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- पुण्यतिथि पर विशेषमूंछे हों तो नत्थू लाल जैसी वरना ना हों.. शराबी फिल्म में अमिताभ बच्चन का यह डॉयलॉग लोग भूले नहीं हैं। फिल्म में अमिताभ ये डॉयलॉग अभिनेता मुकरी के लिए कहते हैं। छोटे कद के कलाकार मुकरी फिल्म जगत के बेहतरीन हास्य अभिनेताओं में गिने जाते रहे हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके जुड़ी कुछ बातें....आज से 20 साल पहले 4 सितंबर 2000 को , मुंबई के एक अस्पताल में मुकरी जब जिदंगी और मौत के बीच संघर्ष कर रहे थे, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन से लेकर बॉलीवुड के वो तमाम लोग भी उनकी सलामती के लिए दुआ मांग रहे थे, जो उनके प्रशंसक थे। फिर खबर आई कि मुकरी नहीं रहे...। उस वक्त उनकी उम्र 78 साल की थी।मुकरी का जन्म ब्रिटिश इंडिया में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के अलीबाग में 5 जनवरी, 1922 को हुआ था। ये एक कोंकनी मुस्लिम फैमिली से संबंधित थे। उनका असली नाम मुहम्मद उमर मुकरी था, लेकिन उनकी पहचान बनी मुकरी के नाम से। अमिताभ बच्चन के साथ उनकी जोड़ी खूब बनी। शराबी, नसीब, मुक़द्दर का सिकंदर, लावारिस, महान, कुली और फिर अमर अकबर एन्थोनी में तय्यब अली का रोल, मुकरी ने अपनी अदायगी से अमर कर दिया था।मुकरी और अभिनेता दिलीप कुमार स्कूल के जमाने के दोस्त हुआ करते थे। दिलीप कुमार पढ़ाई पूरी करने के बाद पूना की मिलिट्री कैंटीन में नौकरी करने लगे और मुकरी एक मदरसे में बच्चों को इस्लाम की तालीम देने में जुट गए। कहते हैं कि मदरसे की मामूली तनख्वाह से घर परिवार का गुजारा करना मुश्किल था, इसीलिए उनका रुझान फिल्मों की तरफ हुआ। मुकरी बांबे टाकीज में सहायक निर्देशक के रूप में काम करने लगे। बांबे टॉकीज की मालकिन मशहूर अभिनेत्री देविका रानी थीं। वे अक्सर मुकरी को देखकर मुस्कुराया करती थीं। उनका छोटा कद, गोल-मटोल चेहरा और उनकी वह अलग-सी मुस्कान, जिसे देखते ही देविका रानी हंसे बिना न रह पाती थीं। वे अक्सर सोचती थीं कि यह आदमी कैमरे के पीछे की बजाय परदे पर ठीक रहेगा। और फिर मुकरी की किस्मत ने पलटा खाया और उन्हें फिल्म प्रतिमा में एक रोल मिल गया। ये 1945 की बात थी। इसी फिल्म से मेगास्टार दिलीप कुमार को भी पहचान मिली थी। इसके बाद बॉम्बे टॉकीज की बहुत सी फिल्मों में मुकरी अभिनेता के रूप में नजर आए। इस तरह कैमरे के पीछे रहने वाले मुकरी अब कैमरा का सामना कर रहे थे। फिर चल पड़ा अभिनय का एक लंबा सिलसिला। उनके खाते में जुड़ती गईं फिल्में और करीब 6 सौ फिल्मों में उन्होंने अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए।दिलीप कुमार ने जिन चंद दोस्तों का जि़क्र अपनी आत्मकथा में किया है, उनमें उन्होंने राजकपूर, प्राण, डायरेक्टर एस.यू.सन्नी के साथ मुकरी की यादें भी सहेजी हैं। मुकरी ने दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, ऋषि कपूर, शशि कपूर और रजनीकांत जैसे बड़े दिग्गजों के साथ काम किया। उन्होंने मुमताज से शादी की, जिनसे इन्हें दो बेटी और तीन बेटे हुए। इनके एक बेटे नसीम मुकरी ने फिल्म धड़कन और हां मैंने भी प्यार किया है के डायलॉग्स लिखे हैं।मुकरी परदे पर जितने संजीदा थे, उतने निजी जिदंगी में भी थे। सीधे-सादे सरल स्वभाव के मुकरी से उनके साथी कलाकार प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे। 4 फीट 10 इंच के इस अभिनेता की कॉमिक टाइमिंग का जवाब नहीं था। फिल्म पड़ोसन में उन्होंने किशोर कुमार, सुनील दत्त , कैस्ट्रो मुखर्जी जैसे कलाकारों के बीच भी अपनी शानदार छाप छोड़ी। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
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जयंती पर विशेष - आलेख मंजूषा शर्मा
हिन्दी सिनेमा जगत में कुछ ऐसे गाने बन पड़े हैं जिन्हें बार - बार सुनने का मन करता है। इन गानों को सुनकर ऐसे लगता है जैसे यह हमारी जिंदगी का ही हिस्सा हैं और हमारे सुख-दुख में शामिल होकर हमारी ही कहानी कह रहे हों। एक ऐसा ही गाना है लग जा गले, कि फिर ये हसीं रात हो न हो....बड़ा ही खूबसूरत गीत है जिसे लता मंगेशकर ने अपनी प्यारी सी आवाज से सजाया और संगीतकार मदनमोहन साहब ने अपनी रागिनी से संवारा है। यह गीत फिल्म वो कौन थी, में शामिल किया गया था। पिक्चराइजेशन में साधना और मनोज कुमार नजर आते हैं। आज अभिनेत्री साधना यानी साधना शिवदसानी की जयंती पर इसी गाने की चर्चा।लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो... गाने को बने 56 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन जैसे - जैसे समय आगे बढ़ता जा रहा है , यह गाना और भी मीठा होता जा रहा है। यह गाना आज भी बिल्कुल नया और ताजा लगता है।लता मंगेशकर की शहद सी मीठी खनकती आवाज, मदन मोहन की सुरों से खेलने की एक अच्छी आदत और राजा मेहंदी अली खान के दिल को छू लेने वाले बोल और अभिनेत्री साधना की खूबसूरती, जाहिर है कि गाने को तो शानदार बनना ही था। हुआ भी यही और आज भी यह गाना जितना भी सुनो छोटा ही लगता है।राज खोसला की सस्पेंस फिल्म वो कौन थी, वर्ष 1964 में बनी थी। फिल्म भी बहुत से पहाड़ी दृश्यों से भरी पड़ी है। लिहाजा संगीतकार मदन मोहन साहब ने फिल्म की कहानी के मूड को ध्यान में रखा और राग पहाड़ी में ही इस गाने को तैयार किया। अपने जमाने में भी यह गाना सुपर डुपर हिट हुआ।इसका फिल्मांकन भी ज़ोरदार है। ब्लैक एंड व्हाइट में बनी इस फिल्म में साधना बला की खूबसूरत लगी हैं। फिल्म में मनोज कुमार के साथ उनकी जोड़ी को भी लोगों ने पसंद किया। जब यह फिल्म बनी तब गानों के एल.पी. रिकॉर्ड बना करते थे और उस समय कैसेट्स या सीडीज का जमाना नहीं था। ये गीत सम्पादित स्वरुप में उपलब्ध है फिल्म के एल. पी. रिकॉर्ड पर। फिल्म वाला वर्जन थोड़ा लम्बा है और इसमें संगीत के अंश कुछ ज्यादा हैं। शायद उस वक्त फिल्म के निर्देशक राज खोसला को लगा होगा कि सुनने में यह गाना कहीं बोझिल न लगे। हालांकि फिल्म में उन्होंने पूरा गाना रखा , उस वक्त शायद उन्हें भरोसा रहा होगा कि साधना की सुंदरता और फिल्मांकन बोरियत पैदा नहीं करेगा। फिल्म रिलीज हुई और फिल्म में यह गाना सबसे अच्छा साबित हुआ।पूरा गाना है-लग जा गले के फिर ये हसीं रात हो न हो ...शायद फिर इस जनम में मुलाकात हो न हो ...हमको मिली हैं आज ये घडिय़ां नसीब से ...जी भर के देख लीजिये हमको करीब से...फिर आपके नसीब में ये बात हो न हो ....शायद फिर इस जनम में मुलाकात हो न हो ...पास आईये के हम नहीं आयेंगे बार बार ...बाहें गले में डाल के हम रो लें ज़ार ज़ार...आंखों से फिर ये प्यार की बरसात हो न हो ...शायद फिर इस जनम में मुलाकात हो न हो ...लग जा गले के फिर ये हसीं रात हो न हो ...शायद फिर इस जनम में मुलाकात हो न हो ...गाने के बोल से साफ जाहिर है कि यह काफी रोमांटिक मूड का गाना है। इस गाने के पिक्चराइजेशन में साधना की आंखें प्यार में डूबी नजर आती है जो अपने पति से अपने प्यार का इजहार कर रही है। उनकी आंखेेंं विश्वास और समर्पण जाहिर करती है, लेकिन नायक मनोज कुमार की आंखों में असमंजस झलकता है। वह समझ नहीं पाता कि उसके सामने जो खड़ी है, वह वाकई उसकी पत्नी है या फिर कोई और। गाने का फिल्मांकन नदी के रेतीले तट पर रात में किया गया जिसमें चंद पेड़ नजर आते हैं। पूरा इलाका सूनसान है जो इस रोमांटिक गाने में भी रहस्य का पुट शामिल कर देता है जैसा कि फिल्म की कहानी है। साधना ने इसमें दोहरी भूमिका निभाई थी।मुझे मदनमोहन के अधिकांश गाने पसंद हैं । शायद इसलिए कि उनका संगीत दिल को छूता है या शायद संगीत में बोल कुछ इस तरह उभर कर सामने आते हैं कि बोल और संगीत एक दूसरे के लिए बने हुए से लगते हैं । अपने गानों में मदन मोहन साहब शास्त्रीय रागों का इस्तेमाल इसतरह से किया करते थे कि कठिन से कठिन मुरकियां भी आसान लगती हैंं हालांकि उसे उसी तरह से परफेक्ट गाना किसी पारंगत गायक के ही बस की बात है। दरअसल मदन मोहन साहब के संगीतबद्ध गीत अत्यन्त परिष्कृत हुआ करते थे। आभिजात्य वर्ग के बीच उनके गीत बड़े शौक से सुने और सराहे जाते थे। वे गज़लों को संगीतबद्ध करने में सिद्ध थे। गज़लों के साथ ही अपने गीतों में रागों का प्रयोग भी निपुणता के साथ करते थे। उनके अधिकतर राग आधारित गीतों को लता मंगेशकर और मन्ना डे स्वर प्रदान किए हैं।लग जा गले... गाने में मदन मोहन ने राग पहाड़ी का बखूबी इस्तेमाल किया है। ऐसी मान्यता है कि राग पहाड़ी , देश के पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित लोकधुन का शास्त्रीय रूपान्तरण है। यह राग जितना शास्त्रीय है, उससे भी ज़्यादा यह जुड़ा हुआ है पहाड़ों के लोक संगीत से। यह पहाड़ों का संगीत है, जिसमें प्रेम, शांति और वेदना के सुर सुनाई देते हैं। राग पहाड़ी बॉलीवुड में संगीतकारों का पसंदीदा राग रहा है। इस पर आधारित कई हिट गाने बने हैं जैसे, कि -तेरे मेरे होठों पर (चांदनी),2)नूरी (शीर्षक), इन हवाओ में इन घटाओ में (गुमराह), हुस्न पहाड़ों का (राम तेरी गंगा मैली), कैसे जीऊंगा मैं (साहिबा), बहारों मेरा जवान भी सवारों (आखरी खत), दीवाना मुझसा नहीं इस अंबर के (तीसरी मंजि़ल), सखी रे मन उलझे तन डोले(लता), पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है , एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा , मेरा जीवन कोरा कागज (कोरा कागज), सावली सलोनी तेरी झील सी आंख, आज ना छोड़ेंगे (कटी पतंग -मिश्रित पहाड़ी)लग जा गले , गाने में गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ां के शब्दों को लता जी जैसे अपने गायकी का अमृत स्पर्श प्रदान कर रही हैं। ऑर्केस्ट्रा और लताजी की गायकी मदन मोहन के संगीत में कुछ ऐसी होती है कि वे एक दूसरे का पूरक बन जाते हैं। कोई किसी से कम नहीं। संगीत और धुन पर गौर करें, तो मदनजी का मूड सुनाई देता है, लताजी को सुनें तो उनकी वहीं प्यारी सी मीठी खनक सुनाई देती है। कोई एक दूसरे को पीछे छोडऩे की कोशिश नहीं करता है। मदन मोहन के संगीत का एक जादू ऐसा है कि आप गाने के बोल भूल जाएं, लेकिन धुन कभी नहीं भूल सकते।सस्पेंस फिल्मों की शुरूआत फिल्म निर्माता राज खोसला की वर्ष 1964 में रिलीज हुई फिल्म वो कौन थी से मानी जा सकती है। मनोज कुमार, साधना (दोहरी भूमिका), हेलन, प्रेम चोपड़ा के साथ अपने सुरीले संगीत के साथ-साथ क्लाइमैक्स तक दर्शकों को अचंभित करने वाली इस फिल्म ने अपने समय में बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ कामयाबी प्राप्त की थी।खास बात यह है कि फिल्म निर्माता करण जौहर ने अपनी लघु फिल्म बॉम्बे टॉकीज में इस गाने का इस्तेमाल किया है। यही नहीं इस गाने को कई विज्ञापनों में भी इस्तेमाल किया गया है। आज अभिनेत्री साधना जी के जन्मदिन पर आप फिर से ये गाना सुनकर देखिए, निस्संदेह यह और भी मीठा लगेगा। आंखें बंद करेंगे, तो साधना की मोहनी मूरत सामने तस्वीर बनकर जरूर उभरेगी और आप माहौल के साथ गाने में डूबते चले जाएंगे।--------------
- जयंती पर विशेषपुरानी फिल्मों में खलनायकों का अहम किरदार हुआ करता था। अब भी फिल्मों में ऐसे किरदार मिल जाते हैं, लेकिन समय के साथ किरदार और उनका प्रस्तुतिकरण दोनों बदल गए हैं। 40 से 60 के दशक में ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के मशहूर विलेन हुआ करते थे के. एन सिंह। बड़ी-बड़ी आंखें, रौबदार चेहरा , संवाद अदायगी का अपना खास अंदाज। वे बिना नाटकीयता की संवाद अदायगी और आंखों से ऐसा माहौल पैदा करते थे, कि लोग डर जाया करते थे। ये खासियत उन्हें सब लोगों से अलग बनाती थी। आज उनकी जयंती है। इस मौके पर आज उनसे जुड़ी कुछ बातों को हम ताजा कर रहे हैं। उन्होंने 2 सौ से अधिक फिल्मों में काम किया।के. एन. सिंह का पूरा नाम है कृष्ण निरंजन सिंह। उनका जन्म 1 सितंबर, 1908 को देहरादून में हुआ था। उनके पिता चंडी दास एक जाने-माने क्रिमिनल लॉयर थे और देहरादून में कुछ प्रांत के राजा भी थे। कृष्ण निरंजन भी उनकी तरह वकील बनना चाहते थे , लेकिन अप्रत्याशित घटना चक्र से उनका वकालत से मोह भंग हो गया। अभिनेता के रूप में लोकप्रिय होने से पहले के. एन. सिंह वेट लिफ्टर और गोला फेंक के उम्दा खिलाड़ी हुआ करते थे। वे 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए मेहनत कर रहे थे, लेकिन वे इसका हिस्सा नहीं बन पाए, क्योंकि उस वक्त कोलकाता में उनकी बहन काफी बीमार थी। बहन के लिए के. एन. सिंह ने अपना खेल कॅरिअर दांव पर लगा दिया। शायद यह उनकी किस्मत थी, जो उन्हें बर्लिन जाने से रोक रही थी। उन्हें एक अभिनेता के रूप में नाम जो कमाना था।इसी दौरान कोलकाता में उनकी मुलाकात पृथ्वीराज कपूर से हुई और उन्होंने देबकी बोस से उन्हें मिलवाया। देबकी बोस की बांगला फिल्म सुनहरा संसार (1936)में काम करने का मौका के. एन सिंह को मिल गया। कैमरे का जादू उन्हें इतना पसंद आया कि वे मुंबई के ही होकर रह गए। फिल्म बागवान (1936) में उन्होंने लीक से हटकर खलनायक का किरदार निभाया, जो काफी पसंद किया गया। इस तरह से खलनायक के रूप में उनकी एक सफल पारी की शुरुआत हुई। फिर तो फिल्मों का सिलसिला चल निकला। हुमायूं, आवारा, चलती का नाम गाड़ी, हावड़ा ब्रिज, हाथी मेरे साथी, बाजी, वो कौन थी जैसी फिल्में उन्हें मिली। देखते ही देखते वे अपने दौर के सबसे महंगे खलनायक बन गए। 60-70 के दशक के आते-आते दूसरे खलनायकों की लोकप्रियता ने के. एन. सिंह को चरित्र भूमिकाओं तक सीमित कर दिया। फिर एक दिन ऐसा भी आया कि कैमरे की चकाचौध का सामना करने के लिए उनकी आंखों ने जवाब दे दिए और उनकी आंखों की रोशनी चली गई। अंतिम दिनों में वे अपनी फिल्मों को देखने में अक्षम हो गए थे। 31 जनवरी 2000 को 91 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उन्होंने अपने अभिनय से फिल्मी दुनिया में एक ऐसी सुनहरी लाइन खींच दी है, जिसकी चमक बरसों बरस तक फीकी नहीं पड़ेगी। हिन्दी फिल्म जगत में जब भी खलनायकों की बात चलेगी, तो के. एन. सिंह का नाम बड़े अदब से लिया जाएगा।निजी जिंदगी की बात करें, तो के. एन. सिंह की कोई औलाद नहीं हुई तो उन्होंने अपने भाई विक्रम सिंह जो काफी बरसों तक फिल्म फेयर पत्रिका के संपादक रहे, के बेटे पुष्कर को गोद लिया था। आज पुष्कर का अपना होम प्रोडक्शन हाउस है और वे सीरियलों के निर्माण में व्यस्त हैं। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- जन्मदिन पर विशेषबीते जमाने की एक्ट्रेस शुभा खोटे आज 80 साल की हो गई हैं। फिल्मी परदे से लेकर टीवी पर अपनी अदायगी से लोगों को प्रभावित करने वाली शुभा खोटे कभी अपने टॉमबॉय लुक को लेकर लोकप्रिय थीं। इसी लुक के कारण उन्हें फिल्मों के प्रस्ताव मिले और वे लगातार सफलता की सीढिय़ां चढ़ती चली गईं।