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 जलवायु अनुकूल किस्मों एवं प्रौद्योगिकी के विकास से भारत तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनेगा : डॉ. सिंह

-मिलेट मिशन की तर्ज पर तिलहन मिशन शुरू करने की जरूरत : डॉ. चंदेल 
-कृषि विश्वविद्यालय में तिलहनी फसलों पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित
-5 एवं 6 सितम्बर को अलसी तथा कुसुम फसलों पर दो दिवसीय वार्षिक कार्यशाला का होगा आयोजन 
 रायपुर । इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में भारतीय तिलहन अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद एवं इंडियन सोसायटी ऑफ आइलसीड रिसर्च, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में आज यहां ‘‘तिलहनी फसलों हेतु जलवायु अनुकूल प्रौद्योगिकी एवं मूल्य संवर्धन’’ विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कृषि महाविद्यालय रायपुर के सभागार में आयोजित इस संगोष्ठी का शुभारंभ छत्तीसगढ़ के कृषि उत्पादन आयुक्त डॉ. कमलप्रीत सिंह ने किया तथा अध्यक्षता इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल ने की। इस अवसर पर संचालक कृषि एवं पशु चिकित्सा, श्रीमती चंदन संजय त्रिपाठी और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के सहायक महानिदेशक (तिलहन एवं दलहन) डॉ. संजीव गुप्ता विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश भर में तिलहनी फसलों पर शोध कार्य करने वाले वैज्ञानिक शामिल हुए। इस दौरान छत्तीसगढ़ में उत्पादित होने वाली प्रमुख तिलहनी फसलों जैसे अलसी, सोयाबीन, कुसुम, रामतिल, तिल सरसों, मूंगफली, अरंडी आदि पर विशेषज्ञों द्वारा शोध पत्र भी प्रस्तुत किये गए। इस अवसर पर इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा तिलहन फसलों पर प्रकाशित नवीन प्रकाशनों का विमोचन भी किया गया। 
संगोष्ठी का शुभारंभ करते हुए कृषि उत्पादन आयुक्त डॉ. कमलप्रीत सिंह ने कहा कि वर्तमान समय में हमारा देश तिलहन उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं है और हमें बड़ी मात्रा में विदेशों से तेल का आयात करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ राज्य में तिलहन फसलों का रकबा लगभग साढे़ पांच लाख हैक्टेयर तथा औसत उत्पादकता लगभग 7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है, जिसे बढा़ये जाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि विगत कुछ वर्षां में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां बढ़ने के कारण आज फसलों की ऐसी नई किस्में विकसित करने की जरूरत है जो जलवायु परिवर्तन से कम प्रभावित होती हों और बदलती परिस्थितियों में भी अधिक उत्पादन देने में सक्षम हों। उन्होंने कृषि वैज्ञानिकों से जलवायु अनुकूल नवीन किस्में तथा इनकी मूल्य संवर्धन प्रौद्योगिकी विकसित करने का आव्हान किया। डॉ. सिंह ने कहा कि मिलेट मिशन शुरू होने के बाद छत्तीसगढ़ में लघु धान्य फसलों के उत्पादन में 85 प्रतिशत वृद्धि हुई है। उन्होंने कहा कि इसी प्रकार राज्य सरकार तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। उन्होंने राष्ट्रीय संगोष्ठी तथा कार्यशाला की सफलता हेतु शुभकामनाएं देते हुए आशा व्यक्त की कि इसके सार्थक परिणाम सामने आएंगे। 
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल ने कहा कि जलवायु परिवर्तन अनुकूल प्रौद्योगिकी तथा फसलों के मूल्य संवर्धन के क्षेत्र में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय काफी कार्य कर रहा है और इसमें राज्य सरकार की ओर से भी अपेक्षित सहयोग प्राप्त हो रहा है। उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा अलसी, सोयाबीन, कुसुम, सरसों, राम तिल आदि तिलहनी फसलों की 28 उन्नत किस्में विकसित की गई हैं। विश्वविद्यालय द्वारा स्पीड ब्रीडिंग कार्यक्रम के माध्यम से नवीन किस्मों के विकास की अवधि को कम करने के प्रयास जारी हैं। उन्होंने कहा कि तिलहनी फसलों के मूल्य संवर्धन की प्रौद्योगिकी अपनाते हुए विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा अलसी के रेशे से कपडे़ व अन्य सामग्री का निर्माण, कुसुम बीजों से तेल निष्कर्षण तकनीक एवं इसकी पंखुडियों से चाय बनाने की तकनीक विकसित की गई है। डॉ. चंदेल ने तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए मिलेट मिशन की तर्ज पर तिलहन मिशन प्रारंभ करने की आवश्यकता जताई। 
