकता है। अत: आइये श्री कृपालु महाप्रभु जी के ही शब्दों में इसे समझने का प्रयास करें :::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है....)...अनेकानेक शास्त्रों, वेदों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रंथों को पढऩा कुसंग है। चौंको मत, बात समझो। कारण यह है कि वे महापुरुष के प्रणीत ग्रन्थ हैं, अतएव उन्हें हम भगवत्प्रणीत ग्रन्थ भी कह सकते हैं। उनका वास्तविक तत्त्व अनुभवी महापुरुष ही जानते हैं। तुम उन्हें पढ़कर अनेकानेक प्रश्न पैदा कर बैठोगे, जिनका कि समाधान अनुभव के बिना संभव नहीं।यदि किसी मात्रा में संभव भी है तो वह एकमात्र महापुरुष के द्वारा ही। अतएव हमारे यहाँ के प्रत्येक शास्त्रादि स्वयं प्रमाण देते हैं कि महापुरुष के द्वारा ही शास्त्रों का तत्वज्ञान हो सकता है -तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:।।(गीता 4-34)यदि तुम शास्त्रों, वेदों को पढ़कर स्वयं ही तत्वनिर्णय करना चाहो तो सर्वप्रथम इस विषय में महापुरुष का निर्णय पढ़ लो। तुलसीदास के शब्दों में -श्रुति पुराण बहु कहेउ उपाई,छूटै न अधिक अधिक अरुझाई..अर्थात् यदि महापुरुष के बिना ही, अपने आप शास्त्रीय भगवद्विषयों का तत्वनिर्णय करने चलोगे तो सुलझने के बजाय उलझते जाओगे। सारांश यह है कि एक प्रश्न के समाधान के लिए तुम शास्त्रों में अपनी बुद्धि को लेकर उत्तर ढूंढऩे जाओगे तो शास्त्रों के वास्तविक रहस्य न समझकर सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न करके लौटोगे, क्योंकि पुन: तुलसीदास ही के शब्दों में -मुनि बहु, मत बहु, पंथ पुराननि, जहां तहां झगरो सो..(विनय पत्रिका)अर्थात् अनेक ऋषि मुनि हो चुके हैं एवं उनके द्वारा प्रणीत अनेक मत भी बन चुके हैं। पुराणादिक में इस विषय में झगडे ही झगड़े हैं। फिर तुम्हारी बुद्धि भी मायिक है अतएव तुम मायिक अर्थ ही निकालोगे।(प्रवचनकर्ता - जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ - साधन-साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भक्तियोग रसजगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भक्तियोग रस के परमाचार्य हैं जिन्होंने अपने ग्रन्थों तथा प्रवचनों में भक्ति तथा प्रेम तत्व का विशद विवेचन किया है। प्रेम की साकार स्वरुपा महारानी श्री राधारानी तथा उनके नाम, रुप, गुण, धाम, लीला आदि का भी अति मधुर तथा सरस वर्णन उन्होंने अपने ब्रजरसपरक ग्रन्थ-साहित्यों में किया है। निम्नांकित पद उनके द्वारा रचित प्रेम-रस-मदिरा नामक ग्रन्थ से है, जिसमें उन्होंने श्रीराधारानी जी के उन गुणों का वर्णन किया है, जिन पर विचार कर-करके उनका शरणागत जीव सदैव निर्भय रहता है। आइये हम भी उन गुणों पर गम्भीर चिन्तन कर उन्हीं श्रीराधारानी का महाश्रय ग्रहण करें :::::::::(यह पद नीचे इस प्रकार है..)श्री राधे हमारी सरकार, फिकिर मोहिं काहे की।
हित अधम उधारन देह धरें,बिनु कारन दीनन नेह करें,जब ऐसी दया दरबार, फिकिर मोहिं काहे की।
टुक निज-जन क्रन्दन सुनि पावें,तजि श्यामहुँ निज जन पहँ धावें,जब ऐसी सरल सुकुमार, फिकिर मोहिं काहे की।
भृकुटी नित तकत ब्रम्ह जाकी,ताकी शरणाई डर काकी,जब ऐसी हमारी रखवार, फिकिर मोहिं काहे की।
जो आरत मम स्वामिनि! भाखै,तेहि पुतरिन सम आँखिन राखै,जब ऐसी कृपालु रिझवार, फिकिर मोहिं काहे की।।उपरोक्त पद का भावार्थ :::: जब किशोरी जी (श्रीराधेरानी) हमारी स्वामिनी हैं तब मुझे किस बात की चिंता है? जो पतितों के उद्धार के लिये ही अवतार लेती हैं एवं अकारण ही दीनों से प्रेम करती हैं। जब हमारी स्वामिनी के दरबार में इतनी अपार दया है, तब मुझे किस बात की चिंता है? हमारी स्वामिनी जी अपने शरणागतों की थोड़ी भी करुण-पुकार सुनते ही अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर को भी छोड़कर अपने जन के पास तत्क्षण अपनी सुधि बुधि भूलकर दौड़ आती हैं। जब हमारी किशोरी जी इतनी सुकुमार और सरल स्वभाव की हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है? ब्रम्ह श्रीकृष्ण भी जिनकी भौहें देखते रहते हैं अर्थात प्यारे श्यामसुन्दर भी जिनके संकेत से चलते हैं, उनकी (श्रीराधेरानी) शरण में जाकर फिर किसका भय है? जब ऐसी स्वामिनी जी हमारी रक्षा करने वाली हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है? जो शरणागत आर्त होकर दृढ़ निष्ठापूर्वक मेरी स्वामिनी जी!' ऐसा कह देता है, उसे स्वामिनी जी अपनी आँखों की पुतली के समान रखती हैं। श्री कृपालु जी कहते हैं कि जब हमारी स्वामिनी जी शरणागत से इतना प्यार करती हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है?ग्रन्थ का नाम - प्रेम रस मदिरा, प्रकीर्ण माधुरी, पद संख्या 21पद एवं ग्रन्थ के रचयिता : भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा जिज्ञासुओं के पूछे गये प्रश्नों का समाधान ::::::साधक का प्रश्न: हमारा अंत:करण कितना शुद्ध है, ये हम कैसे जानें? कोई पहचान है क्या इसकी?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::::::...इसकी एक पहचान है। जिसका हृदय जितना अधिक शुद्ध होगा, उसका हृदय, उसका मन उतनी ही जल्दी भगवान और महापुरुष की ओर खिंच जायेगा।भगवान और महापुरुष चुम्बक के समान हैं। चुम्बक पत्थर होता है, लोहे को खींच लेता है। तो एक चुम्बक पत्थर बीच में रख दो और चारों ओर सुइयां खड़ी कर दो लोहे की। तो जिस सुई में जितना अधिक शुद्धत्व होगा, वो उतनी जल्दी खिंचेगी और जिसमें जितनी गन्दगी होगी, मिलावट होगी, उतनी देर में खिंचेगी।जितना अधिक पाप का हृदय होगा उतनी देर में वो खिंचेगा भगवान और महापुरुष के सामने। तो अंत:करण की शुद्धि का यही प्रमाण है कि शुद्ध वस्तु को पाकर खिंच जाय। जितनी जल्दी खिंच जाय, जितने परसेंट सरेंडर हो जाय, वो ही उसका प्रमाण है कि हमारा हृदय कितना शुद्ध है, कितना पापात्मा है, गन्दा है।सन्दर्भ -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाविश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संसार में सुख होने के विश्वास की हमारी भ्रामक भूल के प्रति ध्यान दिलाते हुये सारगर्भित महत्वपूर्ण प्रवचन, जिससे हम यह जान सकेंगे कि भगवान की राह पर हमारा उत्थान क्यों नहीं होता, कैसे उस रुकावट को हटाकर हम शीघ्रता से आगे बढ़ सकते हैं ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से हैं...)...एक सच्चा संत कभी किसी को सांसारिक पदार्थों की ही प्राप्ति को सम्मति नहीं देता क्योंकि एक मायाबद्ध जीव के लिए अज्ञान हो सकता है लेकिन एक सन्त (जो कि भगवत्प्राप्ति कर चुका हो) उसके लिए सब कुछ शीशे की तरह साफ़ होता है, वो जानता है कि सार क्या है?हम लोगों ने तो अनादिकाल से संसार में, संसारी वस्तुओं में ही सुख है, ये माना हुआ है और यहीं पर हमारी गाड़ी अटकी पड़ी है। अनादिकाल से अब तक हमने ये ही किया है, संसारी भोग पदार्थों में ही सुख है, ये बात संस्कार रूप से हमारे अंदर बैठी हुई है और बड़े होते- होते भी हम ये ही देखते हैं जिससे हमारी ये धारणा और पुष्ट होती जाती है, जबकि हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि संसारी सुख (जो कि जड़ है) प्रतिक्षण घटता जाता है, उसे सुख नहीं कहा जा सकता, उसे तो मृग-मरीचिका ही कहा जा सकता है।