शुभा ने अपने दौर से तमाम टॉप के नायकों और नायिकाओं के साथ काम किया। उन पर कई हिट गाने भी फिल्माए गए। उन्हें इस बात का अफसोस जरूर रहा कि खूबसूरत और प्रतिभाशाली होने के बाद भी वे फिल्मी परदे पर सह नायिका के रोल तक ही सीमित रहीं। शुभा खोटे अपनी कॉमिक टाइमिंग को लेकर मशहूर हैं। शुभा ने सबसे ज्यादा फिल्में एक्टर महमूद के साथ की हैं। दोनों की जोड़ी को काफी पसंद किया जाता था और यही वजह है कि दोनों ने कई फिल्मों में साथ काम किया था।दिलचस्प बात यह है कि शुभा खोटे फिल्मों में आने से पहले साइक्लिंगऔर स्विमिंग की नेशनल चैंपियन रह चुकी हैं। खेल जगत में वे काफी सक्रिय थीं। प्रतियोगिता जीतने के कारण अक्सर अखबारों में उनकी तस्वीरें छपा करती थीं। इसी दौरान डायरेक्टर अमिय चक्रवर्ती की नजर उन पर पड़ी और उन्होंने अपने डिस्ट्रीब्यूटर कामथ साहब को उनके पास भेजा और कहलाया कि वे उन्हें अपनी फिल्म में लेना चाहते हैं। वे आकर स्क्रीन टेस्ट दे दें।कामथ साहब गए तो शुभा को देखकर हैरान रह गए। शुभा टॉमबॉय लुक में थीं। उन्हें देखकर कामथ साहब को लगा कि यह लड़की भला फिल्मों में एक्ट्रेस बन सकती है। उन्होंने सारी बातें अमिय को बतलाई, लेकिन शुभा की किस्मत में तो एक्ट्रेस बनना लिखा था, अमिय ने कामथ की बात नहीं सुनी और वे खुद शुभा से मिले और उन्हें अपनी फिल्म सीमा के लिए साइन कर लिया। ये साल 1955 की बात थी और फिल्म थी सीमा। इस फिल्म में वे भी साइकिल चलाती नजर आती हैं। इस दौरान उन्हें चोट भी लग गई और वे घायल हो गईं। स्वस्थ होने के बाद शुभा ने फिल्म पूरी की। इस तरह से एक हिट फिल्म से उनके कॅरिअर की शुरुआत हुई। फिल्म में उन्हें बलराज साहनी, नूतन जैसे कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला।वैसे शुभा खोटे ने 4 साल की उम्र में थियेटर में काम किया था। दरअसल उनके पिता नंदु खोटे मराठी थियेटर के जानी-मानी हस्ती थे। शुभा के भाई विजु खोटे ने भी अभिनय को अपनाया। जानी-मानी एक्ट्रेस दुर्गा खोटे रिश्ते में शुभा की चाची थीं। इस प्रकार शुभा को अभिनय का गुण विरासत में मिला। शुभा काफी पढ़ी लिखी हैं। उन्होंने मुंबई के मशहूर विस्टन कॉलेज से इंग्लिश लिट्रेचर में ग्रेजुएशन किया। शुभा ने जानी-मानी कंपनी नोसिल के वाइज प्रेसिडेंट मि. बलसावरकर से विवाह किया। उनके दो बच्चे हैं एक्ट्रेस भावना बलसावकर और बेटा अश्विन बरसावकर।शुभा ने अपने कॅरिअर में बहुत सी हिन्दी और मराठी फिल्मों में काम किया। साथ ही कई स्टेज शो भी किए। उन्होंने 9 बार फिल्म फेयर अवार्ड जीता। उन्होंने कई टीवी शो भी डायरेक्ट किए जैसे, हेरा फेरी, हम दोनों, बैचलर्स लाइफ एंड लेट्स डु इट। उनका अपना होम प्रोडक्शन हाउस है।पिछली फिल्म की बात करें तो शुभा, टॉयलेट एक प्रेम कथा फिल्म में नजर आई थीं। फिल्म में उन्होंने नायक अक्षय कुमार की दादी का रोल निभाया था।
- - धमधा को बसे करीब 8 सौ साल हो गए, लेकिन ....आलेख- गोविंद पटेलतीन दिनों की बारिश से धमधा में त्राहि-त्राहि मचा दी। इतिहास में पहली बार धमधा के बाजार, शिक्षकनगर, पानी टंकी से लेकर दानी तालाब और गंडई रोड तक लबालब पानी भर गया। जिनके घरों में पानी घुस गया, उनके लिए यह बेहद पीड़ादायक समय रहा। फिलहाल स्थानीय प्रशासन ने कोष्टा तालाब के पास रोड को काटकर त्वरित समाधान निकाल लिया है। इस विपदा ने हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या ऐसी स्थिति आखिर क्यों आई ? ऐसी स्थिति दोबारा न आए ? इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।लोग कह रहे हैं कि घरों में पानी घुस गया, लेकिन क्या यह सत्य है। जी नहीं, पानी वहीं गया, जहां वह पहले भी जाता रहा है। जिन स्थानों पर पानी भरा, वह कभी गहरे खेत थे। वह पानी का ही घर था, हम लोगों ने पानी के घर में अपनी बिल्डिंग तान ली है। यह एक सबक है। उन प्लाटिंग करने वालों के लिए और प्लाट खरीदने वालों के लिए भी। जो चंद रुपयों के लिए खेतों में प्लाटिंग कर देते हैं और लोग उन्हें आंख मूंदकर खरीद लेते हैं। यह सबक उन जनप्रतिनिधि और शासन-प्रशासन में बैठे अधिकारियों के लिए भी है, जो नगर एवं ग्राम निवेश (टाउन एंड कंट्री प्लानिंग) एक्ट के नियमों का पालन नहीं करवाते। जहां भी प्लाटिंग होती है, अपने लोगों को उपकृत करने के लिए धृतराष्ट्र बन जाते हैं। जब से नगर पंचायत बना है, तब से खेतों में प्लाटिंग हो रही है। वहां न तो नाली के लिए जगह छोड़ी जाती है और न ही पानी की निकासी की कोई योजना बनाई जाती है। प्लाट खरीदने वाले भी कम दोषी नहीं हंै, जो केवल 10-15 फीट का रास्ता देखकर प्लाट खरीद लेते हैं।यह भी सत्य है कि शहरों की तरह प्लाटिंग यहां नहीं हो सकती, लेकिन कम से कम नाली, सड़क, बिजली जैसी सुविधाएं तो लोगों को देखनी ही चाहिए। यदि लोग इन बातों की डिमांड करेंगे तो प्लाट काटने वाले भी इन्हें अपनी प्लाटिंग में शामिल करेंगे। धमधा में बड़े इलाके में पानी भरना एक चेतावनी है, प्लाट खरीदने वालों के लिये, प्लाट बेचने वालों के लिये, जनप्रतिनिधियों के लिये और अधिकारियों के लिये।दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि छै आगर छै कोरी तरिया वाले धमधा में आखिर इतना पानी कैसे आ गया? इसके लिये हमें पुरानी बातों को याद करना होगा। याद करें धमधा में कितने सारे तालाब थे, जो यहां के पानी को एकत्रित कर लेते थे। पुराना नल टंकी के पीछे रानी सागर कितना बड़ा था, अब आधा पट चुका है। हाईस्कूल के पास भोसले बाड़ी के किनारे बड़ी सी डबरी थी। शिशु मंदिर के पास दो बड़ी डबरी थी, जो आधा पट गया है। यहां से नगर का पानी गार्डन और कोष्टा तालाब के पास बने पुलिया से निकल जाता था।धमधा की बसाहट कोई 25-50 साल की बसाहट नहीं है, इसे बसे हुए करीब आठ सौ साल हो गए हैं। यहां 126 तालाब बनवाने वालों को बकायदा प्लानिंग करके इनका निर्माण कराया था। पानी कहां से आएगा और कहां से निकासी होगी, इसी पर्याप्त व्यवस्था की गई थी। यदि आपको यकीन नहीं है तो राजस्व रिकॉर्ड को ध्यान से देखिये। बूढ़ा नरवा जो भारती बग़ीचा से नइया तालाब तक आता है, उसकी नहर अभी भी सही सलामत है, कुछ जगह अवैध कब्जे के कारण संकरी जरूर हो गई है। उसी तरह दूसरी नहर भी थी, बिरझापुर रोड के मुनि तालाब से लेकर गंडई चौक कबीर कुटी तक। इसका खसरा नंबर 244. 243. 242 है। यह जमीन पटवारी रिकॉर्ड में आज भी दर्ज है, जो लंबाई में है। यह गंडई चौक से बिरझापुर तक जाने वाली रोड के अतिरिक्त है। यानी रोड की जमीन का अलग खसरा नंबर है और नहर का अलग। इसका प्रमाण भी आप देख सकते हैं, कबीर कुटी से लेकर बाजार रोड तक और फिर खैरागढ़ मोड़ तक। रोड़ के अलावा साइड में काफी चौड़ी जमीन छूटी हुई दिखती है। मुखराज किशोर यादव के घर के सामने, सुशील कृषि केंद्र, यादव और राजपूत फ्रेब्रिकेशन सहित सभी जगह खाली है, यह इसलिए खाली है क्योंकि यह कभी नाला रहा होगा, जिससे पानी बहते हुए गंडई चौक तक आता था और वहां से दुदहा तालाब, अलबक्शा तालाब को भरते हुए बड़े पुल में मिल जाता था। अभी इसके कुछ अवशेष दिखाई देते हैं।इस बार दानी तालाब के नीचे से लेकर बाजार और शिक्षक नगर में जो पानी भरा वह कहां से आया? धमधा बस्ती निचले में बसी हुई है और बरहापुर-बिरझापुर खार का पानी बस्ती तक आता है, लेकिन इसके लिए पहले नहर थी। यह नहर कैसे पट गई, इस पर विचार करें। आपको यह तो याद ही होगा कि स्टेडियम जहां बना है, वहां पहले तालाब था। उस तालाब से पानी अरूण अग्रवाल के खेतों के किनारे होते हुए दानी तालाब के नीचे से कोष्टा तालाब तक जाता था। वहां से ओवरफ्लो बड़े पुल तक कुछ वर्षों पहले तक जाता था। जब धमधा से रौंदा-अतरिया खैरागढ़ सड़क बना तो इस नाले को लोक निर्माण विभाग ने ध्यान नहीं दिया और इसे पाट दिया गया। इसी तरह धमधा से बिरझापुर रोड़ का चौड़ीकरण हुआ तो उसके पुलिया और नाले को ध्यान नहीं दिया गया। शासन-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को इस पर ध्यान देना था, कई सालों तक अच्छी बारिश नहीं हुई तो पता ही नहीं लगा कि वह पट गया है। इस बार जो बारिश हुई, उसमें सबसे ज्यादा पानी दानी तालाब से गार्डन के बीच बनी सड़क को पार करके बाजार की ओर आया। सारे पुल और नाली बंद होने के कारण पानी घरों तक भर गया और लोगों को भारी परेशानी उठानी पड़ी।भविष्य में यह स्थिति फिर न बने, इसके लिए उस पुरानी नहर-नाली को फिर से पुनर्जीवित करना होगा, जो कभी गंडई चौक से मुनि तालाब तक जाती थी। यही नहीं धमधा में ऐसे जितनी भी जमीन नाले के लिए है, उसे चिन्हित किया जाना चाहिए। जल संसाधन मंत्री रविंद्र चौबे ने बूढ़ा नरवा (भारती बग़ीचा) से नइया तालाब तक नहर के लिए एक करोड़ रुपए स्वीकृत किए हंै। इसी तरह पूरे नगर का सर्वे करने की आवश्यकता है कि कहां पुरानी नहर थी। साथ ही लोगों को भी प्लाट खरीदते समय जागरूकता दिखानी चाहिए कि नाली के लिए कितनी जमीन छोड़ी जा रही है, यदि हम नहीं जागे तो इसी तरह की जल विभिषिका का सामना करना पड़ेगा।-
- पुण्यतिथि पर विशेषहिन्दी फिल्मों में ऋषिकेश मुखर्जी एक ऐसे फिल्मकार के रूप में विख्यात हैं जिन्होंने बेहद मामूली विषयों पर संजीदा फिल्में बनाने के बावजूद उनके मनोरंजन पक्ष को कभी अनदेखा नहीं किया। यही कारण है कि उनकी सत्यकाम, आशीर्वाद, चुपके चुपके, अभिमान और आनंद जैसी फिल्में आज भी बेहद पसंद की जाती हैं।ऋषिकेश मुखर्जी यानी ऋषि दा की अधिकतर फिल्मों को पारिवारिक फिल्मों के दायरे में रखा जाता है क्योंकि उन्होंने मानवीय संबंधों की बारीकियों को बखूबी पेश किया। उनकी फिल्मों में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, शर्मीला टैगोर, जया भादुड़ी जैसे स्टार अभिनेता और अभिनेत्रियां भी अपना स्टारडम भूलकर पात्रों से बिल्कुल घुल मिल जाते हैं।सही मायनों में ऋषि दा की फिल्में सहजता का पर्याय हैं। उनकी फिल्मों में बड़ी से बड़ी बात को मामूली ढंग से कहा जाता है। मुखर्जी कॉमेडी के मामले में भी सहज हास्य के पक्षधर रहे हैं। गोलमाल और चुपके चुपके जैसी फिल्मों में कॉमेडी के लिए अश्लील संवादों या बेसिर पैर की सिचुएशन पैदा नहीं की गयी।आनंद में कैंसर रोगी की पीड़ा हो या बावर्ची में बिखरते संयुक्त परिवार की समस्या, नमक हराम में श्रमिकों की समस्या हो या अभिमान में वैवाहिक संबंध में आने वाली दरार, मुखर्जी की हर फिल्म में सामाजिक मुद्दे होने के बावजूद वे कभी मनोरंजन के पक्ष पर हावी नहीं हुए। उनकी बनाई फिल्म आनंद को आज भी परिवार साथ बैठकर देखते हैं और हर बार आखिर में आंखें भिगाते हुए जीवन की पहेली को समझते हैं। बावर्जी, मिली, चुपके-चुपके, आलाप, गुड्डी जैसी फिल्में आज भी खुशियों का खजाना हैं। अभिमान फिल्म में दो स्टारों की लोकप्रियता और उनके तकरार तथा अहम की कहानी को भी उन्होंने बड़ी संजीदगी से पेश किया।तीस सितंबर 1922 को कोलकाता में जन्मे ऋषिकेश मुखर्जी फिल्मों में आने से पूर्व गणित और विज्ञान का अध्यापन करते थे। उन्हें शतरंज खेलने का शौक था। फिल्म निर्माण के संस्कार उन्हें कोलकाता के न्यू थियेटर मिले। उनकी प्रतिभा को सही आकार देने में प्रसिद्ध निर्देशक बिमल राय का भी बड़ा हाथ है। मुखर्जी ने प्रसिद्ध फिल्म 'दो बीघा जमीनÓ फिल्म में राय के सहायक के रूप में काम किया था। ऋषिकेश मुखर्जी ने 1951 में बिमल राय के सहायक निर्देशक के रूप में अपना कॅरिअर शुरू किया था। उनके साथ छह साल तक काम करने के बाद उन्होंने 1957 में मुसाफिर फिल्म से अपने निर्देशन के कॅरिअर की शुरूआत की। इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर अच्छा प्रदर्शन तो नहीं किया लेकिन राजकपूर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपनी अगली फिल्म अनाड़ी 1959 उनके साथ बनाई।ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म निर्माण की प्रतिभा का लोहा समीक्षकों ने उनकी दूसरी फिल्म अनाड़ी से ही मान लिया था। यह फिल्म राजकपूर के सधे हुए अभिनय और मुखर्जी के कसे हुए निर्देशन के कारण अपने दौर में काफी लोकप्रिय हुई। इसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने अनुराधा, अनुपमा, आशीर्वाद और सत्यकाम जैसी ऑफ बीट फिल्मों का भी निर्देशन किया। उनके द्वारा निर्देशित अंतिम फिल्म झूठ बोले कौवा काटे थी। उन्हें दादा साहेब फाल्के सहित अनेक पुरस्कार और सम्मान से भी नवाजा गया था। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
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... और हवा के झोकों ने शरीर में झुरझुरी पैदा कर दी
....यहां ऐसा लग रहा था मानो अंबर नीले रंग का वस्त्र धारण किए धरती को पाने की चाहत में झुक रहा हो
सुष्मिता मिश्रा
जीवन का जद्दोजहद जब हद पार करता है तो पसीना इस पथरीले शहर से दूर मन को ऐसी जगह ले जाता है, जहां परम शांति के साथ आनंद का कोलाहल हो...जी हां! बार नवापारा। मन यही आकर ठहरता है। ऊपर से शांत और भीतर वन्यप्राणियों की अठखेलियों के साथ मानव जीवन का सहज, सरल सामंजस्य। इस बार सूक्ष्म मन ही नहीं, स्थूल काया भी पहुंची इस प्राकृतिक ठीये पर। ग्रुप में थे, इसलिए शहर से लेकर जंगल तक कंक्रीट से बने कॉरीडोर का सफर भी आनंद दे रहा था। हम अपने चारपहिए पर थे, लेकिन मन इस गाड़ी से बाहर बार नवापारा पहंुच चुका था, शायद इसीलिए दो-ढाई घंटे का सफर मिनटों का अहसास करा रहा था। हम वीक एंड की छुट्टियों पर दो दिन के लिए बार जा रहे थे। नेशनल हाईवे-6 की चिकनी, चमचमाती सड़क पर 78 किमी का सफर आसानी से पूरा हो गया। 78 वें किमी पर पटेवा है और यही से बायीं ओर 28 किमी का सफर जमाने की सारी थकान दूर करता है। हम सभी ने पटेवा में चाय-नाश्ता किया और फिर इसी बीएमडब्लू सड़क पर अपना सफर शुरू किया। गाड़ी की खिड़कियों के कांच इसलिए खोल दिए कि जंगल की ताजी हवा के साथ वहां हर पल घटित प्राकृतिक क्रिया, प्रतिक्रया का सशरीर आनंद ले सके। कांच खुले थे, इसलिए हवा के झोंकों ने शरीर में झुरझुरी सी पैदा कर दी। हमने पहला किलोमीटर पार भी नहीं किया था कि सबसे पहले दर्शन हुए गुलाटियां खाते बंदरों के समूह का, बच्चे खुश हो गए। उनको लगा कि यह शुरुआत है, आगे उन सभी वन्यप्राणियों से वे रूबरू जरूर होंगे, जिनको वे किताबों में पढ़ते और लोगों से सुनते रहे हैं।