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहायक महानिदेशक (दलहन एवं तिलहन) डॉ. संजीव गुप्ता ने कहा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नीति अयोग के साथ मिलकर भारत की आजादी की 100वीं वर्षगांठ सन् 2047 तक देश को कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की कार्ययोजना पर कार्य कर रहा है। उन्होंने कहा कि वर्तमान में देश में प्रति वर्ष लगभग पौने दो लाख करोड़ रूपये मूल्य के तेल का आयात करना पड़ रहा है, जिसे अगले 25 वर्षां में समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया है। डॉ. गुप्ता ने बताया कि तिलहन उत्पादन के लिए संचालित ‘‘पीली क्रांति’’ के पूर्व देश की आवश्यकता के 30 प्रतिशत तिलहन का आयात होता था जो आज घटकर केवल 5 प्रतिशत रह गया है। उन्होंने कहा कि आज भारत में अनाज का उत्पादन आवश्यकता से अधिक हो रहा है और दलहन उत्पादन के क्षेत्र में भी देश आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर है। उन्होंने कहा कि देश में तिलहनी फसलों को 85 प्रतिशत रकबा वर्षा पर आश्रित है और विभिन्न राज्यों के मध्य उत्पादकता में काफी अन्तर है। उन्होंने इन चुनौतियों से निपटने के लिए समुचित रणनीति एवं समन्वय के द्वारा कृषि में यंत्रों के उपयोग को बढ़ावा देने तथा आर्टिफिशियल इन्टेलिजेंस जैसी नवाचारी तकनीक अपनाने पर जोर दिया। संगोष्ठी को संचालक कृषि श्रीमती चंदन त्रिपाठी, भारतीय तिलहन अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद के निदेशक डॉ. आर.के. माथुर ने भी संबोधित किया। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के संचालक अनुसंधान डॉ. विवेक कुमार त्रिपाठी ने विषय प्रतिपादन करते हुए संगोष्ठी के आयोजन की आवश्यकता तथा इसकी रूप-रेखा के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कृषि विश्वविद्यालय में तिलहन फसलों पर किये जा रहे अनुसंधान के बारे में भी विस्तृत जानकारी प्रदान की। कार्यक्रम में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के निदेशक विस्तार डॉ. अजय वर्मा, निदेशक प्रक्षेत्र एंव बीज डॉ. एस.एस. टुटेजा, कृषि महाविद्यालय रायपुर के अधिष्ठाता डॉ. जी.के. दास, कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता डॉ. विनय कुमार पाण्डेय, खाद्य प्रौद्योगिकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता डॉ. ए.के. दवे सहित विभिन्न विभागों के विभागाध्यक्ष, वैज्ञानिक एवं छात्र-छात्राएं उपस्थित थे। 
उल्लेखनीय है कि तिलहन फसलों पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के साथ ही 5 एवं 6 सितम्बर को अलसी तथा कुसुम फसलों पर दो दिवसीय वार्षिक कार्यशाला का आयोजन किया जाएगा जिसमें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा देश भर में संचालित अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाओं (अलसी) के 14 अनुसंधान केन्द्रों तथा अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाओं (कुसुम) के 8 अनुसंधान केन्द्रों के कृषि वैज्ञानिक शामिल होंगे। वार्षिक कार्यशाला के दौरान देश में अलसी तथा कुसुम फसलों पर विगत वर्षां में किये गये अनुसंधान कार्यां की समीक्षा की जाएगी तथा आगामी वर्ष में किये जाने वाले अनुसंधान की कार्ययोजना तैयार की जाएगी। इस दौरान इन फसलों के मूल्य संवर्धन पर प्रदर्शनी का आयोजन भी किया जाएगा जिसमें अलसी के रेशे से कपडे़ व अन्य सामग्री का निर्माण, कुसुम बीजों से तेल निष्कर्षण तकनीक एवं इसकी पंखुडियों से चाय बनाने का जीवंत प्रदर्शन भी विशेषज्ञों द्वारा किया जाएगा।

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