जिस तरह एक व्यक्ति एक रूपये के नोट को नहीं देना चाहता लेकिन यदि उसे उस एक रूपये के नोट के बदले हजार रूपये का नोट दिया जाय तो वो उस एक रूपये के नोट को छोड़ देता है, ऐसे ही यदि हमें इस संसार में सुखबुद्धि से ऊपर उठना है तो हमें भगवान की भक्ति का आश्रय लेना होगा, भक्ति करते करते जब अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा और उसमें भगवत्कृपा से भगवान का प्रेम प्रकट होगा तब हमें उसी अनुपात में दिव्य, प्रतिक्षण वर्धमान, अनंत भगवद आनंद का अनुभव होता चला जाएगा और त्यों ही त्यों उसी अनुपात में हम इन संसारी गर्हित, तुच्छ आनंद को छोड़ते चले जायेंगे, हमें इसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ेगी, संसार अपने आप छूटता चला जाएगा, हम उत्तरोत्तर ऊपर उठते चले जायेंगे, हर साधक को साधना के दौरान इसका अनुभव होता है।जो लोग ये बात समझ जाते हैं वे मानव जीवन के अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं और वे ही लोग तुलसीदास, मीरा, नानक, सूरदास, कबीर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि बन जाते हैं, हमने ये बात नहीं समझी इसलिए हम लोग आज भी संसारी वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं।हमारा ये अज्ञान यहां तक है कि हम लोग मंदिर भी जाते हैं तो वहां भी भगवान के सामने भी संसार की ही कामना किया करते हैं कि भगवान हमें पुत्र दो, रूपये दो, नौकरी दो आदि आदि। हमने अभी समझा ही नहीं है कि सुख कहा हैं? संसारी वस्तुओं की कामना करना ऐसा ही है जैसे शुगर का मरीज अपनी बीमारी भी ठीक करना चाहे परन्तु और उत्तरोत्तर मीठा खाता चला जाय, ऐसे तो बीमारी और बढ़ती चली जायेगी। अनादि काल से हमने अब तक ये ही किया है, संत लोग ये बात समझते हैं इसलिए वो संसारी चीजों को ही लक्ष्य बनाने की सम्मति कभी नहीं देते, बल्कि वे तो निष्काम भक्ति के लिए जीव को प्रेरित करते हैं।अगर कोई संत कहलाने वाला व्यक्ति अध्यात्म की आड़ लेकर संसारी पदार्थों की प्राप्ति के लिए जनसमुदाय को उत्साहित करता है तो समझ लेना चाहिए कि वो व्यक्ति संत नहीं है, संत के भेष में पाखंडी है, धूर्त है। आजकल हमारे देश में ऐसे बाबाओं की बाढ़ आई हुई है। ये धूर्त भोली भाली जनता को संसार देने का वादा करते हैं। भारत भूमि में आज तक हुए सभी वास्तविक संतजनों ने निष्काम भक्ति का ही प्रचार किया है और जीवों की संसार में सुखबुद्धि को हतोत्साहित करने का काम किया है। क्योंकि जब तक जीव की संसार में सुखबुद्धि बनी रहेगी तब तक जीव भगवान की तरफ नहीं चलेगा, अगर चलेगा तो बार-बार गिरेगा। इसलिए लोगों को संसार के दोषों का बार-बार चिंतन करते रहना चाहिए।
(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से गुरु उपदेशजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से गुरु उपदेशों के प्रति साधक के कर्तव्य तथा उसकी लापरवाही के सम्बन्ध के संबंध में कुछ मार्गदर्शन ::::::::(उनके द्वारा नि:सृत वाणी यहां से है....)....हमको जो सुख मिलता है, वो आत्मा का सुख नहीं है मन का है और लिमिटेड है और वो नश्वर है। तमाम गड़बडिय़ां हैं उसमें। जो भी सुख हमको मिलता है संसार में वो सदा नहीं रहता। ये तो अनुभव करता है आदमी। भूख लगी है रसगुल्ला खाया सुख मिला। उसमें भी पहले रसगुल्ले में ज्यादा सुख मिला, दूसरे में उससे कम, तीसरे में उससे कम, चौथे में खतम। जिस वस्तु से सुख मिलता है उससे भी हमेशा एक सा नहीं मिलता। धीरे-धीरे घटता जाता है और फिर उसी से दु:ख मिलने लगता है। ये भी होता है। स्वार्थ हानि हुई कि दु:ख। उसी बीवी से प्यार और उसी बीवी की शकल देखने से नफरत हैं। उसी बेटे से प्यार है और उसी से झगड़ा हो गया या कोई अपमान कर दिया पिता का तो उससे बातचीत करना बन्द। तो संसार का सुख तो अगर थोड़ा है और सदा रहे तो भी कोई बात है। वो तो आया गया, धूप-छाँव की तरह।तो ये सब बातें हमेशा बुद्धि में बैठी रहें। कभी बैठती हैं कभी गायब हो जाती हैं, फिर संसार में बह जाता है वो लापरवाही से।तत्त्वविस्मरणात् भेकीवत्।
भूल गया। तो फिर क्या होगा?बहुत बचपन की बात है। एक व्यक्ति डायरी रखता था हमेशा। उसको भूलने की आदत थी, तो उसमें लिख ले। तो हमने कहा - एक बात बताओ, वो डायरी में लिख लेता है और अगर डायरी पढऩा भूल जाय तो वो लिखा हुआ क्या करेगा? डायरी में कोई लिख ले क्यों लिख ले? भूल जायेगा। बढिय़ा तरकीब है। अच्छा जी! ये तरकीब अगर बढिय़ा है लेकिन वो पढऩा भूल जाय तो? अरे! जब भूल जाय, तो सभी कुछ भूल सकता है। तो फिर तुम्हारा लिखना ये क्या काम करेगा?तो हम तत्व को भूल जाते हैं। जिस समय गुरु का उपदेश होता रहता है तो समझ में सब बात आती है पढ़े लिखे आदमी को। वो मानता है, एडमिट करता है, सब सही है और फिर संसार के एटमॉसफियर में गया और भूल गया। तो उसमें सावधान रहना चाहिये और बार-बार मन को पकड़ करके बुद्धि के द्वारा हरि गुरु के चरणों में लगाते रहना चाहिये। तो अभ्यास करने से पक्का हो जायेगा।पुस्तक सन्दर्भ - प्रश्नोत्तरी, भाग - 3; जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज तथा साधकों मध्य प्रश्नोत्तर पर आधारित।सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज -प्रवचन शैलीभारतवर्ष के 500 शीर्षस्थ विद्वानों की तत्कालीन सभा काशी विद्वत परिषत ने जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को जब पंचम मौलिक जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की, तब उन्होंने अपने पद्यप्रसूनोपहार में उनके लिये यह श्लोक कहा था;यद्व्याख्याननवीनमेघपटलध्वानेन चित्ताटवी नास्तिक्योपहतात्मनामपि मुदा सूक्ते विवेकाङ्कुरम।स्फूर्जत्तर्कविचारमंत्रनिवहव्यक्षिप्तदुर्भावना-भूतावेशविषश्चिरं विजयतामेकोयमीड्यो नृणाम।।(पद्यप्रसूनोपहार, काशी विद्वत परिषत, 1957)अर्थात... श्री कृपालु जी का प्रवचन नूतन जलधार की गर्जना के समान है। यह नास्तिकता से पीडि़त मन की व्यथा को हरने वाला है। प्रवचन को सुनकर चित्त रूपी वनस्थली दिव्य भगवदीय ज्ञान के अंकुर को जन्म देती है, कुतर्कयुक्त विचारों से विक्षप्त तथा दुर्भावना से पीडि़त मनुष्यों की रक्षा करने में श्री कृपालु जी महाराज अमृत औषधि के समान हैं। उनकी सदा ही जय हो...श्री राधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरुप भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के दिव्यातिदिव्य प्रवचनों का रसास्वादन देश विदेश के लाखों धर्म-पिपासु जन प्रत्येक दिन कर रहे हैं। प्राचीन ब्रजरस महारसिकों ने जो श्री राधाकृष्ण की दिव्य लीलाओं की रसवृष्टि ब्रज में की थी, उसी परंपरा में आचार्यश्री का प्रवचन संकीर्तन आदि का स्वरुप है।जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के महान दार्शनिक, महान विद्वान एवं महान संत थे। आपके प्रवचनों को सुनते समय ऐसा अनुभूत होता है कि आपके श्रीमुख से नि:सृत एक एक शब्द मानों स्वयं साक्षात् रुप में चारों वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृति, गीतादि प्रकट होकर बोल रहे हों। आपकी भाषा शैली पूर्णत: शुद्ध एवं आकर्षक है। आपको अनेक भाषाओं जैसे संस्कृत, हिंदी, अरबी, फ़ारसी एवं उर्दू का पूर्ण ज्ञान है। विश्व के सभी प्रमुख धर्मों और धर्मग्रंथों पर भी आपका पूर्ण अधिकार था। उन्होंने शास्त्र-वेदों के अथाह ज्ञान का निचोड़ निकालकर हमारे समक्ष रख दिया है, जिन्हें कई जन्मों में स्वयं पढ़कर नहीं समझा जा सकता है।जनमानस उनके प्रवचन सुनकर यह अनुभव कर लेता है कि जीवन को जीने के लिये न केवल भौतिकवाद बल्कि आध्यात्मवाद का भी समन्वय अपने जीवन में लाना होगा।