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- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की नि:सृत प्रवचन श्रृंखला
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने वर्ष 1990 में अपनी जन्मस्थली भक्तिधाम मनगढ़ (उ.प्र.) में श्री नारद मुनि द्वारा प्रगटित नारद भक्ति सूत्र पर 11-दिवसीय प्रवचन दिया था। नारद भक्ति सूत्र अथवा दर्शन, भक्ति-तत्व की सरलतम रुप में व्याख्या करने वाला 84 सूत्रों का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा भक्ति-साहित्यों में अग्रगण्य स्थान रखती है। श्री कृपालु महाप्रभु जी ने इसी ग्रन्थ के 84 सूत्रों की विशद व्याख्या कर सरलतम को भी और अधिक सरल रुप प्रदान कर प्रेमपिपासु जीवों को आत्मिक-कल्याण का मजबूत आधार दिया था। इसी प्रवचन श्रृंखला में कामना-तत्व पर कही गई उनकी कुछ वाणियां यहां दी जा रही हैं। सुधि पाठकजनों के लाभ की अपेक्षा है :::::::(उनकी वाणियों का संकलन यहां से पढ़ें....)(1) हर ग्रन्थ कामनाओं के त्याग करने का आदेश देता है। ये कामनायें हमने क्यों बनाई है? इसका रीजन है अज्ञान। अज्ञान यह कि हमने अपने आपको देह मान लिया है। इसलिये देह के सुख के लिये कामनायें बनने लगीं।(2) जिस वस्तु में हम आनंद की कल्पना करते हैं, उसमें हमारा अटैचमेन्ट हो जाता है।(3) अंधकार और प्रकाश में जितना अन्तर है, उतना ही विरोध कामनाओं और भक्ति में है।(4) संसारी कामनाओं का कारण है अज्ञान, अज्ञान का कारण है माया और माया का कारण है भगवत-बहिर्मुखता।(5) शरीर को ठीक रखने के लिये प्रकृति की और आत्मा को ठीक रखने के लिये आवश्यकता है भगवान की। हम संसार का उपयोग करने के स्थान पर उसका उपभोग करते हैं, किन्तु भगवान को पाने का प्रयत्न नहीं करते।(6) स्वामी की सेवा चाहना कामना नहीं है। जीव भगवान का नित्य दास है अत: यह उसकी नेचुरैलिटी है, फिर हम स्वामी के सुख के लिये स्वामी की सेवा चाहते हैं, अपने सुख के लिये नहीं।(7) भगवान सम्बन्धी कामना से हमारा संसार निवृत्त होगा, जबकि संसार सम्बन्धी कामना हमारा सर्वनाश करेगी।(प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ - नारद भक्ति दर्शन प्रवचन पुस्तकसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की नि:सृत प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा वैराग्य और अनुराग विषय पर सारगर्भित प्रवचन, बार-बार पढ़कर तदनुसार अभ्यास करें, तो निश्चय ही लाभ होगा :::::::
(उनके द्वारा नि:सृत प्रवचन यहां से है....)...भगवत्प्राप्ति के लिए कुछ नहीं करना है। वो जो कुछ नहीं करना है उसके लिए बहुत कुछ करना है। हम अनंत जनम से करते आये हैं, ये जो कर्ता-अभिमान (मैं करता हूँ) है, ये मिटाना है।लेकिन अनादिकाल से हमारी आसक्ति संसार में जो हो चुकी है, उसको हटा दें बस काम बन जाय। जैसे मिट्टी का ढेला है, उसको हाथ में पकड़े हो छोड़ दो, वो अपने आप अपने अंशी के पास चले जायेगा। तो ये जीव भगवान का अंश है, इसको माया के साइड से हटा दो तो भगवान के साइड अपने आप चला जायेगा।वैराग्य का मतलब संसार से राग और द्वेष होना। यही दो चीज हमारी संसार से हो चुकी है। राग तब होता है जब किसी वस्तु में सुख मानते हैं और द्वेष तब होता है जब किसी वस्तु से सुख नहीं मिलता।जब तक ये राग द्वेष हैं, करोड़ों जगद्गुरु प्रवचन देते रहें कोई लाभ नहीं। हम सुन लेंगे कह देंगे बहुत बढिय़ा फिर संसार में राग द्वेष। यही साधना है। अब जब ये अभ्यास से बैठ जायेगा बुद्धि में कि संसार में ना सुख है ना दुख है, तब मन उदासीन (न्यूट्रल) हो जाएगा। ये हमको करना होगा अपने आप नहीं हो जायेगा। अब आपका मन भगवान गुरु में एक सेकंड में लगाने के लिए तैयार हो गया।(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -सुस्मिता मिश्रापुरुषोत्तम महीना या अधिमास या मल मास 18 सितंबर से शुरू होकर 16 अक्टूबर को समाप्त हो रहा है। इस पूरे महीने भगवान विष्णु की आराधना किए जाने का प्रावधान है।इस बार बने हैं 15 दिन शुभ योग , जाने क्या करेंज्योतिषियों के अनुसार इस बार पुरुषोत्तम मास में 15 शुभ योग बने हैं। पहले ही दिन शुक्रवार को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और शुक्ल योग रहेगा। पूरे महीने नौ सर्वार्थसिद्धि योग, दो द्विपुष्कर योग, एक अमृतसिद्धि योग और दो दिन पुष्य नक्षत्र के योग बने रहे हैं। रविवार और सोमवार को पुष्य नक्षत्र अधिक फलदायी होगा।ज्योतिषियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मास का पहला दिन दिन बेहद शुभदायी रहेगा। यह योग मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला और हर काम में सफलता देने वाला होता है। 26 सितंबर के बाद एक अक्तूबर, चार अक्तूबर, छह-सात अक्तूबर, नौ अक्तूबर, 11 अक्तूबर और 17 अक्तूबर को यह योग रहेगा। इसी तरह इस महीने में दो दिन द्विपुष्कर योग मिलेगा। ज्योतिष के अनुसार इस योग में किए गए किसी भी काम का दोगुना फल मिलता है। 19 और 27 सितंबर को द्विपुष्कर योग रहेगा। इसी तरह दो अक्तूबर को अमृतसिद्धि योग है।पुरुषोत्तम मास में दो अक्तूबर को अमृत सिद्धि योग है। मान्यता के अनुसार इस योग में किया गया कोई भी कार्य दीर्घ फलदायी होता है।भारतीय पंचांग (खगोलीय गणना) के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। यह सौर और चंद्र मास को एक समान लाने की गणितीय प्रक्रिया है। शास्त्रों के अनुसार पुरुषोत्तम मास में किए गए जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। सूर्य की बारह संक्रांति होती हैं और इसी आधार पर हमारे चंद्र पर आधारित 12 माह होते हैं। हर तीन वर्ष के अंतराल पर अधिक मास या मलमास आता है। शास्त्रानुसार-यस्मिन चांद्रे न संक्रान्ति- सो अधिमासो निगह्यतेतत्र मंगल कार्यानि नैव कुर्यात कदाचन।यस्मिन मासे द्वि संक्रान्ति क्षय मास स कथ्यतेतस्मिन शुभाणि कार्याणि यत्नत परिवर्जयेत।।अधिक मास क्या है?जिस माह में सूर्य संक्रांति नहीं होती वह अधिक मास होता है। इसी प्रकार जिस माह में दो सूर्य संक्रांति होती है वह क्षय मास कहलाता है।इन दोनों ही मासों में मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं, परंतु धर्म-कर्म के कार्य पुण्य फलदायी होते हैं। सौर वर्ष 365.2422 दिन का होता है जबकि चंद्र वर्ष 354.327 दिन का होता है। इस तरह दोनों के कैलेंडर वर्ष में 10.87 दिन का फ़कऱ् आ जाता है और तीन वर्ष में यह अंतर 1 माह का हो जाता है। इस असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास एवं क्षय मास का नियम बनाया गया है।पौराणिक ग्रंथों में अधिक मासअधिक मास कई नामों से विख्यात है - अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास। इनकी व्याख्या आवश्यक है। यह द्रष्टव्य है कि बहुत प्राचीन काल से अधिक मास निन्द्य ठहराये गए हैं।-ऐतरेय ब्राह्मण में आया है: देवों ने सोम की लता 13वें मास में खऱीदी, जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है, 13वां मास फलदायक नहीं होता।-तैतरीय संहिता में 13 वां मास संसप एवं अंहस्पति कहा गया है।-ऋग्वेद में अंहस का तात्पर्य पाप से है। यह अतिरिक्त मास है, अत: अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानों यह काल का मल है।-अथर्ववेद में मलिम्लुच आया है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है।-काठसंहिता में भी इसका उल्लेख है।-पश्चात्कालीन साहित्य में मलिम्लुच का अर्थ है चोर-अग्नि पुराण में आया है - वैदिक अग्नियों को प्रज्वलित करना, मूर्ति-प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, संकल्प के साथ वेद-पाठ, सांड़ छोडऩा (वृषोत्सर्ग), चूड़ाकरण, उपनयन, नामकरण, अभिषेक अधिमास में नहीं करना चाहिए।हेमाद्रि ने वर्जित एवं मान्य कृत्यों की लम्बी-लम्बी सूचियां दी हैं।सामान्य नियम यह है कि मलमास में नित्य कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों (कुछ विशिष्ट अवसरों पर किए जाने वाले कर्मों) को करते रहना ही चाहिए, यथा सन्ध्या, पूजा, पंचमहायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, वैश्वदेव आदि), अग्नि में हवि डालना (अग्निहोत्र के रूप में), ग्रहण-स्नान (यद्यपि यह नैमित्तिक है), अन्त्येष्टि कर्म (नैमित्तिक)। यदि शास्त्र कहता है कि यह कृत्य (यथा सोम यज्ञ) नहीं करना चाहिए तो उसे अधिमास में स्थगित कर देना चाहिए। यह भी सामान्य नियम है कि काम्य (नित्य नहीं, वह जिसे किसी फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है) कर्म नहीं करना चाहिए। कुछ अपवाद भी हैं, यथा कुछ कर्म, जो अधिमास के पूर्व ही आरम्भ हो गए हों (यथा 12 दिनों वाला प्राजापत्य प्रायश्चित, एक मास वाला चन्द्रायण व्रत), अधिमास तक भी चलाए जा सकते हैं। यदि दुभिक्ष हो, वर्षा न हो रही हो तो उसके लिए कारीरी इष्टि अधिमास में भी करना मना नहीं है, क्योंकि ऐसा न करने से हानि हो जाने की सम्भावना रहती है। ये बातें कालनिर्णय-कारिकाओं (21-24) में वर्णित हैं।पुरुषोत्तम मास नामकरण कैसे हुआहमारे पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र एवं योग के अतिरिक्त सभी मास के कोई न कोई देवता या स्वामी हैं, परंतु मलमास या अधिक मास का कोई स्वामी नहीं होता, अत: इस माह में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य, शुभ एवं पितृ कार्य वर्जित माने गए हैं।पुराण में जिक्र है कि अधिक मास अपने स्वामी के ना होने पर विष्णुलोक पहुंचे और भगवान श्रीहरि से अनुरोध किया कि सभी माह अपने स्वामियों के आधिपत्य में हैं और उनसे प्राप्त अधिकारों के कारण वे स्वतंत्र एवं निर्भय रहते हैं। एक मैं ही भाग्यहीन हूं जिसका कोई स्वामी नहीं है, अत: हे प्रभु मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाइए। अधिक मास की प्रार्थना को सुनकर श्री हरि ने कहा हे मलमास मेरे अंदर जितने भी सद्गुण हैं वह मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूं और मेरा विख्यात नाम पुरुषोत्तम मैं तुम्हें दे रहा हूं और तुम्हारा मैं ही स्वामी हूं। तभी से मलमास का नाम पुरुषोत्तम मास हो गया और भगवान श्री हरि की कृपा से ही इस मास में भगवान का कीर्तन, भजन, दान-पुण्य करने वाले मृत्यु के पश्चात् श्री हरि धाम को प्राप्त होते हैं।----