वे बंदरों में खोए हुए थे कि सामने अभयारण्य का कानून आ खड़ा हुआ। यहां का कायदा है, प्रवेश से पहले बेरियर पर पर्ची कटवाए जो आगे भी काम आने वाली थी। बेरियर पर हमसे पूछताछ हुई, जांच-पड़ताल में थोड़ा वक्त लिया, फिर पर्ची लेकर प्रकृति की गोद में उतरते चले गए। वहां असीम शांति का अनुभव हो रहा था। प्रकृति की नैसर्गिक व अलौकिक छटा के बीच पक्षियों का कलरव और यदाकदा छोटे-मोटे वन्यप्राणियों की मौजूदगी के अहसास ने हम सभी को तरोताजा कर दिया। कुछ दूर जाने के बाद बायीं ओर एक बोर्ड नजर आया जिस पर लिखा था पर्यटक विश्राम गृह हरेली इको रिसोर्ट मोहदा, पर हमें तो जंगल घूमने का मन था, इसलिए हमने इस रिसोर्ट को अनदेखा कर दिया और आगे बढ़ गए। बार और नवापारा दो गांव हैं, जो जंगल के दो नेत्रों की तरह हैं। इन दोनों के सेंटर में जंगल का मेन बेरियर है। हमने जंगल घूमने का समय पूछा तो पता चला कि वो शाम 4 बजे खुलेगा। तब तक हमें रुकने का इंतजाम करना था। हम सीधे वन विभाग के बार स्थित पर्यटक विश्रामगृह पहंुच गए, लेकिन वहां जाने पर पता चला कि रायपुर आफिस या नेट द्वारा बुकिंग करवाने से ही यहां रूम मिलता है। हमें अपनी अज्ञानता पर अफसोस हुआ, हमें लगा था कि वहां पहुंचकर बुकिंग करवा लेंगे। खैर, हमने दूसरे विकल्प पर दिमाग दौड़ाना शुरू किया। हमने चौकीदार से पूछा कि देवपुर, पकरीद में भी विश्रामगृह हैं न? चौकीद्वार ने बताया कि है, लेकिन वह सिर्फ आफिसर और वीआईपी के लिए ही है। काफी मशक्कत की, पर उसने साफ इंकार कर दिया। अब क्या था हमारे रुकने की व्यवस्था नहीं हो पाई थी। हम सभी ने पूछा और कोई व्यवस्था है क्या? तो उसने कहा, पर्यटक विश्रामगृह मोहदा में है, जहां रुकने की उत्तम व्यवस्था हो सकती है पर अभी तो सीजन है पता नहीं रूम उपलब्ध होगा कि नहीं।
हम लोग ईको पर्यटक विश्रामगृह, मोहदा जा ही रहे थे कि हमारे साथ जो बड़े लोग थे, वो रास्ते में ही बड़बड़ाने लगे, इसलिए कहते हैं कि पहले से बुकिंग करवाकर आना चाहिए। जैसे ही मोहदा रिसोर्ट पहुंचे मन में सब लोग भगवान से प्रार्थना करने लगे कि यहां कैसे भी दो रूम मिल जाए और ईश्वर ने हमारी सुन ली। किस्मत से वहां पर किसी की बुकिंग कैंसिल हुई थी, उनका रूम हमें मिल गया। जंगल के बीचो-बीच हरियाली की गोद में सर्वसुविधायुक्त रिसोर्ट देखकर मन और भी प्रफुल्लित हो उठा। इस रिसोर्ट में एक रेस्टोरेंट सेंटर में बनाया हुआ है। इसके दोनों साइड में 3-3 काटेज बने हुए हैं। 1 काटेज में दो रूम रूम हैं, जिसे फूलों के नाम से नामांकित किया गया है। जैसे-1.हरसिंगार, 2.अपराजिता, 3.कचनार, 4.अमलतास, 5.पलाश, 6.गुलमोहर इस प्रकार कुल 12लक्जरी रूम वहां उपलब्ध हैं। रूम भी बड़ा खूबसूरत। बड़ी बड़ी खिडकियां व सुंदर बाल्कनी से बैठकर आप जानवरों को पानी पीते देख सकते है। बरसाती नदी को रोक कर सुन्दर ताल बनाया गया है ताकि गर्मी के दिनों में जब जंगल का पानी सुख जाता है। तब यहॉ पर जानवरों का रेला पानी-पीने के लिए लगा होता है। इस रिसोर्ट के बीचों बीच में टावर रूपी एक व्यू पांइट बनाया गया है।यहां से आप जंगल का अलौकिक आंनद ले सकतें हैं। जहॉ तक आपकी नजर जाएगी, सिर्फ जंगल ही जंगल नजर आएगा। इतना घना जंगल व हरियाली हमारी आंखों को तृप्त करते हुए हमारे हृदय तक पहुंच कर हमें नई स्फूर्ति व ऊर्जा प्रदान कर रही थी। यहॉ का दृश्य ऐसा लग रहा था, मानों अंबर नीले रंग का वस्त्र धारण कर धरती को पाने की चाहत में झुक रहा हो और धरती है कि स्वंय में लजाती हुई अपने आप को हरे रंग के वस्त्र में समेंट रही हो। फिर लगा कि नहीं, नीलांबर जलराशि में परिवर्तित होकर अवतरित हो चुका है और नदी की शक्ल में धरती की मांग सजा रहा है...कुछ ऐसा ही अलौकिक अहसास यहां हो रहा था। धरती का पूरा सोलह श्रृंगार यहां नजर आया। इस स्थान पर एक प्रकार की अलग ही मृदुलता, मादकता व कोमलता लिए हवा हिम-पर्वत की बहती हुई निर्मल, स्वच्छ एवं पवित्र जलवाली नदी सी ठंडकता लिए बह रही थी। जो मन के कोने-कोने को तृप्त करते हुए प्रेम का मधुर संगीत सुना रही थी। वह बता रही थी कि जंगल का आंनद क्या होता है। धरती और अंबर के प्रेम गाथा को सुना रही थी। शांत और सुग्मय वातावरण में जंगल के पुष्पों की मनमोहक खूशबू चहुओर फैला रही थी। जहां तक आपकी दृष्टि जाएगी आप को सुंदर, शांत और सुघन वन ही नजर आएगा।
उसी वक्त हमको लंच के लिए बुलावा आ गया और होटल के कर्मचारी ने बताया यहॉ पर मधुमक्खी का छाता है। इसे छेड़ना मत, मुझे मेरी दादी की बात याद आ गई। वो कहती थी जिस स्थान में मधुमक्खी का छाता होता है, वहां सुख- समृद्धि व मां लक्ष्मी का वास बना रहता है। मैंने इसलिए उस कर्मचारी से पूछा क्यों भाइयां क्या यहॉ पर बारहों महीने इंकम होती है? तो कर्मचारी ने बताया कि यहॉ बारहों महीने इंकम होती है, ऑफ सीजन (01 जुलाई से 31अक्टूबर तक बारिश के कारण पार्क बंद होता है) फिर भी लोग रेस्ट करने आते है। हम सब ने लंच लिया और पहुंच गए बारनवापारा के बैरियर पर। कुछ फीस पेय (1400 रुपए मात्र) कर, जिप्सी, ड्राइवर व गाइड लेकर अभयारण्य के कोर एरिया में भ्रमण की अनुमति हमने हासिल कर ली थी। गाइड द्वारा सूचित किया गया कि कोई भी जिप्सी से उतरेगा नहीं। सभी लोग बिल्कुल शांत बैठेगे और मैं जिस तरफ आपको दिखाऊंगा सभी लोग ध्यान दे कर चुप-चाप देखेंगें। हम सभी ने हॉ तो कह दिया पर कुछ दूर चलते ही हिरण का झुण्ड उछलते कुदते छलांग मारते सामने से गुजरा तो बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया। वो देखो डियर! वो देखो डियर! कितने सारे और ताली भी बजाने लगे तब गाइड ने कहॉ हल्ला मत करो और भी है वो भी रोड़ क्रॉस करेगें। इतने सारे हिरण तेजी से छलांग लगाते हुए भाग रहे थे। उनकी त्वचा इतनी चमकदार व कोमल लग रही थी जैसे अभी पैदा हुए हो, देख कर मन प्रफूल्लित हो गया। फिर कुछ दूर जाने के बाद ऐसा लगा मानों ऊंचे-ऊंचे बड़े मोटे तने वाले पड़े हमें जीवन की ऊंचाइयों को धैर्य के साथ छूने के लिए प्रेरित कर रहे हो। मुझे यकायक सुमित्रानंद पंत जी की वो कविता याद आई जिसमें सतपुड़ा के घने जंगल का वर्णन था। जैसे ही जिप्सी घने जंगल की ओर अंदर जाती जा रही थी, सन्नाटा बढ़़ता जा रहा था। बंदर के साथ-साथ अन्य पशु-पक्षी की ध्वनि कभी कभार सुनने को मिल जाती। रंग बिरंगे पक्षियों की प्रजाति हमें देखने को मिल रही थी। गाइड द्वारा बताया गया कि 150 प्रकार से भी अधिक पक्षियों की प्रजातियां यहां पाई जाती हैं। जैसे मोर, दूधराज, गोल्डन अरियल, डैऊगो, राबिन, कठफड़वा, बुलबुल, हुदहुद, बाज, उल्ल, तोते आदि। जैसे ही जिप्सी अभयारण के बीचों-बीच कोर ऐरिया में पहुंची, हमने गौर का एक बड़ा झूंड देखा। से वन भैंसा से अलग होते हैं। इनके पैर सफेद होते हैं। वैसे तो ये झूंड में रहते हैं पर किसी-किसी को झूंड से निकाल दिया जाता है। ऐसे गौर सनकी और गुस्सैल होते हैं। गौर में इतनी ताकत होती है कि वो जिप्सी को भी पलट सकते हैं ऐसा गाईड ने बताया।
अब तो बच्चे बिल्कुल चुपचाप बैठ गए। कुछ दूर चलते ही हमें सोन कुत्तों (जंगली कुत्ते) के झूंड के द्वारा हिरण का शिकार करते हुए देखा। वो करीब 50-60 होंगे और एक बड़े हिरण को चारों तरफ से घेर कर दौड़ा-दौड़ाकर सभी हिस्सों में काट-काट कर घायल कर रहे थे। तभी वो हिरण धरती पर गिरा और अपने आप को इतनी जल्दी पुन: वापस खड़ा कर पैरे से कुत्तों को हटाते हुए अपनी जान बचाने के लिए वापस दौडना प्रांरभ कर दिया। उसी समय सभी कुत्तों ने जैसे तय किया कि वो हिरण को अकेले हमला करने पर नहीं मार सकते इसलिए वो सभी एकजुट होकर एक साथ एक ही वक्त पर हिरण पर हमला किया। पर वो हिरण आंखरी सांस तक दौड़ कर अपने आप को बचाने की कोशिश में लगा था। जब एक साथ सभी कुत्तों ने एक ही वक्त पर हमला किया तो वो जमीन पर गिर पड़ा और सभी कुत्तों ने उसकी बोटी-बोटी अलग कर उसे मार खाया। कुत्तों ने हमें एकता की सीख दे दी। कोई भी काम बड़ा नहीं अगर सभी एकजुट हो कर करे। इसी प्रकार हिरण ने भी आंखिरी सांस तक लड़ने की प्रेरणा दी। इस दृश्य ने मन में क्षोभ उत्पन कर दिया। शायद यही तो प्रकृति का अनुकुलन बनाने का नियम है। इसे ही जीवन चक्र कहते है। यह सोच कर हम आगे बढ़़े। कुछ दूर बाद हरे वनो में लहराती भूमि उत्तर दिशा में मुड़ते ही उबड़-खाबड़ एवं छोटी-छोटी पहाडिय़ों और घने वनों से आच्छादित हो गई। अचानक हमारे बच्चों ने भालू को देखा जोर से चिल्लाए बियर-बियर उसी समय गाइड ने कहॉ दो और भी है शोर मत मचाओ वो ऊपर पहाडियों में छिप जाएंगे। भालू के बाल इतने चमकीले और सुन्दर थे। मानो उसने कन्डीशनर यूज किया हो। कुछ देर बाद वो पहाडि़य़ों की ओर चले गए।
अब ड्राइवर ने बफर जोन की तरफ जिप्सी मोड़ी। इसके रास्ते कई छोटे-बड़े पठारों से निर्मित ंहै। इन रास्तों में शायद इस साल हमसे पहले कोई और जिप्सी नहीं गुजरी थी क्योंकि गाइड लकड़ी से बड़े-बड़े मकड़ी के जाले, जो मुंह के सामने में आने लगे उसे हटाता जा रहा था। अभयारण खुले दो ही दिन हुए थे, भूमि भी घास, पौधों व झाडि़यों आदि से ढंकी हुई थी। पगडंडियां या वो रास्ते जिस पर से जिप्सी जाती है वो भी बरसात के कारण जंगल में विलिन हो गए थे। लेकिन मानना पड़ेगा उस ड्राइवर और गाइड के अनुभव को जो रास्ते दिखाई भी नही दे रहे थे, उसमें वो गाड़ी को चला रहे थे।
अब बांस के घने जंगलों की तरफ जिप्सी को मोड़ा गया। इस इलाके में हिंसक प्राणी पाए जाते है । जैसे:- तेन्दुआ, लकड़बग्धा, लोमड़ी इत्यादि भी देखने को मिल सकते हैं। गाइड ने बताया कि ये इलाका पैन्थर का है। तो हम लोग सोच में पड़ गए कि अगर पैंथर अचानक आ जाए तो क्या करेंगे। जिसे देखने की चाहत थी, अब उसी के बारे में मन के किसी कोने में भय आंरभ हो रहा था। हमारे साथ छोटे-छोटे बच्चे भी थे। शरीर में अब कंपकंपी सी छूटने लगी। शाम गहरी और ठंडी हवाओं के साथ ढ़लने लगी थी। (बच्चों को स्वेटर पहनाया गया।) सन्नाटा इस कदर छाते जा रहा था कि कहीं भी जरा सी भी पेड़-पौधों के हिलने की आवाज होती तो सभी लोग झट से पलट कर उसी तरफ देखने लगते।
जंगल को इतने करीब से देखना। जैसे चाह थी वैसे ही अनुभव हो रहा था। शाम का धीरे-धीरे रात की ओर बढ़ना हमें भयभीत कर रहा था। हम सोच रहे थे कि किसी पेड़ के ऊपर कोई जानवर छिपा बैठा हो और वह अचानक हम पर हमला कर दे तो हम किस को पहले बचाएंगे। इस प्रकार के विचारों से शरीर में झुरझुरी सी छूटने लगी या फिर उन कुत्तों के झुंड की भांति एक साथ हम सब मिलकर उसी पर आक्रमण कर देगें आदि विचारों का आदान-प्रदान चल रहा था। इतने में ही हमें नील गाय दिखाई दी और समय के अभाव ने रिस्क न लेते हुए ड्राइवर का कोर ऐरिया से बाहर की ओर जिप्सी को मोडने पर मजबूर कर दिया, लेकिन जिसकी चाहत में गए वो न देख पाने का कोई गम न था क्योंकि जो हमने देखा और अनुभव किया वो किसी एडवेंचर से कम न था। गाइड द्वारा बताया गया कि ग्रीष्म ऋतु में पेड़-पौधो के पत्ते झड़ जाते है। तो दूर तक खड़े जानवर हमेें दिखाई देते हैं।
नदियों और नालों का पानी सूखने पर जानवरों को देखने के लिए यहॉ पर वांच टावर के पास तालाबों में विशाल जल राशि को संचित कर रखा जाता है। ताकि जानवरों को आसानी से पानी-पीते देखा जा सकें। यह दृश्य कितना मनमोहक होगा जिस ताल में छोटे-छोटे जानवरों और बड़े हिंसक प्राणी एक साथ पानी पीते मिलेंगे।
जंगल की सैर कर वापस रिसोर्ट जाते समय हम सब ने जिप्सी की लाइट में खरगोश को देखा जब हम पीछे मुड़े तो इतना घना अंधकार था कि पीछे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। रिसोर्ट पहुंचकर सभी लोग रिफेश होकर चाय पीते बाल्कनी में बैठे थे । गुलाबी ठंड हमें अपने आगोश में लेने लगी। उसी समय कर्मचारी द्वारा डिनर का आर्डर लिया गया। कुछ देर बाद सभी को एक भयानक व दर्द भरी चीख सुनाई दी ऐसा लगा कि कोई हिंसक प्राणी किसी छोटे जानवर को पकड़ लिया हो। वो अपने आपको बचाने के लिए मदद मांग रहा हो। जब तक डिनर तैयार हो रहा है तब तक आग तापने का प्लान बनाया गया। साथ में गाना- बजाना हो जाए। जिस स्थान में आग जलाई गई, सभी वहां पहुंच गए। बच्चे डांस करने लगे। इतने में उसी रिसोर्ट में रूके अन्य टूरिस्ट भी आ गए। उनकी फैमली ने भी हमें ज्वाइन कर लिया। उनमें से एक व्यक्ति ने तो कार का म्यूजिक सिस्टम ऑन कर दिया। फिर सभी लोग एक साथ ग्रुप में डांस करने लगें। बच्चों ने खूब मजे किए। जब बच्चों को भूख लगने लगी तब सब लोग भोजन ग्रहण कर अपने-अपने कमरों में जा ही रहे थे कि बड़े-बड़े पेड़ंो से ओस की बंूदेंे एक-एक कर ऐसे टपक रही थी मानो पानी गिर रहा हो। इतनी ओस चारों ओर गिर रही थी जिस जगह हम बैठे थे वो भी गिली हो चुकी थी। हमारे पास रूम में जाने के सिवाय कोई भी चारा नहीं था।
अब प्रात:काल के उस नयनाभिराम दृश्य को देखकर मन फिर तरोताजा हो गया। रात्रि समाप्त हो चुकी थी। लगा अंधकार एक कर्तव्यनिष्ठ प्रहरी के सदृश्य रात्रि में इस संसार की रक्षा कर प्रात: होते ही लुप्त हो गया हो, मानो कोई सेवक ने अपनी ड्यूटी पूरी कर ली हो। प्रात: होते ही पक्षियों की चहचहाहट से शांति भंग हो गई। नीला आकाश अंधकार के हट जाने के कारण निर्मल व स्वच्छ हो गया है। प्रकाश की स्वर्णिम रेखाएं आकाश को नवयौवना की तरह श्रृंगारित करती नजर आने लगी। इन सबको छोड़कर आने का मन नहीं कर रहा था, लेकिन दूसरे दिन की छुट्टी ऐसे ही एक छोटे लेकिन बेहद खूबसूरत सफर के लिए सुरक्षित थी, सो हम वहां से निकल पड़े। - जन्मदिन पर विशेषअभिनेता देव आनंद अपने दौर के बेहतरीन एक्टर्स में से एक थे। इसके अलावा वो उस जमाने के लोगों के लिए फ़ैशन आइकॉन भी थे। यही नहीं, देव आनंद की दीवानगी लोगों के सिर चढ़ कर बोलती थी। अपने समय में देव आनंद हमेशा चर्चा में रहा करते थे। कभी इश्क को लेकर तो कभी अपने अंदाज और फिल्मों को लेकर।अपने कॅरिअर के टॉप पर देवसाहब ने अचानक एक दिन ऐसा फैसला लिया कि उस दौर की एक अभिनेत्री की जिदंगी ही बदल गई। इस अभिनेत्री ने अपना कॅरिअर उस वक्त शुरू ही किया था। इस अभिनेत्री ने अपने कॅरिअर में केवल छह फिल्में की और सभी के हीरो देवसाहब ही थे। जी हां, हम बात कर रहे हैं, देवसाहब की हमसफर कल्पना कार्तिक की, जो आज अपना 88 वां जन्मदिन मना रही हैं।देव आनंद का पहला प्यार थीं अभिनेत्री सुरैया। लेकिन दोनों के बीच धर्म की दीवार आड़े आ गई। देव आनंद दिलो जान से सुरैया को चाहते थे। लेकिन सुरैया का परिवार इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पाया। सुरैया से बिछडऩे के बाद देव बुरी तरह टूट गए थे। इसके बाद उनकी जिंदगी में आई थीं कल्पना कार्तिक , जो फिल्म इंडस्ट्री में नई-नई थीं। लाहौर की मोना सिंह उर्फ कल्पना कार्तिक ने मिस शिमला ब्यूटी कॉन्टेस्ट का खिताब जीता । वे पंजाबी क्रिश्चियन परिवार से थीं।इसी दौरान देव साहब के बड़े भाई चेतन आनंद की नजऱ उन पर पड़ी तो उन्होंने उनके परिवार से बात की और कल्पना को मुंबई भेजने के लिए राजी कर लिया। ये समय था 1951 का जब चेतन आनंद फिल्म बाजी बना रहे थे। उन्होंने मोना सिंह यानी कल्पना को लीड एक्ट्रेस के तौर पर साइन कर लिया। इस फिल्म में कल्पना ने डॉक्टर का किरदार निभाया था। वास्तव में चेतन ने ही उनका नाम बदलकर कल्पना कार्तिक रखा था।फिल्म बाजी सफल रही। इस के बाद कल्पना ने पांच और फिल्में की थीं। इन फिल्मों के नाम थे- आंधियां (1952), हमसफर (1953) , टैक्सी ड्राइवर (1954) , हाउस नंबर 44 (1955) और नौ दो ग्यारह (1957)। इन फिल्मों में कल्पना के हीरो देव आनंद ही थे।इस फिल्मी सफर के दौरान देव आनंद ने पता नहीं कल्पना में क्या देखा और अचानक की उनके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया। सन 1954 में दोनों फिल्म टैक्सी ड्राइवर की शूटिंग कर रहे थे। इस दौरान एक दिन देव आनंद और कल्पना ने लंच ब्रेक से निकलकर शादी कर ली। देव आनंद ने इसके लिए रजिस्टार को पहले ही सेट पर बुला रखा था। इसके बाद कल्पना ने एक ही फिल्म की शूटिंग की और फिर वह पूरी तरह परिवार की जिम्मेदारियों को संभालने में जुट गईं। इस शादी ने पूरे देश को चौंका दिया था। शादी के बाद कल्पना ने देवसाहब के साथ फिल्म नौ दो ग्यारह में लीड रोल निभाया और उसके बाद अपने फिल्मी कॅरिअर को अलविदा कह दिया। कल्पना और देवसाहब के दो बच्चे हैं सुनील आनंद और बेटी देविना।---