यह बात उल्लेखनीय है कि,(1) ये पहले जगद्गुरु हैं जो 93 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रम्हसूत्र, गीता आदि के प्रमाणों के नंबर इतनी तेज गति से बोलते थे कि सभी श्रोता जिसने भी उनके प्रवचन सुने, चाहे टीवी के माध्यम से, चाहे व्यक्तिगत रुप से वह हृदय से स्वीकार करता है कि ऐसी अलौकिक प्रतिभा संपन्न विद्वान आज तक नहीं हुआ। श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ होने में तो कोई संदेह है ही नहीं, ये तो कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम् ही हैं।(2) सभी महान संतों ने मन से ईश्वर भक्ति की बात बताई है, जिसे ध्यान, सुमिरन, स्मरण या मेडिटेशन आदि नामों से बताया गया है। श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रूपध्यान नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान की सार्थकता तभी है जब हम भगवान् के किसी मनोवांछित रुप का चयन करके उस रुप पर ही मन को टिकाये रहें। मन को भगवान् के किसी एक रुप पर केंद्रित करने का नाम ही ध्यान या भक्ति है क्योंकि भगवान् के ही एक रुप पर मन को न टिकाने से मन यत्र तत्र संसार में ही भागता रहेगा। भगवान् को तो देखा नहीं, तो फिर उनके रुप का ध्यान कैसे किया जाय, उसका क्या विज्ञान है, उसका अभ्यास कैसे करना है आदि बातों को - भक्तिरसामृतसिन्धु, नारद भक्ति सूत्र, ब्रम्हसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ प्रेम रस सिद्धांत में बड़े स्पष्ट रुप से समझाया है।श्रोताओं के मुख से -जब श्रोता उनको टीवी पर सुनते हैं और अचानक समय पूरा होने के कारण प्रवचन या कीर्तन बंद हो जाता है तो वे ऐसा अनुभव करते हैं मानो किसी प्रीतिभोज में वे अपनी सबसे प्रिय वस्तु का सेवन कर रहे हों और कोई अचानक आकर उनसे छीन ले। जिस दिन प्रवचन नहीं सुन पाते तो ऐसा लगता है जैसे आज का दिन व्यर्थ चला गया हो। जब कभी कुछ सौभाग्यशाली श्रोता श्री महाराज जी के दर्शन के लिए आते तो कहते - 'महाराज जी ! आपने हमारे कान, आँख, सब खऱाब कर दिए। आपको सुनने के पश्चात् किसी और का सुनना अच्छा ही नहीं लगता बल्कि आपके प्रवचन सुन सुनकर इतना तत्वज्ञान आपकी कृपा से हो गया है कि और कोई बाबा बोलता है तो लगता है कि गलत बोल रहा है, नामापराध न हो जाय इस भय से और कुछ सुनना ही बंद कर दिया..-अद्वितीय प्रवचन श्रृंखलाएं :::::(1) मैं कौन? मेरा कौन? - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस विषय पर 103 प्रवचन दिये हैं, जिसमें उन्होंने मैं अर्थात जीवात्मा तथा मेरा अर्थात जीवात्मा के सर्वस्व भगवान के मध्य सम्बन्ध सहित आध्यात्म जगत के सम्पूर्ण तत्वों का वेदादिक सम्मत विवेचन इस 103-प्रवचन की अद्वितीय श्रृंखला में किया है।(2) ब्रम्ह, जीव, माया तत्वज्ञान - तीन सनातन तथा अनादि तत्वों ब्रम्ह, जीव तथा माया; इन पर जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने 40-प्रवचन दिये हैं।इनके अलावा भी अनगिनत आध्यात्मिक विषयो पर प्रवचन श्रृंखलाएँ, स्वरचित पदों की तथा स्वरचित दोहों की व्याख्याओं के अनगिनत प्रवचन उन्होंने अपने अवतारकाल में जीवों के कल्याणार्थ दिये हैं। जिनमें जनमानस को यह बड़ी सरलता से ज्ञात हो जाता है कि वह आजपर्यन्त क्यों दु:खी है, संसार क्या है, कैसे वह सुख की प्राप्ति करेगा, भगवान कौन हैं और भगवान से उसका संबंध क्या है, कैसा है और कैसे भगवान को वह पावे? यदि कोई निरन्तर गंभीर तथा चिन्तनशील होकर उन्हें श्रवण करे तो निश्चय ही अज्ञान का समूल नाश होकर हृदय ज्ञान तथा भगवत्प्रेम से सराबोर हो जायेगा।भारत में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के टीवी पर आने वाले प्रवचनों का समय -
न्यूज 18 इंडिया -प्रतिदिन सुबह 6.00 से 6.25 बजेन्यूज 24 -सोम से शुक्र, सुबह 6.25 से 6.50 बजेभारत समाचार - प्रतिदिन सुबह 6.50 से 7.15 बजेसाधना चैनल -प्रतिदिन सुबह 8.05 से 8.30 बजेआस्था चैनल - प्रतिदिन शाम 6.20 से 6.45 बजेसंस्कार चैनल -सोम से शनि, रात्रि 8.30 से 8.55 बजेनोट - कार्यक्रम परिवर्तनशील हैं, वर्तमान दिनांक तक के अनुसार समय-सारणी का यह विवरण है।
(सन्दर्भ -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्य में विशेषांक जैसे जगदगुरुत्तम (अवतारगाथा), भगवत्तत्व तथा अन्य साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा संबंधी श्रृंखला :::::::::- निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य जगदगुरुत्तम 1008 स्वामी श्री कृपालु जी महाराजजगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् हैं, जिनकी 30 अक्टूबर (शरद पूर्णिमा) को 98 वीं जयंती है। उनके जन्मदिवस को विश्व में जगद्गुरुत्तम्-जयंती के रुप में मनाया जाता है। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना भक्तिप्राधान्य समन्वयवादी सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, अतएव उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में चित्रकूट में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलन में ही आचार्य श्री का यह स्वरुप प्रकट हो गया था। 1956 में कानपुर में आयोजित द्वितीय महाधिवेशन में काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी भी उपस्थित थे। उन्होंने विद्वत परिषत के अन्य विद्वानों से सहमति करके उन्हें विद्वत परिषत आमंत्रित किया। जहां काशी विद्वत परिषत ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया।जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -(1) समस्त मौलिक जगद्गुरुओं में जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे जगद्गुरु हैं जिन्हें इस उपाधि से विभूषित किया गया है।(2) इस उपाधि का तात्पर्य है कि उन्होंने समस्त दर्शनों अर्थात् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, उपनिषदों तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों एवं साथ ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगद्गुरुओं के परस्पर विरोधाभासी सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए उनका समन्वयात्मक रुप प्रस्तुत किया।(3) समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कलियुग में भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति के लिए 'भक्तिमार्ग' की ही प्राधान्यता स्थापित की है। इस सिद्धांत को उन्होंने वेदादिक ग्रंथों का प्रमाण देते हुए सिद्ध भी किया है।(4) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कभी भी किसी वेद-शास्त्र आदि का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्हें समस्त वेद-शास्त्र कंठस्थ थे। अपने प्रवचनों में वे इन वेदादिक-ग्रंथों के प्रमाण धाराप्रवाह नंबर सहित बोलते थे। प्रसिद्ध विचारक, लेखक और आलोचक श्री खुशवन्त सिंह ने इन्हें कंप्यूटर जगद्गुरु की संज्ञा दी है।(5) समस्त जगद्गुरुओं ने शंकराचार्य जी के अद्वैत मत का खंडन किया किन्तु समन्वयवादी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने उनके इस सिद्धांत का खंडन तो किया लेकिन उनके जीवन में भक्ति के क्रियात्मक स्वरुप को उजागर किया। बोलने मात्र का भेद है। वस्तुत: शंकराचार्य जी ने भी अपने अंतिम जीवन में श्रीकृष्ण-भक्ति ही की थी। उन्होंने अंत:करण शुद्धि के लिए कहा था -शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते।(प्रबोध सुधाकर)अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि नहीं हो सकती।उन्होंने अपने शिष्य से यह भी कहा था कि एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है - कामारि-कंसारि-समर्चनाख्यम्। अपनी माता को शंकराचार्य जी ने श्रीकृष्ण भक्ति का उपदेश किया और स्वयं दुन्दुभिघोष से यह कहा था -काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम्, केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि:।