- कुश चारे के रूप में कम प्रयुक्त होने वाली दीर्घजीवी घास है, जो अमरबेल की तरह होती है। यह घास अगर जरा सी भी भूमि के अन्दर रह जाये तो वह पौधे का रूप धारण कर लेती है। पशुओं में कम लोकप्रिय कुश अध्यात्म के क्षेत्र में विशेष महत्व रखती है। यह देव, पितर, प्रेत व पूजा में समान महत्व रखती है। इसको अनामिका में धारण करने के उपरान्त ही सभी मांगलिक व अमांगलिक कार्यों में विधान पूर्ण होता है।कुश एक प्रकार का तृण है। कुश की पत्तियां नुकीली, तीखी और कड़ी होती है। धार्मिक दृष्टि से यह बहुत पवित्र समझी जाती है और इसकी चटाई पर राजा लोग भी सोते थे। वैदिक साहित्य में इसका अनेक स्थलों पर उल्लेख है। अर्थवेद में इसे क्रोध नाशक और अशुभ निवारक बताया गया है। आज भी नित्य-नैमित्तिक धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है। कुश से तेल निकाला जाता था, ऐसा कौटिल्य के उल्लेख से ज्ञात होता है। भावप्रकाश के मतानुसार कुश त्रिदोष नाशक है।पूजा आदि कर्मकांड में इंसान के अंदर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय पृथ्वी में न समा जाए, इसलिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का काम करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों से शक्ति को खत्म नहीं होने देता है। कहा जाता है कि कुश से बने आसन पर बैठकर मंत्र जाप करने से मंत्र सिद्ध होते हैं। कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झड़ते हैं। वेदों में कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि , आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया गया है।पूजा पाठ के दौरान कुश की अंगुठी बनाकर अनामिका ऊंगली में पहनने का विधान है , ताकि हाथ में संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की ऊंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति , तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकता है। कर्मकांड के दौरान यदि भूल से हाथ जमीन पर लग जाए तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका बुरा असर हमाले दिल और दिमाग पर पड़ता है।एक बार की बात है, जब भगवान् श्रीहरि ने वाराह अवतार धारण किया तब हिरण्याक्ष का वध करने के बाद जब पृथ्वी को जल से बाहर निकाला और अपने निर्धारित स्थान पर स्थापित किया। उसके बाद वाराह भगवान् ने भी पशु प्रवृत्ति के अनुसार अपने शरीर पर लगे जल को झाड़ा तब भगवान् वाराह के शरीर के रोम (बाल) पृथ्वी पर गिरे और वह कुश के रूप में बदल गये। चूँकि कुश घास की उत्पत्ति स्वयं भगवान वाराह के श्री अंगों से हुई है। अत: कुश को अत्यंत पवित्र माना गया। इसलिए किसी भी पूजन-पाठ, हवन-यज्ञ आदि कर्मो में कुश का प्रयोग किया जाता है।पंचक में मृत्यु- ऐसी मान्यता है कि यदि किसी की पंचक में मृत्यु हो जाए तो घर में पांच सदस्य मरते हैं। इसके निवाराणार्थ 5 कुश के पुतले बनाकर मृतक के साथ उनका भी अंतिम संस्कार किया जाता है।कुश ग्रन्थि माला- कुश की जड़ों से निर्मित दानों से बनी माला पापों का शमन, कलंक हटाने, प्रदूषण मुक्त करने व व्याधि का नाश करने हेतु प्रयुक्त होती है।आसन- कुश घास में बने आसन पर बैठकर पूजा करना ज्ञानवर्धक, देवानुकूल व सर्वसिद्ध दाता बनता है। इस आसन पर बैठकर ध्यान साधना करने से तन-मन से पवित्र होकर बाधाओं से सुरक्षित रहता है।धनवर्धक- कुश को लाल कपड़े में लपेटकर घर में रखने से समृद्धि बनी रहती है।ग्रहण काल में कुश का प्रयोग- मान्यता है कि ग्रहण काल से पूर्व सूतक में इसे अन्न-जल आदि में डालने से ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है।----
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
सारे शास्त्रों में अनेक स्थानों पर स्वयं भगवान ने ही यह उदघोषित किया है कि भक्त का स्थान भगवान से ऊंचा है, हमारे लिये भी और भगवान भी अपने से ऊंचा स्थान अपने भक्त को देते हैं। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज यहां एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त समझा रहे हैं कि भूलकर भी कभी संत एवं वास्तविक महापुरुष की निंदा नहीं करनी है, न मन से सोचनी है और न किसी से सुननी है। साधक समुदाय के लिये यह एक अति महत्वपूर्ण सावधानी है। आइये इस सावधानी पर उनके द्वारा कहे गये इन महत्वपूर्ण शब्दों पर विचार-मंथन करें ::::::(यहाँ से पढ़ें...)निदाम भगवत: श्रवणन तत्परस्य जनस्य वाततो नापैति य: सोपि यात्यध: सुकृताच्च्युत:..(भागवत, स्कंध 10)अर्थात् भगवान् एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, अन्यथा साधक का पतन हो जायगा, तथा उसकी सत्प्रवृत्तियाँ भी नष्ट हो जायेंगी। प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नहीं सोचता कि निंदा करने वाला निन्दनीय है या महापुरुष है। संत-निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यह ही सब अपराध अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान् के उन्मुख ही नहीं होने देते।जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध, मलाई, रबड़ी आदि खाय एवं इसके पश्चात् ही एक दिन विष (जहर) खा ले तथा मर जाय। अतएव बड़ी ही सावधानीपूर्वक सतर्क होकर हरि, हरिजन-निंदा-श्रवण से बचना चाहिए।
विष्णुस्थाने कृतं पापं गुरुस्थाने प्रमुच्यते ।गुरुस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।भगवान् के प्रति किया हुआ अपराध गुरु द्वारा क्षमा कर दिया जाता है किन्तु गुरु के प्रति किया हुआ अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं कर सकते।
(जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाभारतवर्ष में भक्ति करते तो सर्वत्र दिखाई देते हैं, भगवान का नाम यहाँ बचपन से ही सुना और गाया जाता है। किन्तु भगवान के नाम के संबंध में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है, जिसे यदि न समझा जाय तो भगवन्नाम का लाभ नहीं मिल पाता। अनेक लोगों को यह भी शंका होती होगी कि क्या जैसे संसार में सभी वस्तुओं, व्यक्तियों के नाम होते हैं, वैसे ही भगवान का नाम भी होता होगा? जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज समझा रहे हैं कि नहीं, नहीं, भगवान का नाम और संसारियों के नाम में तो सर्वथा अंतर है। आइये उनकी ही वाणी से नि:सृत इन शब्दों पर विचार करते हुये इस सत्य को जानें :::::::
(संसारी नाम और भगवान के नाम में क्या अंतर है? - यहां से पढ़ें..)...भगवान के नाम में भगवान की शक्ति है और संसारी नाम केवल नाम है। उसमें नामी (अर्थात जिसका नाम है) की शक्ति नहीं है। ये अंतर है।जहां तक माया का आधिपत्य है, वहां के समस्त पदार्थों के नाम रुप मिथ्या हैं, झूठ हैं, धोखा है, उनका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन ईश्वर का नाम और ईश्वर का रुप सत्य है। संसार के नाम परिवर्तनशील हैं और केवल व्यवहार के लिये हैं। किन्तु ईश्वर का नाम सनातन है, नित्य है, आनन्दमय, ज्ञानमय, सत्यमय और जो जो गुण ईश्वर में है, वही उनके नाम में भी है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा -नाम्नामकारि बहुधा निज सर्वशक्तिस्तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:।।(शिक्षाष्टक - 2)भगवान ने अपने नाम में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को रख दिया है। इस प्वाइंट पर ध्यान देना। भगवान ने अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को अपने नाम में रख दिया है। जबकि संसार के नाम रुप मिथ्या हैं, वहां किसी शक्ति की कल्पना भी नहीं हो सकती। भगवान का नाम और भगवान दोनों एक हैं। समुझत सरिस नाम अरु नामी । दोनों एक।क्योंकि दोनों में दोनों का नित्य निवास है, नाम में नामी और नामी में नाम। अंतर क्या हुआ? दोनों एक हो गये। चाहे कोई कहे कि पानी में दूध मिला है या दूध में पानी मिला है, दोनों एक ही बात तो है, एक परमाणु का भी अंतर नहीं है। जिस दिन इस वाणी पर कोई विश्वास कर लेगा, उस दिन भगवत्प्राप्ति के लिये कुछ करना नहीं होगा। क्योंकि वह तो प्राप्त ही है।