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- - बालको के लिए सुरक्षा मास्क सिलकर महिला स्व सहायता समूहों ने कोविड से लडऩे में दिया बड़ा योगदान
- -छग शासन से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों और वाणिज्यिक संगठनों ने कोविड-19 से बचाव के लिए बालको की मदद की प्रशंसा की
----------महिला अर्थात मातृ शक्ति भारतीय समाज में परिवार की धुरी मानी जाती है। उसके सशक्त और स्वावलंबी होने से परिवार और समाज दोनों की प्रगति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसी भावना के अनुरूप भारत एल्यूमिनियम कंपनी लिमिटेड (बालको)ने बालकोनगर एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की जरूरतमंद महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के उद्देश्य से सामुदायिक विकास कार्यक्रम की परियोजना उन्नति और परियोजना दिशा के अंतर्गत उन्हें सिलाई-कढ़ाई सीखने के लिए प्रोत्साहित किया था। प्रशिक्षित महिलाओं का यही हुनर आज कोविड के कारण हुए लॉकडाउन में उनके लिए आजीविका का बड़ा जरिया बन गया है। बालको ने 25 महिला स्वयं सहायता समूहों को मास्क एवं अन्य सामग्रियां सिलने का ऑर्डर दिया था जिसके एवज में उन्हें लगभग 75 हजार रुपए की आमदनी हुई।लॉकडाउन के बाद स्वास्थ्यकर्मियों एवं पुलिसकर्मियों के साथ ही समुदाय के ऐसे स्वयंसेवकों के लिए मास्क तथा अन्य व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की बड़ी संख्या में आपूर्ति की जरूरत महसूस की गई जो समुदाय में जाकर जरूरतमंदों की मदद कर रहे थे। ऐसे में बालको प्रबंधन ने उन्नति परियोजना के अंतर्गत गठित महिला स्वयं सहायता समूहों को 12 हजार 500 मास्क, 405 गाउन और 410 कैप सिलने का ऑर्डर दिया। यंू तो सिलाई-कढ़ाई सीख लेने के बाद हुनरमंद महिलाएं पड़ोस के लोगों के कपड़े सिलकर अपनी आजीविका अर्जित कर लेती थीं परंतु कोविड-19 से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण पहली बार ऐसा हुआ कि उन्हें एक साथ इतनी बड़ी संख्या में व्यक्तिगत सुरक्षा सामग्रियां सिलने का अवसर मिला। महिलाओं ने इस चुनौती को आगे बढ़कर स्वीकार किया और जल्दी से जल्दी बालको का ऑर्डर पूरा करने में जुट गईं। शासन द्वारा जारी सोशल डिस्टेंसिंग और स्वच्छता के नियमों का पालन करते हुए समूहों की 51 महिलाओं ने लगभग 20 दिनों में बालको का ऑर्डर पूरा कर दिया है। ये सभी स्वयं सहायता समूह बालकोनगर के परसाभाठा, दहियानपारा, नेहरूनगर, भदरापारा और बेलगिरी नाला क्षेत्र में कार्यरत हैं।बालको के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं निदेशक श्री अभिजीत पति ने स्व सहायता समूहों की महिलाओं के योगदान की प्रशंसा की। श्री पति ने कहा कि अपने सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अंतर्गत बालको ने जरूरतमंद महिलाओं को सिलाई सीखने का जो अवसर दिया वह आज राष्ट्र निर्माण में काम आ रहा है। उन्होंने कहा कि समुदाय में बड़ी संख्या में स्वयंसेवक हैं जिन्हें बाहर रहकर जरूरतमंदों की मदद करनी होती है। ऐसे में कोरोना वाइरस से उनकी सुरक्षा प्राथमिकता है। स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं के योगदान से ऐसे स्वयंसेवकों की कोरोना वाइरस से सुरक्षा में बड़ी मदद मिली है। श्री पति ने यह भी कहा कि वेदांता समूह के चेयरमैन श्री अनिल अग्रवाल के मार्गदर्शन में अनेक कार्यक्रम पहले से ही संचालित हैं जिनके जरिए जरूरतमंदों तक राहत पहुंचाई जा रही है। हम सभी अपने अनुशासन और एकजुटता से निश्चित ही कोविड को हराने में सफलता पाएंगे।व्यक्तिगत सुरक्षा सामग्रियों की सिलाई का ऑर्डर पूरा करने में योगदान देने वाली ओम सांई महिला स्वयं सहायता समूह की सुरजा, ल्ष्मिमन समूह की रीना चंद्रा व सुरजू मनवार, सांई कृपा समूह की सावित्री, सिद्धी विनायक समूह की रानी श्रीवास, तेजस्वी समूह की कार्तिक मंझवार व रश्मि सिंह सहित अनेक महिलाओं ने बताया कि कोरोना वाइरस के कारण हुए लॉकडाउन ने अल्प आय अर्जित करने वाले परिवारों के समक्ष रोजी-रोटी का संकट खड़ा कर दिया है। ऐसे में बालको की ओर से मिला सिलाई का बड़ा ऑर्डर उनके परिवारों के लिए बड़ी राहत है। महिलाओं ने इस बात पर प्रसन्नता जताई कि उन्हें स्वास्थ्यकर्मियों और पुलिसकर्मियों सहित उन अनेक नागरिकों को सुरक्षित बनाए रखने का अप्रत्यक्ष रूप से अवसर मिला जो कोरोना की रोकथाम और जागरूकता की दिशा में काम कर रहे हैं। कोविड के खिलाफ लड़ाई में योगदान का अवसर देने के लिए महिलाओं ने बालको प्रबंधन के प्रति आभार जताया है।छत्तीसगढ़ शासन के अनेक प्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों, सी.आई.आई. आदि वाणिज्यिक संगठनों ने कोविड-19 से बचाव के लिए बालको की मदद की खूब प्रशंसा की है। महामारी से निपटने की दिशा में बालको ने स्थानीय नागरिकों की मदद के लिए जिला प्रशासन, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, कर्मचारियों और उनके परिवारजनों, व्यावसायिक साझेदारों और स्वयंसेवी संगठनों की मदद ली है। लॉकडाउन के कारण जिन परिवारों के समक्ष जीवन यापन संकट उत्पन्न हो गया है ऐसे परिवारों की मदद की जा रही है।------------ -
गुलजार- जन्मदिन विशेष
आलेख-मंजूषा शर्माजाने-माने शायर, गीतकार, लेखक और निर्देशक गुलजार साहब का आज जन्मदिन है। आज भी समझ नहीं आता कि वे ऐसे-ऐसे शब्द कहां से उठा लाते हैं और इतने सलीके से उसे गीतों के रूप में खूबसूरत मोतियों की माला तरह पिरो देते हैं, कि सुनने वाला बस सुनता ही रह जाता है। उनके गाने सुनो तो लगता है जैसे शब्द किसी झरने से झर रहे हैं बिना किसी अतिरिक्त शोर के अविरल। बस आप उसकी प्राकृतिक आवाज को सुनते रहिए , आवाज दिल तक ही उतरेगी। गुलजार साहब पुराने जमाने को याद करते हुए लिखते हैं- उस वक्त तस्वीरें दिल से बनती थी, कैमरों से नहीं।यू ट्यूब पर उनकी शायरी उन्हीं की आवाज में सुनी, खासकर जगजीत सिंह के साथ उनकी जुगलबंदी , लगा ही नहीं, कि कोई शायर या गीतकार अपनी रचनाएं पढ़ रहा है, बल्कि ऐसे लगा जैसे कोई हमारी देखी सुनी कहानी ही सुना रहा है । उन्हें सुनने वाला नि:शब्द डूबता चला जाता है, आंखों के सामने तब गुलजार साहब नहीं, बल्कि एक जीती जागती तस्वीर किसी फिल्म की तरह सेल्युलाइट पर चलने लगती है। यह उनके शब्दों, आवाज के माड्यूलेशन और सहजता का जादू ही है।सफ़ेद पैरहन के भीतर धड़कता एक शायर दिल जिसकी ज़ुबान में शीरे की महक आती हैं। जो नज़्मों की ऊंगलियां पकड़ कभी बादलों पर सैर करता है तो कभी गज़़लों के साथ दिल बहलाने के लिए चांद-तारों को निहारता है। एक लेख़क जिसकी कलम शब्दों के साथ ऐसे ख़ेलती है कि देखने और पढऩे वाले दोनों का दिल बहल जाए। जो हिन्दी की किताबों में उर्दू की जिल्द चढ़ाते हैं वो ग़ुलज़ार हैं।जायकेदार हवा, मासूम पानी, गुनगुनाती निगाहें, रंगीली सांसें... चांद, तारे, आकाश, नदियों और इंसानी अहसास, दिल का पड़ोसी होना, और कभी दिल की तरह बीड़ी जलाइले, जैसे शब्द वे ही गढ़ सकते हैं। वे बच्चों के लिए लिखते समय चड्डी पहनकर फूल भी खिला सकते हैं । कहते हैं कि किसी शायर के मन की थाह लेना वैसे भी मुश्किल है , लेकिन गुलजार के शब्दों और आवाज की गहराई का भी कोई सिरा ही नहीं नजर आता है। आप कितनी भी कोशिश करें उनके शब्दों के जादू से दूर नहीं भाग सकते। शायर, लेखक, निर्देशक गुलजार ने करीब छह दशकों के अपने कॅरिअर में कविता, गीत, शेर, टीवी सीरियल, फिल्में समेत उर्दू और हिंदी साहित्य की कई विधाओं के लिए कलम चला रहे हैं।उर्दू के प्रति उनका प्रेम आज भी उनके हिन्दी गीतों में झलकता है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे आज भी गीतों को उर्दू शब्दावली में ही लिखना पसंद करते हैं, फिर उसे हिन्दी में लिखा जाता है।आज 86 साल की उम्र में भी उनका रिश्ता लेखनी के साथ पूरे दम खम के साथ जारी है और हर गुजरते वक्त के साथ नए -नए मोती गढ़ रहा है। गंभीर अहसास और रूमानियत भरे गीतों के साथ ही कजरारे कजरारे और बीड़ी जलइले जैसे गीत भी उनकी कलम ने लिखे हैं। हिंदी फिल्मों के वो अकेले शायर हैं जिनके हिस्से में भारत के सारे बड़े फिल्मी पुरस्कारों के अलावा अंतरराष्ट्रीय जगत का ऑस्कर और ग्रैमी पुरस्कार भी हासिल है। पद्म भूषण दादा साहेब फाल्के जैसे सम्मान के भी वे हकदार बने हैं।उन्होंने जाने-माने डायरेक्टर बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक के रूप में अपना कॅरिअर शुरु किया था। शायद इसीलिए उनमें सहजता के साथ अपनी बात कहने वाला अंदाज और परपिक्व होता गया। बिमल रॉय ने उनकी किताब रावी पार पढ़ी और उन्होंने अपनी फिल्म बंदिनी में गीत लिखने के लिए कहा। गुलजार साहब ने लिखा- मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे शाम रंग देइ दे, छुप जाऊंगी रात ही में , मोहे पी का रंग दइदे। सचिन देव बर्मन ने इस गाने को बहुत ही खूबसूरती के साथ सुरों में ढाला। लता मंगेशकर की प्यारी आवाज और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का जादू, नूतन की सहजता, गाने को और भी खूबसूरती बना गई। यह सबसे हिट गाना साबित हुआ। हालांकि फिल्म के गाने उस दौर के मशहूर गीतकार शैलेन्द्र लिख रहे थे। उन्होंने भी गुलजार को गाने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इस गाने ने लता मंगेशकर और सचिन देव बर्मन के बीच का झगड़ा भी खत्म कराया था। गुलजार साहब के 74 वें जन्मदिन पर लता मंगेशकर ने इस वाकये को याद किया था।लता ने बताया बर्मन दादा के साथ मेरा झगड़ा चल रहा था। इस बीच एक दिन उनका फ़ोन आया कि एक नया लड़का आया है उसने फि़ल्म बंदिनी के लिए ये गाना लिखा है मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे। मुझे ये गाना इतना पसंद आया कि मैं गाने के लिए मान गई। यही गाना गुलज़ार के फि़ल्मी कॅरिअर का पहला गाना था।लता मंगेशकर के मुताबिक गुलज़ार की शायरी बाकी शायरों से बिलकुल अलग होती है। उनके सोचने का ढंग बिलकुल जुदा होता है। वो कहती हैं कई बार मैं उनसे पूछती कि आपने ये शब्द क्यों लिखा है या ये लाइन क्यों लिखी है, तो वो सिफऱ् हंस देते और कहते मुझे अच्छा लगा तो मैंने लिख दिया। वो उसकी कोई वजह नहीं बताते। उन्हें जो अच्छा लगता है वो वही लिखते हैं। गुलज़ार के लिखे लता के पसंदीदा गाने हैं -नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, यारा सीली-सीली और पानी-पानी रे। वो कहती हैं मैं भगवान की शुक्रगुज़ार हूं कि मुझे गुलज़ार के लिखे ढेर सारे गाने गाने का मौका मिला। उन्होंने आरडी बर्मन से लेकर विशाल भारद्वाज और आज की पीढ़ी के संगीतकारों के लिए भी गाने लिखे और खूब लिखे।गोरा गोरा अंग लई ले ....गाना लोकप्रिय हुआ था और इसके लिए गुलजार को प्रशंसा भी मिली, लेकिन उस दौर में गुलजार फिल्मों में गाने लिखने के लिए उत्सुक नहीं थे। गुलजार साहब ने खुद एक साक्षात्कार में बताया था कि जब उन्होंने अपने कॅरिअर का पहला फि़ल्मी गीत मोरा गोरा अंग लई ले.. लिखा तो वो फि़ल्मों के लिए गाने लिखने को लेकर बहुत ज़्यादा उत्सुक नहीं थे, लेकिन फिर एक के बाद एक गाने लिखने का मौका मिलता गया और वो गाने लिखते चले गए।गुलजार जाने-माने शायर गालिब के मुरीद रहे हैं। इसलिए शेरो शायरी के प्रति उनका झुकाव शुरू से रहा है। गालिब के लिए उनके मन में इतनी इज्जत है कि वो खुद को गालिब का एक नौकर ही मानते हैं। वो गालिब से इतने प्रभावित थे कि उनकी जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे। इस फिल्म में पहले वो संजीव कुमार को लेना चाहते थे। लेकिन किसी ना किसी वजह से ये प्रोजेक्ट टलता गया और आखिर में इस प्रोजेक्ट में गालिब बनने का मौका नसीरुद्दीन शाह को मिला। वो तब तक जमाना था जब दूरदर्शन बढ़ रहा था। ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचने के लिए फिल्म मेकर्स दूरदर्शन की तरफ बढऩे लगे थे। ऐसे में गुलजार ने भी अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए दूरदर्शन को चुना और फिल्म की जगह एक टीवी सीरियल की शुरुआत की। इस वक्त तक नसीर इंडस्ट्री में अच्छी पहचान बना चुके थे। इस रोल के लिए गुलजार ने नसीर को चुना था। इसके साथ ही गुलजार और नसीर दोनों का एक पुराना सपना सच हुआ। जब पहले गुलजार ने गालिब के रोल के लिए संजीव को चुना था तो नसीर ने उनके इस फैसले पर सवाल उठाते हुए एक चिट्ठी लिखी थी। वो चिट्ठी तो गुलजार साहब तक नहीं पहुंची थी। लेकिन कुदरती कुछ ऐसे हालात बनते गए कि यह फिल्म एक सीरियल के रूप में सामने आई। नसीर को उनका पसंदीदा कैरेक्टर मिला और गुलजार के लिए उनका सपना सच हो गया था। गालिब की गक़ालों को जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने आवाज दी।गालिब के प्रति गुलजार साहब की दीवानगी उनके लिखे गानों में नजर आ ही जाती है। जैसे कि गालिब ने लिखा... दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन, बैठे रहें तसव्वर-ए-जानां किए हुएइसी शेर पर गुलज़ार ने यह नज़्म लिखी जिसे फिल्म मौसम में शामिल किया गया।दिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिनबैठे रहें तसव्वर-ए-जानां किए हुए
जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट करआँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साये कोऔंधे पड़े रहें, कभी करवट लिये हुए ..
