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  संस्मरण- जब राजनांदगांव के श्री बलदेव प्रसाद मिश्र जी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज से मिले
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला :::::
 
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने सन 1957 में जगद्गुरु बनने के पश्चात पूरे भारतवर्ष तथा अनेक अवसरों पर विदेशों में जाकर भी सनातन वैदिक धर्म तथा भक्तितत्व का अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार किया है। उनके इस भक्ति-आन्दोलन का प्रसाद और उनका दिव्य सहज सान्निध्य भगवान श्रीरामचन्द्र जी के ननिहाल छत्तीसगढ़ राज्य ने भी प्राप्त किया है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज 1950 के दशक से अनेक बार यहाँ की धरा और जनमानस को सँग प्रदान कर उन पर श्रीराधाकृष्ण के ब्रजरस तथा कृपा की वर्षा कर चुके हैं। विशेषत: भिलाई, जिन्हें वे अपना हृदय स्थल कहते थे, भाटापारा, राजनांदगांव, बिलासपुर, रायगढ़, रायपुर आदि स्थानों पर वे अनेक बार आ चुके हैं तथा प्रवचन-रस का भी पान करा चुके हैं। आज भी उनके सान्निध्य का दिव्य स्पर्श उन स्थानों की भूमि, वातावरण, वृक्षों, पत्तों, फूलों तथा जनमानस के हृदय में जैसे ज्यों की त्यों अंकित हैं।
 
नीचे एक संस्मरण है उनके जगद्गुरु बनने के कुछ वर्ष पश्चात का, जब राजनांदगाँव में श्री कृपालु महाप्रभु जी पब्लिक स्पीच दे रहे थे, तब के समय का एक संस्मरण उन्होंने स्वयं ही अपने सत्संगियों को सुनाया था। इनमें जिन आदरणीय व्यक्तित्व का जिक्र है, राजनांदगाँव के वे महानुभाव श्री बलदेव प्रसाद जी मिश्र, जो कि एक महान साहित्यकार, न्यायविद थे तथा जिन्होंने 'तुलसी-दर्शन' पर सराहनीय कार्य किया। वे बलदेव प्रसाद मिश्र जी, श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 1955 तथा 1956 में क्रमश: चित्रकूट तथा कानपुर में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मलेन में आमंत्रित महात्माओं की सूची में शामिल रहे थे तथा वे श्री कृपालु जी महाराज के 'जगदगुरुत्तम' बनने के साक्षी भी रहे हैं। वे एक अवसर पर राजनांदगाँव में श्री कृपालु जी महाराज से मिले थे, उसी मुलाकात का यह वर्णन है।
 
यह संस्मरण स्वयं जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने शब्दों में सुनाया था, उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है ::::::
 
'...हम राजनांदगाँव (तब मध्यप्रदेश में था) में लेक्चर दे रहे थे, तो वहाँ एक बलदेव मिश्र (डी. लिट्.) थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी हमारे प्रेसिडेन्ट थे पहले वाले, उनके गुरु। तो वो हमसे मिलने आये, लेक्चर सुना एक बार खाली। तो इतने प्रभावित हुये, इनको सब शास्त्र वेद याद है। उस जमाने में हम नम्बर नहीं बोलते थे शास्त्रों वेदों के, खाली कोटेशन बोल दें, ये गीता, ये भागवत, ये रामायण, ये वेद।
 
तो मिलने आये हमसे, हमारे साथ उस समय सिंहासन भी चलता था - जगद्गुरु का। करीब 55 साल पहले की बात है. (जब वे यह संस्मरण सुना रहे थे, तब से 55 साल पहले) तो हमारा चपरासी बाहर बैठा था, हम कमरे में आराम कर रहे थे, जैसे दोपहर को आराम करते हैं। तो मामूली पढ़ा लिखा था वो। यादव जानते हैं कुछ पुराने लोग, रायगढ़ का था वो। बहुत मामूली पढ़ा लिखा दर्जा चार तक मुश्किल से।
 
हमको उठने में देर हुई, वो बैठे रहे कि हम तो मिल के ही जायेंगे, इतनी छोटी उमर में इतने शास्त्र वेद याद हैं। तो उससे (चपरासी से) बात करते रहे वो। आपके गुरु जी कितने घंटे पढ़ते हैं? कितनी पुस्तकें उनके पास हैं? उसने (चपरासी ने) कहा - एक भी पुस्तक नहीं रखते, एक भी। और वो रेडियो सुनते रहते हैं। (बलदेव मिश्र जी ने आगे कहा) अरे शास्त्री वगैरह तो बड़ी किताबें लेकर साथ साथ चलते हैं, जहाँ जाते हैं लेक्चर देने।
 
(चपरासी ने) कहा, वो कुछ नहीं रखते। विश्वास नहीं किया उन्होंने। खैर वो बैठे रहे, और प्रश्न करते रहे उनसे वो क्या समझाते हैं? वो अपढ़ गँवार लेकिन फिर दिन-रात सुनता रहे लेक्चर तो कुछ दिमाग में भर गया था उसके, वो अपनी अक्ल से जवाब देता रहा। जब हम उठे, हमसे मिलने आये तो कहने लगे, आपका तो चपरासी भी फिलॉसफर है। क्यों? कहे, हम तमाम सारे क्वेश्चन उससे किये, सबका उत्तर धड़ाधड़ देता रहा वो। वो तो बेपढ़ा लिखा है बिचारा। आप कोई पुस्तक साथ में नहीं रखते? हमने कहा - नहीं मेरे सामान में तो कोई पुस्तक कभी नहीं रही। उनको बहुत आश्चर्य हुआ...'
 
(जैसा कि श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अपने शब्दों में सुनाया)

0 स्त्रोत ::: 'जगदगुरुत्तम' पुस्तक, पृष्ठ संख्या 132
0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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