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(संदर्भ - साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2016 अंक)सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भाद्रपद महीने में कृष्ण पक्ष के पहले दिन पितृ पक्ष मनाया जाता है और यह लगातार नए चंद्र दिवस के समय तक पंद्रह दिन तक चलता है। भाद्रपद महीने के दौरान पडऩे वाली अमावस्या को अश्विन अमावस्या या महालय अमावस्या कहा जाता है जो दुर्गा पूजा के उत्सव की शुरुआत का प्रतीक है। यह अमावस्या ज्ञात-अज्ञात पितरों के श्राद्ध का दिन होता है।इसे पंद्रह दिनों के पितृ पक्ष की पूरी अवधि के दौरान सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक माना जाता है। इस दिन, लोग अपने पितरों या पूर्वजों को स्मरण करते हैं और उन्हें अपने वारिसों के लिए जो भी किया है, उसके लिए भी उनका धन्यवाद करते हैं। इस साल पितृ पक्ष का अंतिम दिन अश्विन अमावस्या 17 सितंबर को है। जानिए इस दिन का महत्व-आश्विन अमावस्या का महत्वअश्विन अमावस्या अनुष्ठानों का उच्च महत्व होता है क्योंकि पर्यवेक्षकों को दैवीय आशीर्वाद, अच्छा भाग्य और अत्यधिक समृद्धि प्राप्त होती है।पर्यवेक्षकों भगवान यम का दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और परिवार के सदस्यों को किसी भी तरह की बुराइयों या बाधाओं से बचाने का आग्रह करते हैं।इस आध्यात्मिक दिन पर, ऐसा माना जाता है कि पूर्वज पर्यवेक्षकों के स्थानों पर जाते हैं और यदि सभी श्राद्ध अनुष्ठान नहीं किए जाते हैं तो वे अप्र्रसन्नतापूर्वक वापस चले जाते हैं। इसलिए, उन्हें खुश करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए भोजन और पानी के साथ उनकी प्रार्थना करना महत्वपूर्ण होता है।ज्योतिष विज्ञान के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि पूर्वजों के पिछले पाप या गलत कर्म पितृ दोष के नाम पर उनके बच्चों की कुंडली में परिलक्षित होते हैं। और इसके कारण, बच्चे अपने जीवनकाल में बहुत बुरे अनुभव भुगतते हैं। अनुष्ठानों को पालन करके, इन दोषों को दूर किया जा सकता है और पूर्वजों का आशीर्वाद भी प्राप्त किया जा सकता है।अश्विन अमावस्या के लाभ-यह भगवान यम का आशीर्वाद प्राप्त करने में मदद करता है।-पर्यवेक्षकों का परिवार अपने जीवन में सभी प्रकार के पापों और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।-यह पूर्वजों की आत्माओं को मुक्ति देने में मदद करता है और मोक्ष प्राप्त करने में सहायक होता है।-यह बच्चों को एक समृद्ध और लंबे जीवन का आशीर्वाद देता है।अश्विन अमावस्या के अनुष्ठानअश्विन अमावस्या की संध्या पर, मृत पूर्वजों के लिए श्राद्ध अनुष्ठान और तर्पण किया जाता है। इस विशेष दिन, व्यक्ति सुबह जल्दी उठते हैं और सुबह के सभी अनुष्ठान करते हैं। लोग पीले रंग के कपड़े पहनते हैं और ब्राह्मणों को भोजन और कपड़े देते हैं और दान भी करते हैं।आमतौर पर, श्राद्ध समारोह परिवार के सबसे वरिष्ठ पुरुष सदस्य द्वारा किया जाता है। पर्यवेक्षकों द्वारा ब्राह्मणों के चरणों को धोया जाता है और उन्हें पवित्र स्थान पर बैठाया जाता है। लोग फूलों, दीयों और धूप की पेशकश करके अपने पूर्वजों की पूजा और प्रार्थना करते हैं।पूर्वजों को खुश करने के लिए उन्हें जौ और पानी का मिश्रण भी पेश किया जाता है। इसके बाद पर्यवेक्षक अपने दाहिने कंधे पर एक पवित्र धागा पहनता है। पूजा अनुष्ठानों के समाप्त होने के बाद, ब्राह्मणों को विशेष भोजन परोसा जाता है। जहां ब्राह्मण बैठे हैं वहां पर्यवेक्षक तिल के बीज भी छिड़कते हैं।पितरों या पूर्वजों का आशीर्वाद पाने के लिए निरंतर मंत्रों को पढ़ा जाता है। पर्यवेक्षक उन पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं जिन्होंने उनके जीवन के लिए बहुत योगदान दिया है और माफी मांगते हैं और उनके उद्धार और शांति के लिए प्रार्थना भी करते हैं।अमावस्या व्रत के दिनहिंदू कैलेंडर के अनुसार, चैत्र माह (मार्च-अप्रैल) से शुरू होने वाले पुरे वर्ष में 12 अमावस्या होता है। यहां आश्विन अमावस्या के अलावा अमावस्या के दिनों की सूची दी गई है।चैत्र अमावस्या, वैशाख अमावस्या, ज्येष्ठ अमावस्या, आषाढ़ अमावस्या , श्रावण अमावस्या, भाद्रपद अमावस्या, पिथौरी अमावस्या, आश्विन अमावस्या, सर्व पितृ अमावस्या, सर्वपितृ दर्श अमावस्या, कार्तिक अमावस्या, दिवाली, लक्ष्मी पूजा, मार्गशीर्ष अमावस्या, पौष अमावस्या, माघ अमावस्या, मौनी अमावस, फाल्गुन अमावस्या।यदि अमावस्या सोमवार के दिन पड़ती है तो सोमवती अमावस्या कहलाती है।----
- (जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा, दूसरा भाग)विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग में समन्वयवादी जगद्गुरु हुये हैं। इनके पूर्व हुए चारों मूल जगदगुरुओं ने किसी न किसी वाद की स्थापना की। आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी ने अद्वैतवाद, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य जी ने द्वैताद्वैतवाद तथा जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य जी ने द्वैतवाद की स्थापना की। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने पूर्ववर्ती समस्त मूल जगदगुरुओं के वादों का समन्वय किया।इसके अलावा आज सम्पूर्ण विश्व में ग्यारह धर्म चल रहे हैं - हिन्दू वैदिक धर्म, जैन, बौद्ध, ईसाई, सिक्ख, इस्लाम, यहूदी, पारसी, ताओ और कन्फ्यूशियस तथा शिन्तो धर्म। जीवात्मा के परम चरम लक्ष्य आनंदप्राप्ति के साधनों में इन सब में विरोधाभास सा है। एक ही धर्म में भी विरोधी बातें हैं। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इन सब विरोधाभासों को दूर करके, सभी धर्मों का सम्मान करते हुये ऐसा मार्ग बताते हैं, जो सार्वभौमिक है।जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अन्य बहुत सी ऐसी विशेषताएं हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं, अर्थात कुछ विशिष्ट घटनायें समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के इतिहास में इनके ही जीवन में पहली बार घटित हुई हैं। संक्षेप में, वे इस प्रकार हैं -(1) ये पहले जगद्गुरु हैं जिनका कोई गुरु नहीं है और वे स्वयं जगद्गुरुत्तम हैं।(2) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने एक भी शिष्य नहीं बनाया किन्तु जिनके लाखों अनुयायी हैं।(3) ये पहले जगद्गुरु हैं जिनके जीवन काल में ही जगद्गुरुत्तम उपाधि की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई गई हो, वर्ष 2007 में।(4) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने ज्ञान एवं भक्ति दोनों में सर्वोच्चता प्राप्त की व दोनों का मुक्तहस्त दान किया।(5) ये पहले जगद्गुरु हैं जो समुद्र पार, विदेशों में प्रचारार्थ गये।(6) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने पूरे विश्व में श्री राधाकृष्ण की माधुर्य भक्ति का धुआंधार प्रचार किया एवं सुमधुर राधा नाम को विश्वव्यापी बना दिया।(7) सभी महान संतों ने मन से ईश्वर भक्ति की बात बतायी है, जिसे ध्यान, सुमिरन, स्मरण या मेडीटेशन आदि नामों से बताया गया है। श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रुपध्यान नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान की सार्थकता तभी है जब हम भगवान के किसी मनोवांछित रुप का चयन करके उस रुप पर ही मन को टिकाये रहें। मन को भगवान के किसी एक रुप पर न टिकाने से मन यत्र-तत्र संसार में ही भागता रहेगा। भगवान को तो देखा नहीं तो फिर उनके रुप का ध्यान कैसे किया जाय, उसका क्या विज्ञान है, उसका अभ्यास कैसे करना है, आदि बातों को भक्तिरसामृतसिंधु, नारद भक्ति सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ 'प्रेम रस सिद्धान्त' ग्रन्थ में बड़े स्पष्ट रुप से समझाया है।(8) ये पहले जगद्गुरु हैं जो 93 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि प्रमाणों के नम्बर इतनी तेज गति से बोलते थे कि श्रोताओं को स्वीकार करना पड़ता था कि ये श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ के मूर्तिमान स्वरुप हैं।महापुरुषों की महिमा बता सकने में तो स्वयं भगवान भी अपने को असमर्थ पाते हैं, तब मायिक बुद्धि भला क्या कह अथवा लिख सकेगी? तथापि कुछ गुणों तथा माहात्म्य की ओर ध्यानाकर्षण इसलिये आवश्यक है ताकि हमारा मन उन महापुरुषों के प्रति श्रद्धानवत हो। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदत्त 'जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' इस आधुनिक विश्व के लिये ऐसी दिव्यौषधि है, जिसका पान करके निश्चय ही भगवान की मोहमयी माया के इस संसार के प्रपंच से बचा जा सकता है तथा उस दिव्य प्रेमानन्द, सेवानन्द का परमातिपरम सौभाग्य सहज ही पाया जा सकता है।(संदर्भ- भगवतत्त्व, जगदगुरुत्तम तथा साधन साध्य पत्रिकायें)सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- (जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा , यहां से पढ़ें..)
