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  मान अपमान (भाग - 1)
 विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये  मान  और  अपमान  विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन, यह न केवल आध्यात्म जगत, वरन सांसारिक जगत, दोनों ही के लिये अति आवश्यक विषय है। अत: इसके पांचों भागों को चिंतन-मननपूर्वक पठन करें।
 मान अपमान 
 देखिए! ईश्वर प्राप्ति में बहुत से बाधक तत्व होते हैं। जैसे शरीर को स्वस्थ रखने में बहुत सी सावधानी बरतनी पड़ती है। जरा सी असावधानी भी हमारे शरीर, हमारी मशीन को गड़बड़ कर देती है। कोई व्यक्ति अच्छा खासा खा-पी रहा है, लेकिन अगर ऐसी जगह खड़ा हो गया, जहां रोग के कीटाणु हैं, तो रोग हो सकता है। ऐसे ही ईश्वर प्राप्ति में बहुत सी चीजें बाधक हो जाती हैं। लेकिन इनमें जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वह - मान अपमान।
 मान और मान का उल्टा अपमान। हमारा मन इन दोनों चीजों को पकड़े हुये है। मान अपने लिये चाहता है, इसलिये दूसरों का अपमान करता है। कोई मनुष्य मान क्यों चाहता है? क्योंकि दूसरों का अपमान चाहता है। और अपमान क्यों चाहता है? इसलिये कि अपना मान चाहता है। अगर व्यक्ति स्वयं मान न चाहे तो दूसरों के अपमान की बीमारी पैदा ही न हो।
 एक तरकीब है, जिससे इन दोनों खतरनाक चीजों को हम रखे भी रहें और काम भी बन जाये, वो क्या? जो दूसरों के लिये चाहते हो वो अपने लिये चाहो और जो अपने लिये चाहते हो वो दूसरों के लिये चाहो। यानी दूसरों के लिये अपमान चाहते हो, वो अपने लिये चाहो और अपने लिये मान चाहते हो, वो दूसरों के लिये चाहो। बस, भगवत्प्राप्ति हो जायेगी।
 (क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)
 (प्रवचन संदर्भ -अध्यात्म संदेश  पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार  जगद्गुरु कृपालु परिषत  एवं  राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत)

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