अस्माकं यदुनंदनांघ्रियुगलध्यानावधानार्थिनाम्, किं लोकेन् दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम।।अर्थात् सकाम भक्ति करने वाले भोले लोग स्वर्गप्राप्ति हेतु सकाम कर्म करें, मैं नहीं करता एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों, हमें नहीं चाहिए। हम तो आनंदकंद श्रीकृष्णचरणारविन्दमकरंद के भ्रमर बनेंगे।जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी के श्रीकृष्णभक्ति संबंधी श्लोकों को अपने प्रवचनों में उद्धरित करके जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज यही सिद्ध करते हैं कि श्री शंकराचार्य जी प्रच्छन्न श्रीकृष्णभक्त ही थे।(6) जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और वेदादिक ग्रंथों के अनर्थ कर देने से प्रचलित गलत मार्गों यथा - गुरुडम आदि का पुरजोर विरोध किया और शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा उसकी वास्तविकता को विश्व के समक्ष रखा।ऐसे जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के विलक्षण समन्वयवादी स्वरुप को देखकर काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी ने 1956 में सार्वजनिक रुप से घोसणा करते हुए कहा था -...इतनी छोटी अवस्था में इन्होंने सब वेदों शास्त्रों का इतना विलक्षण ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह मैंने इससे पूर्व कभी भी स्वीकार नहीं किया था। किन्तु कल का प्रवचन सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। उन्होंने समस्त दर्शनों का विवेचन करके जिस विलक्षण ढंग से भक्तियोग में समन्वय किया है वह अलौकिक था, दिव्य था। इस प्रकार का प्रवचन भगवान की देन है। इस प्रकार की प्रतिभा एवं इस प्रकार का ज्ञान कोई स्वयं अर्जित नहीं कर सकता। आप लोगों का यह परम सौभाग्य है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके मध्य आये हैं...साथ ही समस्त विद्वानों ने नतमस्तक होकर यह स्वीकार किया था -...शास्त्रार्थ तो मनुष्य से किया जाता है, ये मनुष्य तो हैं नहीं। इनसे हम क्या शास्त्रार्थ कर सकते हैं??तुलसीदास जी की काव्यकला के लिए कहा गया है -कविता करि के तुलसी न लसे, कविता लसि पा तुलसी की कला..इसी प्रकार जगद्गुरुत्तम की उपाधि से कृपालु जी नहीं अपितु कृपालु जी पाकर जगद्गुरु की उपाधि ने सम्मान पाया है।आपकी इस विश्व को दिए गए समस्त उपहार अनमोल और अद्वितीय हैं, और अनंत युगों तक रहेंगे. वे जीव धन्यातिधन्य हैं जिन्होंने आपको गुरु रुप में पाया और प्यार किया है।(सन्दर्भ -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्य में विशेषांक जैसे जगदगुरुत्तम (अवतारगाथा), भगवत्तत्व तथा अन्य साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनों में से साधनोपयोगी 5 सार बातें :::::::(1) जिस साधक की जितनी ऊंची स्प्रिचुअल कक्षा होगी, उसी लिमिट में श्यामसुन्दर उसको अच्छे-बुरे दिखाई देंगे।(2) अगर मूर्ति में पूर्ण भगवान होने की भावना नहीं है और मूर्ति पूजा की, तो उसको भगवतपूजा न कह कर पत्थर पूजा कहेंगे।(3) जीव के शरीर और उसकी चित्तवृत्ति का कोई भरोसा नही है। अत: किसी का अहंकार श्रेयस्कर नहीं है।(4) हमारा संबंध केवल श्रीकृष्ण से ह। उस संबंध को पक्का करेगी भक्ति। पुरस्कार मिलेगा प्रेम। उसका अंतिम लाभ मिलेगा सेवा।(5) भगवान का कोई भी कार्य अमंगलकारी नहीं है फिर माया हमारा अमंगल कैसे करेगी? माया का झापड़ खाकर ही हमें संसार से वैराग्य होता है, हम ईश्वर की ओर बढ़ते हैं।(संदर्भ- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिठ्ठस्रठ्ठके आधीन।)
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधानसाधक का प्रश्न -हरि गुरु के प्रति अब तक पूर्ण शरणागति क्यों नहीं हुई ?(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर)कभी कभी गुरु के खिलाफ सोचने लगते है। कभी शास्त्र वेद पर अश्रद्धा होने लगती है। कभी संसार मीठा लगने लगता है। अगर संसार मीठा लग रहा है तो वैराग्य नहीं और वैराग्य नहीं तो श्रद्धा नहीं। श्रद्धा का आधार है वैराग्य!जब सेंट परसेंट और निरंतर; दो शब्दों पर ध्यान दीजिए। सेंट परसेंट और निरंतर ये डिसीजन बना रहे। संसार में सुख नहीं है, उसके लिए भागें ना। मम्मी का प्यार, पापा का प्यार, बेटी का प्यार, बेटा का प्यार, खाने का, रसना का रोग, ये खायें, ये खायें, ये पीयें, देखने का रोग, सूंघने का रोग, स्पर्श करने का रोग अगर है तो वैराग्य कम्प्लीट नहीं, तो श्रद्धा भी कम्प्लीट नहीं तो, श्रद्धा भी कम्प्लीट नहीं है।इस प्रकार चेक करो और जहां मिस्टेक समझ में आए उसको काटो। और अगर ऐसा सोचा कि जैसे चल रहा है चलने दो तो लक्ष्य की प्राप्ति कैसे होगी? एक दिन ये मानव देह छिन जाएगा, बिना बताए, धोखा देखे। सबसे बड़ा धोखेबाज काल है।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(सन्दर्भ -जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित दोहा तथा उसकी व्याख्या, उनके द्वारा यह प्रवचन वीरगंज, नेपाल में 8 दिसम्बर सन 2006 को दिया गया था। आइये हम सभी अपने आत्मकल्याण हेतु इस प्रवचन से लाभ लेवें :::::::::(स्वरचित दोहा व्याख्या)दैन्य भाव रूपध्यान गोविन्द राधे।श्यामा श्याम कीर्तन उनसे मिला दे।।3 बात समझना है, 3 काम करना है। 3 काम करना है, नंबर एक दीन भाव, नंबर दो रूपध्यान, नंबर तीन श्यामा श्याम का नाम, रूप, गुण, लीलादि संकीर्तन। तो एक तो आप लोग करते हैं, इन 3 में से एक करते हैं आप लोग, श्यामा श्याम नाम, रूप, गुण, लीलादि कीर्तन। किन्तु 2 नहीं करते। उन दोनों के बिना केवल कीर्तन करना रसना से ऐसा ही है जैसे प्राणहीन शरीर, मुर्दा।वेद से लेकर रामायण तक हर ग्रंथ, हर संत, हर पंथ एक बात कहता है कि दीन भाव रखो। भगवान का स्मरण मन से, फिर इंद्रियों से करो। रसना से भगवन्नाम लो, हाथ से पूजन करो, कुछ करो, लेकिन इसके पहले दीन भाव और रूपध्यान, ये 2 सबसे प्रमुख हैं। गौरांग महाप्रभु ने कहा कि दीनतायुक्त कीर्तन होना चाहिए। तो शिष्यों ने पूछा कि किस तरह की दीनता? तो उन्होंने बताया -
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।(शिक्षाष्टक)तृण से बढ़कर दीन भाव, तृण घास, घास के ऊपर पैर रख दो तो घास झुक जाएगी। अब तुम पैर रख के आगे चले गए वो बेचारी झुक गई और फिर धीरे धीरे, धीरे धीरे नॉर्मल हुई, पैर रखने पर। वृक्ष कितना सहिष्णु है, छोटा होता है तो कोई जानवर आया, खा गया। बड़ा हुआ, फल लगा, पक्षी आ-आकर खा गए, मनुष्य तोड़-तोड़ के खा गए, लकड़ी काट-काट के अपनी बिल्डिंग बना रहे हैं लोग, वृक्ष सहन कर रहा है। उसे खुशी हो रही है कि हमसे किसी को सुख मिल रहा है।तो दीनता जितनी अधिक होगी उतने ही हम भगवान् के समीप पहुँचेंगे, ये स्वर्ण अक्षरों में लिख लो। आप लोग सोचते हैं कि आँसू नहीं आते, कीर्तन करते हैं, आँसू के बिना कीर्तन, कीर्तन नहीं है, तोता रटन्त है, वो तो। जहाँ मन रहेगा उसी का फल भगवान् देते हैं। इंद्रियों का वर्क तो भगवान् नोट ही नहीं करते। लाखों करोड़ों मर्डर किया, अर्जुन ने, हनुमान जी ने, भगवान् ने नोट ही नहीं किया क्योंकि उनका मन भगवान् में था। शरीर का कर्म तो निरर्थक होता है, उसे एक्टिंग कहते हैं, एक्टिंग। जैसे मन्दिर में जा के आप लोग बोलते हैं न -