यह सत्य ही है,
जो समझा दे श्रुति सार, उर भरा प्रेम रिझवार ।सोइ है सद्गुरु सरकार, गुरु सोइ कृपालु सरकार ।।अकारण करुणा के स्वरुप भगवान् और महापुरुष जीवों के कल्याण हेतु ही अवतार लेते हैं क्योंकि वे परोपकार के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते। 'बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं सन्ता । हरि कृपा से ही श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष का सान्निध्य प्राप्त होता है।लगभग 5000 वर्ष पूर्व, आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा अर्थात शरद पूर्णिमा की रात्रि में श्री कृष्ण ने गोपियों को महारास का रस दिया था और इसी दिन सन् 1922 की आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) को रस सिंधु भक्तियोगरसावतार विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज का आविर्भाव एक विशिष्ट उच्च ब्राम्हण परिवार में हुआ। विश्व भर में आज यह शुभ दिन जगद्गुरुत्तम-जयंती के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज की 98 वीं जगद्गुरुत्तम-जयंती होगी।उनका जन्म भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश, प्रतापगढ़ जिला, तहसील कुण्डा स्थित मनगढ़ नामक ग्राम में सर्वोच्च ब्राम्हण कुल में मां भगवती जी की गोद में हुआ। मनगढ़ धाम भगवदीय गुणों से संपन्न एक ऐसी दिव्य लीलास्थली है जिसके कण कण में अविरल दिव्य प्रेम रस की मधुर धारा अहर्निश प्रवाहित होती रहती है। आज यह ग्राम भक्तिधाम के नाम से सुप्रसिद्ध है।श्री महाराज जी (श्री कृपालु जी महाराज) की प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ एवं कुण्डा में संपन्न हुई। पश्चात् आपने इंदौर, चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण, साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया। 16 वर्ष की आयु में ही चित्रकूट के शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ जंगलों एवं वृन्दावन के निकट जंगलों में गुप्तवास किया। तदन्तर भक्तजनों के अति आग्रह करने पर आपने जीव-कल्याणार्थ श्री राधाकृष्ण भक्ति का प्रचार प्रारम्भ कर दिया।जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में आपने चित्रकूट में एक विराट दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें काशी आदि स्थानों के अनेक विद्वान एवं समस्त जगद्गुरु भी सम्मिलित हुए। सन् 1956 में ऐसा ही एक विराट संत सम्मेलन आपने कानपुर में आयोजित किया। आपके समस्त वेदों शास्त्रों के अद्वितीय असाधारण ज्ञान से वहां उपस्थित काशी विद्वत् परिषत (भारत के शीर्षस्थ 500 मूर्धन्य शास्त्रज्ञ विद्वानों की एकमात्र सभा) के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण शुक्ल षट्शास्त्री ने काशी आने का निमंत्रण दिया। वहां श्री कृपालु जी के कठिन संस्कृत में दिए गए विलक्षण प्रवचन एवं भक्ति से ओतप्रोत अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर सभी विद्वान स्तंभित रह गए। तब सबने एकमत होकर आपको पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि श्री कृपालु जी महाराज जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम हैं।...धन्यो मान्य जगद्गुरुत्तमपदै: सोयं समभ्यच-र्यते( काशी विद्वत् परिषत द्वारा दिए गए पद्यप्रसूनोपहार में)यह ऐतिहासिक घटना 14 जनवरी 1957 की मकर संक्रांति को हुई। उस समय श्री महाराज जी की आयु 34 वर्ष की थी। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पाँचवें मूल जगद्गुरुत्तम् हैं। उनके पूर्व केवल 4 महापुरुषों को ही मूल जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई थी - आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य एवं जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य।पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं एवं आचार्यों के दार्शनिक सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना समन्वयवादी दार्शनिक सिद्धांत प्रस्तुत करने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को काशी विद्वत् परिषत् ने निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से भी विभूषित किया तथा उन्हें भक्तियोगरसावतार की उपाधि भी प्रदान की। उन्होंने समस्त जगत के प्रेमपिपासु जनों को भगवान श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च भक्ति महारास-रस अथवा गोपीप्रेम का सिद्धान्त प्रदान कर उन्हें इस प्रेम-माधुर्य की रसवृष्टि से सराबोर किया। अगनित विरोधाभासों का समन्वय करते हुये वेदों के विकृत हो चुके स्वरुप को पुन: प्रतिष्ठित किया तथा सामान्य जनमानस के जीवन के लिये आध्यात्म-पथ का सुगम, व्यवहारिक मार्ग सुझाया, जिसमें गृहस्थ में रहकर भी साधना करते हुये भी भगवान को प्राप्त कर सकने का मार्गदर्शन है।यहां तक का जो भी परिचय है वह विलक्षण व दिव्य होते हुए भी सामान्य लग सकता है। उनके परिचय के कुछ अंश प्रस्तुत करने के बाद लगता है कि परिचय अभी प्रारम्भ ही नहीं हुआ। उनकी भगवद्-प्रतिभा और उनके स्वरुप की वास्तविकता और महिमा को कौन सी बुद्धि नाप सकती है?समस्त विश्व उनके द्वारा दिए गए अद्वितीय और अनुपम उपहारों के लिए युग-युगान्तर तक ऋणी ही रहेगा.ल। श्रीवृन्दावन स्थित दिव्य श्री प्रेम मंदिर, रँगीली-महल बरसाना धाम स्थित श्री कीर्ति मैया मंदिर तथा भक्तिधाम मनगढ़ स्थित श्री भक्ति मंदिर युगों-युगों तक भक्ति, प्रेम, आध्यात्म तथा सनातन वैदिक परंपरा के अद्वितीय संवाहक, स्तम्भ तथा धुरी-ध्वजा रहेंगे। इस वर्ष जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की 98 वीं जयंती होगी। इस अवसर पर इस जगद्गुरुत्तम-जयंती श्रृंखला में हम उनकी महिमा को थोड़ा गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। वास्तव में उनकी महिमा को तो उनकी कृपा ही जना सकती है.... यथा, सोइ जानइ जेहि देहु जनाइ ...उनकी अवतारगाथा की श्रृंखला के लेख प्रत्येक सोमवार तथा मंगलवार को सुधि-पाठकजनों के मध्य प्रकाशित की जायेगी, आशा है कि श्रद्धालु तथा भावुक हृदय के आप सभी प्रेमीजन इन लेखों से किंचित लाभ प्राप्तकर इस युग के जगदगुरुत्तम के पावन चरित तथा उनके अवतार के महोद्देश्य से परिचित होंगे।(संदर्भ - जगद्गुरु कृपालु परिषत से प्रकाशित; 'भगवतत्त्व', जगदगुरुत्तम तथा साधन-साध्य पत्रिकायें)सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज से साधकों द्वारा पूछे गये प्रश्नों में से यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। शायद यह प्रत्येक साधक अपने जीवन में अनुभव करता है। किंतु इसके उत्तर में कृपालु महाप्रभु जी यह संकेत दे रहे हैं कि साधक को अपने मन को खराब नहीं करना चाहिये और यह समझे रहना चाहिये कि संस्कारवश होकर ही लोग भक्तिविषयक चीजों के प्रति खींचते अथवा दूर रहते हैं। यह भी संकेत देते हैं कि शरणागत अनुयायी जब लापरवाह बन जाय तो गुरु को दु:ख होता है। इन बातों को हृदय में रखकर आइये उनके द्वारा प्रदत्त उत्तर पर हम चिंतन करें ::::::::(जब शरणागत गड़बड़ करे तो गुरु को दु:ख होता है...)साधक द्वारा पूछा गया प्रश्न - महाराज जी ! हम लोग लोगों को सिद्धांत समझाते हैं कि भगवान् की ओर चलो. अच्छे-अच्छे हमारे रिश्तेदार, हमारे दोस्त वो बात नही समझते और हम दु:खी हो जाते हैं। लेकिन महापुरुष पूरी लाइफ समझाता रहता है तो लोग कितने समझते हैं. तो क्या वो महापुरुष दु:खी होता है, उनको भी परेशानी होती है क्या?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिया गया उत्तर - जैसी परेशानी मायाबद्ध को होती है, ऐसी परेशानी उनको नहीं होती। मायाबद्ध को तो ऐसा है कि उसने कुछ अपमानजनक बात जवाब में कह दिया बजाय मानने के और उल्टा भगवान् के खिलाफ ही बोल दिया कुछ तो दु:खी होता है गृहस्थी आदमी। फील करता है और द्वेष बुद्धि होने लगती है उसकी उसके प्रति। महापुरुष को ये सब कुछ नहीं। वो समझ लेता है कि संस्कार नहीं है इसके। ये यह नहीं समझ रहा है। हो सकता है भविष्य में समझे। वो उदासीन रहते हैं। उसका अपना जन (साधक) जो शरणागत हो रहा है फिफ्टी परसेंट शरणागत हो रहा है और वो गड़बड़ करता है तो दु:खी होते हैं। जैसे पड़ोसी का बेटा बीमार है तो पड़ोसी दु:खी नहीं होता। उसका अपना बेटा बीमार होता है तब दु:खी होता है।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु जी से साधकों के प्रश्नोत्तर पर आधारित, क्रद्गद्घ. प्रश्नोत्तरी पुस्तक, भाग 2, पृष्ठ 157, प्रश्न संख्या 50)सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनबहुधा भक्तिमार्ग में जब हम कदम रखते हैं और कुछ उन्नति करने लगते हैं तो स्वभाववश कुछ असावधानी से अपने भीतर अपनी साधना के अभिमान का अंकुर फूट पड़ता है और यदा-कदा हम किसी नास्तिक को देखकर उसे अभागा समझकर उसका अपमान भी कर बैठते हैं। यह अभिमान भक्ति का घोर विरोधी है। इससे भक्ति की हानि होती है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस संबंध में साधक समुदाय को संबोधित करते हुये बहुत महत्वपूर्ण सलाह दे रहे हैं, आइये उनके शब्दों द्वारा इसे समझें ::::::::
(साधक को अपनी साधना के मिथ्याभिमान से सदा बचना है!!..)..किसी नास्तिक को देखकर यह मिथ्याभिमान भी न करना चाहिए कि यह तो कुछ नहीं जानता, मैं तो बहुत आगे बढ़ चुका हूँ. क्योंकि बड़े से बड़े घोर नास्तिक भी कभी-कभी इतना आगे बढ़ जाते हैं कि बड़े-बड़े साधकों के भी कान काट लेते हैं. यह सब विशेषकर पूर्व जन्म के संस्कारों के द्वारा ही हो जाता है. तुम किसी के संस्कारों को क्या जानो, अतएव सभी जीव गुप्त या प्रकट रूप से भगवत्कृपाप्राप्त हैं ऐसा समझकर किसी को भी घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए; किन्तु इतना अवश्य है कि संग उन्हीं का करना चाहिए जिनके द्वारा हमारी साधना में वृद्धि हो..