या गर्मियों की रात जो पुरवाइयाँ चलेंठंडे सफ़ेद बिस्तर पर जागें देर तकतारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए
बफऱ्ीली सर्दियों में किसी रात में कभीवादी में गूँजती हुई ख़ामोशियाँ सुनेंआँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुएदिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिनइस गाने को मदनमोहन साहब ने ऐसे सुरों में ढाला कि 45 साल के बाद भी इसकी रुमानियत दिल धड़का जाती है। जाते-जाते गुलजार साहब की रिश्तों के ताने-बाने पर लिखी एक प्यारी की नज्म, तो मुझे बहुत पसंद है-मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहेअक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनतेजब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआफिर से बाँध केऔर सिरा कोई जोड़ के उसमेंआगे बुनने लगते होतेरे इस ताने में लेकिनइक भी गाँठ गिरह बुनतर कीदेख नहीं सकता है कोईमैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्तालेकिन उसकी सारी गिरहेंसाफ़ नजऱ आती हैं मेरे यार जुलाहे
- पुण्यतिथि पर विशेषजाने-माने अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के सभी बेटों राजकपूर, शम्मीकपूर और शशिकपूर ने लोकप्रियता के शिखर को छुआ है। सबका अपना अलग अंदाज हुआ करता था।आज ही के दिन 2011 में शम्मी कपूर इस संसार से रुखसत हुए थे। शम्मी का वास्तविक नाम शमशेर राज कपूर था। अपनी विशिष्ट याहू शैली के कारण बेहद लोकप्रिय रहे शम्मी कपूर हिंदी फि़ल्मों के पहले सिंगिंग-डांसिग स्टार माने जाते रहे हैं।भारत के एल्विस प्रेसली कहे जाने वाले शम्मी कपूर रुपहले पर्दे पर तब अपने अभिनय की शुरुआत की, जब उनके बड़े भाई राज कपूर के साथ ही देव आनंद और दिलीप कुमार छाए हुए थे। शम्मी कपूर ने वर्ष 1953 में फि़ल्म ज्योति जीवन में पहली बार नायक के तौर पर कदम रखा। वर्ष 1957 में नासिर हुसैन की फि़ल्म तुमसा नहीं देखा में जहां अभिनेत्री अमिता के साथ काम किया, वहीं वर्ष 1959 में आई फि़ल्म दिल दे के देखो में आशा पारेख के साथ नजर आए। वर्ष 1961 में आई फि़ल्म (जंगली) ने शम्मी कपूर को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इस फि़ल्म के बाद ही वह सभी प्रकार की फि़ल्मों में एक नृत्य कलाकार के रूप में अपनी छवि बनाने में कामयाब रहे। जंगली फि़ल्म का गीत याहू दर्शकों को खूब पसंद आया। उन्होंने चार फि़ल्मों में आशा पारेख के साथ काम किया जिसमें सबसे सफल फि़ल्म वर्ष 1966 में बनी तीसरी आंख रही। वर्ष 1960 के दशक के मध्य तक शम्मी कपूर प्रोफेसर, चार दिल चार राहें, रात के राही, चाइना टाउन, दिल तेरा दीवाना , कश्मीर की कली और ब्लफमास्टर जैसी हिट फिल्में दी। फि़ल्म ब्रह्मचारी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फि़ल्म फेयर पुरस्कार भी मिला जिसमें उनकी नायिका के तौर पर राजश्री ने काम किया था। उनके लिए रफी साहब ने खूब गाने गए और प्राय: सभी सुपर हिट रहे।शम्मी कपूर ने अपने दौर में मधुबाला, सुरैया , नलिनी जयवंत जैसी सफल नायिकाओं के साथ काम किया, इसके बाद भी उनकी फिल्में नहीं चली। फिल्म तुमसा नहीं देखा में उन्होंने अपना लुक बदला और इस बार किस्मत ने साथ दे दिया और फिर वे उत्तरोत्तर सफलता की सीढिय़ां चढ़ते गए। इसी दौरान उन्होंने अपनी नायिका रही गीता बाली से शादी कर ली। यह साथ ज्यादा दिन नहीं चला और गीता ने कम उम्र में ही इस संसार से विदा ले ली। उस वक्त बेटी कंचन और बेटा आदित्य काफी छोटे थे। उन्होंने दूसरी विवाह किया। गीता के चले जाने से शम्मी कपूर काफी निराश हो गए थे और इसका असर उनके कॅरिअर पर भी पड़ा। लेकिन वे फिर अपने अंदाज में लौटे और बॉलीवुड में छा गए। परिवार के लिए उन्हें नीला देवी से दूसरी शादी की। समय के साथ उन्होंने अपनी भूमिकाओं के साथ भी समझौता किया और चरित्र भूमिकाओं में भी अपना दमखम दिखाया। उनका पान पराग वाला विज्ञापन आज भी लोग भूले नहीं हैं।बड़े शौकीन तबीयत के थेशम्मी कपूर म्यूजिक, खानपान से लेकर खेल और गाडिय़ों का शौक रखते थे। 2011 में अपनी तबीयत ठीक नहीं होने के बाद भी उन्होंने पोते रणबीर कपूर के साथ फिल्म रॉकस्टार में काम किया। जीवन के अंतिम समय तक वे इंटरनेट पर व्यस्त रहा करते थे और ब्लॉग में अपने विचार लोगों से साझा करते रहते थे। गोल्फ खेलना उन्हें काफी पसंद था। फिल्मी कलाकारों के लिए वे हमेशा से प्रेरणास्रोत थे और आगे भी बने रहेंगे।
- आलेख-मंजूषा शर्माआजादी की वर्षगांठ के मौके पर आज हम एक ऐसे गीत की चर्चा कर रहे हैं, जिसे राष्ट्रीय गीत होने का दर्जा प्राप्त है। इस गीत को 1952 में आई फिल्म आनंद मठ में शामिल किया गया था।फिल्म और इस गीत की चर्चा से पहले इसकी रचना के इतिहास पर एक नजर-वंदे मातरम् की रचना बंकिमचंद्र चटर्जी या चट्टोपाध्याय ने की थी। उन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। वंदे मातरम गीत स्वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था। 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1881 में अपने उपन्यास आनंदमठ में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही दशप्रहरणधारिणी (दुर्गा), कमला (लक्ष्मी) और वाणी (सरस्वती) के उद्धरण दिए गए हैं।मूल गीत इस प्रकार है-सुजलां सुफलां मलयजशीतलामसस्य श्यामलां मातरम् .शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीमफुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम,सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .सुखदां वरदां मातरम् ॥कोटि कोटि कन्ठ कलकल निनाद करालेद्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवालेके बोले मा तुमी अबलेबहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीमरिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्मत्वं हि प्राणा: शरीरेबाहुते तुमि मा शक्ति,हृदये तुमि मा भक्ति,तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणीकमला कमलदल विहारिणीवाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वामनमामि कमलां अमलां अतुलामसुजलां सुफलां मातरम् ॥श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितामधरणीं भरणीं मातरम् ॥मूल रूप से गाया जाने वाला वंदे मातरम गीत किस राग पर आधारित है, आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। यह मूल रूप से एक बांगला रचना है और इस पर रवीन्द्र संगीत की झलक साफ देखने को मिलती है। पहली बार यह गीत पंडित ओंकारनाथ ठाकुर की आवाज में रिकॉर्ड किया गया था। इसका पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया के रिकार्ड में आज भी दर्ज है। वहीं रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार 'वंदे मातरमÓ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।अब कुछ चर्चा फिल्म आनंद मठ के बारे मेंफिल्म आनंद मठ में यह गीत शामिल किया गया है, जो इसी नाम के उपन्यास पर आधारित फिल्म थी। इस उपन्यास की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। इस गीत को लता मंगेशकर और हेमंत कुमार ने आवाजें दी हैं। यह फिल्म 1952 में रिलीज हुई थी और उस समय तक देश आजाद हो चुका था, लेकिन देशभक्ति पूर्ण फिल्मों का बनना जारी था। फिल्म में 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संन्यासी विद्रोह की कहानी थी। संन्यासी विद्रोह भारत की आज़ादी के लिए बंगाल में अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध किया गया एक प्रबल विद्रोह था। संन्यासियों में अधिकांश शंकराचार्य के अनुयायी थे। इस विद्रोह को कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्यवाही करनी पड़ी थी। दरअसल भारतीय जनता के तीर्थ स्थानों पर जाने पर लगे प्रतिबंध ने शान्त संन्यासियों को भी विद्रोह पर उतारू कर दिया था। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, प्रदीप कुमार , भारत भूषण, गीता बाली, अजीत, रंजना ,जानकीदास और मुराद ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं। फिल्म का निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था। फिल्मस्तान कंपनी के बैनर तले फिल्म का निर्माण हुआ था, जो उस वक्त की एक नामी फिल्म निर्माण कंपनी थी। फिल्म में संगीत हेमंत कुमार ने दिया था । यह वह दौर था, जब हेमंत कुमार बांगला फिल्मों से हटकर हिन्दी फिल्मों में पांव जमाने का प्रयास कर रहे थे।फिल्म में चार गाने शामिल किए गए थे । वंदे मातरम गीत, फिल्म में दो बार बजता है, एक बार लता मंगेशकर की आवाज में और दूसरी बार हेमंत दा की आवाज में। लता ने फिल्म में गीता बाली के लिए प्लेबैक किया था। वहीं अभिनेता प्रदीप कुमार, अजीत के लिए यह गाना हेमंत कुमार ने खुद गाया है। लता की आवाज में गाए इस गीत में बैकग्राऊंड में हेमंत कुमार और कोरस की आवाजें सुनाई देती हैं। गीत के फिल्मांकन में पृथ्वीराज कपूर , प्रदीप कुमार और गीता बाली नजर आते हैं। लता की आवाज में ज्यादा ओज पैदा करने का प्रयास किया गया है। यह मौका होता है आजादी के संघर्ष में संन्यासियों के कूच पर जाने का और गीता बाली उन्हें इस गीत के माध्यम से देश के प्रति उनका कर्तव्य याद दिलाती हैं। वहीं हेमंत कुमार की आवाज में गाए इस गीत के प्रारंभ में राग में कुछ बदलाव किए गए हंै। गाने में भारत भूषण, अजीत और प्रदीप कुमार के साथ आम लोगों को भी दिखाया गया जो इस संन्यासी विद्रोह का हिस्सा बनते हैं। यह गाना लता की आवाज में गाए गीत की तुलना में थोड़ा लंबा है क्योंकि इसमें मां दुर्गा की स्तुति भी की गई है।फिल्म के एक गाने जय जगदीश हरे में गीता रॉय की आवाज ली गई थी जिसमें उनका साथ दिया था हेमंत कुमार ने। इस गाने को 60-90 के दशक में सिनेमाहॉल में फिल्म शुरू करने से पहले बजाया जाता है। यहां मैं महासमुन्द की एक टॉकीज का जिक्र करना चाहूंगी। मुझे याद है जब बचपन में हम फिल्म देखने के लिए राम टॉकीज जाया करते थे, तो फिल्म शुरू होने से पहले ये गाना जरूर बजता था। टॉकीज में हॉरर , एक्शन या रोमांटिक किसी भी मूड की फिल्म क्यों न लगी हो, फिल्म शुरू करने से पहले इस गाने का बजना जैसे एक परंपरा बन गई थी। इसका कारण क्या था, पता नहीं, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि उस वक्त यह गीत किसी शासकीय अनिवार्यता का हिस्सा तो नहीं था। कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन इसी माध्यम से ही सही, यह गीत बरसों तक जनमानस के दिल और जुबां पर बसा रहा। फिल्म आनंद मठ में यह गाना पृथ्वीराज कपूर और गीता बाली पर फिल्माया गया है।आनंदमठ फिल्म से ही अभिनेता प्रदीप कुमार ने हिन्दी फिल्मों में कदम रखा था। वे बांगला स्टार थे और हेमंत दा ही उन्हें इस फिल्म से हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में लेकर आए थे। फिल्म के रिलीज के बाद वंदेमातरम गीत काफी लोकप्रिय हुआ और फिर इसे स्वतंत्रता दिवस और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के मौके पर आयोजित हर समारोह में बजाया जाने लगा और यह परंपरा आज भी कायम है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब इस गाने को लिखा था, तब उन्होंने शायद नहीं सोचा रहा होगा, कि मूल रूप से संन्यासी विद्रोह से जुड़ा यह गीत एक दिन देश की आनबान का प्रतीत बनकर राष्ट्रीय गीत बनेगा। इस फिल्म की चर्चा के बीच एक कलाकार को हम जरूर याद करना चाहेंगे और वे हैं अजीत। फिल्म जंजीर के मोना डार्लिंग वाले खलनायक अजीत की आनंदमठ प्रारंभिक फिल्मों से एक थी। यह वह दौर था जब अजीत नायक की भूमिका अदा किया करते थे। उनका पूरा नाम हामिद अली खान था।----
- -बोलचाल बंद होने के बाद भी दिलीप कुमार - मधुबाला ने फिल्म पूरी की-दिलीप कुमार ने 19 साल तक यह फिल्म नहीं देखीआलेख-मंजूषा शर्माफिल्म मुगल-ए-आज़म 60 साल पहले आज ही के दिन रिलीज हुई थी। फिल्म के गाने इतने लोकप्रिय हुए थे कि आज की पीढ़ी भी इसे गुनगुनाती है। वर्ष 1960 में फिल्मकार के. आसिफ की ब्लॉक बस्टर फिल्म रही मुगल-ए-आज़म को आज भी दर्शक देखना पसंद करते हैं। फिल्म में मधुबाला, दिलीप कुमार और पृथ्वीराज कपूर की दमदार अदाकारी और प्रभावशाली सेट ने दर्शकों के दिलों पर अपनी छाप छोड़ी।हिंदी सिनेमा की सबसे सफल फिल्मों से एक, मुगल-ए-आज़म में अनारकली और राजकुमार सलीम की दुखद प्रेम कहानी के माध्यम से प्यार, वफादारी, परिवार और युद्ध को बड़े ही अनोखे तरीके से पर्दे पर उतारा गया था। फिल्म हिन्दी में बनी, लेकिन इसे तमिल और अंग्रेजी में भी शूट किया गया। हिन्दी में तो फिल्म सफल रही, लेकिन तमिल में लोगों ने इसे पसंद नहीं किया, जिसके बाद इसे अंग्रेजी में रिलीज करने का खयाल फिल्मकार को छोडऩा पड़ा। ये फिल्म डिजिटली रंगीन होने वाली पहली ब्लैक एंड व्हाइट हिंदी फिल्म थी। इसके अलावा ये किसी भी भाषा में बनने वाली पहली फिल्म थी जिसे दोबारा रिलीज़ किया गया था।मुगल ए- आजम, फिल्म को वर्ष 2009 में जब रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया, तो किसी ने नहीं सोचा था कि इसे इतना शानदार रिस्पांस मिलेगा। फिल्म के गाने अपने दौर में तो सर्वश्रेष्ठ रहे ही हैं और आज भी जब बजते हैं, तो लोगों के दिलों को सुकून ही देते हैं। इस बारे में शायद ही किसी को शक हो कि फिल्मी इतिहास में इसका संगीत नौशाद का सर्वोत्तम संगीत रहा है। नौशाद साहब ने एक-एक खालिस मोती चुन-चुनकर उसे ऐसे सुरों में पिरोया कि हर गाना अपना कहानी आप कह जाता है।नौशाद का दिलकश संगीतइस फिल्म के ज्यादातर गानों में नौशाद साहब ने कहानी के मूड के लिहाज से अपनी पसंदीदा गायिका लता मंगेशकर की आवाज ली है। हर गाने में शास्त्रीयता की झलक मिलती है। इन गानों में कम से कम म्यूजिक इंस्टूमेंट्स का इस्तेमाल किया गया और कहीं भी तेज ऑर्केस्ट्रा या कम्प्यूटरीकृत तकनीकी या आधुनिकता का आभास नहीं होता। शायद इसीलिए पुराने गानों में गायकों की आवाज ज्यादा स्पष्ट तौर से उभरकर सामने आती थी। फिल्म में लताजी का राग गारा में गाया हुआ गीत -मोहे पनघट पे नंद लाल छेड़ गयो रे.....एक तरह से कव्वाली भी है और लोक परंपरा, मान्यताओं के अनुरूप कान्हा के साथ गोपियों की छेड़-छाड़ भी इसमें नजर आती है। इस गाने में नायिका मधुबाला की खूबसूरती देखते ही बनती है। इस गाने की हर बात उम्दा है- फिर उसका ट्रैक हो या फिर खालिस उर्दू के साथ प्रचलित लोक भाषा का इस्तेमाल और फिर उनको लेकर रचा गया नौशाद का बे-नायाब सुरों का जाल, जिसमें श्रोता अंदर तक घुसता चला जाता है।इसी फिल्म में नौशाद साहब ने रागदरबारी में एक गाना रचा- प्यार किया तो डरना क्या.. काफी खूबसूरत है। इसी गाने में शीश महल के साथ मधुबाला की झलक उस जमाने की बेहतरीन तकनीक को पेश करती है। इस गाने से जुड़ा एक अनूठा इतिहास भी है। 60 के दशक में जब एक पूरी फिल्म 10 लाख रुपये में बन जाया करती थी, उस वक्त इस फिल्म के सिर्फ इस गाने को शूट करने में 10 लाख रुपये से अधिक खर्च हो गए थे । इस गाने को फिल्माने के लिए खासतौर पर शीश महल बनवाया गया था जिसमें हर तरफ सिर्फ शीशे ही शीशे लगे हुए थे। लता मंगेशकर की आवाज का जादू ऐसा चला कि क्या कहने। कहा जाता है कि इस गाने को लिखते समय गीतकार शकील बदायुनी ने सौ से कहीं अधिक बार पन्नों को फाड़ा, तब जाकर उनका यह गाना फिल्मकार के. आसिफ को पसंद आया था। लता मंगेशकर ने फिल्म के हर गाने के लिए काफी रियाज किया। इस बात का खुलासा खुद लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू के दौरान किया था। उन्होंने कहा था- जब वो इस फिल्म के गानों की रिकॉर्डिंग करती थीं तब उन्हें लगता था कि उनके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और कैसे भी करके उन्हें ये पूरी करनी है। फिल्म का यही गाना रंगीन फिल्माया गया था, बाकी फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट में थी।