बारहमासी अप्रैल फूल...!
बारहमासी अप्रैल फूल...!
डॉ. कमलेश गोगिया
अंग्रेजों के जमाने की बात है। रासा ने काशी में घोषणा की, ’’सिद्ध-योगी महाराज पानी में चलकर गंगा नदी पार करेंगे।’’ इस चमत्कार को देखने पूरे काशी की जनता बड़ी संख्या में नियत समय पर एकत्र हो गई। अंग्रेज सरकार भी हैरत में थी, सिपाही भीड़ को नियंत्रित करने में जुटे हुए थे। रासा और योगी महाराज गंगा नदी पहुँचे। सभी को इंतजार था इस चमत्कार को देखने का। एकाएक रासा ने घोषणा कर दी कि योगी महाराज अस्वस्थ होने की वजह से नाव पर सवार होकर गंगा पार जाएँगे और वापसी में पानी में चलकर आएंगे। चमत्कार देखने की आशा, अब निराशा में बदलने लगी। योगी महाराज और रासा नाव में सवार हो गए। नदी के किनारे से दूर जाकर रासा ने एक झंडा निकालकर लहरा दिया। इस झंडे में लिखा था, ’मूर्ख दिवस...’ पूरे काशी को अप्रैल फूल बना दिया गया। ये ’रासा’ महाशय थे हिन्दी के महान साहित्यकार, कवि, नाटककार और आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिशचंद्र। उनका उपनाम ’रासा’ है। इस घटना का जिक्र यदा-कदा कई मौकों पर ऑनलाइन और ऑफलाइन होता रहता है। मूर्ख दिवस के बहाने ही सही, यह घटना इस बात के लिए भी प्रेरित करती है कि हमें कथित चमत्कारों के पीछे भागकर भाग्यवादी बनने की बजाए वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखकर कर्मवादी बनना चाहिए।
अप्रैल माह की पहली तारीख आते ही, ’फूल’ शब्द दिमाग में कौंध जाता है। शरारती मुस्कान के साथ दिमाग में तरह-तरह के फितूर आने लगते हैं। मन कहता है, ’’संभलकर रहना है, कोई मूर्ख न बना दे..!’’ कुछ एक दिन पहले ’फूल’ बनाने की तैयारी करते हैं तो कुछ जानकर भी मूर्ख बनते हुए ’नहले पर दहला’ मारते हैं। इस दिन क्रोध नहीं आता, हँसी आती है। उम्र का कोई बंधन नहीं, बच्चे-बूढ़े सभी इसका आनंद लेते रहे हैं। बीच सड़क पर खाली पर्स और नकली नोट रखकर मूर्ख बनाने के भी मजे लिए जाते रहे हैं। कोई जूते की लेस बाँधने के बहाने तो कोई सीधे...जैसे ही नोट या पर्स उठाते, जोर से शोर होता, ’’अप्रैल फूल बनाया....!’’ रबर के नकली साँप, छिपकली, कॉकरोज से डराने से खूब मजे लिए गए हैं। 1964 में सुबोधमुखर्जी निर्देशित फिल्म ’अप्रैल फूल’ का यह गाना आज भी सुपरहिट है-
’’अप्रैल फूल बनाया
तो उनको गुस्सा आया
तो मेरा क्या कुसूर
ज़माने का कुसूर
जिसने दस्तूर बनाया...’’
अप्रैल फूल कब से और क्यों मनाया जाता है? एक अप्रैल का ही दिन क्यों चुना गया? इसके अनेक किस्से और कहानियाँ हैं। कहते हैं कि 1592 में फ्रांस मे चार्ल्स पोप ने नया रोमन कैलेंडर जारी किया था, लेकिन लोग पुराने कैलेंडर को ही मानते रहे। उसके बाद वहां भी इस दिन से अप्रैल फूल मनाया जाने लगा। एक किस्सा इंग्लैंड के राजा रिचर्ड का है जिन्होंने बहेमिया की रानी ऐनी के साथ 32 मार्च को सगाई करने ऐलान किया। सगाई के जश्न में डूबे लोगों को बाद में आभास हुआ कि 32 मार्च कोई तारीख ही नहीं होती। इसके बाद से अप्रैल फूल मनाया जाने लगा। अनेक कहानियाँ हैं।
अलग-अलग देशों में अलग-अलग फूल बनाने के तरीके हैं। राजेश्वरी शांडिल्य ’भारतीय पर्व और त्यौहार’ के हिन्दू-इतर पर्व में लिखती हैं कि इस दिन इंग्लैंड़ की सड़कों पर बच्चों की अप्रैल फूल की आवाज अवश्य सुनाई देगी। अमेरिका में इस दिन डाक द्वारा बैरंग पार्सल भेजने की प्रथा है। कोई भूल से पार्सल छुड़ा लेता है तो उसमें सफेद बाल, फटे बल्ब, रद्दी अखबार या टूटे हुए खिलौने निकलते हैं। चीन में लोग अपने मित्रों की सायकल पंक्चर करके अप्रैल फूल मनाते हैं। ब्राजील में लोग अपने मरने का झूठा नाटक रचते हैं। भारत सहित अनेक देशों में ’फूल’ संस्कृति बीते कई सालों से प्रचलित है। इटली में इस दिन समानता का त्योहार मनाया जाता है। नौकर का मालिक और मालिक का नौकर बन जाने की प्रथा रही है। अनेक देशों के समाचार पत्र भी अप्रैल फूल बनाते हैं, हमारे यहाँ फाल्गुन माह में इस पंरपरा का निवर्हन होता है। अप्रैल माह की पहली तारीख को भी तरह-तरह से ’फूल’ बनाए जाते हैं। फूल अंग्रेजी का शब्द है जिसे हिन्दी में बेवकूफ, मूर्ख, उल्लू आदि भी कहते हैं। इस एक दिन के अलावा पूरे 364 दिन पूरी दुनिया में कोई न कोई ’फूल’ बन रहा होता है।