किसी भी दशा में तुम गोविन्द राधे,हरि विमुखों का संग करो ना बता दे..(प्रवचनकर्ता -जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)(संदर्भ/स्त्रोत -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य)(सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनप्रत्येक जीव श्रीकृष्णचन्द्र का अंश है और अंश होने के नाते वह श्रीकृष्ण का सेवक है। श्रीकृष्ण का दासत्व ही उसका धर्म है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अनेक स्थानों पर गीता के उस श्लोक के व्याख्या की है जिसमें जीव के 3 कर्तव्य बतलाये गये हैं जो गुरु के पास जाकर उसे करने होते हैं। गुरु आध्यात्मिक पथ पर चलने का आधार है। इस श्लोक में तीनों कर्तव्यों में जो सर्वप्रमुख कर्तव्य है, करणीय है उसके संबंध में श्री कृपालु महाप्रभु जी क्या कहते हैं, आइये उनके द्वारा नि:सृत प्रवचन के इस अंश से समझने की चेष्टा करें :::::::(यह याद रहे कि अंतिम लक्ष्य भगवत्सेवा ही है...)..सेवा में शरीर भी काम देता है और धन भी काम देता है। दोनों का फल मिलता है। अब किसी को समय कम है तो धन से सेवा करता है, किसी के पास शरीर है स्वस्थ, और समय है तो शरीर से भी सेवा करता है। अब किसी के पास धन भी नहीं है, और शरीर भी नहीं दे सकता वो, खाली नहीं है, गृहस्थ में है, तो मन से सेवा करता है केवल। तीनों आवश्यक है, जिसकी जैसी परिस्थिति हो, वैसा करे। लेकिन अंतिम गति सेवा ही है।भगवत्प्राप्ति के बाद गोलोक (भगवद्धाम) में भी दिव्य प्रेम मिलने के बाद भी सेवा ही अंतिम लक्ष्य है। और प्रारम्भ में भी शास्त्रों ने बताया है -तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। (गीता)गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा कि गुरु की शरण में जाओ तो पहले मन को शरणागत करो, बुद्धि को, उनकी आज्ञा मानो और परिप्रश्नेन, जिज्ञासु भाव से समझो फिलॉसफी, क्या करना है, क्यों करना है, क्या लक्ष्य है, कैसे मिलेगा और सेवया, और सेवा करो। ये तीनों चीजें बताई प्रारम्भ में भी और अंत में तो सेवा है ही है। लेकिन हर एक की परिस्थिति अलग-अलग होती है। इसलिये सबके लिये अलग-अलग नियम बता दिया है। जो तन, मन, धन तीनों से कर सके अत्युत्तम है, नहीं तीन से कर सकता दो से करे, मन और धन से। और दो भी नहीं कर सकता है तो मन से तो सबको करना ही चाहिये। वो मन तो हर एक के पास है।(प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(प्रवचन सन्दर्भ- अध्यात्म संदेश पत्रिका, अक्टूबर 2006 अंक)(सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
- -जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु प्रदत्त प्रेमोपहारविश्व में पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम के पद से विभूषित जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज से आज कौन परिचित नहीं है!! समस्त विश्व जहाँ उनके द्वारा प्रकटित अलौकिक वैदिक दर्शन को पाकर धन्य हो रहा है, वहीं उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये सामाजिक सेवाओं के द्वारा भी लाभान्वित हो रहा है। भक्तियोग रस के अवतार तथा निखिल दर्शनों के समन्वयाचार्य श्री कृपालु जी महाराज का व्यक्तित्व विश्व के लिए आश्चर्यजनक ही रहा है, उन्होंने ज्ञान, कर्म तथा भक्ति - इन सभी क्षेत्रों में सर्वोच्चता प्राप्त की थी। उन्होंने अपने भीतर छिपे ज्ञान तथा प्रेम के अथाह समुद्र से समस्त चराचर को परिप्लुत कर दिया। सनातन वैदिक परम्परा के अद्वितीय स्तम्भ स्वरुप उन्होंने कुछ प्रेमोपहार इस विश्व को दिये हैं। यथा प्रेम मंदिर, कीर्ति मंदिर तथा भक्ति मंदिर। आज हम इसी कड़ी में श्रीवृन्दावन धाम स्थित प्रेम मंदिर के विषय में जानेंगे जो कि स्वयं मूर्तिमान प्रेम का ही मानो साकार स्वरुप है। यह मंदिर युगों-युगों तक भक्ति तथा प्रेम की ध्रुव-ध्वजा रहेगा::::::::श्री प्रेम मंदिर, श्रीधाम वृन्दावन(जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु प्रदत्त प्रेमोपहार)0 शिलान्यास समारोह - 14 जनवरी 20010 कलश स्थापना - 15 सितंबर 20100 उद्घाटन समारोह - 15-17 फरवरी 2012प्रेम मंदिर के उदघाटन समारोह पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इसके नाम के सम्बन्ध में यह कहा था -...अधिकांश मंदिरों का नाम भगवान् के विभिन्न स्वरूपों पर आधारित होता है, जैसे - श्री राधाकृष्ण मंदिर, श्री राम मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, हनुमान मंदिर इत्यादि। किन्तु मैंने इसका नाम प्रेम मंदिर इसलिए रखा है कि यद्यपि भगवान सबसे बड़े हैं लेकिन प्रेम ऐसा तत्व है जिसके आधीन भगवान् हो जाते हैं, इसलिए मुख्य द्वार पर मैंने यह दोहा लिखवा दिया -
प्रेमाधीन ब्रम्ह श्याम वेद ने बताया, याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया'...प्रेम मंदिर से संबंधित कुछ बातें -(1) प्रेम मंदिर का सम्पूर्ण परिसर 54 एकड़ क्षेत्रफल में फैला है जो मनमोहक उद्यानों, फव्वारों, श्री राधाकृष्ण की मनोहर झांकियों; यथा श्री गोवर्धनधारण लीला, कालिया नाग दमन लीला, झूलन लीला आदि से सुसज्जित है।(2) नागरादि शैली में निर्मित दो मंजिला प्रेम मंदिर गोलोक और साकेत लोक, वृन्दावन और अयोध्या का सुनहरा संगम है अर्थात् मंदिर भूतल पर जहाँ वृन्दावन बिहारी श्री यादवेन्द्र सरकार श्रीकृष्ण अपनी ह्लादिनी शक्ति प्रेमतत्व की सारभूत स्वरूपा नित्य निकुंजेश्वरी वृषभानुनंदिनी श्री राधिका एवं परमप्रिय अष्ट-महासखियों के साथ नित्य निवास करते हैं। ये अष्ट महासखियां प्रत्येक जीव को प्रेरित करती हैं कि वो अपने नित्य दासत्व को पाने के लिए दासानुदास बनकर प्रेम याचना करे। दूसरी ओर प्रथम तल पर साकेत बिहारी श्री राघवेंद्र सरकार जगज्जननी जनकनंदिनी माँ सीता सहित भक्तों को दर्शन प्रदान करती हैं।(3) मंदिर के भूतल पर निर्मित भव्य मंडप के दक्षिण दिशा में निर्मित एक छोटे आकर्षक मंदिर में भक्तों के विशेष आग्रह पर, अत्यधिक विनय करने पर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने स्वरुप को प्रतिष्ठापित करने की अनुमति प्रदान की। उत्तर दिशा में निर्मित मंदिर में श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रवक्ता श्री शुकदेव परमहंस विराजमान हैं। दूसरी ओर दक्षिण दिशा में श्री कृपालु जी महाराज को भागवत के विस्तृत अर्थों को लिखते हुए चलमूर्ति के रुप में दर्शाया गया है। श्री कृपालु जी महाराज का सम्पूर्ण साहित्य श्रीमद्भागवत महापुराण की सरलातिसरल व्याख्या ही है।(4) प्रथम तल पर मंडप के उत्तर दिशा में चारों पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं एवं ब्रजरस रसिकों यथा श्री वल्लभाचार्य जी, श्री जीवगोस्वामी जी, स्वामी श्री हरिदास जी एवं श्री हितहरिवंश जी विद्यमान हैं। दक्षिण दिशा में प्रेमावतार श्री गौरांग महाप्रभु जी की लीलाओं का सुन्दर चित्रण किया गया है।(5) सम्पूर्ण मंदिर की भव्यता, सुंदरता, पच्चीकारी, नक्काशी, स्तंभों पर गढ़ी मूर्तियाँ, दीवारों पर उभारी गई विभिन्न झाँकियों व लीलाओं के दृश्य हैं। स्थान स्थान पर दीवारों पर मूल्यवान पत्थर से उकारे गए श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित प्रेम रस मदिरा के विभिन्न पद, रसिया व राधा गोविंद गीत आदि ग्रंथों के दोहे, श्यामा श्याम की रागानुगा भक्ति का मूर्तिमान स्वरुप दर्शाते हैं।(6) सम्पूर्ण वैदिक दर्शन का ज्ञान कराने वाली जगद्गुरु कृपालु महाराज द्वारा विरचित कृपालु त्रयोदशी एवं ब्रजरस त्रयोदशी को मूल्यवान जड़ाऊ पत्थरों की पच्चीकारी द्वारा गर्भगृह द्वार के दोनों ओर की दीवारों पर उकेरा गया है।(7) अन्य निर्माण विशेषताओं की बात करें तो प्रेम मंदिर के निर्माण में 30 हजार टन आयातीत इटालियन करारा मार्बल का प्रयोग किया गया है। यह विश्व का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसके निर्माण में ठोस इटालियन मार्बल का प्रयोग किया गया है।(8) 4 फुट ऊंचे, 190 फुट लम्बे व 128 फुट चौड़े विशाल सिंहासन पर विराजमान है - शुभ्र वर्ण प्रेम मंदिर। इसका 20 फुट ऊंचा भूमितल, 18 फुट ऊँचा प्रथम तल, 115 फुट ऊंचा शिखर है। ध्वजा सहित प्रेम मंदिर की ऊंचाई 125 फुट है। गर्भगृह की दीवारें 8 फुट चौड़ी हैं जिसके कारण यह विशाल मंदिर शिखर, स्वर्ण कलश व ध्वजा का भार सरलता से वहन कर रही है।(9) प्रेम मंदिर के 54 नक्काशीदार स्तम्भ मानों भुजा उठाकर भक्ति, भक्त व भगवान् की निरंतर जय जयकार करते रहते हैं। इन कला मंडित स्तंभों पर किंकरी और मंजरी सखियों के विग्रह बनाये गए हैं।(10) मंदिर परिसर पर दूर से ही प्रथम दृष्टि पड़ते ही ध्वजा सहित 125 फुट ऊंचे शिखर के दर्शन होते हैं उसके नीचे 53 फुट ऊंचा गुम्बदाकार मंडप सामरन, उसके दोनों ओर दो बड़े व चार छोटे गुम्बदाकार सामरन हैं तथा भूमि तल व प्रथम तल के दो सामरन मिलकर एक नक्काशीदार उज्ज्वल दिव्य पर्वत श्रृंखला का आभास देते हैं। मंदिर के निर्माण में कहीं भी लोहे या इस्पात का प्रयोग नहीं किया गया है।मंदिर निर्माण के कारीगर यद्यपि मंदिर निर्माण की शिल्पकला, वास्तुकला, कारीगरी, नक्काशी के मर्मज्ञ रहे हैं किन्तु प्रेम मंदिर निर्माण के समय यही अनुभव हुआ कि श्री राधा रानी की कृपा शक्ति ही स्वयं कार्य करा रही है। कितनी समस्याएं आईं किन्तु जब श्री कृपालु जी महाराज के पास कोई भी समस्या जाती वह प्रत्युत्तर में केवल मुस्कुरा देते। लेकिन उस मुस्कान से ही उन्हें ऐसी शक्ति मिल जाती कि तुरंत समस्याओं का समाधान तो हो ही जाता, साथ ही ऐसा लगता वे स्वयं हमारे मस्तिष्क में बैठकर ड्राइंग बनवा रहे हैं और युक्ति सुझा रहे हैं।दिव्य प्रेम तत्व को प्रकाशित करने के लिए जिन्होंने 'प्रेम मंदिर' नाम से भव्यातिभव्य दिव्योपहार श्री वृन्दावन धाम की समर्पित किया है ऐसे श्री प्रिया प्रियतम के प्रेम रस रसिक गुरुवर कृपावतार जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु को कोटि कोटि प्रणाम !!