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।(स्कन्द पुराण)ये क्या है, भगवान् को बेवकूफ बना रहे हो। तुम कहते हो तुम्हीं मां हो, तुम्हीं पिता हो, तुम्हीं मेरी धन-दौलत हो और तुम्हारे मन का अटैचमेंट संसारी मां, पिता और प्रॉपर्टी, धन-दौलत में है और भगवान् से कहते हो तुम ही मेरे हो। एव माने ही। तो दीनता-नम्रता ये सबसे पहला काम। पहला अध्याय भक्ति के विषय में।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन से नि:सृत)
(सन्दर्भ - कृपालु भक्ति धारा (भाग - 3) पुस्तक, पृष्ठ 175, 176सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलासमस्त देहों में मनुष्य का देह अत्यन्त दुर्लभ है। यह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। इसका महत्व सभी शास्त्रों ने गाया है क्योंकि यही देह भगवान को पाने का साधन है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने भी अपने प्रवचनों, ग्रन्थों, रचनाओं में मानव-देह की महत्वता, क्षणभंगुरता आदि पर अनगिनत बार प्रकाश डाला है तथा मानव-समुदाय को बार-बार चेताया भी है। आज उन्हीं के द्वारा सुरचित प्रेम-रस-मदिरा नामक विलक्षण पद-ग्रन्थ में वर्णित एक पद के माध्यम से मानव-देह के महत्व पर विचार करने का प्रयास करेंगे -प्रेम रस मदिरा ग्रन्थ के,- सिद्धान्त माधुरी खण्ड से
मिलत नहिं नर तनु बारम्बार।कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार।उलटो टांगी बाँधि मुख गर्भहिं, समुझायेहु जग सार।दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नंदकुमार।भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार।यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार।।भावार्थ - यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता। दयामय भगवान चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं। मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरुप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टांग कर मुख तक बाँध देते हैं। जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह (जीव) प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूंगा। जन्म के पश्चात जो श्यामसुंदर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है। श्री कृपालु जी कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इसलिए सावधान हो कर श्यामसुंदर का स्मरण करो।( प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी - पद संख्या 77)(पद एवं ग्रन्थ रचनाकार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
(सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के परमाचार्य हैं, पंचम मूल जगदगुरुत्तम हैं। उन्होंने इस युग में आनंदप्राप्ति तथा दु:खनिवृत्ति के लिये एकमात्र भक्ति की अनिवार्यता सिद्ध की है। इस हेतु उन्होंने अपने अवतार-काल में अनगिनत प्रवचन दिये तथा अनेकानेक भक्ति सम्बन्धी साहित्यों को प्रगट भी किया। उनके द्वारा प्रगटित भक्तिपरक ग्रन्थों में से एक है, भक्ति-शतक! इस ग्रन्थ में आचार्य श्री ने भक्ति-तत्व की व्याख्या में 100 दोहों की रचना की है तथा समस्त वेदादिक ग्रन्थों के प्रमाणों द्वारा उनकी व्याख्या करके जनमानस को भक्ति के प्रत्येक रहस्य से अवगत कराया है। आज इसी अद्वितीय ग्रन्थ में से एक दोहा तथा उसकी व्याख्या से हम कुछ आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे :::::::
भक्ति-शतक ग्रन्थ से..- दोहा संख्या 57 तथा उसकी व्याख्या(दोहा)हरि हरिजन के कार्य को, कारण कछु न लखाय।पर उपकार स्वभाव वश, करत कार्य जग आय।।दोहे का अर्थ - भगवान् एवं महापुरुषों के किसी भी कार्य का एक ही कारण है, वह यह कि उनका स्वभाव ही केवल परोपकार का होता है।व्याख्या - वेद कहता है,पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।(ईशावास्योपनिषद)अर्थात् भगवान् अनंत मात्रा का पूर्ण होता है। अत: पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। ऐसे भगवान् के किसी भी कार्य में स्वार्थ होने का ही प्रश्न नहीं उठता। इसी प्रकार भगवत्प्राप्त महापुरुषों के विषय में वेदव्यास कहते हैं। यथा,गुणातीत: स्थितप्रज्ञो विष्णुभक्तश्च कथ्यते।एतस्य कृतकृत्यत्वाच्छास्त्रमस्मान्निवर्तते।।(वेदव्यास)अर्थात् भगवत्प्राप्ति पर जीव कृतकृत्य हो जाता है। उसे पुन: कुछ भी करना अवशिष्ट नहीं रहता। यदि रहता भी है तो स्वार्थरहित श्रीकृष्ण सेवा कार्य ही करना होता है। और यह अवस्था अनंतकाल तक बनी रहती है। यथा वेद,सदा पश्यन्ति सूरय: तद्विष्णो परमं पदम।(सुबालोपनिषद, छठा मन्त्र एवं मुक्तोपनिषद्)
सोश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रम्हणा विपश्चितेति।(तैत्तिरियोपनिषद् 2-1)अस्तु उपर्युक्त वैदिक प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि हरि एवं हरिजनों का कार्य केवल परोपकार के कारण ही होता है। यदि परोपकार उनका स्वभाव न होता, तो विश्व का एक भी मायाधीन जीव अपना लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति) न प्राप्त कर पाता।(ग्रन्थ रचनाकार - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार दिनांक 23 सितम्बर को प्रात: 08:20 मिनट पर राहु मिथुन राशि से वृष राशि में गोचर करेगा। वृष का स्वामी शुक्र है। सभी को संकटों से थोड़ी राहत मिल सकती है। राहु 12 अप्रैल 2022 तक इसी राशि में रहेगा। इसका प्रभाव प्रत्येक राशियों पर पड़ेगा। यह गोचर वृष व वृश्चिक राशि के लिए थोड़े संघर्ष के बाद सफलता का है। मिथुन व कन्या राशि के लोग व्यवसाय में सफलता की प्राप्ति करेंगे। सिंह व मीन के लोग जॉब को नई दिशा देंगे। कन्या व मीन राशि राजनीति में ज्यादा लाभान्वित होगी।
राहु के वृष राशि में गोचर का विस्तृत प्रभाव....मेष : राहु व्यवसाय में आपकी महत्वाकांक्षी योजनाओं को विस्तार देगा। स्वास्थ्य की स्थितियां थोड़ी प्रतिकूल हो सकती हैं। जॉब परिवर्तन में सफलता मिलेगी। व्यवसाय परिवर्तन में सफल हो सकते हैं। सफेद व लाल रंग शुभ है। प्रत्येक रविवार को गेहूं व गुड़ का दान करें। बुधवार को बहते जल में नारियल प्रवाहित करें।वृष : मध्यम फल रहेगा। जॉब में सुखद परिवर्तन का प्रस्ताव मिलेगा। स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें। प्रत्येक मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ करें। शुक्रवार व बुधवार को अन्न का दान करें। नीला व हरा रंग शुभ है। राजनीति से संबंधित जातकों को लाभ मिलेगा।मिथुन: राहु का गोचर संकेत करता है कि स्वास्थ्य के प्रति बहुत सचेत रहना होगा। यदि आप जॉब में परिवर्तन करना चाहते हैं तो यह समय आपके लिए शुभ अवसर प्रदान करेगा। हरा रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को हरे वस्त्र तथा रविवार को गुड़ का दान करें। धन आगमन होगा।कर्क : कार्य बाधाएं आ सकती हैं। व्यवसाय में सुंदर अवसर की प्राप्ति का समय है। छात्रों के लिए यह समय बहुत सुंदर है। सफेद रंग शुभ है। राजनीतिज्ञों के लिए भी यह समय बहुत ही अनुकूल है। जॉब में प्रमोशन का प्रयास करें। स्वास्थ्य बेहतर रहेगा। प्रतिदिन अन्न का दान करें। शिव उपासना करते रहें।सिंह : आत्मबल कम मत होने दें। जॉब को लेकर मन का द्वंद्व समाप्त होगा। राजनीति में सुंदर अवसरों की प्राप्ति करेंगे। आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर होगी। नीला व सफेद रंग शुभ है। प्रतिदिन श्री सूक्त का पाठ करें। परिवार व मित्रों का सहयोग आपके साथ है। बुधवार को गाय को पालक व चने की दाल खिलाते रहें।कन्या : राहु व्यवसाय में आशातीत सफलता देगा। स्वास्थ्य भी बेहतर होगा। गृह निर्माण सम्बन्धित नया कार्य आरंभ होगा। किसी व्यक्ति से नए राजनैतिक संबंध बन सकते हैं। हरा रंग शुभ है। जॉब के दृष्टिकोण से यह बहुत ही अच्छा रहेगा। राहु के द्रव्य दान करने से बाधाएं समाप्त होंगी। प्रतिदिन भैरो उपासना करें।