बड़े गुलाम अली खां साहब का जादूफिल्म का एक और गाना राग यमन में है जिसके बोल हैं- खुदा निगेबान..जिसमें नफीस उर्दू के बोल हैं तो उनमें रची बसी लता की मिठास भी है। फिल्म में नौशाद साहब ने उस्ताद बड़े गुलाम अली साहब से काफी मनुहार करके दो गीत गाने के लिए मना लिया था - प्रेम जोगन बन के और शुभ दिन आयो राज दुलारा...। जिसमें से प्रेम जोगन.. गाना भी पूरी तरह से ठुमरी स्टाइल का ठेठ शास्त्रीय था और इसे दिलीप कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गया था, जो फिल्मी इतिहास का सबसे रोमांटिक सीन कहा जाता है। इस सीन में नायक दिलीप कुमार प्रेम रस में डूबी नायिका मधुबाला के चेहरे पर जब बड़े-बड़े मखमली पंखों से अपना प्यार उड़ेलते हैं, सारा माहौल रोमांटिक हो उठता है। इस की गाने की खासियत ये भी है कि इसे बड़े गुलाम अली खां साहब ने गाया है। नौशाद अच्छी तरह से जानते थे कि इस ठुमरी के साथ खां साहब ही न्याय कर सकते हैं। काफी मनुहार के बाद खां साहब दो ठुमरी गाने के लिए तैयार हुए थे।इस फिल्म में कुल 12 गाने थे। एक गाने में रफी साहब और एक अन्य गाने में शमशाद बेगम की आवाज का इस्तेमाल नौशाद साहब ने किया। फिल्म के एक गाने जिंदाबाद जिंदाबात ऐ मुहब्बत जिंदाबाद गाने के कोरस में नौशाद साहब ने 100 से अधिक गायकों को कोरस के रूप में शामिल किया था।सबके लिए अलग कपड़े तैयार हुएमुग़ल-ए-आज़म के सेट और प्रत्येक कलाकार के लिए अलग-अलग कपड़े तैयार किए गए थे। जिसके चलते यह फि़ल्म ऐतिहासिकता को दर्शाने में सफल रही थी। इसके किरदारों के कपड़े तैयार करने के लिए दिल्ली से विशेष तौर पर दर्जी और सूरत से काशीदाकारी के जानकार बुलाये गए थे। हालांकि विशेष आभूषण हैदराबाद से लाए गए थे। अभिनेताओं के लिए कोल्हापुर के कारीगऱों ने ताज बनाया था। राजस्थान के कारीगरों ने हथियार बनाए थे और आगरा से जूतियां मंगाई गई थीं। फि़ल्म के एक दृश्य में भगवान कृष्ण की मूर्ति दिखाई गई है, जो वास्तव में सोने की बनी हुई थी।दिलीप कुमार और मधुबाला की अनबनफिल्म के सेट तैयार करने में काफी वक्त लगता है जिसका कारण फिल्म निर्माण में भी काफी वक्त लग गया। इस दौरान मधुबाला और दिलीप कुमार के रिश्ते में ऐसी खटास आ गई कि बोलचाल तक बंद हो गई थी। कहा जाता है कि इसके बाद भी दोनों कलाकारों ने अपने रोमांटिक सीन भी इस संजीदगी से किए कि किसी को भान ही नहीं रहा कि दोनों के रास्ते अलग हो चुके हैं। फिल्म के युद्ध के सीन के लिए भारतीय सेना की मदद ली गई थी। इसी दौरान के. आसिफ के साथ दिलीप कुमार की ऐसी नाराजगी रही कि दिलीप कुमार फिल्म के प्रीमियर में नहीं गए और करीब 19 साल तक उन्होंने यह फिल्म ही नहीं देखी।फिल्म 5 अगस्त 1960 को 150 प्रिंट के साथ रिलीज हुई, जो एक रिकॉर्ड था। मुंबई के मराठा मंदिर में इसे प्रदर्शित किया गया। फिल्म का रिस्पांस काफी धीमा रहा, लेकिन बाद में इसने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की। फिल्म को अनेक पुरस्कार भी मिले।
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जयंती पर विशेष
आलेख- मंजूषा शर्मा
महान गायक, संगीतकार, फिल्मकार और अभिनेता किशोर कुमार ने एक से बढ़कर एक गाने दिए हैं। कलाकारों की कई पीढिय़ों के लिए उन्होंने गाना गाया है। उनकी आवाज यदि सुनील दत्त पर अच्छी लगी तो उनके बेटे संजय दत्त के लिए भी उन्होंने गाने गाए। यदि वे आज जीवित होते तो नए युवा कलाकारों के लिए भी गा रहे होते, क्योंकि उन्होंने तो जैसे सिर्फ फिल्मों में गाने और अभिनय करने के लिए ही जन्म लिया था।आज उनके जन्मदिन के मौके पर उनके गाए कुछ हिट गाने हम यहां पेश कर रहे हैं-रूप तेरा मस्ताना- किशोर कुमार की आवाज अपने दौर के हर नायक के ऊपर अच्छी लगती है। रूप तेरा मस्ताना गाना राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर पर फिल्माया गया है। यह फिल्म थी आराधना, जो 1969 में प्रदर्शित हुई था। यह अपने दौर की सुपर हिट फिल्म थी। आज भी यह गाना बॉलीवुड का सबसे रोमांटिक गानों में शुमार किया जाता है। राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की शानदार केमेस्ट्री से सजी इस फिल्म में किशोर कुमार की आवाज राजेश खन्ना पर एकदम फिट बैठती है।जाने जां ढूंढता फिर रहा- फिल्म जवानी दीवानी में यह गाना शामिल किया गया था। इस गाने में किशोर कुमार का साथ दिया था आशा भोंसले ने और यह गाना फिल्म के नायक रणधीर कपूर और नायिका जया बच्चन पर फिल्माया गया था। 1972 में आई इस फिल्म में आर. डी. बर्मन ने संगीत दिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ग्लैमरस अवतार में नजर आई थीं। यह एक रोमांटिक फिल्म थी और यह पहला मौका था जब किसी फिल्म में रणबीर और जया की जोड़ी बनी थी। गाने का पिक्चराइजेशन भी काफी खूबसूरत है। नायिका, नायक के साथ लुका छिपी का खेल खेलती है और नायक उसे यह गाना गाकर ढूंढता फिर रहा है। गाने में आशा भोंसले ने भी अपनी आवाज के साथ कमाल का मॉड्यूलेशन किया है, जो पंचम दा की खास स्टाइल रही है।फूलों के रंग से- किशोर कुमार ने देवआनंद के लिए भी काफी हिट गाने गाए हैं। हालांकि देव साहब की प्रारंभिक फिल्मों में उनके लिए प्लेबैक सिंगिग का काम हेमंत कुमार और रफी साहब ने किया था। लेकिन बाद की फिल्मों में तो किशोर कुमार जैसे देव साहब की ही आवाज बन गए थे। फूलों से रंग से ... गाना फिल्म प्रेम पुजारी का है जिसका निर्माण देव साहब ने अपनी ही फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले किया था। यह वह आखिरी फिल्म है जिसका निर्देशन उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था। इसके बाद वे इस बैनर से हमेशा के लिए अलग हो गए थे। फूलों से रंग से ,,, गाने में देव साहब के साथ नायिका वहीदा रहमान की एक झलक मिलती है, साथ ही सह नायिका नादिया भी नजर आती हैं। गाने के बोल भी दिल को छू लेने वाले हैं। गाने का संगीत सचिन देव बर्मन ने तैयार किया था और यह फिल्म 1970 में रिलीज हुई थी।मेरे सामने वाली खिड़की में- यह गाना इसलिए भी लोगों खास तौर से पसंद आता है, क्योंकि इसमें किशोर दा भी अपने खास अंदाज में नजर आते हैं। पड़ोसन फिल्म में नायक सुनील दत्त नायिका सायरा बानो को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन वे बेहद बेसुरे हैं। इसलिए गायक किशोर कुमार उनकी मदद के लिए सामने आते हैं और खिड़की के पीछे खड़े वे यह गाना गाते हैं और सुनील दत्त साहब केवल होंठ हिलाते हैं। साथ ही अभिनेता मुकरी, केस्ट्रो मुखर्जी और राजकिशोर टीपा, झाडू लिए म्यूजिक देते हैं। 1968 की इस फिल्म में भी पंचम दा का संगीत था। कॉमेडी से भरपूर इस फिल्म में किशोर कुमार, सुनील दत्त और मेहमूद ने लोगों को काफी हंसाया था। मेरे सामने वाली खिड़की गाने के अलावा फिल्म में कहना है... गीत भी हिट हुआ था।ईना मीना डीका- यह गाना किशोर कुमार साहब पर ही फिल्माया गया है और यह फिल्म थी आस्था। इस फिल्म में किशोर कुमार की नायिका का रोल वैजयंतीमाला ने निभाया था। गाने में किशोर दा की हुडदंगी स्टाइल साफ झलकती है। गाने में काफी रोमांच है और एक ही सांस में इसे किशोर दा के जैसे इसे गाना किसी आम कलाकार के लिए सहज बात नहीं है। गाने के बोल काफी उटपटांग हैं, लेकिन इसका अपना मजा है। फिल्म में किशोर कुमार मुख्य भूमिका में थे। यह गाना आशा भोंसले की आवाज में भी है, लेकिन किशोर दा वाला वर्जन ज्यादा लोकप्रिय हुआ था। फिल्म का प्रदर्शन 1957 में हुआ था। फिल्म के गीतों को सुरों से सजाया था-सी. रामचंद्र ने।कुछ तो लोग कहेंगे- राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की मुख्य भूमिका वाली फिल्म अमर प्रेम का यह गाना किशोर दा ने इतनी खूबी से गाया है कि आज भी इसे सुनकर सुकून मिलता है। फिल्म का प्रदर्शन 1972 में हुआ था। आर. डी. बर्मन साहब ने आनंद बख्शी के दिल को छू लेने वाले बोलों को इतने सुंदर ढंग से सुरों में पिरोया है कि आज भी इस फिल्म के गाने लोगों की जुबां पर हैं। इस गाने का फिल्मांकन कोलकाता में हुगली नदी पर बड़े ही पारंपरिक अंदाज में छोटी नाव यानी डोंगी पर हुआ है। इस गाने में किशोर कुमार की आवाज का जादू आज भी बरकरार है। गाने में रोमांस भी है और नायक, नायिका को उसके दुख से निकालने का प्रयास बड़ी ही सरलता से दुनियादारी का आईना दिखाते हुए करता है।ये जो मोहब्बत है- 70 के दशक में राजेश खन्ना के साथ किशोर दा की आवाज की ऐसी स्पेशल बांडिंग हो गई थी कि हर निर्माता, इस जोड़ी को फिल्म में लेना पसंद कर रहा था। यदि इसमें पंचम दा यानी आर. डी हर्मन साहब भी जुड़े जाते थे, तो गाने तो शानदार बनने ही थे। ये जो मोहब्बत है, इसी तिकड़ी का एक हिट गाना है। यह गाना फिल्म फिल्म कटी पतंग में शामिल किया गया था। 1971 में प्रदर्शित इस फिल्म में राजेश खन्ना के अपोजिट आशा पारेख थीं। इस बार भी पंचम दा का संगीत लोगों के सिर चढ़कर बोला। फिल्म में हर मूड के गाने थे खासकर ये जो मोहब्बत है, में नायक राजेश खन्ना अपने टूटे हुए दिल का दुख बड़े ही बेफिक्री से झटकते हुए नजर आते हैं और प्यार करने से तौबा करते हैं। गाने में राजेश खन्ना की देवदास स्टाइल भी काफी पसंद की गई थी।मेरे सपनों की रानी - किशोर कुमार और राजेश खन्ना के गानों की बात हो और मेरे सपनों की रानी... गाने का जिक्र न हो तो, बात अधूरी सी लगती है। यह गाना फिल्म आराधना का है। गाने में राजेश खन्ना के साथ अभिनेता सुजीत कुमार भी नजर आते हैं। फिल्म में सुजीत कुमार ने राजेश खन्ना के अच्छे दोस्त का रोल निभाया था। गाने में बॉलीवुड का टिपिकल मसाला एक्शन देखने को मिलता है। राजेश खन्ना खुली जीप में बैठे यह रोमांटिक गाना गाते हैं और सुजीत कुमार माउथऑर्गन पर उनका साथ देते हैं। गाने में नायिका शर्मिला टैगोर की एक झलक मिलती है जो ट्रेन में बैठी हुई है। गाने में खूबसूरत वादियां और पहाड़ों पर खासतौर से चलने वाली छोटी ट्रेन के दर्शन होते हैं। सचिन देव बर्मन साहब ने गाने में ऐसे- वाद्यों का प्रयोग किया है कि गाने के साथ- साथ चलती ट्रेन की आवाज भी संगीत में शामिल हो गई है।किशोर दा के गाए और भी कई बेहतरीन गाने हैं, जिनकी चर्चा यदि करते जाएं तो न जाने कितने ही दिन बीत जाएं, लेकिन बात खत्म नहीं होगी। फिर कभी इन गानों से जुड़ी यादों को हम ताजा करेंगे।------------- - -बॉलीवुड में भाई-बहन के अटूट बंधन पर आधारित कुछ सुपर हिट गीतआलेख - मंजूषा शर्मारक्षा बंधन का त्यौहार बॉलीवुड का सबसे लोकप्रिय त्यौहार रहा है। होली के बाद इस पर्व को लेकर ही सबसे ज्यादा गाने बनाए गए हैं। पुरानी फिल्मों की बात करें, तो अधिकांश फिल्मों में नायक की मां और कम से कम एक बहन का होना अनिवार्य होता था। राखी का त्यौहार जैसे फिल्म की कहानी का हिस्सा बन चुका था। आजकल की ज्यादातर फिल्मों की कहानी तेजी से भागती है और उसमें बहन और भाई के रिश्ते का ताना-बाना ज्यादा नहीं बुना जाता यदि होता भी है, तो वह अदब से ज्यादा फ्रैंडली और कभी - कभी प्रतिस्पर्धी होता है।खैर आज हम बॉलीवुड के कुछ ऐसे गानों की चर्चा कर रहे हैं, जो आज भी राखी के मौके पर सुनाई दे जाते हैं। फिर वह चाहे रेडियो हो या फिर टीवी सीरियल। ये गाने अपने जमाने में काफी लोकप्रिय भी रहे हैं।1. बहना ने भाई की कलाई में.. फिल्म -रेशम की डोरी-1974 में बनी इस फिल्म में धर्मेन्द्र और सायरा बानो मुख्य भूमिकाओं में थे। भाई - बहन के रिश्ते पर आधारित इस फिल्म में धर्मेन्द्र की बहन का रोल कुमुद छुगानी ने निभाया था, जो उस दौर की अधिकांश फिल्मों में बहन के रोल में नजर आईं। गीतकार इंदीवर के गीत बहना ने भाई की कलाई में ... को आवाज दी है सुमन कल्याणपुर ने। फिल्म में वैसे तो छह गाने थे, लेकिन राखी वाला गाना सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। फिल्म में भाई और बहन के अटूट प्रेम को दर्शाया गया है। निर्देशक आत्माराम की इस फिल्म में संगीतकार शंकर-जय किशन ने एक भी गाना लता मंगेशकर से नहीं गवाया था, बल्कि नायिका के लिए आशा भोंसले और बहन के लिए उन्होंने सुमन कल्याणपुर की आवाज में गीत तैयार किए थे।2. भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना-फिल्म छोटी बहन भी भाई और बहन के रिश्तों पर आधारित थी। वर्ष 1959 में प्रदर्शित इस फिल्म में छोटी बहन का रोल अभिनेत्री नंदा ने निभाया था और कॅरिअर के आरंभ में ही बहन का रोल करने के कारण उनका कॅरिअर टाइप्ड हो गया था। बाद में उन्हें नायिका के रोल काफी मुश्किलों के बाद मिले। इस फिल्म में वे बलराज साहनी और रहमान की छोटी बहन के रोल में नजर आईं। लता मंगेशकर का गाया भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना गीत आज भी रक्षा बंधन का एक लोकप्रिय गीत बना हुआ है। फिल्म में सात गाने थे और सबसे लोकप्रिय गाना रहा भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना, जिसे 1959 में बिनाका गीत माला के सालाना लोकप्रिय गीतों में शुमार किया गया था। जिसे शैलेन्द्र ने लिखा है। फिल्म के सात गानों में पांच तो लता मंगेशकर के ही हिस्से में आए थे। फिल्म का निर्देशन प्रसाद ने किया था।3. फूलों का तारों का सबका कहना है- फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा 1971 में प्रदर्शित हुई थी। देवानंद ने इस फिल्म का निर्माण अपनी कंपनी नवकेतन के बैनर तले किया था। इसमें देवानंद की बहन का रोल जीनत अमान ने निभाया था। फिल्म में दिखाया गया है कि माता-पिता के बिगड़ते सम्बन्धों से बच्चों का जीवन किस प्रकार अभिशप्त बन जाता है, नशे की गिरफ्त में युवा पीढ़ी किस प्रकार बर्बाद हो रही है और इसका खामियाजा माता-पिता को बेटी की मौत से चुकाना पड़ता है। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग काठमांडू में हुई थी। देवानंद के अपोजिट मुमताज थीं। फिल्म में फूलों का तारों का गीत काफी प्रभावशाली है। किशोर और लता मंगेशकर दोनों ने अलग-अलग इसे गाया है। आनंद बख्शी के इस गीत को सुरों से सजाया है राहुल देव बर्मन ने।4. देख सकता हूं मैं कुछ भी होते हुए... फिल्म मजबूर में यह गाना शामिल किया गया था। अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म में फरीदा जलाल बहन के रोल में थीं। फिल्म के इस गाने में अमिताभ बच्चन , अपनी बहन के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करते हैं। इसमें फरीदा ने एक नि:शक्त बहन का रोल निभाया था ,जिनका नाम इस रोल के लिए उस वर्ष फिल्म फेयर के बेस्ट सर्पोटिंग एक्ट्रेस पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। वहीं, नायिका के रोल में परवीन बॉबी थीं। सलीम- जावेद की कहानी पर बनी इस फिल्म का संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने तैयार किया था। यह फिल्म 1974 में प्रदर्शित हुई थी।5. ये राखी बंधन है ऐसा- फिल्म बेईमान में यह गीत शामिल किया गया था, जो 1972 में बनी थी। फिल्म में राखी और मनोज कुमार मुख्य भूमिकाओं में थे। अभिनेत्री नजीमा पर यह गाना फिल्माया गया है। निर्देशक सोहनलाल कंवर की इस फिल्म में संगीत शंकर -जयकिशन की जोड़ी का था और राखी का यह गाना लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज में है जिसे लिखा वर्मा मलिक ने है। इस गाने में अभिनेत्री नजीमा राखी के महत्व को बयान करती है और मनोज कुमार को अपना भाई स्वीकार कर उसे भाई- बहन के पवित्र रिश्ते का अहसास कराती हैं।6. मेरे भईया मेरा चंदा मेरे अनमोल रतन- फिल्म काजल का यह गीत आशा भोंसले की आवाज में है और यह अपने दौर का सुपर हिट गीत है। 1965 की इस फिल्म में मीना कुमारी, राजकुमार और धर्मेन्द्र मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वह दौर था, जब धर्मेन्द्र और मीना कुमारी की नजदीकियां चर्चा में थीं। साहिर लुधियानवी के गीतों को रवि ने सुरों में ढाला था। यह फिल्म गुलशन नंदा के उपन्यास माधवी पर आधारित थी। राखी के इस गाने में एक बहन अपने छोटे भाई के प्रति अपने प्यार को प्रदर्शित करती है और भगवान से उसकी सलामती के लिए दुआ करती है। फिल्म में मीना कुमारी अपने यह मनोभाव अपने छोटे भाई के प्रति प्रदर्शित करती है । फिल्म में धर्मेन्द्र ने मीना कुमारी के भाई का रोल निभाया था।7. अब के बरस भेज भैया को बाबुल- फिल्म बंदिनी का यह गाना एक बहन के दर्द को बयां करता है। बहन जेल में है और सावन का महीना आया हुआ है। वह अपने गीत के माध्यम से सावन, तीज और राखी के त्यौहार का जिक्र करते हुए अपने पीहर को याद करती है। फिल्म में नूतन , अशोक कुमार और धर्मेन्द्र मुख्य भूमिकाओं में थे। आशा भोंसले ने इस गाने को इतनी खूबी से गाया है कि इसके मनोभाव सीधे दिल तक लगते हैं। 1963 की यह फिल्म बिमल रॉय की बेहतरीन फिल्मों में से है। फिल्म की कहानी नबेन्दु घोष ने लिखी थी। फिल्म में शैलेन्द्र और गुलजार ने गीत लिखे थे जिसे सुरों से सजाया था सचिन देव बर्मन साहब ने। 1964 में इस फिल्म ने विभिन्न श्रेणियों में छह फिल्म फेयर पुरस्कार जीते थे। अब के बरस भेज ... गीत शैलेन्द्र ने लिखा था।8. राखी धागों का- फिल्म राखी (रिलीज वर्ष-1962) में यह गीत शामिल किया गया था। फिल्म में अशोक कुमार की बहन का रोल वहीदा रहमान ने निभाया था। यह गाना मोहम्मद रफी के हिट गानों में शामिल है। फिल्म में यह गाना प्लैबैक में चलता है। फिल्म में वहीदा रहमान के अपोजिट प्रदीप कुमार थे। फिल्म के लिए अशोक कुमार ने बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड जीता था। वहीं ये फिल्म बेस्ट फिल्म की श्रेणी के लिए नामित हुई थी। साथ ही मेहमूद का नाम भी बेस्ट सर्पोटिंग एक्टर की श्रेणी में नामांकित किया गया था। यह तमिल फिल्म पासामलार की हिन्दी रीमेक थी। गीत राजेन्द्र कृष्ण के और संगीत रवि का था।