(लेख संदर्भ/स्त्रोत -साधन-साध्य पत्रिका, प्रेम-मंदिर विशेषांकसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलावस्तुत: भक्ति अथवा साधना के पथ पर चलते चलते साधक बहुधा अनेक बाधाओं में फंस जाता है, जिससे उसकी साधना की गति रुक जाती है, बदल जाती है और खतरा यह भी है कि वह उस मार्ग से ही च्युत हो सकता है। यूं तो साधना मार्ग में अनेक ऐसी बाधाएं हैं किंतु एक सबसे बड़ी बाधा अथवा लापरवाही, जो न जाने कब साधक को अपने चंगुल में जकड़ लेती है, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से हम सभी उसे समझें और अपनी साधना को इस भयंकर व्याधि से बचाकर चलें ::::::::(यहाँ से पढ़ें....)परदोष दर्शन और स्वगुण बखान के कारण साधक साधना करके भी अपने लक्ष्य से कोसों दूर ही बने रहते हैं। साधना का कोई फल उन्हें प्राप्त नहीं होता, उल्टा हानि होती है। स्वयं में आध्यात्मिक प्रगति न पाकर साधकों की निराशा बढऩे लगती है। उससे कई तरह के अपराध होने लगते हैं। इतना ही नहीं , उसकी श्रद्धा हरि-गुरु के प्रति भी डगमगाने लगती है और उनके अपने मन में सर्वस्व हरि-गुरु के प्रति भी गलत विचार आने लगते हैं, जिसे शास्त्रों-वेदों में नामापराध कहा गया है। यह सबसे बड़ा पाप है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। इससे तो पुन: गुरु ही उबार सकता है हम पर अहैतुकी कृपा करके। परदोष दर्शन से दो हानि होती है - एक तो वह दोष हमारे मन में आएगा, दूसरा इसके साथ हममें अहंकार भी आएगा। मन से ही तो दोष का चिन्तन करोगे न! तो वह मन में आएगा और मन को और गंदा करेगा। उसका दोष तो जाएगा नहीं, उल्टे तुम और दोषी हो जाओगे।किसी की गंदगी को अपने अंदर डाल लेने से तो तुम्हारा मन और गंदा ही होगा। तो मन से यदि दूसरे का दोष देखेंगे तो हम सदोष हो जाएंगे। अनन्त जन्मों में अनन्त अपराध हम लोगों ने किए हैं , इसलिए ऐसे ही क्या कम सदोष हैं हम जीव? और ऊपर से और दूसरे का दोष मन में लाकर इसे और गंदा ही किए जा रहे हैं, अरे हमको तो अपने अन्त:करण को शुद्ध करना है और हम उल्टा किये जा रहे हैं।दूसरे में दोष देखने से अपने में अहंकार आयेगा। ऐसे ही कम अहंकार है क्या? यही अहंकार ही तो हमे चौरासी लाख में घुमा रहा है। इसलिए सावधानी परमावश्यक है। यदि हम सावधान न रहे तो ये दोनों ही दोष हमारे अंदर बलवान होते चले जायेंगे।नम्बर तीन, हम इसी प्रकार अगर अपने में गुण देखेंगें, तो अपने में दोष नहीं दिखाई पड़ेगा। साधना तो हम करेंगें, किन्तु हम इसके साथ यह भी करेंगें चोरी-चोरी, हमने इतना कीर्तन किया, इतना भजन किया, इतना दान किया। स्व-प्रशंसा की तुष्टि हेतु हम बारम्बार इसकी आवृत्ति करेंगें और हमें इसकी आदत पड़ जाएगी। बिना बताये चैन नहीं। हमें अपनी साधना का अहंकार हो जाएगा। दिन-रात इसी में व्यस्त रहेंगें, साधकों के दोष नही जाएँगे क्योकि भगवान के चिन्तन का हमारे पास समय ही कहां होगा!हम तो गुणों का चिन्तन कर रहें है अपने। लोगों से बस यही कहते फिर रहें हैं। इसलिए यह गांठ बांधकर मन में बैठा लो की परमार्थ का जो भी काम करो, उसमे यह समझो कि यह भगवान और गुरु की कृपा ने करा लिया मुझसे। वरना मैं करता भला! अरे हमारे कितने भाई - बहन संसार में हैं! वे क्या कर रहें हैं? पूरे संसार का चिन्तन। उसी में चौबीसों घंटे लगे हैं। मां, पिता, बेटा, बीवी, पैसा , सम्मान, सब उसी के चक्कर में लगे हैं। पता नहीं हमारे ऊपर क्या कृपा हो गई भगवान और गुरु की, कि हमको तत्त्वज्ञान हो गया। यह चिन्तन हो, उसमें भगवत्वकृपा मानो। परदोष दर्शन के स्थान पर अपने दोषों को दूर करने का सोचो हरदम, तो फिर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ोगे भगवत-क्षेत्र में।(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज विस्तृत प्रवचन श्रृंखलाभगवान के प्रिय पार्षद भक्ति के आचार्य देवर्षि नारद जी ने 84 सूत्रों का एक दर्शन दिया है, जिसे नारद-भक्ति-दर्शन अथवा नारद-भक्ति-सूत्र के नाम से जाना जाता है। यह दर्शन भक्ति-तत्व की बड़ी गूढ़ तथा सम्पूर्ण व्याख्या करता है, जिसमें 84 छोटे-छोटे सूत्र हैं। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस पर एक विस्तृत प्रवचन दिया है, जिसमें उन्होंने उन सूत्रों की बड़ी विशद विवेचना कर उसे और अधिक सरलतम रुप में जीवों के समक्ष रखा ताकि वे उसके द्वारा भक्तिमार्ग अथवा प्रेममार्ग पर अधिक सुगमता से एक आधार लेकर आगे बढ़ सकें। नीचे दिया प्रवचन अंश उसी प्रवचन श्रृंखला से लिया गया है, आगे भी इस प्रवचन-माला के कई अंश साधन-पथ के लाभार्थ प्रकाशित किये जायेंगे :::::::::(जब इधर छूटेगी, तब उधर की बनेगी - यहाँ से पढ़ें..)...अन्धकार और प्रकाश में जितना बड़ा विरोध है, इतना बड़ा विरोध है भक्ति और कामना में। ये भगवान शब्द का प्रयोग ही तब होगा जब संसार की कामनाओं को छोडऩे का आप निश्चय करेंगे। अन्यथा भगवान की आवश्यकता क्या? अगर संसार में सुख है - ये हमारा डिसीजन है तो संसार सम्बन्धी कामना करते जाओ, मरते जाओ उसी में। ये भगवान नाम की चीज कब आयेगी? जब संसार की कामनाओं से और बीमारी बढ़ती है, यह बात बुद्धि में बैठेगी तभी तो हम भगवान की बात मस्तिष्क में लायेंगे, भगवान् की बात समझने के लिये विद्वानों और महात्माओं के पास जायेंगे। क्यों जायेंगे? भगवान् की बात समझना है। क्यों? वो भगवान की भक्ति प्राप्त करना है। क्यों? संसार की कामना से थक गये, पेट भर गया, चप्पल खाते-खाते समझ में आ गया यानी वो अज्ञान जो 'मैं देह हूँ' ये था, ये जितना कम होगा और 'मैं आत्मा हूँ, श्रीकृष्ण का दास हूँ' - यह ज्ञान जितना परिपक्व होगा, उसी हिसाब से ही तो हम ईश्वर की ओर चलेंगे। तो मूल कारण है अज्ञान और अज्ञान का कारण कौन है? माया, और माया का कारण कौन है? हम भगवान से बहिर्मुख हैं, पीठ किये हैं।
(स्त्रोत- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नारद-भक्ति-दर्शन पर दिये गये प्रवचन से उद्धृत संक्षिप्त अंशसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के सारगर्भित प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। उन्होंने अपने अवतारकाल में अनेकानेक गुढ़ातिगूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों एवं शंकाओं का निराकरण किया है जिससे भगवदीय प्रेम-पथिकों के लिये साधना का मार्ग नित्य निरंतर प्रकाशवान रहा है। अनेक जिज्ञासु जीवों ने उनसे अपनी जिज्ञासायें व्यक्त की थी, जिनका उन्होंने बड़ा सरल एवं वेदादिक सम्मत समाधान प्रदान किया है। ऐसा ही एक प्रश्न एक साधक ने उनसे पूछा था। आइये उस प्रश्न तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिये गये उत्तर पर हम सभी विचार करें :::::(यहाँ से पढ़ें....)प्रश्न : ईश्वरीय मार्ग में तेजी से आगे कैसे बढ़ा जाए?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::::::यह तो आपके प्रयत्न पर निर्भर करता है। कोई लड़की 24 घंटे में एक घंटे ही पढ़ी, 10/100 रिजल्ट आएगा। जितना श्रम करोगे उतना ही फल मिलेगा। चाहे ईश्वरीय राज्य हो अथवा मायिक राज्य हो। दोनों ही राज्यों में परिश्रम की लिमिट के अनुसार ही फल की लिमिट होती है। यदि हम चाहते हैं, कि हम जो कुछ कमा रहे हैं, उतना ही बना रहे तो भी हमें यह ध्यान रखना होगा कि माइनस करने वाली बातें न होने पाये।अगर 24 घंटे में 12 घण्टे भगवत चिंतन किया और 12 घंटे माया का चिंतन किया तो दोनों का बैलेंस बराबर हो गया। आगे तो बढ़ नहीं पाये। यह हम मानते है, कि एटमॉस्फियर भी एक कारण है चिंतन का लेकिन सबसे बड़ा कारण यही है कि मन ने भगवान की उपासना को क्यों बन्द कर दिया। अगर तुमने टाइम भी दिया और जो तत्वज्ञान समझाया जा रहा है, उसके अनुसार आपने ईश्वरीय चिंतन के तत्वज्ञान को अपने साथ नहीं रखा तो गड़बड़ हो जाएगी और अगर ईश्वरीय चिंतन बना रहा तो और गड़बड़ भी बहुत कम असर कर पायेगी। लेकिन ज्यादातर होता यह है कि कमाई की, कुछ जमा हो पायी कि गँवाई शुरू हो गयी और सारी कमाई हवा हो गयी।अन्त:करण एक ऐसी वस्तु है, जिस पर नये-नये संस्कार हावी होते रहते हैं। और पुराने संस्कार दब जाते है। अगर एक माह में आपने ईश्वरीय संस्कारों को कर लिया और उसके बाद संसार में जाकर लापरवाही की और ईश्वरीय चिंतन नहीं किया तो अन्त:करण पर संसार का मैल फिर जम जाएगा। यह जो राग-द्वेष का आप चिंतन करते हैं उसका अन्त:करण पर काई के समान मैल जम जाता है। जो कमाई आपने की थी वह दब गयी।इस प्रकार से हमें अपने मन पर ही ध्यान देना है, इस मन के बहकावे में नहीं आना है।(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। - कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित अक्षि उपनिषद में महर्षि सांकृति और आदित्य के मध्य प्रश्नोत्तर के मध्यम से चक्षु-विद्या तथा योग-विद्या पर प्रकाश डाला गया है। यह उपनिषद दो खण्डों में विभाजित है।प्रथम खण्ड में भगवान सांकृति उपासना करके सूर्य से नेत्र-ज्योति को शुद्ध और निर्मल करने की प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं- हे सत्वगुण स्वरूप, नेत्रों के प्रकाशक और सर्वत्र हज़ारों किरणों से जगत् को आभायुक्त करने वाले सूर्यदेव! हमें असत से सतपथ की ओर ले चलों, हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्युर्माऽमृतं गमय।ऋषि ज्योति-स्वरूप सूर्य से अपनी आंखों की निरोग रखने की प्रार्थना करते हैं। जो ब्राह्मण प्रतिदिन सूर्य के लिए इस चाक्षुष्मती-विद्या का पाठ करता है, उसे नेत्र रोग कभी नहीं होते और न उसके वंश में कोई अन्धत्व को ही प्राप्त होता है।दूसरे खण्ड में ऋषिवर सूर्य से ब्रह्म-विद्या का उपदेश देने की प्रार्थना करते हैं। आदित्य देव (सूर्यदेव) उत्तर देते हुए कहते हैं- हे ऋषिवर! आप समस्त प्राणियों की भांति अजन्मा, शांत, अनन्त, धु्रव, अव्यक्त तथा तत्त्वज्ञान से चैतन्य-स्वरूप परब्रह्म को देखते हुए शान्ति और सुख से रहें। आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त इस जगत् में अन्य किसी का आभास न हो, इसी को योग कहते हैं। इस योगकर्म को समझते हुए सदैव अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।योग की ओर प्रवृत्त होने पर, अन्त:करण दिन-प्रतिदिन समस्त भौतिक इच्छाओं से दूर हो जाता है। साधक लोक-हित के कार्य करते हुए सदैव हर्ष का अनुभव करता है। वह सदैव पुण्यकर्मों के संकलन में ही लगा रहता है। दया, उदारता और सौम्यता का भाव सदैव उसके कार्यों का आधार होता है। वह मृदुल वाणी का प्रयोग करता है और सदैव सद्संगति का आश्रय ग्रहण करता है।---