हमारे गुरू व्यंग्यकार स्व. विनोद शंकर शुक्ल जी याद आ रहे हैं। डायमंड पॉकेट बुक्स से 2017 में प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ’51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ’ में उन्होंने लिखा है, ’’अप्रैल फूल अब एक दिन का श़गल नहीं रहा। बारहमासी हो गया है। मूर्ख बनाने की कला बहुत ऊँचाई पर जा पहुँची है। भ्रष्टाचार की कला के बराबर। सभी एक-दूसरे को मूर्ख बनाने में लगे हैं। बाजा़र इस मामले में नंबर एक है।वस्तुओं का रैपर जितना बढ़िया होता है, माल उतना ही घटिया। आज के विज्ञापनों पर तो कुर्बान होने को जी करता है। बड़ी सफाई से उपभोक्ताओं की जेब काट लेते हैं। जेबकतरों को हीनग्रंथि का शिकार होना पड़ता है। हमदम और दोस्त भी अप्रैल फ़ूल बनाने का कोई मौक़ा नहीं चूकते। उपयोग के बाद मुँह फेर लेते हैं, जैसे जवान होने पर बच्चे बूढ़े माँ-बाप से। हमारे आसपास बारहों महीने अप्रैल फू़ल बनाने वाले सज्जनों और संस्थाओं की भरमार है।’’ यह सारी बातें आज भी प्रासंगिक हैं।
यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो 1 अप्रैल का दिन भारत के लिए विशेष भी है। 1 अप्रैल 1935 को भारतीय रिजर्व बैंक स्थापित हुआ था, लेकिन ’अक्लमंदों’ ने बैंकों को भी ’फूल’ बनाने से नहीं बख्शा है! भारतीय रिजर्व बैंक के 2015 से 2021 तक के आँकड़े देख लीजिए, सात साल में धोखाधड़ी के ढाई लाख मामले, यानि देश में हुए कुल घोटालों का 83 प्रतिशत और हजारो करोड़ रुपए की सरकार को चपत। ’आम’ की गाढ़ी कमाई, चंद ’खास’ के खाते में...! फिर सिर्फ बैंक ही क्यों, इंसान ने प्रकृति को भी कहां ’फूल’ बनाने से छोड़ा है। इंसान सदियों से ’प्रगति’ के नाम पर प्रकृति को ’फूल’ बनाता आ रहा है, प्रकृति भी ’जैसे को तैसा’ की उक्ति चरितार्थ करती आ रही है। किसी भी मौसम में बरसात हो रही है तो ठंड के दिनों में गर्मी। एकाएक आँधी-तूफान..! अपनी पूरी आयु भोगने में पशु-पक्षी ही सक्षम रहे हैं, लेकिन इंसानों की हरकतों से वे भीे अपनी प्रजातियों के विलुप्त होने का दंश झेल रहे हैं। वरिष्ठजन कहा करते थे, ’’भगवान ने मनुष्य की आयु सौ साल निर्धारित की है!’’ वर्तमान में भारत में जीवन प्रत्याशा 69.7 वर्ष है। आज सौ बसंत देखने वाले विरले ही मिलते हैं। प्रकृति पर कब्जा कर उसे फूल बनाने की कोशिशें चरम पर है। प्रकृति ने भी वैश्विक तापमान बढ़ाकर फूल बनाना शुरू कर दिया। कूलर, पंखे, एसी भी पूल बनाने लग गए हैं। हर साल गर्मी के नए रिकॉर्ड बनते हैं।
डिजिटल वर्ल्ड की आभासी दुनिया को ले लीजिए, सुविधाओं की भरमार तो मिली लेकिन लोगों ने दुरुपयोग करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। आम हो या खास, हर दिन लोग ’सायबर फूल’ बन रहे हैं। अब यह मसला वैश्विक चुनौति बन गया है। 1 अप्रैल से नया वित्तीय वर्ष भी शुरू होता है। बीते वित्तीय वर्ष-2022 में एटीएम कार्ड और इंटरनेट बैंकिंग से संबंधित धोखाधड़ी के 65 हजार 45 मामले सामने आए, मसलन प्रतिदिन सौ से भी ज्यादा मामले। अप्रैल के ’फूल’ तो बारहमासी खिल रहे हैं।
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