शहतूत की शाख़ पे बैठा कोई बुनता है रेशम के धागे.....
---गुलज़ार साहब की नज़्में जो दिल को छू लेंगी
गुलज़ार साहब के लिखे गीतों की बात करें या फिर नज्म या गजल, लोगों को समझ नहीं आता कि वे ऐसे -ऐसे शब्द कहां से गढ़ लेते हैं.....कहीं भारीभरकम खयाल तो कहीं मिट्टी की सौंधी खूशबू के साथ उड़ती हुई हवा...दिल के टूटने के अहसास से भरे वो तीर चूभते शब्द...अपनी तरकश में वे ऐसे -ऐसे तीर निकालते जाते हैं कि इंसान बस उन्हें पढ़ता और गुुनता जाता है... मजाल की तीर दिल को जख्मी कर दे ....
आज उनके जन्मदिन पर उनकी लिखी कुछ नज्म हम लेकर आए हैं.....
पेश हैं गुलज़ार साहब की लिखी कुछ चुनिंदा नज़्में
मैं अगर छोड़ न देता, तो मुझे छोड़ दिया होता, उसने
इश्क़ में लाज़मी है, हिज्रो- विसाल मगर
इक अना भी तो है, चुभ जाती है पहलू बदलने में कभी
रात भर पीठ लगाकर भी तो सोया नहीं जाता
बीच आस्मां में था
बात करते- करते ही
चांद इस तरह बुझा
जैसे फूंक से दिया
देखो तुमज्
इतनी लम्बी सांस मत लिया करो
थोड़ी देर जऱा-सा और वहीं रुकतीं तो...
सूरज झांक के देख रहा था खिड़की से
एक किरण झुमके पर आकर बैठी थी,
और रुख़सार को चूमने वाली थी कि
तुम मुंह मोड़कर चल दीं और बेचारी किरण
फ़र्श पर गिरके चूर हुईं
थोड़ी देर, जऱा सा और वहीं रूकतीं तो...
कैसी ये मोहर लगा दी तूने...
शीशे के पार से चिपका तेरा चेहरा
मैंने चूमा तो मेरे चेहरे पे छाप उतर आयी है उसकी,
जैसे कि मोहर लगा दी तूने...
तेरा चेहरा ही लिये घूमता हूँ, शहर में तबसे
लोग मेरा नहीं, एहवाल तेरा पूछते हैं, मुझ से !!
शहतूत की शाख़ पे बैठा कोई
बुनता है रेशम के धागे
लम्हा-लम्हा खोल रहा है
पत्ता-पत्ता बीन रहा है
एक-एक सांस बजा कर सुनता है सौदाई
एक-एक सांस को खोल के अपने तन पर लिपटाता जाता है
अपनी ही साँसों का क़ैदी
रेशम का यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जाएगा
मुझसे इक नज़्म का वादा है,
मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में,
जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिए चाँद,
उफ़क़ पर पहुंचे
दिन अभी पानी में हो,
रात किनारे के कऱीब
न अँधेरा, न उजाला हो,
यह न रात, न दिन
ज़िस्म जब ख़त्म हो
और रूह को जब सांस आए
मुझसे इक नज़्म का वादा है मिलेगी मुझको
गुलज़ार की नज़्में...
देखो, आहिस्ता चलो और भी आहिस्ता जऱा
देखना, सोच सँभल कर जऱा पाँव रखना
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
कांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख़्वाब टूटे न कोई जाग न जाए देखो
जाग जाएगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा
चार तिनके उठा के जंगल से
एक बाली अनाज की लेकर
चंद कतरे बिलखते अश्कों के
चंद फांके बुझे हुए लब पर
मुट्ठी भर अपने कब्र की मिटटी
मुट्ठी भर आरजुओं का गारा
एक तामीर की लिए हसरत
तेरा खानाबदोश बेचारा
शहर में दर-ब-दर भटकता है
तेरा कांधा मिले तो टेकूं!
आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता आदमी बुलबुला है पानी का।
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा
आज फिर सीने में उलझी हुई वजऩी साँसें
फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी
आज फिर जागते गुजऱेगी तेरे ख्वाब में रात
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ
दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़म
जैसे जंगल में शाम के साये
जाते-जाते सहम के रुक जाएँ
मुडके देखे उदास राहों पर
कैसे बुझते हुए उजालों में
दूर तक धूल ही धूल उड़ती है
कंधे झुक जाते है जब बोझ से इस लम्बे सफऱ के
हांफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते हुए तेज चढाने
सांसे रह जाती है जब सीने में एक गुच्छा हो कर
और लगता है दम टूट जायेगा यहीं पर
एक नन्ही सी नज़्म मेरे सामने आ कर
मुझ से कहती है मेरा हाथ पकड़ कर-मेरे शायर
ला , मेरे कन्धों पे रख दे,
में तेरा बोझ उठा लूं
खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा
यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन
देखो आहिस्ता चलो,और भी आहिस्ता जऱा
देखना,सोच-समझकर जऱा पाँव रखना
जोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
कांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जायें देखो
जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा
आओ तुमको उठा लूँ कंधों पर
तुम उचककर शरीर होठों से चूम लेना
चूम लेना ये चाँद का माथा
आज की रात देखा ना तुमने
कैसे झुक-झुक के कोहनियों के बल
चाँद इतना करीब आया है
आओ फिर नज़्म कहें
फिर किसी दर्द को सहलाकर सुजा ले आँखें
फिर किसी दुखती हुई रग में छुपा दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर एक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दें लें
फिर कोई नज़्म कहें
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,
अब अक्सर
गुजऱ जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं.
कि जिनके 'सैल'कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नजऱ आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक'करने से अब
झपकी गुजऱती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !
इक सन्नाटा भरा हुआ था,
एक गुब्बारे से कमरे में,
तेरे फोन की घंटी के बजने से पहले.
बासी सा माहौल ये सारा
थोड़ी देर को धड़का था
साँस हिली थी, नब्ज़ चली थी,
मायूसी की झिल्ली आँखों से उतरी कुछ लम्हों को--
फिर तेरी आवाज़ को, आखरी बार "खुदा हाफिज़"
कह के जाते देखा था!
इक सन्नाटा भरा हुआ है,
जिस्म के इस गुब्बारे में,
तेरी आखरी फोन के बाद
-
मेरी दहलीज़ पर बैठी हुयी जानो पे सर रखे
ये शब अफ़सोस करने आई है कि मेरे घर पे
आज ही जो मर गया है दिन
वह दिन हमजाद था उसका!
वह आई है कि मेरे घर में उसको दफ्न कर के,
इक दीया दहलीज़ पे रख कर,
निशानी छोड़ दे कि मह्व है ये कब्र,
इसमें दूसरा आकर नहीं लेटे!
मैं शब को कैसे बतलाऊँ,
बहुत से दिन मेरे आँगन में यूँ आधे अधूरे से
कफऩ ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से,
जिन्हें मैं आज तक दफना नही पाया!!
बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,
दुआ में जब,
जम्हाई ले रहा था मैं--
दुआ के इस अमल से थक गया हूँ मैं !
मैं जब से देख सुन रहा हूँ,
तब से याद है मुझे,
खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,
खुदा के हाथ में है सब बुरा भला--
दुआ करो !
अजीब सा अमल है ये
ये एक फर्जी गुफ़्तगू,
और एकतरफ़ा--एक ऐसे शख्स से,
खय़ाल जिसकी शक्ल है
खय़ाल ही सबूत है.
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