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जन्मदिन पर विशेष
आलेख-मंजूषा शर्मा
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- तंगहाल पिता जन्म के बाद छोड़ आए थे अनाथालय
-मीना की जिंदगी की रंगत शराब के आस पास ही सिमट कर रह गई थीं
पाकीजा फिल्म रिलीज हुए कुछ हफ्ते ही हुए थे कि अभिनेत्री मीना कुमारी बुरी तरह बीमार पड़ गईं। उनके लीवर में तकलीफ थी और किस्से हैं कि इसकी वजह जरूरत से ज्यादा शराब थी। फिल्म तो खूब चल निकली। साहिबजां यानि मीना कुमारी और सलीम अहमद खान (राजकुमार) के इश्क के चर्चे हर जुबान पर थे और ट्रेन में गुजरते वक्त तो जेहन में जरूर कौंधता था, आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं.. उन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे।बैजू बावरा, दिल अपना और प्रीत पराई और भाभी की चूडिय़ां जैसी दर्जनों फिल्मों की कामयाबी ने मीना कुमारी को बॉलीवुड की ट्रेजडी क्वीन बना दिया। हुस्न पर उनकी अदाकारी भारी पड़ती थी या अदाकारी पर हुस्न, इस पर तो अब भी बहस हो सकती है, लेकिन हुस्न और अदाकारी के बीच उनकी तन्हाई और खामोशी किसी को नहीं दिखी। अभिनेत्री मीना कुमारी ने हिन्दी सिनेमा जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी अस्पर्शनीय है । वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी। अपने दिली जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयां चुभो रहा हो। गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है। गम का ये दामन शायद अल्लाह ताला की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने -
कहां अब मैं इस गम से घबरा के जाऊं
कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको
आज मीना कुमार के जन्मदिवस पर उनसे जुड़ी खास बातें।
बंबई की एक चॉल में उनकी मां इक़बाल बानो और पिता मास्टर अली बख़्श रहते थे, जो थियेटर आर्टिस्ट थे। पिता थियेटर में हार्मोनियम भी बजाते थे। बहुत तंगहाली थी। फिर 1 अगस्त 1932 को उनके घर मीना जन्मीं। घर में दो बेटियां पहले से थीं इसलिए उनके पैदा होने पर कोई खुशी मनाने की संभावना नहीं थी। डिलीवरी करने वाले डॉक्टर को फीस देने तक के पैसे नहीं थे। बताया जाता है कि अली बख़्श इतने निराश थे कि बच्ची को दादर के पास एक मुस्लिम अनाथालय के बाहर छोड़ दिया। लेकिन कुछ दूर गए थे कि बच्ची की चीखों ने उन्हें तोड़ दिया। वे लौटे और गोद में उठा लियाछ। बच्ची के शरीर पर लाल चींटियां चिपकी हुई थीं। उन्होंने उसे साफ किया और घर ले आए। नाम रखा महजबीं। परिवार हो या वैवाहिक जीवन मीना कुमारी को ताउम्र तन्हाईयां हीं मिली। उनकी लिखी नज्म में यह बात जाहिर होती है-
चांद तन्हा है,आस्मां तन्हा
दिल मिला है कहां -कहां तन्हां
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थात्थारता रहा धुआं तन्हां
जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हां है और जां तन्हां
हमसफऱ कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हां
जलती -बुझती -सी रौशनी के परे
सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा
मीना कुमारी जाते जाते सचमुच सारे जहां को तन्हां कर गईं । जब जिन्दा रहीं सरापा दिल की तरह जिन्दा रहीं । दर्द चुनते रहीं संजोती रहीं और कहती रहीं -
टुकडे -टुकडे दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली
जितना -जितना आंचल था, उतनी हीं सौगात मिली
जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसा कोई कहता हो, ले फिऱ तुझको मात मिली
होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे
जलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली
मीना कुमारी कोई साधारण अभिनेत्री नहीं थी, उनके जीवन की त्रासदी, पीड़ा, और वो रहस्य जो उनकी शायरी में अक्सर झांका करता था। इसके अलावा उनके फिल्मी किरदारों में भी उनका दर्द बखूबी झलकता रहा। फिल्म साहब बीबी और गुलाम में छोटी बहु के किरदार को भला कौन भूल सकता है। न जाओ सैया छुडाके बैयां.. गाती उस नायिका की छवि कभी जेहन से उतरती ही नहीं। 1962 में मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए तीन नामांकन मिले एक साथ- ये फिल्में थीं- साहब बीबी और गुलाम , मैं चुप रहूंगी और आरती यानी कि मीना कुमारी का मुकाबला सिर्फ मीना कुमारी ही कर सकती थीं। सुंदर चांद सा नूरानी चेहरा और उस पर आवाज़ में ऐसा मादक दर्द, सचमुच एक दुर्लभ उपलब्धि का नाम था मीना कुमारी। इन्हें ट्रेजेडी क्वीन यानी दर्द की देवी जैसे खिताब दिए गए। पर यदि उनके सपूर्ण अभिनय संसार की पड़ताल करें तो इस तरह की छवि बंदी उनके सिनेमाई व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी ही होगी।
15 साल बड़े शादीशुदा कमाल अमरोही पर जब मीना का दिल आया, तो वह सिर्फ 19 की थीं। फिर भी दोनों ने शादी की। कहते हैं कि दोनों की शख्सियत इतनी बुलंद थी कि एडजस्ट करना दूभर हो गया और आठ साल बाद दोनों अलग हो गए। मीना के दिल से कमाल नहीं निकल पाए. फिर प्यार की कमी प्याले से भरने की कोशिश की। कमाल भी कम परेशान न थे। तलाक हो चुका था पर चाहत नहीं घटी थी। 1964 में दोनों ने फिर शादी कर ली, लेकिन तब तक प्यार में प्याले की गांठ लग चुकी थी। मीना कुमारी नशे के आगोश में ऐसी बह चुकी थीं कि कमाल अमरोही बताते हैं कि घर के बाथरूम में डिटॉल की शीशी में भी ब्रांडी भरी होती थी। अमरोही ने कई शीशियां हटाईं, मीना को लेकर ख्वाबों की फिल्म पाकीजा पूरी की, भले ही इसमें 16 साल क्यों न लग गए हों। ब्लैक एंड व्हाइट गानों को दोबारा रंगीन में शूट क्यों न किया गया, लेकिन मीना की जिंदगी की रंगत शराब के आस पास ही सिमट कर रह गई।
एक बार गुलज़ार साहब ने मीना को एक नज़्म दिया था, जिसमें उन्होंने लिखा था -
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी
इसे पढ़ कर मीना जी हंस पड़ी । कहने लगी - जानते हो न, वे तागे क्या हैं ?उन्हें प्यार कहते हैं । मुझे तो प्यार से प्यार है । प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है । इतना प्यार कि कोई अपने तन से लिपट कर मर सके तो और क्या चाहिए? महजबीं से मीना कुमारी बनने तक (निर्देशक विजय भट्ट ने उन्हें ये नाम दिया), और मीना कुमारी से मंजू (ये नामकरण कमाल अमरोही ने उनसे निकाह के बाद किया ) तक उनका व्यक्तिगत जीवन भी हजारों रंग समेटे एक गज़़ल की मानिंद ही रहा। बैजू बावरा,परिणीता, एक ही रास्ता, शारदा, मिस मेरी, चार दिल चार राहें, दिल अपना और प्रीत पराई, आरती, भाभी की चूडिय़ां मैं चुप रहूंगी, साहब बीबी और गुलाम, दिल एक मंदिर, चित्रलेखा, काजल, फूल और पत्थर, मंझली दीदी, मेरे अपने, पाकीजा जैसी फिल्में उनकी लम्बी दर्द भरी कविता सरीखे जीवन का एक विस्तार भर है जिसका एक सिरा उनकी कविताओं पर आकर रुकता है -
थका थका सा बदन,
आह! रूह बोझिल बोझिल,
कहां पे हाथ से,
कुछ छूट गया याद नहीं....
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मोहम्मद रफी- पुण्यतिथि पर विशेष
आलेख -मंजूषा शर्मासुहानी रात ढल चुकी , न जाने तुम कब आओगे, यह गाना मोहम्मद रफी साहब ने गाया है और आज उनकी पुण्यतिथि के मौके पर इसी गाने और इस फिल्म तथा इसके कलाकारों की चर्चा हम यहां कर रहे हंै।फिल्म थी दुलारी और इसका निर्माण 1949 में हुआ था। फि़ल्म के मुख्य कलाकार थे सुरेश, मधुबाला और गीता बाली। फि़ल्म का निर्देशन अब्दुल रशीद कारदार साहब ने किया था। 1949 का साल गीतकार शक़ील बदायूनी और संगीतकार नौशाद के लिए ढेर सारी खुशियां लेकर आया। 1949 में महबूब ख़ान की फि़ल्म अंदाज़ , ताजमहल पिक्चर्स की फि़ल्म चांदनी रात , तथा ए. आर. कारदार साहब की दो फि़ल्में दिल्लगी और दुलारी प्रदर्शित हुई थीं और ये सभी फि़ल्मों का गीत संगीत बेहद लोकप्रिय सिद्ध हुआ था। फिल्म दुलारी 1 जनवरी 1949 को प्रदर्शित हुई थी। पूरी फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट है।आज जब दुलारी के इस गाने की चर्चा हो रही है, तो हम बता दें कि इसी फिल्म में लता मंगेशकर और रफ़ी साहब ने अपना पहला डुएट गीत गाया था और यह गीत था-मिल मिल के गाएंगे दो दिल यहां, एक तेरा एक मेरा । फिल्म में दोनों का गाया एक और युगल गीत था -रात रंगीली मस्त नज़ारे, गीत सुनाए चांद सितारे । लता और रफी की यह जोड़ी काफी पसंद की गई और उसके बाद तो उन्होंने ऐसे- ऐसे यादगार गाने दिए हैं कि यदि उनका जिक्र करते जाएं तो न जाने कितने ही दिन गुजर जाएंगे, लेकिन बातें खत्म नहीं होंगी।फिल्म में मोहम्मद रफ़ी की एकल आवाज़ में नौशाद साहब ने सुहानी रात ढल चुकी गीत.. -राग पहाड़ी पर बनाया । इसी फि़ल्म का गीत तोड़ दिया दिल मेरा.. भी इसी राग पर आधारित है। राग पहाड़ी नौशाद साहब का काफी लोकप्रिय शास्त्रीय राग रहा है और उन्होंने इस पर आधारित कई गाने तैयार किए हैं। इसमें से जो गाने रफी साहब की आवाज में हैं, वे हैं-1.. आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले (फिल्म-राम और श्याम)2. दिल तोडऩे वाले तुझे दिल ढ़ूंढ रहा है (सन ऑफ़ इंडिया)3. दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात (कोहिनूर)4. कोई प्यार की देखे जादूगरी (कोहिनूर)5. ओ दूर के मुसाफिऱ हम को भी साथ ले ले (उडऩ खटोला)फिल्म दुलारी में कुल 12 गाने थे। 14 रील की इस फिल्म में ये गाने कहानी की तरह ही चलते हैं । नायिका मधुबाला के लिए लता मंगेशकर ने अपनी आवाज दी थी। वहीं गीता बाली के लिए शमशाद बेगम ने दो गाने गाए थे। जिसमें से शमशाद बेगम का गाया एक गाना - न बोल पी पी मोरे अंगना , पक्षी जा रे जा...काफी लोकप्रिय हुआ था। नायक सुरेश के लिए रफी साहब ने आवाज दी थी। इसमें से 9 गाने लता मंगेशकर ने गाए जिसमें रफी साहब के साथ उनका दो डुएट भी शामिल है। रफी साहब ने केवल एक गाना एकल गाया और वह है -सुहानी रात ढल चुकी जिसे आज भी रफी साहब के सबसे हिट गानों में शामिल किया जाता है। पूरा गाना इस प्रकार है-सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेजहां की रुत बदल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेअंतरा-1. नज़ारे अपनी मस्तियां, दिखा-दिखा के सो गयेसितारे अपनी रोशनी, लुटा-लुटा के सो गयेहर एक शम्मा जल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेसुहानी रात ढल...अंतरा- 2- तड़प रहे हैं हम यहां, तुम्हारे इंतज़ार मेंखिजां का रंग, आ-चला है, मौसम-ए-बहार मेंहवा भी रुख बदल चुकी, ना जाने तुम कब आओगेसुहानी रात ढल......गाने में नायक की नायिका से मिलने की बैचेनी और इंतजार का दर्द शकील साहब ने अपनी कलम से बखूबी उतारा है, तो रफी साहब ने अपनी आवाज से इस गाने को जीवंत बना दिया है। गाने में शब्दों का भारी भरकम जाल नहीं है बल्कि बोल काफी सिंपल हैं, जो बड़ी सहजता से लोगों की जुबां पर चढ़ जाते हैं। गाने की यही खासियत इसे आज तक जिंदा रखे हुए है। गाने के शौकीन आज भी किसी कार्यक्रम में इसे गाना नहीं भूलते हैं। राग पहाड़ी के अनुरूप इसका फिल्मांकन भी हुआ है और दृश्य में नायक चांदनी रात में सुनसान जंगल में नायिका का इंतजार करते हुए यह गाना गाता है। दृश्य में एक टूटा फूटा खंडहर भी नजर आता है, तो नायक की विरान जिंदगी को दर्शाता है, जिसे बहार आने का इंतजार है।दुलारी फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार थी-प्रेम शंकर एक धनी व्यावसायिक का बेटा होता है जिसकी शादी उसके माता-पिता रईस खानदान में करना चाहते हंै। प्रेम शंकर को एक बंजारन लड़की दुलारी से प्यार हो जाता है। यह लड़की बंजारन नहीं बल्कि एक रईस खानदान की बेटी शोभा रहती है, जिसे बंजारे लुटेरे बचपन में उठा लाए थे। यह रोल मधुबाला ने निभाया है। प्रेमशंकर इस लड़की को इस नरक से निकालने के लिए उससे शादी करने का फैसला लेता है। बंजारन की टोली में एक और लड़की रहती है कस्तूरी जिसका रोल गीता बाली ने निभाया है। वह इसी टोली के एक बंजारे लड़के से प्यार करती है, लेकिन उसकी नजर दुलारी पर होती है। प्रेमशंकर के पिता इस शादी के खिलाफ हैं। काफी जद्दोजहद के बाद प्रेमशंकर , दुलारी को इस नरक से निकालने में कामयाब हो जाता है और उनके पिता को भी इस बात का पता चल जाता है कि दुलारी और कोई नहीं उनके ही मित्र की खोई हुई बेटी है जिसे वे बचपन से ही अपनी बहू बनाने का फैसला कर चुके थे। फिल्म के अंत में सब कुछ ठीक हो जाता है और नायक को अपना सच्चा प्यार मिल जाता है। फिल्म में मधुबाला से ज्यादा खूबसूरत गीता बाली नजर आई हैं, लेकिन उनके हिस्से में सह नायिका की भूमिका ही थी। लेकिन फिल्म के प्रदर्शन के एक साल बाद ही उन्हें फिल्म बावरे नैन में राजकपूर की नायिका बनने का मौका मिला और इसके कुछ 5 साल बाद उन्होंने शम्मी कपूर के साथ शादी कर ली। दुलारी फिल्म मधुबाला की प्रारंभिक फिल्मों में से है। मधुबाला ने जब यह फिल्म की उस वक्त उनकी उम्र मात्र 16 साल की थी।फिल्म की पूरी कहानी चंद पात्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। सुरेश के पिता के रोल में अभिनेता जयंत थे जिनका असली नाम जकारिया खान था, लेकिन उन्हें जाने-माने फिल्म निर्माता और निर्देशक विजय भट्ट ने जयंत नाम दिया था। विजय भट्ट आज की फिल्मों के निर्माता-निर्देशक विक्रम भट्ट के दादा थे। जयंत के बेटे अमजद खान हैं जिन्हें आज भी गब्बर सिंह के रूप में पहचाना जाता है। फिल्म दुलारी में नायक सुरेश की मां का रोल प्रतिमा देवी ने निभाया था, जो ज्यादातर फिल्मों में मां का रोल में ही नजर आईं। उनकी फिल्मों में अमर अकबर एंथोनी, पुकार प्रमुख हैं। आखिरी बार वे वर्ष 2000 में बनी फिल्म पलकों की छांव में दिखाई दी थीं। मधुबाला के पिता के रोल में अभिनेता अमर थे। अभिनेता श्याम कुमार ने खलनायक का रोल निभाया था, जो बाद में रोटी, जख्मी जैसी कई फिल्मों में खलनायक के रूप में नजर आए।कभी फुरसत मिले तो इस फिल्म को जरूर देखिएगा, अपने दिलकश गानों की वजह से यह फिल्म दिल तो सुकून देती है। हालांकि अब इसके प्रिंट काफी धुंधले पड़ गए हैं। फिल्म की तकनीक और कहानी आज की पीढ़ी को भले ही पुरानी लगे, लेकिन अपने दौर की यह हिट और क्लासी फिल्म है। -