तुला : व्यवसाय में लाभ की संभावना रहेगी। गृह निर्माण सम्बन्धी आपकी ठप्प पड़ी योजनाओं को शुरू होना आपके लिए शुभ है। घर पर ही धार्मिक कार्य होंगे। हरा रंग शुभ है। प्रतिदिन प्रात:काल पूजा के बाद चावल व गुड़ दान करने से पुण्य की प्राप्ति होगी। जॉब परिवर्तन के दृष्टिकोण से यह समय बहुत ही श्रेयस्कर है।वृश्चिक : यश व प्रतिष्ठा की प्राप्ति होगी। आप जॉब को परिवर्तित करने की सोचेंगे जो कि भविष्य में बेहतर रहेगा। व्यवसाय में भी सफलता है। लाल रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को मूंग का दान करें। जॉब में प्रमोशन हेतु प्रयास करें तो सफलता मिलने की संभावना अधिक है। प्रतिदिन सुंदरकांड का पाठ करें।धनु: राहु का राशि परिवर्तन बहुत ही सुखद रहेगा। व्यवसाय में सफलताओं व जॉब में प्रगति का समय है। स्वास्थ्य पहले से बेहतर होगा। आपके ससुराल पक्ष की सहायता से कोई रुका सरकारी कार्य पूर्णता की तरफ जाएगा। धन का आगमन होगा। लाल रंग शुभ है। राजनीतिज्ञों के लिए यह परिवर्तन बहुत ही शुभ अवसरों वाला है। स्वास्थ्य सुख के लिए बजरंगबाण का नियमित पाठ करें।मकर : सूर्य व बुध राजनीति में सफलता देंगे। स्वास्थ्य के प्रति एलर्ट रहना होगा। आय प्राप्ति के नए स्रोत बन सकते हैं। सफेद रंग शुभ है। प्रत्येक शनिवार को तिल का दान करें तथा हनुमानबाहुक का पाठ करें।कुम्भ : यह परिवर्तन मिश्रित फलदायी है। आप एक ऐसे मिशन पर कार्य आरंभ करेंगे जो आपका ड्रीम रह चुका है। व्यावसायिक योजनाएं सफलता की तरफ मुड़ेंगी। हरा रंग शुभ है। प्रत्येक शनिवार व बुधवार को तिल का दान करें।मीन : यह परिवर्तन राजनीतिज्ञों के लिए बहुत शुभ है। व्यवसाय के लिए तनाव का समय है। व्यवसाय मे मित्रों का सहयोग प्राप्त होगा जिससे नवीन अवसरों की प्राप्ति करेंगे। नीला रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को मूंग का दान करें। यह गोचर प्रोन्नति का अवसर प्रदान करता है। प्रतिदिन गणेश उपासना करते रहें। बुधवार को उड़द का दान पुण्यदायी है।वृष का स्वामी शुक्र है। तो शुक्र एकाक्षरी बीज मंत्र- 'ॐ शुं शुक्राय नम: का जाप इस दौरान जरूर करें। - 23 सितंबर से राहु की चाल बदल रही है। इसका देश पर क्या असर पड़ेगा. ये बता रहे हैं जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी....भारत वर्ष की जन्मकुंडली के ग्रह स्वतंत्र भारत का प्रादुर्भाव 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि 12.20 बजे बुध के नक्षत्र आश्लेषा के प्रथम चरण में कर्क राशि पर चंद्रमा की यात्रा के समय हुआ। उस समय में क्षितिज पर वृषभ लग्न स्पर्श कर रहा था। वृषभ लग्न की भारत की जन्मकुंडली में लग्न में ही राहु, द्वितीय भाव में मंगल तथा तृतीय भाव में सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र और शनि बैठे हैं जबकि, बृहस्पति छठें तथा केतु सप्तम भाव में विराजमान हैं। इस प्रकार से सभी ग्रह राहु और केतु के मध्य ही हैं इसलिए भारत की कुंडली पर अनंत नामक कालसर्प योग भी बना हुआ है, अनंत कालसर्प योग का प्रभाव अनंत नामक कालसर्प योग के प्रभावस्वरूप जातक को आरंभ से सफलताओं के लिए कठोर परिश्रम तो करना पड़ता है किंतु वह सामान्य स्तर से कार्य-व्यापार तथा नौकरी की शुरुआत करके अपनी क्षमता के बल पर जीवन के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचता है।ज्योतिषाचार्य पं. प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार सभी बारह कालसर्प योगों में कई योग ऐसे भी हैं जो प्राणियों को आसमान से जमीन पर लाकर खड़ा देते हैं और कई योग ऐसे भी हैं जो रंक को भी राजा बना देते हैं। एक सामान्य व्यक्ति को भी बहुत बड़ी पदवी प्रदान करा देते हैं। यह अनंत नामक कालसर्प योग उन्हीं में से एक है जो रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है। यही योग भारत की जन्मकुंडली में बना हुआ है इसी के प्रभाव से भारतवर्ष एक न एक दिन विश्वगुरु की पदवी प्राप्त करते हुए विश्व में अपना वर्चस्व कायम करने में पूर्णत: सफल रहेगा। वर्तमान समय में भारत की जन्मकुंडली में 6 जुलाई 2011 से राहु की महादशा चल रही है, राहू स्वयं लग्न में विराजमान है और अपनी ही राशि के हैं इसलिए यह दशा निश्चित रूप से देश और देश की जनता के लिए अच्छी कही जाएगी। इनकी महादशा में 19 जून 2019 से बुध की अंतर्दशा भी प्रारंभ हो चुकी है जो 6 जनवरी 2022 तक चलेगी। बुध महादशा स्वामी से तीसरे पराक्रम भाव में बैठे हैं और अंतर्दशा स्वामी बुध से राहु एकादश भाव में हैं जो अति शुभ फलदायक रहेगा। बुध पंचमेश होकर पराक्रम भाव में विराजमान है जहां पर पंचग्रही योग भी बना हुआ है। पराक्रम भाव में पंचग्रही योग के प्रभाव स्वरूप भारत का अपना वर्चस्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जाएगा। भारतवर्ष की जन्मकुंडली में उदय के समय जो राहू लग्न में विराजमान थे वही गोचर करते हुए पुन: 23 सितंबर को वृषभ राशि अर्थात भारत की लग्नराशि में प्रवेश कर रहे हैं। इस प्रकार से लग्न और गोचर दोनों तरह से यह वृषभ राशि में 18 महीनों तक रहेंगे। इनके साथ ही केतु भी राशि परिवर्तन करके सप्तम भाव में वृश्चिक राशि में विराजमान रहेंगे। केतु इस राशि के लिए अप्रत्याशित परिणाम देने वाले कहे गए हैं। इन दोनों का गोचर भारतवर्ष के ऊपर विराजमान सभी तरह की विषम परिस्थितियों से लडऩे में मदद तो करेगा ही चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति को भी टालने में मदद करेगा। किसी कारणवश यदि युद्ध होता भी है तो इन ग्रहों के प्रभाव स्वरूप भारत विजयी होकर अपना वर्चस्व कायम करने में सफल रहेगा।भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की वृश्चिक लग्न तथा वृश्चिक राशि ही है। लग्न में चंद्रमा और मंगल बैठे हैं जिसमें गोचर करते हुए केतु 23 सितंबर को प्रवेश करेंगे। मोदी जी की राशि पर राहु की पूर्ण दृष्टि में पड़ रही है। हो सकता है सरकार कुछ ऐसा निर्णय निर्णय ले जिसका जनमानस में कुछ विरोध भी हो किंतु, यह अधिक समय तक नहीं रहेगा। प्रधानमंत्री मोदी की लग्न राशि बृश्चिक और भारत की जन्मकुंडली की लग्न राशि बृषभ का केंद्र भाव का संबंध है। मोदी जी की चंद्र राशि बृश्चिक का भारत की राशि कर्क से मूल त्रिकोण का संबंध है यह एक तरह से लक्ष्मी विष्णु योग की तरह है जो देश के लिए अति लाभदायक सिद्ध होगा। राहु-केतु के राशि परिवर्तन का शीर्ष नेतृत्व पर अति सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा जिससे वे देशहित में निर्णय लेने के लिए और मजबूती से उभर कर सामने आएंगे इसलिए यह गोचर परिवर्तन देश के लिए किसी वरदान से कम नहीं रहेगा।
