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 दशहरे में पुतला निर्माण व्यवसाय पर छाया कोरोना वायरस का साया

नई दिल्ली। दशहरे में महज एक दिन रह गया है और करण ‘रावण वाला' खाली फुटपाथ को एकटक देख रहा है। इस त्योहार के मौसम में बहुत कम काम मिलने की निराशा उसके चेहरे पर साफ झलक रही है। पास से गुजर रही कारों पर बिना नजर डाले, बड़ी सफाई से बांस को आकार दे रहे करण ने बीते समय की चर्चा छेड़ते हुए कहा, यहां से एक किलोमीटर तक इतने पुतले होते थे कि आपको पैर रखने की भी जगह नहीं मिलती। रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले बनाने वाले करण जैसे सैकड़ों कलाकार इस मौसम में पूरे वर्ष की कमाई कर लेते थे। लेकिन इस वर्ष कोविड-19 संक्रमण के डर से लोग त्योहार में भी बाहर निकलने से बच रहे हैं और इस महामारी ने पूरे त्योहारी मौसम का रंग उड़ा दिया है।

पश्चिमी दिल्ली में टैगोर गार्डन मेट्रो स्टेशन के समीप नजफगढ़ रोड के पास का यह इलाका साल के इस समय में पुतले बनाने लोगों द्वारा बांस के पुतलों को अंतिम शक्ल देने और खरीददारों की भीड़ से भर रहता था। लेकिन इस बार इस इलाके में केवल तीन या चार पुतला निर्माता पुतलों पर काम करते नजर आ रहे हैं। रंग-बिरंगे बांस और कागज के पुतले शहर भर में रामलीला आयोजकों को 1,000 रुपये से लेकर 30,000 रुपये तक के दामों में बेचे जाते हैं। हालांकि ज्यादातर आयोजकों ने ज्यादा भीड़ नहीं जुटने की आशंका और सख्त सरकारी नियमों के कारण इस साल दशहरा नहीं मनाने का फैसला किया। इस बार महामारी से व्यवसाय प्रभावित हुआ है लेकिन पिछले कई वर्षों में सरकार द्वारा जारी सख्त नियमों ने भी इसे काफी क्षति पहुंचायी है। साल के अन्य महीनों में इलेक्ट्रीशियन का काम करने वाले 52 वर्षीय करण ने कहा,पिछले दो-तीन वर्षों में उन्होंने हमारे काम को पूरी तरह से मार डाला है। पहले उन्होंने हमें पुतले बनाने और बेचने के लिए जगह देने से मना कर दिया और फिर उन्होंने पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया और अब यह बीमारी आ गई।” पुतलों को रंगने वाले पेंटर शम्मी ने कहा कि जब उन्होंने इस साल पुतले बनाने का जोखिम उठाने का फैसला किया तो उन्होंने सब कुछ भाग्य पर छोड़ दिया । उन्होंने कहा, “बाजार बुरी तरह प्रभावित हो चुका है। हमें पिछले दो-तीन साल पहले की तुलना में केवल 10 प्रतिशत कारोबार मिला है। इस वर्ष मैंने केवल 10 बड़े और 10 छोटे रावण के पुतले बनाए हैं।” पेंटर ने गर्व से कहा कि कुछ साल पहले तक उन्हें अयोध्या से रावण बनाने के आर्डर मिल जाते थे। अब वह स्कूलों, जिम और घरों में वॉल पेंटिंग बनाने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘वे अलग दिन थे जब हम केवल दशहरे की कमाई पर वर्ष भर काट लेते थे। अब मैं एक महीने भी खाली नहीं बैठ सकता। नजफगढ़ रोड से बाहर निकलने पर एक संकरी गली में पुतला निर्माताओं के घर हैं। वहीं नीले रंग का तीन फुट ऊंचा रावण का पुतला एक घर के सामने खड़ा नजर आता है। लेकिन यह इस बात का एक नमूना मात्र है कि अंदर क्या रखा है।

न्यू इंडिया रावण वाले की कार्यशाला घर के भीतर ही है और यहां कारीगर पिछले 80 वर्ष से बड़ी मेहनत से पुतले तैयार करते रहे हैं। इनके पुतले कनाडा और आस्ट्रेलिया तक भेजे गये हैं। ऐसे ही एक कारीगर 45 वर्षीय अजय सारस्वत ने कहा, अब हम यह काम केवल इसलिए करते हैं क्योंकि हम इसके अलावा कुछ और नहीं कर सकते। सारस्वत के दादा ने ' रावण वाले बाबा ' से पुतले बनाने की कला सीखी और इस क्षेत्र को पुतला बाजार के रूप में स्थापित किया था। अजय के भतीजे अमित सारस्वत ने कहा कि पुतले बनाने के इस काम ने परिवार की चार पीढ़ियों को आजीविका दी लेकिन इस व्यवसाय से अब यह पीढ़ी नहीं चल सकती। अमित ने कहा, यह सब हम जानते हैं और मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे यह काम शुरू करें। अजय की पत्नी दीपा ने भी इस बात पर हामी भरी। उसने स्मार्टफोन पर म्यूजिक वीडियो देखने में व्यस्त अपने छह साल के बेटे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह उस पर निर्भर करता है कि वह क्या करना चाहता है। उसे गाना गाना पसंद है। अगर वह एक गायक बनना चाहेगा तो हम उसे समर्थन देंगे।

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