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनों से 5 सार सार बातें; जो हमारे आध्यात्म-लाभ में सहायक बन सकते हैं ::::(1) साधक को बड़ी सावधानी से सद्गुरु के आदेश का सदा पालन करना चाहिए। गुरु आदेश-पालन से ही श्यामा-श्याम की प्राप्ति होगी।(2) संसारी व्यवहार करो, संसार का काम करो, लेकिन एक प्रमुख आदेश है कि अपने गुरु और इष्टदेव को सदा अपने साथ रखो।(3) द्वेष करने वाले के प्रति भी द्वेष न करो. दूसरों की गलती के प्रति सहनशील बनो। गलती प्रत्येक व्यक्ति करता है, अत: सबसे नम्रता एवं दीनता का व्यवहार करो।(4) आहार-विहार सब नियमित होना चाहिए। शरीर को जिन जिन तत्वों की आवश्यकता है ये सब आपके खाने में होने चाहियें, विटामिन ए, बी, सी, डी सब होने चाहिए। जबान (स्वाद) के लिए मत खाओ। खाने के लिए जिंदा न रहो, जिंदा रहने के लिए खाओ।(5) महापुरुष को हमारे क्लास का सब अनुभव पहले से ही है। इसलिए वो हमारे दु:ख को हमारी दयनीय दशा को समझ करके उसी के अनुसार चलेगा और उसी के अनुसार दवा करेगा, हमारी हेल्प करेगा।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - -कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनकृपा शब्द बहुत महत्वपूर्ण है और एक ऐसी चीज है ये कृपा जिसकी आस प्रत्येक को अपने जीवन में होती है। किन्तु क्या आप जानते हैं कि 'कृपाओं' में महत्वपूर्ण कृपायें कौन सी हैं? आइये जानें विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन के द्वारा, तथा पढ़कर कुछ क्षण रुककर यह विचार भी करें कि हम कृपा के साथ न्याय करते हैं या नहीं, अगर नहीं तो निश्चय ही कृपा का मोल समझकर जीवन परिवर्तित करने की आवश्यकता है :::::::(यहाँ से पढ़ें...)तीन प्रकार की भगवत्कृपा होती है। एक कृपा, एक विशेष कृपा, एक अद्भुत कृपा, ये तीन कृपायें होती हैं भगवान की। किसी का पुण्य थोड़ा है, उसके ऊपर एक कृपा हुई। किसी का पुण्य विशेष अधिक है तो दो कृपा हो गई और किसी का बहुत पुण्य है तो तीन कृपा होती है। ये तीनों दुर्लभ हैं। बहुत दुर्लभ, हज़ारो में एक ऐसा नहीं, लाखों में एक ऐसा नहीं, करोड़ो में एक ऐसा नहीं, अरबों में एक ऐसा नहीं। अनंत में एक होता है। ये ऐसी कृपा है।पहली कृपा मानवदेह प्राप्त होना। ये मानवदेह सब देहों में श्रेष्ठ है। देवताओं के देह से भी श्रेष्ठ है।दूसरी कृपा महापुरुष का मिलना; ये विशेष कृपा। जिसको भगवत्प्राप्ति हो गई हो, जो भगवत्प्राप्ति का सही मार्ग जानता हो, हमको बता सके ऐसा वास्तविक महापुरुष अगर किसी को मिल गया तो ये नंबर दो की कृपा हुई।तीसरी कृपा, तीसरी चीज जो सबसे इम्पोर्टेन्ट है, जिसको अद्भुत कृपा कहते हैं, भूख कहते हैं, जिज्ञासा, वो पाने की व्याकुलता। जो हमारे ऊपर नहीं हुई या बहुत कम हुई।बार- बार सोचो, कितनी बड़ी भगवत्कृपा मेरे ऊपर है, अगर मृत्यु के एक सेकण्ड पहले भी आपको यह बोध हो गया कि मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ, कितनी भगवत्कृपायें मेरे ऊपर हुई हैं!! देव- दुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी-किसी भाग्यशाली को ही मिलता है, फिर मेरे जैसा सौभाग्यशाली कौन होगा, जिसको ऐसा गुरु मिला जो केवल कृपा ही करता है। जब उनका अनुग्रह प्राप्त है तो निराशा की क्या बात है? धिक्कार है मेरे जीवन को।अपनी बुद्धि को उनके श्री चरणों में डाल दो तो निराशा हट जायेगी। और अगर हट गई और मृत्यु हो गई, तो अगले जन्म में आपको आशावाद के अनुसार ही फल मिलेगा। अगर कोई गलती हमसे हुई भी हैं तो भविष्य में अब गलती न करें, ये प्रतिज्ञापूर्वक चिन्तन के द्वारा ठीक कर लें। महापुरुष का पाया हुआ प्यार-दुलार, दर्शन, स्पर्शादि जो मिला है उसको, अगर कोई जीव उसका मूल्य आँके, तो फिर कुछ करना ही नहीं है उसको। वो चिंतन ही पर्याप्त है, अनंत भगवत्प्राप्ति की कौन कहे। और अगर मूल्यांकन न करेगा तो कितनी कृपा भगवान कर दें, कितने ही सामान ला के आपकी गोदी में रख दें और आप उसका मूल्य ही नहीं समझना चाहते तो ये आपकी कमजोरी है।अगर कोई महापुरुष का महत्व नहीं समझता तो उसको महापुरुष के मिलने से कोई लाभ नहीं मिलेगा। उसको उतने परसेन्ट ही लाभ मिलेगा जितने परसेन्ट वह उसको महापुरुष मानेगा। तो जितना अधिक महत्व समझोगे, उतना लाभ मिलेगा। महापुरुष को देख लिया एक बार, बहुत बड़ी कृपा है। कोई कर्म नहीं, कोई यज्ञ नहीं है, कोई दान नहीं, कोई तपस्या नहीं कि जो महापुरुष को सामने ला के खड़ा कर सके। भगवान को भले ही कोई देख ले, महापुरुष उससे बड़ी पॉवर है।(प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित पद पर विचार करेंमृत्यु अटल होती है और सबसे बड़ी बात कि यह कब आ जायेगी, इसका कुछ पता नहीं है। देखते-देखते ही हमारे सामने कितने ही लोग, सगे-संबंधी आदि मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। यह सत्य है कि मृत्यु का समय निश्चित है, पर कब, यह कौन जाने? देवताओं को भी दुर्लभ यह मनुष्य शरीर जिस उद्देश्य के लिये, अर्थात अपना परमार्थ बना लेने के लिये मिला है, किन्तु क्षण-क्षण उस लक्ष्य को भूले हमारा जीवन बीता जा रहा है। इसी लापरवाही पर चेतावनी देते हुए जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित यह पद है, आइये इस पद के शब्द-शब्द पर गंभीरतापूर्वक विचार करें ::::::::(यहाँ से पढ़ें...)अरे मन! अवसर बीत्यो जात।काल-कवल वश विधि हरि, हर सब, तोरी कहा बिसात।लहि पारस नर-तनु सुर-दुर्लभ, गुंजन-हित भटकात।बधिर, अंध जिमि सुनत न देखत, रहत विषय मदमात।अब करिहौं, अब करिहौं , इमि कहि, रहि जैहौ पछितात।होत कृपालु प्रलय पल महँ तू, केहि बल पर इतरात।।भावार्थ : अरे मन! यह स्वर्ण अवसर बीता जा रहा है। तेरी तो गिनती ही क्या है? ब्रम्हा, विष्णु, शंकर आदि सभी सीमित आयु वाले काल के ग्रास बन जाते हैं। पारस के समान देवताओं के लिये भी दुर्लभ मनुष्य-शरीर को पाकर भी तू अज्ञानवश सांसारिक विषयरूपी घुंघुची के बनावटी सौंदर्य पर मुग्ध हो रहा है। बहरे एवं अंधे के समान तू न तो सत्पुरुषों की बातें ही सुनता और न स्वयं ही संसार के मिथ्यापन को देखता है। विषयों में ही मतवाला हो रहा है। अब इसके बाद करुंगा, अब इसके बाद करुंगा - ऐसा बार-बार कहते हुये रह जायेगा। अन्त में पछताना ही पल्ले पड़ेगा। श्री कृपालु जी कहते हैं कि एक क्षण में तो प्राण महाप्रलय (मृत्यु) कर जाते हैं, तू बार-बार भविष्य के लिये क्यों छोड़ देता है। उस मृत्यु को रोकने के लिये तेरे पास शक्ति ही क्या है, जिस पर इतरा रहा है?(ग्रन्थ - प्रेम रस मदिरा, सिद्धान्त माधुरी, पद संख्या 7रचयिता - जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
- श्राद्ध पक्ष ही वह 16 दिवस है जब हमें श्याम वर्ण के पक्षी कौए की महत्ता का ज्ञान होता है, कौआ यम का प्रतीक है, मृत्यु का वाहन है, जो पुराणों में शुभ-अशुभ का संकेत देने वाला बताया गया है। इस कारण से पितृ पक्ष में श्राद्ध का एक भाग कौओं को भी दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौओं का बड़ा ही महत्व है। श्राद्ध का एक अंश कौए को भी दिया जाता है। कौए के संबंध में पुराणों बहुत ही विचित्र बात बताई गई है, मान्यता है कि कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौआ अगर आपके दिए अन्न को आकर ग्रहण कर ले तो तो माना जाता है कि पितरों की आप पर कृपा हो गई।गरुड़ पुराण में तो कौए को यम का संदेश वाहक कहा गया है। श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है। मान्यता है कि पितृपक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौए को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उनके पितर ग्रहण करते है। शास्त्रों में बताया गया है कि कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है। कौआ यम का दूत होता है।आश्विन महीने में कृष्णपक्ष के 16 दिनों में कौआ हर घर की छत का मेहमान होता है। लोग इनके दर्शन को तरसते हैं। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। इन दिनों में कौए एवं पीपल को पितृ का प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है। धर्म ग्रंथ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओं और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को रस चख लिया था। यही कारण है कि कौए की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती है। यह पक्षी कभी किसी बीमारी अथवा अपने वृद्धा अवस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।यह बहुत ही रोचक है कि जिस दिन कौए की मृत्यु होती है, उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता। यह आपने कभी ख्याल किया हो तो कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता। यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है। भोजन बांटकर खाने की सीख हर किसी को कौए से लेनी चाहिए। कौए के बारे में पुराण में बताया गया है कि किसी भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है। कौए को यमस्वरूप भी माना जाता है और न्याय के देवता शनिदेव का वाहन भी है।