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदत्त विश्व-प्रेमोपहारसनातन वैदिक धर्म के अनुसार, यद्यपि भगवान् सर्वव्यापक है तथापि हम साधारण मायिक मनुष्यों को उनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता किन्तु मंदिरों एवं विग्रहों में श्री सच्चिदानंदघन प्रभु की उपस्थिति में हमारा विश्वास हो ही जाता है। इसी कारण जीवों के आध्यात्मिक कल्याणार्थ और वास्तविक सिद्धांत के प्रचार हेतु रसिकाचार्यों ने ऐसे भव्य मंदिरों की स्थापना की है। बस इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर सम्पूर्ण जगत में भक्ति तत्व को प्रकाशित करने के लिए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कुछ दिव्योपहार विश्व को समर्पित किये हैं, यथा; वृन्दावन स्थित श्री प्रेम मंदिर, बरसाना स्थित श्री कीर्ति मंदिर तथा अपनी जन्मस्थली मनगढ़ स्थित श्री भक्ति मंदिर। इनमें से एक है, आज हम उनकी जन्मस्थली मनगढ़ जो कि भक्तिधाम के नाम से विख्यात है, वहां के श्री भक्ति मन्दिर तथा भक्ति भवन के विषय में जानेंगे :::::::(1) भक्ति मंदिर, श्री भक्तिधाम मनगढ़(तहसील - कुंडा, जिला - प्रतापगढ़, उ.प्र.)0 शिलान्यास समारोह - 26 अक्टूबर 19960 कलश स्थापना -14 अगस्त 20050 उदघाटन समारोह - 16-17 नवम्बर 20050 प्रमुख आकर्षण -भूतल पर श्री राधाकृष्ण एवं आठ दिशाओं में अष्ट महासखियों के विग्रह, जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज एवं उनके पूज्यनीय माता-पिता जी के विग्रह। प्रथम तल में श्री सीताराम तथा श्री हनुमान जी के विग्रह, साथ ही श्री राधा रानी एवं श्री कृष्ण-बलराम जी के विग्रह। मंदिर के दोनों ओर बने स्मारकों में एक ओर श्रीकृष्ण की प्रमुख लीलाओं की झाँकी है तो दूसरी ओर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के जीवन की प्रमुख घटनाओं की झाँकी है।धन्यातिधन्य है मनगढ़ भूमि! जिसे गुरुदेव ने अपनी लीलास्थली बनाया. केवल 9 वर्षों में यहाँ इस प्रकार के भव्य मंदिर के निर्माण का कार्य पूरा हो गया। मंदिर की भव्यता, शिल्पकला तथा पच्चीकारी के काम को देखकर दर्शनार्थी आश्चर्य चकित हो जाते हैं। नि:संदेह यह किसी अलौकिक शक्ति का ही कार्य है. अन्यथा इस प्रकार के भव्य मंदिर का निर्माण छोटे से ग्राम में इतने कम समय में असंभव ही है।इस भक्तिधाम में भक्ति की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है। एक ओर तीर्थराज प्रयाग परम पावनी गंगा के जल से तो दूसरी ओर श्रीराम जी की लीलास्थली अयोध्या नगरी सरयू के पवित्र जल से प्रक्षालित करके इस मनगढ़ धाम की महिमा व पवित्रता को द्विगुणित करती रहती है। यहाँ का यह भक्ति मन्दिर कलियुग में दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से संतप्त जीवों के लिए एक अनुपम आध्यात्मिक केंद्र है। गुलाबी सफ़ेद पत्थर से निर्मित भक्ति मंदिर में काले ग्रेनाइट के खम्भे बनाये गए हैं। मंदिर की दीवारों पर बहुमूल्यवान पत्थर से श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित भक्ति-शतक के सौ दोहे लिखे गए हैं, इस ग्रन्थ का एक एक दोहा इतना मार्मिक है कि इस ग्रन्थ रूपी मानसरोवर में अवगाहन करने वाला बरबस प्रेमरस में सराबोर हो जाता है। इसके अलावा प्रेम रस मदिरा के भी कुछ पद अंकित किये गए हैं। यह भक्ति मंदिर श्री राधाकृष्ण एवं श्री कृपालु महाप्रभु का साक्षात् स्वरुप ही है।(2) भक्ति-भवन, भक्तिधाम मनगढ़(तहसील - कुंडा, जिला - प्रतापगढ़, उ.प्र.)0 270 फुट व्यास गोलाकार,0 लगभग 10 हजार साधकों के लिए बैठने का स्थान0 बाहर की दीवारों पर भागवत में वर्णित श्री कृष्ण लीलाओं के दर्शन0 भीतर के प्रमुख मंच पर श्री राधाकृष्ण एवं श्री सीताराम जी के विग्रह तथा अष्ट महासखियों के विग्रहभक्तिधाम में स्थित इस भवन का शिलान्यास 27 फरवरी 2009 एवं उदघाटन 29 अक्टूबर 2012 को हुआ था। इस वातानुकूलित गुम्बदाकार भवन में लगभग 10 हजार साधक एक साथ बैठकर साधना कर सकते हैं। भारत में शायद इस प्रकार का भवन कहीं भी नहीं है। इसका निर्माण किस प्रकार हुआ? यह आजकल के इंजीनियरिंग कॉलेज में विद्यार्थियों के लिए एक जिज्ञासा का विषय बन गया है।गुरु पूर्णिमा इत्यादि विशेष पर्वों पर या खचाखच भर जाता है। यहां राधे नाम का संकीर्तन इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न कर देता है मानो ब्रज रस सिंधु में ज्वार आ गया हो, ऐसा प्रतीत होता है मानों समस्त दैवी शक्तियां श्री राधा सुमधुर नाम सुनने के लिए एकत्र हो गई हों। श्री महाराज जी ने कलियुग में भगवन्नाम संकीर्तन को ही भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ सर्वसुगम साधन बताया है। उनके अनुसार साधना पद्धति को उजागर करने वाला यह भक्ति भवन उनके सभी साधकों को भक्तियोगरसावतार परम प्रिय गुरुवर की मधुर स्मृतियों के साथ उनके कठिन प्रयास की याद दिलाता है।श्री कृपालु महाप्रभु जी ने समस्त साधकों की आध्यात्मिक उन्नति के लिये महीने भर की अखण्ड साधना का प्रारम्भ सन 1964 में ब्रजधाम के ब्रम्हाण्ड घाट में किया था। तब वह स्थल अत्यन्त घनघोर जंगल था। तब कहाँ ब्रम्हांड घाट का जंगल और अब कहाँ यह वातानुकूलित भक्ति भवन !! यह सब साधन श्री कृपालु महाप्रभु जी ने साधकों की सुविधा आदि को ध्यान में रखकर अपने कृपालु स्वभाव के वशीभूत होकर इस विश्व को प्रदान किये हैं। भक्ति को जन जन के घर में स्थापित करने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदत्त भक्ति-भवन एवं भक्ति-मंदिर जैसे उपहारों के लिए सभी साधक उनके चिरकाल तक ऋणी रहेंगे।
(सन्दर्भ - साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का पावन चरित्र(भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का पावन चरित्र; वह चरित्र, वह व्यक्तित्व जो हृदय में बरबस ही भक्ति तथा प्रेम की जागृति कर देता है और जिनका किंचित सान्निध्य भी प्रेम के उस बीज को पोषित, पल्लवित तथा फलित कर देता है....)कलिकाल की महानतम् विभूति जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज का अवतरण शरद पूर्णिमा की मध्यरात्रि में उ.प्र. के मनगढ़ नामक ग्राम में हुआ था, जिसे विश्व में जगद्गुरुत्तम् दिवस के रुप में मनाया जाता है। शरद पूर्णिमा की पावन रात्रि में आविर्भूत श्री कृपालु जी महाराज पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् तो हैं ही, वे स्वयं भक्तिरस के अवतार हैं। काशी विद्वत् परिषत् के द्वारा उन्हें प्रदान की गई उपाधियों में एक उपाधि भक्तियोगरसावतार भी है। कलिकाल के प्रभाव से जनमानस भगवन्नाम-संकीर्तन के माहात्म्य को भूलता जा रहा था। दूसरी ओर नाना प्रकार के मत, नाना प्रकार के साधन समाज में प्रचलित होने लगे जिससे लोग दिग्भ्रमित होने लगे। ऐसे समय में ऐसे ही किसी अवतार की आवश्यकता थी जो लोगों के हृदय में पुन: भक्ति की ज्योति जगाये और आध्यात्मिक रुप से पुनर्जीवित करे। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज वही अवतार हैं जिन्होंने कलिकाल में भक्ति की प्राधान्यता और वास्तविकता स्थापित की।उनके रोम रोम से भक्तिरस की धारा प्रवाहित होती थी। जब वे 16 साल के थे, तब से ही उनका भक्तिमय व्यक्तित्त्व अधिकारीजनों के समक्ष प्रकाशित होने लगा था। वे अधिकारीजन इन्हें सदा श्रीराधाकृष्णप्रेम में भवाविष्ट पाते। बाह्य जगत के ज्ञान से शून्य इनके शरीर में भक्ति की सर्वोच्च अवस्था महाभाव के लक्षण रह-रहकर प्रकट होते जिसके दर्शन कर हृदय में अदभुत रोमांच भर उठता था। ऐसी प्रेममय दशा देखकर अनायास ही प्रेमावतार श्री गौरांग महाप्रभु जी की याद आती थी जिन्होंने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी जी को वचन दिया था -आरो दुइ जन्म एइ संकीर्तनारम्भे, हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे(चैतन्य भागवत)
