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 श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम बढ़ाने वाली चीजों से ही प्रयोजन होना चाहिये; श्रीकृष्णप्रेमवर्द्धक ज्ञान ही वन्दनीय है!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 341

★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 88-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि हमारे लिये श्रीकृष्ण प्रेम ही परमसाध्य वस्तु होनी चाहिये, और वह श्रीकृष्ण प्रेम जिस साधन से मिलता हो, उसी से हमारा प्रयोजन रहना चाहिये।

वंदनीय है उपनिषत, यामे ज्ञान महान।
श्याम प्रेम बिनु ज्ञान सो, प्राणहीन तनु जान।।88।।

भावार्थ - उपनिषत् भगवत्स्वरूप हैं। अतः वन्दनीय हैं। उनमें अनन्त ज्ञान भरा पड़ा है। किंतु उनसे श्रीकृष्ण प्रेम नहीं बढ़ता। अतः ज्ञान, प्राणहीन, शरीर के समान है।

व्याख्या - श्रीकृष्ण के सहज नि:श्वास से अनादि अपौरुषेय वेद प्रकट होते हैं। अतः भगवान् के समान ही परम वन्दनीय है। फिर उपनिषत् भाग तो वेदों का चरम ज्ञान स्वरूप है। 

सर्ववेदमयो हरिः। 
(भागवत 7-11-7)

इसी से भगवान् श्रीकृष्ण को वेदकृत् वेदवित् वेदवेद्य कहा है। यथा;

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।
(गीता 15-15) 

जीवों के संस्कार एवं रुचि पृथक्-पृथक् हैं। अतः वेदों में सभी अधिकारियों के हेतु मार्ग निरूपण किया गया है। अतः किसी महापुरुष के द्वारा ही वेद का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। स्वयं वेद कहता है। यथा;

आचार्यवान् पुरुषो हि वेद।
(छान्दोग्योपनिषद 6-14-2)

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।
(मुण्डकोपनिषद 1-2-12)

अर्थात् श्रोत्रिय (वेद तात्पर्य मर्मज्ञ), ब्रह्मनिष्ठ (जिसने पूर्ण प्रेम प्राप्त कर लिया है) गुरु से ही वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अन्यथा-

विभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति।

अर्थात् अल्पज्ञों से वेद डरता है कि मेरा अनर्थ करेगा। अस्तु वेदों में भी उपनिषत् भाग तो वेदों का सारभूत तत्त्व है। बड़े-बड़े पाश्चात्य दार्शनिकों तक ने उपनिषदों के ज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। किंतु यहाँ लेखक का अभिप्राय यह है कि भूखे को खाना चाहिये। व्यंजन ज्ञान की पुस्तक से पेट नहीं भरता। टाइम टेबल देखने मात्र एवं उसके रट लेने मात्र से तो मुसाफिर का सफर तय नहीं होता। उसी प्रकार इन सब उपनिषदों के ज्ञान से भगवान् में अनुराग नहीं हो पाता। ज्ञान तो वही वन्दनीय है जो साधक का स्वार्थ सिद्ध करे। श्रीकृष्ण प्रेम संवर्धन ही किसी भी ज्ञान का चरम लक्ष्य है। यदि उपनिषत् एवं वेदान्त सूत्र हमारा साध्य नहीं प्रदान करता तो हम उसको लेकर क्या करें? हमको तो श्रीमद्भागवत महापुराण सरीखे रसात्मक ग्रन्थ से ही विशेष लाभ होता है। इसी आशय से स्वयं वेदव्यास ने कहा है। यथा;

श्रुतमप्यौपनिषदं दूरे हरिकथामृतात्।
यन्नसंति द्रवच्चित्तकंपाश्रुपुलकादयः॥ 

अर्थात् श्यामसुन्दर की सरस लीला रहित शुष्क ज्ञान युक्त उपनिषत् ज्ञान से दूर ही रहना उचित है। क्योंकि उसके श्रवण मनन से श्रीकृष्ण सम्बन्धी प्रेम के सात्विक भावों (स्तम्भ, स्वेद, कंप, अश्रु आदि) का उद्रेक ही नहीं होता।

०० व्याख्याकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या 88
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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