खूनी बावड़ी
-कहानी
लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे
- दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
बरसों बाद अनुभा अपनी सहेलियों के साथ छुट्टी मनाने अपने गाँव जा रही थी । दादा - दादी के गुजर जाने के बाद पापा ने ही वहाँ जाना छोड़ दिया तो बाकी लोगों का तो प्रश्न नहीं उठता । बचपन की कुछ बातें अभी भी स्मृतियों में स्थान
बनाये हुए हैं । गाँव है भी तो बहुत दूर..पहाड़ों के आँचल तले
हरे - भरे वनों के बीच नदी ,तालाबों , बावड़ियों से भरपूर ।ऐसी घनी छाँह फिर नसीब नहीं हुई , वह तो हार गई पापा की मिन्नतें कर - कर के पर पापा ने तो कुछ न कहने की कसम खा ली थी । अनुभा समझ सकती थी उनका मन..उस जगह उनकी कितनी खट्टी - ,मीठी यादें हैं । उनके अपने जिन्होंने उन्हें गोद में खिलाया , साथ पढ़े हमजोली बने । कुछ हैं तो कुछ बिछड़ गये । ज्यादातर तो चले ही गये , उन्हें याद कर अधिक उदास हो जाते थे पापा इसलिए कभी किसी ने बहुत जिद नहीं की । अब वक्त काफी आगे निकल चला है ,अनुभा की शादी हो गई और अब वह अपने निर्णय लेने में समर्थ है।एक दिन उसने अपनी सहेलियों के सामने अपने खूबसूरत गाँव का जिक्र किया तो वे भी व्यग्र हो उठीं कि कुछ दिन शहर के कोलाहल , नौकरी की चिखचिख और व्यस्तताओं के बीच कुछ सुकून के पल चुरा लिया जाये । भीड़ भरे हिल स्टेशन जाना कोई नहीं चाहता था इसलिए आनन -फानन प्रोग्राम बन गया ।
विंध्याचल की खूबसूरत शिखरों के बीच एक छोटा सा गाँव था रामपुर जिसकी आबादी बमुश्किल ढाई सौ होगी । हाँ थोड़ा मालगुजार लोगों का गाँव था तो बड़े - बड़े मकानों के नक्काशीदार दरवाजों , मण्डपों के खंडहर आज भी उस वक्त की सम्पन्नता की कहानी कह रहे थे । अब तो लगभग खाली हो चुका था यह , सभी शहरों की ओर पलायन कर गये । दो - चार लोग जिनकी जिंदगी मजदूरी व खेती के सहारे चलती थी , वे ही रुके हुए थे ।अनुभा के दादा के घर में उनका एक बहुत पुराना नौकर पीढ़ियों से घर की देखभाल कर रहा था और अपने परिवार के साथ वहीं रहता था । चूंकि पापा ने खबर भिजवा दी थी तो उन्होंने घर की सफाई व अन्य व्यवस्था ठीक कर दी थी ।
गाँव के संघर्ष भरे , झुर्रीदार चेहरों के बीच कोई पहचाना चेहरा ढूँढना अनुभा के लिए मुश्किल था , पापा का नाम बताने पर कुछ किस्से निकल पड़ते । दादाजी को सभी जानते थे । गाँव के आस - पास के कई मंदिर और दर्शनीय स्थल देखकर वे भावाभिभूत थे । नैसर्गिक सौंदर्य वहाँ के कण - कण में विद्यमान था । जंगली हवा के झोंके की तरह वे इधर - उधर डोलते रहे । एक दिन अनुभा को याद आया कि बचपन में उसे और सभी बच्चों को एक बावड़ी की तरफ जाने की सख्त मनाही थी । बच्चे क्या बड़े भी उधर झाँकने नहीं जाते थे । कहा जाता था कि वह बावड़ी अभिशप्त है । उसका स्वच्छ जल देखकर कई लोगों ने कोशिश की उसे खुलवाने की पर वह जीवित नहीं बचा । क्या आज भी उसे खोला नहीं गया है -अनुभा ने उसकी पड़ताल की तो पता चला कि अब भी उस खूनी बावड़ी के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता । उनके नौकर की पत्नी ने बताया कि वर्षों पहले उस बावड़ी में नैना की खुदकुशी करने के बाद वह बावड़ी अभिशप्त है और अब उसमें झाँकने वाला हर शख्स दूसरे दिन मरा हुआ मिलता है इसलिए उस बावड़ी को तारों से घेर कर बन्द कर दिया गया है ताकि अब और कोई जान न जाये ।
अनुभा और उसकी सहेलियाँ उस कहानी को जानने को बेचैन हो उठीं जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी । किसी पहाड़ी नदी की तरह चंचल व निश्छल थी नैना , बेहद खूबसूरत । उसका सरस् चितवन चर्चा का विषय बन चुका था , यौवन के आरंभ में ही उसे पाने को कई लोग बेताब हो उठे थे । बड़े - बड़े घरों के रिश्ते आने लगे थे पर वह पगली अपने बचपन के साथी श्रवन से मन ही मन प्यार करने लगी थी । एक मालगुजार की बेटी , हजारों बंदिशों के बीच पलती रही और अपने घर काम करनेवाले रामू काका के बेटे श्रवन को दिल फे बैठी । पिता को जब यह जानकारी हुई तो खानदान की इज्जत बचाने की जिद ने सही - गलत भुला दिया । श्रवन की हत्या कर उसी बावड़ी में डाल दिया गया । दुःख और प्रेम के वियोग में पागल हो गई नैना । वह अपनी सुध - बुध भूल बैठी ,सच्चाई मालूम होने पर उसी बावड़ी में कूदकर उसने अपनी जान दे दी । उसके बाद तो गाँव में मौत का तांडव होने लगा । न जाने कितनी जानें ली उस खूनी बावड़ी ने । भूलकर भी कोई उधर चला गया तो जिंदा नहीं बचता इसलिए लोग अपना घर बार , खेती - बाड़ी बेचकर यहाँ से निकलते गये और कभी लौटकर नहीं आये । अनुभा को अब समझ आया कि पापा जी इसीलिए गाँव जाने के नाम से ही सहम जाते थे और उदास हो जाते थे । अब वे शीघ्र वहाँ से निकल जाना चाहते थे क्योंकि अनुभा जानती थी पापा तब तक चिंतित रहेंगे जब तक वह वापस घर नहीं पहुँच जाती । कुछ सोचकर उसके होठों पर मधुर मुस्कान खिल गई थी .....जिंदगी के कठोर अनुशासन में रहे पापा जी ने उसके प्रेम - विवाह को स्वीकार कर लिया था शायद यह उस अभिशप्त खूनी बावड़ी का उसे उपहार था ।
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