एइ अवतारे भगवत रुप धरि, कीर्तन करिया सर्व शक्ति परचारि..संकीर्तने पूर्ण हइव सकल संसार, घरे घरे हइव प्रेम भक्ति परचार..(चैतन्य भागवत)लगता था कि वही गौरांग पुन: अपने जीवों को प्रेम का दान करने आ गए हैं। उत्तर प्रदेश के मनगढ़ नामक ग्राम में परम सौभाग्यवती माँ भगवती की गोद में शरद पूर्णिमा की रात्रि में जन्में श्री कृपालु जी का बालपन अनोखी लीलाओं से भरा है। उनकी बाललीलाओं को देखकर ऐसा लगता था जैसे कि बालकृष्ण ही साक्षात् लीला कर रहे हैं। जगद्गुरु बनने से पूर्व अक्सर ही भावाविष्ट अवस्था में जंगल की ओर निकल पड़ते थे। प्रेमानंद आस्वादन में निमग्न वे चित्रकूट के पावन वनों में महीनों-महीनों विचरा करते, उनकी उस दशा का यथार्थ वर्णन लेखनी के द्वारा संभव नहीं है। कभी वहाँ वे प्रिया-प्रियतम के रूपदर्शन में निमज्जित रहते तो कभी उनके अन्तर्धान से परम व्याकुल होकर करुणापूर्वक चीत्कार करते। जिन्होंने भी जब भी इन्हें उन जंगलों में देखा तो यही देखा कि कभी ये भूमि पर मूच्र्छित पड़े हैं, कभी करुणक्रन्दन कर रहे हैं तो कभी राहों पर बिखरे कंकण और काँटों पर भी प्रिया-प्रियतम के विरह में समाधिस्थ हैं।चित्रकूट और शरभंग आश्रम तथा वृन्दावन के निकट के जंगलों में इनका यह रुप जंगल के पेड़-पौधों और जंगली जीव-जंतुओं के हृदय में भी प्रेम का संचार कर देता था। उनकी इस अलौकिक दशा का जब लोगों को पता लगना शुरू हुआ तो उनका वहाँ पहुँचना प्रारम्भ हो गया। उन्होंने जैसे तैसे इन्हें मनाकर अपने घरों में लाने की कोशिश की किन्तु ये पुन: जंगलों की ओर ही निकल पड़ते थे और पुन:-पुन: उसी समाधिस्थ अवस्था में चले जाते, हुँकार भरते, उच्च अट्टहास करते, अविरल अश्रुपात करते। यद्यपि वे इस अवतार में जीव-कल्याण के उद्देश्य को लेकर आये थे अतएव भक्तों के द्वारा इस ओर ध्यानाकृष्ट करने पर वे आम लोगों के संपर्क में आने लगे। जंगलों से आमजन के मध्य में आने के पश्चात् इन्होंने साहित्य एवं आयुर्वेद का अध्ययन किया। इस समय भी वे कभी 7 दिन, कभी 15 दिन, कभी एक महीने तो कभी 4-4 महीने का अखंड संकीर्तन कराते। भावविष्ट जब ये राधाकृष्ण की लीलास्थली वृन्दावन पहुँचे थे, तब वहाँ पहुँचते ही प्रेमातिरेक में उस पावन ब्रजरज में लोटपोट होकर बिलखने लगे। कभी उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते, कभी लीलाविष्ट हो जाते और कभी सुध खोकर गिर पड़ते। राधा गोविन्द नामों और हरि बोल का संकीर्तन उस वक्त अद्भुत रस का संचार कर देता था।यह तो ऐसे अलौकिक महापुरुष की उस अलौकिक अवस्था का किंचितमात्र ही वर्णन है। वस्तुत: वह लेखनी का विषय ही नहीं है, न उसके वर्णन की पात्रता किसी में हो सकती है। काशी विद्वत् परिषत् के 500 मूर्धन्य विद्वानों के समक्ष अद्वितीय रुप माधुरी, काले घुँघराले केशों और गौर वर्ण के ये कृपालु जब उपस्थित हुए तो इनके रोम रोम से भक्तिरस की बहती धारा को देखकर मंत्रमुग्ध विद्वत्सभा ने एकमत होकर यह स्वीकार किया कि ये तो स्वयं भक्ति महादेवी ही इनके रुप में साक्षात् विराजित है। वहाँ अपने व्याख्यानों में आपने समस्त वेदों-शास्त्रों और अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार बताते हुए कलियुग में एकमात्र भक्ति को ही जीव-कल्याण का साधन सिद्ध किया, आपको विद्वत् परिषत् की ओर से भक्तियोगरसावतार की उपाधि प्रदान की गई।जगद्गुरु बनने के उपरान्त आपने राधाकृष्ण की उस माधुर्यमयी भक्ति के सिद्धांत का जन-जन में प्रचार किया। कलियुग के इस चरण में जीवों को भक्ति के लिए तत्वज्ञान की परम अनिवार्यता को जानकर आपने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों और अन्यान्य धर्मग्रंथों के वास्तविक रहस्य को संसार के मध्य बारम्बार प्रकट किया। वेदों के आवृत्ति रसकृदुपदेशात और गौरांग महाप्रभु के 'सिद्धांत बलिया चित्ते न कर आलस की उक्तियों को लोगों की बुद्धि में भरकर बार बार महापुरुषों के सिद्धांतों को सुनने पर जोर दिया।कलियुग में संसार के लोगों को गृहस्थ में रहकर ही भक्ति करते हुए सरलता से भगवत्प्रेमप्राप्ति का साधन बतलाते हुए उनकी साधना और भगवान्नुराग को बढ़ाने के लिए हजारों ब्रजरस से ओतप्रोत संकीर्तन एवं पदों की रचना की जिसे सुनकर और गाकर हृदय में बरबस ही प्रेमरस की धार उमड़ पड़ती है और मन राधाकृष्ण की उस रूपमाधुरी पर मुग्ध होता जाता है। श्री कृपालु जी का रुप ही ऐसा है जिसे कोई एक बार देख ले तो उसी के द्वारा वह अपने पुराने भक्ति-संस्कारों को पुन: प्राप्त कर लेता था।अपनी जन्मभूमि मनगढ़ को आपने 'भक्तिधाम' के रुप में प्रतिष्ठित किया। भविष्य में युगों-युगों तक भक्ति की ध्वजा फहराने वाला मनगढ़ का 'भक्ति मंदिर' और वृन्दावन का प्रेम मंदिर इस विश्व को अनुपम भेंट है। प्रेम मंदिर के स्वागत द्वार पर आपके द्वारा रची गई पंक्ति; प्रेमाधीन ब्रम्ह श्याम वेद ने बताया, याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया... के द्वारा भी आपने भक्ति को सर्वोच्च सिद्ध किया। मनगढ़ में स्थित भक्ति भवन और वृन्दावन का निर्माणाधीन प्रेम भवन ऐसे ऐतिहासिक भवन हैं जो भविष्य में जीवों को भक्तिपथ की साधना का सन्देश देंगे। इस मनगढ़ धाम में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा सन् 1966 से साधना शिविर का आयोजन होता रहा है। कलिकाल में भक्तिरस के इस अपूर्व अवतार की पावन जन्मभूमि एवं लीलास्थली मनगढ़ में साक्षात भक्ति महादेवी यत्र-तत्र सर्वत्र विचरण करती है।उनके राधा गोविन्द गीत से....
मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे, सोते जागते हो राधे प्रेम अगाधे..मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे, नित ही 'कृपालु' रहें और कृपा दें..भक्ति तथा प्रेमरस के मूर्तिमान स्वरुप प्रेमावतार, भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज सकल विश्व में सदा वन्दनीय, स्तुत्य तथा साधन-साध्य पथ के चिरयुगी मार्गदर्शक रहेंगे।(सन्दर्भ - जगदगुरुत्तम, भगवत्तत्व, साधन साध्य तथा आध्यात्म संदेश आदि पत्रिकायें-सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा जिज्ञासु जनों के प्रश्नों का समाधान(एक साधक तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी के मध्य संवाद)-- साधक का प्रश्न- हमारे मन में शंका क्यों उत्पन्न होती है? कभी कभी ऐसा क्यों होता है कि हम अपने गुरु के खिलाफ मन ही मन सोचने लगते हैं?श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर -ऐसा इसीलिए है क्योंकि हमारा गुरु पर विश्वास दृढ नहीं है। हमारा दृढ़ विश्वास जब श्री हरि-गुरु पर हो जायगा तब कोई भी बाहरी परिस्थिति कितनी भी प्रतिकूल क्यों ना हो, हमारा अपने इष्ट और गुरु से अटूट प्रेम कभी कम ना होगा।हमारा विश्वास चूँकि दृढ़ नहीं है इसलिये प्रतिकूल परिस्थिति पाकर, चार नास्तिक लोगों की बात सुनकर, निगेटिव लोगों की बात सुनकर के हमारा प्यार हरि-गुरु से कम हो जाता है।-- साधक का पुन: प्रश्न - विश्वास दृढ़ क्यों नहीं है?श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर - जब हीरे का महत्व पता चल जायगा और हमारा दृढ़ विश्वास हो जायगा कि हमें जो चीज मिली है, प्राप्त हुई है वह अनमोल हीरा है तो किसी भी परिस्थिति में उसका महत्व कम नहीं होगा, हमारी आसक्ति उसमें बढ़ती जाएगी। सब हमारे ऊपर निर्भर है और सब कमाल दृढ़ विश्वास का है।-- साधक का पुन: प्रश्न- विश्वास दृढ करने का उपाय क्या है?श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर ::: हमें अपने हरि-गुरु के महत्व को समझना होगा। वो क्या पर्सनालिटी हैं, ये तत्वज्ञान से जानना होगा। फिर तत्वज्ञान के चिंतन और सत्संग से उन्हें पहचानना होगा। ऐसा करते करते हमें अनुभव होगा कि वही हमारे अपने हैं और हमारा परम कल्याण केवल उन्हीं से संभव है। वही एकमात्र हमारे शाश्वत माता पिता हैं तो फिर किसी भी बाहरी विपरीत परिस्थिति में उनसे हमारा प्रेम कम नहीं होगा बल्कि प्रेम बढ़ता जायगा।स्त्रोत- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।



























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