कौआ का सबसे पहला रूप देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने लिया था। त्रेतायुग में एकबार जब भगवान राम ने अवतार लिया और जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मार दी थी। तब श्री राम ने तिनके से जयंत की आंख फोड़ दी थी। जयंत ने अपने किए की माफी मांगी, तब राम ने वरदान दिया कि पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोजन में तुम्हें हिस्सा मिलेगा। तभी से यह परम्परा चली आ रही है कि पितृ पक्ष में कौए को भी एक हिस्सा मिलता है।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अमृत वाणीजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में मानव-देह के महत्व तथा भगवान और गुरु की कृपाओं को बार-बार महसूस करते हुये भक्तिमार्ग पर निरन्तर आगे बढऩे की प्रेरणा अनगिनत बार दी है। वस्तुत: अनंत देहधारियों में मनुष्य देह प्राप्त करने वाले विशेष सौभाग्यशाली हैं। मानव देहप्राप्ति के सौभाग्य के साथ ही भगवान तथा गुरु के द्वारा प्रदत्त अन्य सौभाग्यों पर विचार करने संबंधी उनके इन वचनों को आइये हम पुन:-पुन: चिंतन, मनन करें :::::::(यहाँ से पढ़ें...)देवदुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी-किसी भाग्यशाली को मिलता है, यानी पूरे ब्रह्माण्ड में केवल सात अरब मानव हैं। जबकि एक फुट गड्ढे में पांच अरब जीव रहते हैं। सोचो कि तुम कितने भाग्यशाली हो। सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थनि गावा। फिर उनमें वे और भाग्यशाली हैं, जिन्होंने भारत में जन्म लिया है, क्योंकि यहां जन्म से ही भगवान का नाम सुनने में आता है। धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे। फिर भारत में वो और भाग्यशाली हैं, जिनको कोई महापुरुष मिल गया है। जिसके पीछे भगवान चरण धूलि के लिये चलते हैं। अनुब्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभि:। फिर उन भाग्यशालियों में वे और भाग्यशाली हैं, जो गृहस्थ के प्रपंच से गुरु द्वारा बचाये गये हैं। फिर उनके भाग्य की सराहना क्या की जाए जो गुरु आश्रम में परम त्यागमय जीवनयुक्त गुरु की सेवा करते हैं। इससे अधिक सौभाग्य असम्भव है। यह सब सौभाग्य पाकर भी जो निरन्तर आगे न बढ़े तो उसके समान दुर्भाग्य या आत्महनन क्या होगा? उसके मन में हरि एवं गुरु के अतिरिक्त अहंकार या राग-द्वेष आता है तो यही समझना चाहिये कि उसने सारी कृपाओं को अपने पैरों से कुचलने की प्रतिज्ञा कर ली है।प्रमुख साधन दीनता है, इसी आधार पर भक्ति का महल खड़ा होगा। अतएव यह शौक पैदा करना चाहिए कि कोई मेरी बुराई करे और मैं खुश होकर धन्यवाद दूं तथा उस बुराई को स्वीकार करके उसे ठीक करुं। एतदर्थ यह भी आवश्यक है कि हम किसी की बुराई न सुनें, न देखें, न करें, न सोचें। यदि कभी मन में ऐसे सर्वनाश करने वाले भाव आ भी जाएं तो जोर-जोर से कीर्तन करने लगें। शिकायत किसी की किसी से न करें। अनन्त जन्म की पापात्मा भला स्वयं को अच्छा कैसे समझ सकती है। जरा सोचो यह जीवन क्षणभंगुर है। अत: यदि कल का दिन ना मिला तो इतनी बड़ी गुरु-कृपा, भगवत्कृपा, सौभाग्य सब व्यर्थ हो जायेगा। बार-बार सोचो , बार-बार सोचो।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत -जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
- पितृ यानी पूर्वजों की महिमा देवताओं से कम नहीं है। माना जाता है कि उनके आशीर्वाद से घर में सुख-शांति बनी रहती है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं। मार्कंडेय पुराण में वर्णित एक कहानी के मुताबिक रुचि नाम के एक प्रजापति थे जिन्होंने खुद को सांसारिक मोहमाया से दूर कर लिया था। रुचि का यह रवैया देखकर उनके पूर्वज बहुत चिंतित हो गए। उस वक्त एक ऐसे राजा की जरूरत थी जो दुनिया को चला सके, लेकिन रुचि तो इन सबसे उदासीन हो चुके थे।आखिर पुरखों ने रुचि को दर्शन दिए और उन्हें गृहस्थ जीवन का महत्व समझाया। पहली बात तो यह कि रुचि लगभग बूढ़े हो चले थे। दूसरे उनके पास धन या सुख साधन नहीं थे। ऐसे में कौन उनसे अपनी बेटी की शादी कराता?आखिरकार सभी चिंताएं छोड़कर रुचि ब्रह्मा जी की आराधना में लग गए क्योंकि ब्रह्मा जी ही इस सृष्टि के रचयिता हैं।रुचि से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दर्शन दिए। उन्होंने रुचि से कहा कि वह अपने पुरखों के लिए तर्पण करें और फिर से उनकी आराधना करें। ब्रह्मा जी की बात मानकर रुचि ने एकांत में जाकर अपने पुरखों के लिए तर्पण किया और पूरी श्रद्धा के साथ उनकी स्तुति की। रुचि ने उस समय जो स्तुति में जो कुछ भी कहा उसे पितृ स्रोत का नाम दिया गया। रुचि की प्रार्थना से प्रसन्न होकर पूर्वज एक बार फिर उनके सामने प्रकट हुए। उन्होंने रुचि से वरदान मांगने को कहा और रुचि ने सुयोग्य पत्नी मांगी। पुरखों ने कहा कि तुम्हें जल्दी ही एक पत्नी मिलेगी और तुम पिता भी बनोगे। पुरखों के अंतर्धान होने के कुछ ही देर बाद नदी से प्रमोल्चा नाम की अप्सरा अपनी बेटी को लेकर रुचि के सामने प्रकट हुई। उसने रुचि से कहा कि वह उसकी बेटी से विवाह करें। इस तरह रुचि ने शादी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। कुछ समय के बाद दंपती को एक बेटा हुआ जिसका नाम मनु रखा गया। रुचि का पुत्र होने की वजह से उसे रौच्य मनु भी कहा गया। आगे चलकर यह बालक पूरी पृथ्वी का स्वामी बना। यह तो पूर्वजों के महिमा की सिर्फ एक कहानी है। हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसी न जाने कितनी कहानियां भरी पड़ी हैं। यही वजह है कि आज भी लोग पूरी श्रद्धा के साथ पितरों को याद करते हैं।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की वाणीआध्यात्म जगत में यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि भगवान एवं संत दोनों एक हैं। शास्त्र भी इसकी मान्यता देते हैं। यह भी आया है कि भगवान से अधिक ऊँचा स्थान गुरु, महात्मा, संत, महापुरुष का होता है। और भगवान के संत जनों की निंदा महान अपराध है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इसी संबंध में चेतावनीपूर्वक यह आग्रह कर रहे हैं कि अपना कल्याण चाहने वालों को भूलकर भी संत-निंदा के अपराध में नहीं पडऩा चाहिये। आइये उन्हीं के शब्दों में इसे समझने का प्रयास करें एवं इस सिद्धान्त को हृदयंगम करें -
(संत-निंदा से सर्वथा बचो - यहां से पढ़ें...)निदाम भगवत: श्रवणन तत्परस्य जनस्य वा।ततो नापैति य: सोपि यात्यध: सुकृताच्च्युत:।।(श्रीमद्भागवत, स्कंध 10)अर्थात् भगवान् एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, अन्यथा साधक का पतन हो जायगा, तथा उसकी सत्प्रवृत्तियां भी नष्ट हो जायेंगी। प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नहीं सोचता कि निंदा करने वाला निन्दनीय है या महापुरुष है. संत-निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यह ही सब अपराध अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान् के उन्मुख ही नहीं होने देते।जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध, मलाई, रबड़ी आदि खाय एवं इसके पश्चात् ही एक दिन विष (जहर) खा ले तथा मर जाय। अतएव बड़ी ही सावधानी-पूर्वक सतर्क होकर हरि, हरिजन-निंदा-श्रवण से बचना चाहिए।विष्णुस्थाने कृतं पापं गुरुस्थाने प्रमुच्यते।गुरुस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति।।भगवान् के प्रति किया हुआ अपराध गुरु द्वारा क्षमा कर दिया जाता है किन्तु गुरु के प्रति किया हुआ अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं कर सकते।(जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी, ज्योतिषाचार्यइस बार भादो मास की पूर्णिमा पर दो सितंबर से महालय श्राद्ध की शुरुआत होगी। इस बार श्राद्ध पक्ष का आरंभ बुधादित्य योग के साथ हो रहा है। सर्वपितृ अमावस्या पर पक्ष काल का समापन शुभयोग के संयोग में होगा। सोलह दिवसीय श्राद्घ में 10 दिन अमृतसिद्घि, सर्वार्थसिद्घि योग तथा पुष्य नक्षत्र का विशिष्ट संयोग भी रहेगा। धर्मशास्त्र के जानकारों के अनुसार शुभ संयोगों की साक्षी में पितरों का श्राद्घ करने से वंशवृद्घि, शुभ कार्यों को प्रगति मिलेगी। मांगलिक कार्यों में आ रहे अवरोध दूर होंगे।इस बार श्राद्घ पक्ष में किसी भी तिथि का क्षय नहीं है। पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या तक सोलह दिवसीय श्राद्घ पक्ष में पूर्ण तिथियां रहेंगी।श्रद्धया इदं श्राद्धम (जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोडऩे पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था प्रेत है, क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उध्र्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढिय़ों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढिय़ों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है।शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामथ्र्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएं होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएं। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।शुद्धयर्थ श्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।कर्माग श्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।यात्रार्थ श्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं (12) पुणादितिथियां (4) मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु (5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं। पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियां चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।----



























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