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- उत्साह और अनुभव भरी यात्रा
- छत्तीसगढ़ के शिमला जाने की बात हो तो कुछ अलग ही माहौल बन जाता है
- हवा बादलों को अपने साथ उड़ाती हुई नजर आई
ये हंसी वादियां ये खुला आसमां..... हिन्दी फिल्म का यह गीत कानों में पड़ते ही कुछ अलग तरह के दृश्य जेहन में उभरने लगते हैं और इनकी केवल कल्पना मात्र दिलो दिमाग में नई ऊर्जा का संचार करती है। कश्मीर और शिमला की वादियां यदि छत्तीसगढ़ में देखनी हो, तो एक बार मैनपाट की सैर जरूर कर लें। छत्तीसगढ़ और तिब्बती संस्कृति का मिला जुला रूप यहां देखने को मिल जाएगा। प्राकृतिक खूबसूरती भगवान ने यहां जी भर के दी है। .आप चाहे घर को कितना ही सर्वसुविधा युक्त ही क्यों न बना लें, फिर भी आप का दिल प्राकृतिक सौंदर्य को देखने के लिए ललकता ही रहेगा। आप धरती और आकाश के बीच कौतूहल से दूर जिज्ञासा एवं रोमांचकारी स्थल की तलाश करने और प्राकृतिक सौंदर्य देखने, हरी-भरी वादियों की गोद में ही जाना पसंद करेंगे। इसी प्रकार मैं और मेरा परिवार जीवन की एकरसता भरी जिंदगी से दूर पर्यटन का लुफ्त उठाने के लिहाज से निकल पड़ा मैनपाट हिल स्टेशन के लिए, जो छत्तीसगढ़ का शिमला कहलाता है। यूं तो पर्यटन की कल्पना से ही मन उत्साह एवं रोमांच का अनुभव करने लगता है, फिर छत्तीसगढ़ के शिमला जाने की बात हो तो कुछ अलग ही माहौल बन जाता है।परिवार साथ हो तो कार से यात्रा करने का मजा ही कुछ और होता है। हालांकि मैनपाट जाने के लिए दुर्ग-अंबिकापुर ट्रेन भी उपलब्ध है, जो रात 9.30 बजे रायपुर से रवाना होकर अंबिकापुर सुबह 8.30 बजे पहुंच जाती है। खैर हमारा पूरा परिवार सुबह-सुबह ही दो कार में चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर। रास्ते में चर्चा- गपशप और गाने- खाने का दौर चल रहा था। अंबिकापुर शहर काफी अच्छा लगा। लोग काफी मिलनसार हैं। अंबिकापुर में प्रसिद्ध शक्तिपीठ में मां महामाया के दर्शन का मोह हमें मंदिर तक ले गया। ऐसी मान्यता है कि जो भी यहां सच्चे दिल से मांगे, वह मुराद अवश्य पूरी होती है। देवी दर्शन के समय ऐसा लगा मानो माता इस स्थान पर साक्षात बैठी हों। उनके दर्शन मात्र से शरीर में अब तक की यात्रा की सारी थकान मिट गई और एक नई शक्ति का संचार होने लगा। मंदिर परिसर में विशाल बरगद के वृक्ष के प्रति लोगों की आस्था भी अटूट नजर आई।इसके बाद हम लोग मैनपाट के लिए निकल पड़े। दरिमा-हवाई पट्टी के रास्ते से मैनपाट 33 किलोमीटर दूर है। रास्ते भर नए-नए अनुभव हो रहे थे। बडेÞमेदनी गांव में जो नवानगर के समीप ही था, यहां चारो ओर हरे-भरे खेत में लोग एक साथ मिलकर काम करते नजर आए। बरगई गांव से ही घाटी आरंभ हो जाती है। 2-3 किलोमीटर ऊपर पहाड़ों की ओर दुर्गम दृश्य का अवलोकन करते हुए यह पहाडिय़ां हरी-भरी प्रकृति की गोद में ले जाती हैं। यहां मौसम हमेशा सुहावना और मस्ताना होता है। मस्ताना इसलिए कि यहां की घाटियां हरे-भरे वृक्षों एवं पौधों से रंग बिरंगे फूलों से महकती हुई, आप के मन को मदमस्त करती हुई आपके भीतर अलौकिक अनुभूति का अहसास कराती है। मैनपाट वैसे तो कभी भी जाया जा सकता है, लेकिन हर मौसम का अपना अलग ही मजा होता है। बंसत से ग्रीष्म तक लोग गर्मी से बचने के लिए छत्तीसगढ़ के शिमला में जाना पसंद करते हैं, क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में बच्चों के स्कूल व कॉलेजों की छुट्टियां होती हैं। मौसम के लिहाज से जून से अगस्त-सितंबर का समय वर्षा का होता है। इसमें पहाड़ों की रानी को भीगते हुए देखा जा सकता है। जब बरसात होती है, तो मैनपाट ऐसा लगता होगा मानों एक पहाड़ को भिगोते हुए बादल दूसरे पहाड़ों की तरफ दौड़ लगा रहे हों। इन सुंदर पर्वत श्रेणियों को भिगोने में बादल इस तरह व्यस्त रहते हंै, जैसे आकाश और धरती एक साथ होली खेल रहे हों । आकाश बादल रूपी पिचकारी में इतना सारा जल भर देता है, ताकि कोई स्थान अछूता न रह जाए। वैसे तो नवंबर से जनवरी के दिनों में यहांं बर्फ-बारी होने के कारण यहांं का प्राकृतिक सौंदर्य देखने लायक होता है। जब ऊपर से बर्फ के छोटे-छोटे कण गिरते हैं, तो ऐसा लगता है कि प्रकृति रुई की वर्षा कर रही हो। यही बर्फ जब पत्तियों पर गिरती है, तो ठंड के कारण जम जाती है। सुबह-सुबह ओस की बूंदों को आप बर्फ की भांति जमा हुआ पाएंगे। यह एकदम परीकथाओं जैसा लगता है।मैनपाट में बहुत से दर्शनीय स्थल हैं, जैसे- माटीघाट रोपणी, मेहता प्वाइंट, परपटिया का विहंगम दृश्य, सैला टूरिस्ट रिसोर्ट मैनपाट, टाइगर प्वाइंट, मछली प्वाइंट लेक-व्यू, देवप्रवाह, बौद्ध मठ, तिब्बती कैंप नं.-1 कमलेश्वरपुर है। मैनपाट वैसे तो समुद्रतल से 1080 मीटर ऊंचाई पर 62 पठारों में 40 किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है। यहां मैन मिट्टी की अधिकता होने के कारण इसका नाम मैनपाट पड़ा है। मैन मिट्टी का उपयोग स्थानीय महिलाएं अपने बाल धोने के लिए करती हैं। उनका मानना है कि मैन मिट्टी में दही मिलाकर बाल धोने से रूसी दूर हो जाती है।हमारा गंतव्य सीधे सैला टूरिस्ट रिसोर्ट था। जहां रात्रि विश्राम और खाने की अच्छी व्यवस्था है। सैला टूरिस्ट रिसोर्ट मैनपाट के जिस मोटल में हम रुके थे, यह लगभग 11 एकड़ में फैला है। इसमें 4 बडेÞ़ भवन, 30 बिस्तर की डॉरमेट्री एवं 22 लक्जरी कमरे हैं। इसमें आप शादी, सगाई या कांफ्रेंस मीटिंग कर सकते हंै। बीच में कैंटीन है, जिसमें तीन बड़ेÞ-बड़े दरवाजे हैं। इससे ठंडी हवा अंदर की ओर प्रवेश करते हुए शानदार तरीके से गुम्मदनुमा रास्ते से होकर ऊपर बाहर की ओर चली जाती है। सुंदर बगीचों में बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे से होते हुए आप अपने कमरों तक जा सकते हैं।हवा बादलों को अपने साथ उड़ाती हुई नजर आईसुबह-सुबह हम तैयार होकर मैनपाट को और करीब से जानने के लिए निकल पड़े। जब हम मेहता प्वाइंट पहुंचे, तब हवा बादलों को अपने साथ उड़ाती हुई नजर आई और ये बादल शनैै-शनै बरसते हुए एक-एक पहाड़ों को भिगाते हुए नजर आ रहे थे। इसी प्रकार धूप को भी एक पर्वतमाला से दूसरी पर्वतमालाओं तक जाते आप आसानी से देख सकते हैं। कभी-कभी तो एक पहाड़ में धूप नजर आती है, तो दूसरे में छांव, ऐसा लगता है जैसे इन हरी-भरी वादियों में कहीं रात तो कहीं दिन है। धूप-छांव खेलते हुए सूरज ऐसा सुहावना मौसम तैयार करता है, कि आपका मन प्रफुल्लित हो उठता है। सबसे आकर्षक स्थान परपटिया है जहां का विहंगम दृश्य मन को मोह लेने वाला होता है। बहुत ही सुंदर दर्शनीय बंदरकोट व अनेक पर्वत श्रेणियों का निकटम भूदृश्य प्रस्तुत करता है। यहां से जनजातियों के आस्था का प्रतीक दूल्हा-दुल्हन पर्वत, बनरईबांध, श्यामघुनघुट्टा बांध के साथ ही मेघदूतम की रचना स्थली रामगढ़ की पर्वत श्रृखंलाएं भी दृष्टिगोचर होती हैं। आलू के खेतों में भालू रात को विचरण करते मिलते हैं। भुट्टा, कोदो, आलू यहां की मुख्य फसल है और गर्मी के दिनों में यहां लीची की बहार भी छाई रहती है।महादेव मुड़ा नदी और टाइगर प्वाइंटजब हम टाइगर पांइट पहुंचे तो लोगों से पूछा इसका नाम ऐसा क्यों रखा गया है, तो वहां के स्थानीय आदिवासियों ने बताया कि पूर्व काल में इस स्थान पर शेरों का रहवास व विचरण क्षेत्र होने के कारण इसका नाम टाइगर प्वाइंट पड़ा। इस क्षेत्र में महादेव मुड़ा नदी अपने सुंदरतम स्वरूप से बहते हुए 60 मीटर की ऊंचाई से गिरते हुए, चित्ताकर्षक मनोहारी परिदृश्य प्रस्तुत करती हुई, खल-खल करती अपनी मदमस्त चाल में प्रवाहित हो रही थी। इसे देखने से ऐसा लगता है कि चारों ओर से घेरे पहाड़ों को कह रही हो तुम यहीं रहो, मुझे सागर से मिलने की जल्दी है। मुझे बहुत दूर रास्ता तय करना है। जलप्रपात के कारण हवा नमीयुक्त रहती है। जलप्रपात के गिरने से कुंड जैसा प्रतीत होता है। जब आप सीढिय़ों से नीचे उतरने लगते हैं, तो आपको ऐसा लगे कि आप प्रकृति की गोद में उतर रहे हैं। इस वनक्षेत्र में अनेक प्रकार की वनौषधियां प्राप्त होती हैं, जैसे- सफेद मूसली, काली मूसली, भोजराज, कामराज, वायविंडग, बच, बाम्ही, केउकंउ, बिदारीकंद, भईआंवला, भईचम्पा, भईनीम, पाताल कुम्हड़ा, शतावर आदि। कुछ प्रजातियां लुफ्त हो रही हैं, जैसे कीटभक्षी पौधा, सनउयू, तून, पारसपीपल, धूई आदि। वन्य प्राणी भी पाए जाते हैं, जैसे-तेंदुआ, कोटरी, भालू जंगली सूअर, बंदर, चीतल, साही, खरगोश, कहट आदि।उल्टा पानीयहीं पर एक लोकप्रिय जगह उल्टा पानी है, जहां पहाड़ी पर पानी नीचे से ऊपर ही ओर बहता है। साथ ही बंद गाडिय़ां अपने आप ऊपर की ओर धीरे-धीरे बढऩे लगती है। यहां के इस अद्भुत आश्चर्य पर अनेक शोध हो रहे हैं।देवप्रवाह (जलजली)यह एक प्राकृतिक झील है जो आगे चलकर एक लहरदार नयनाभिराम नाले का रूप धारण करती हुई 80 फीट उंचाई से गिरते हुए झरना रूप धारण करती है। सबसे अच्छी बात यह है कि इस झील के ऊपर मिट्टी और जलीय पौधों के जमावा के कारण आप इसके ऊपर उछलकूद सकते हैं। यह आप को साकअप (स्प्रिंग) जैसे ऊपर की ओर उछालती है।बौद्धमठ और तिब्बती संस्कृतिमैनपाट छत्तीसगढ़ी और तिब्बती संस्कृति का मिला जुला रूप है। इस पवित्र स्थल पर बौद्ध मंदिरों का निर्माण वास्तुकला के अनुसार किया गया है तथा पूजा-अर्चना भी पंरपरागत बौद्ध संस्कृति के अनुरूप की जाती है। हमें यहां जाने से पता चला कि तिब्बती लोगों का त्यौहार जनवरी- फरवरी के मध्य मनाया जाता है जिसे कार्निवल ऑफ मैनपाट कहते हैं। इस त्यौहार का इंतजार पूरे साल लोगों को रहता है। इस त्यौहार को गौतम बुद्ध और दलाईलामा से संबंधित होने के कारण तिब्बती खूब धूमधाम से मनाते हैं।रीति-रिवाज के तहत यहां तिब्बती वस्त्रों के बड़े-बड़े झंडे व तोरन लगाते हैं। यहां अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाने को मिलते हंै। इसमें मोमो विश्व प्रसिद्ध है। बौद्ध मंदिर के दर्शन के बाद हम लोग स्थानीय बाजार घूमने के लिए निकल पड़े। बाजार में बहुत से तिब्बती पारंपरिक वेशभूषा में नजर आए। उनके मन में छत्तीसगढ़ के लिए जो सम्मान देखा, वो काबिले तारीफ है। मैंने एक वृद्ध महिला से कुछ जानकारी हासिल ली। उन्होंने बताया कि वो सन 1962 में 20 वर्ष की आयु में जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया था, अपने साथियों के साथ भारत आई थी। 54 वर्ष से वह मैनपाट में निवास कर रही है। उसके द्वारा बताया गया कि यहां सात कैंप हैं, जिनमें लगभग 2000 हजार तिब्बती निवासरत हैं। लोग आज भी तिब्बती संस्कृति व धर्म को मानते हैं। पैगोड़ा शैली में बने मठ हैं, जिनमें गौतम बुद्ध व दलाईलामा से संबंधित व महत्वपूर्ण दिवसों पर एवं उनके जन्मदिवस पर सप्ताहभर उत्सव मनाया जाता है। इनके मुख्य नृत्य याकॅ नृत्य, स्नोलाइन नृत्य, क्षेत्रीय लोकनृत्य इत्यादि हैं।मैनपाट में ऊनी वस्त्रों, कालीन और गलीचों का निर्माण किया जाता है। यह एक सहकारी संस्था के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में भेजे जाते हैं। इसके अतिरिक्त तिब्बती नस्ल के कुत्ते बाजार में आसानी से खरीदे जा सकते हैं। सोमवार को कम्लेशपुर बसस्टैंड के पास साप्ताहिक बाजार लगता है। इसमें यहां अनेक जड़ी बूटियां, महुआ, शुद्ध शहद, कालीन व रोजमर्रा की वस्तुएं उपलब्ध होती हंै।मैनपाट में तीन दिन रहने के बाद भी हमारा यहां से मन नहीं भरा था, लेकिन जिंदगी कहां एक जगह पर ठहरती है। एक असीम आनंद और अनुभूति लेकर हमारा कारवां वापस रोजमर्रा की आपाधापी के लिए मैनपाट से निकल पड़ा। -
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- 29 जुलाई पुण्यतिथि पर विशेष
- आलेख -मंजूषा शर्मा
हिंदी फिल्मों में जब भी अच्छे कॉमेडियन की बात चलती है तो उनमें जॉनी वॉकर का नाम प्रमुखता से शामिल किया जाता है। उनको इस दुनिया से विदा हुए 17 साल हो गए हैं, लेकिन अपनी फिल्मों के जरिए वे आज भी हमें हंसाते और गुदगुदाते रहते हैं।जॉनी वाकर वास्तव में हिंदी फिल्म जगत के हास्य सम्राट थे। जॉनी को फिल्म में लाने का श्रेय बलराज साहनी को जाता है। जब वे फिल्म बाजी की कहानी लिख रहे थे, तब एक ऐसे हास्य कलाकार की जरूरत महसूस हुई, जो एक विशेष चरित्र में पटकथा के साथ सही मायनों में न्याय कर सके। एक दिन उनकी नजर एक बस कंडक्टर बदरुद्दीन पर पड़ी, जो यात्रियों को हंसाने में लगा था। बस फिर क्या था, वे उसे लेकर गुरु दत्त के पास पहुंचे। गुरु दत्त ने उन्हें तुरंत अपनी फिल्म के लिए फाइनल कर लिया। बाजी फिल्म से ही गुरुदत्त और जॉनी वाकर की जोड़ी हिट हुई थी और दोनों ने इस दोस्ती को आखिरी दम तक बनाए रखा। जॉनी कहा करते थे कि अगर गुरु दत्त नहीं होते, तो मैं बस कंडक्टर ही रह जाता।जॉनी वाकर का जन्म 1925 में इंदौर में हुआ था और उनका वास्तविक पूरा नाम बदरुद्दीन काजी था। वे 1942 में इंदौर से मुंबई आ गए थे और बतौर बस कंडक्टर काम करने लगे। हिंदी फिल्म उद्योग में बाजी फिल्म से स्थापित होने के बाद उन्होंने मधुमती, प्यासा, नया दौर, सीआईडी और मेरे महबूब में अपने अभिनय का लोहा मनवाया था। उन्हें फिल्म शिकार के लिए 1968 में फिल्मफेयर का बेस्ट कॉमेडियन अवार्ड भी मिला था। उनकी अभिनय क्षमता के सभी कायल थे और उस समय के निर्माताओं और निर्देशकों में उन्हें अपनी फिल्म में लेने की जैसे होड़ मची रहती थी। जॉनी वाकर की सफलता और लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें फिल्म में लेने के लिए विशेष तौर पर उन पर फिल्माए जाने वाले गीत बनाए जाते थे। उन पर फिल्माए गए वे दो गीत- सर जो मेरा चकराए या दिल डूबा जाए और ये है मुंबई मेरी जान आज भी लोगों की जुबान पर है।जॉनी वाकर के आदर्श थे चार्ली चैपलिन और नूर मोहम्मद। वे हास्य में अश्लीलता लाने के विरोधी थे और दूसरे संप्रदाय के लोगों की भावनाओं को आहत कर वे हास्य पैदा करने के खिलाफ थे। वे कहते थे कि ये सब लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाली ओछी हरकते हैं। असली कॉमेडी तो कठिन परिश्रम से ही आती है। फिल्मों से दूर होने के बाद वे 14 साल के अंतराल के बाद कमल हासन की फिल्म चाची-420 में एक ऐसे मेकअप आर्टिस्ट के रूप में नजर आए थे, जो युवा नायक को उम्र का पांचवा दशक पार कर चुकी महिला बनाता है।खलती थी अच्छे कॉमेडियन की कमीजॉनी वाकर को ओशीवाड़ा स्थित अपने घर के गार्डन से बहुत प्यार था। खासकर खुद के द्वारा लगाए गए जैतून और आम के पेड़ों से उन्हें बहुत लगाव था। जीवन के अंतिम दिनों में सफेद कुर्ता-पैजामा पहनने वाले जॉनी वाकर इन पेड़ों की सेवा में लगे रहते थे। इसके अलावा उन्हें एक और चिंता सताती रहती थी। वह चिंता थी बॉलीवुड के प्रतिभाविहीन होने की। बदरुद्दीन काजी उर्फ जॉनी वाकर से किसी भी व्यक्ति को मिलने का मौका मिलता, तो निश्चित रूप से वह व्यक्ति मजाक, चुटकुले और ठहाकों के लिए तैयार हो जाता, लेकिन वास्तविक जीवन में जॉनी साहब बहुत संजीदा थे। जॉनी साहब को यह सवाल अक्सर परेशान करता था कि अब बॉलीवुड में पहले की तरह कॉमेडियन पैदा क्यों नहीं होते। फिल्म इंडस्ट्री में कॉमेडियन की कमी के बारे में जब भी उनसे सवाल किया जाता, वे रोष से भर जाते थे। पलटकर पूछते थे, बताइए असली कॉमेडियन अब हंै कहां? यदि वे वास्तविक कलाकार हैं, तो उन्हें अपने आपको जिंदा रखना चाहिए, अपने दम पर अपना अस्तित्व और नाम बचाए रखने की ताकत विकसित करनी चाहिए।कुछ बातें कुछ यादेंजॉनी वाकर फिल्मों में काम करते-करते एकाएक फिल्मों से दूर हो गए थे, मगर लंबे अरसे बाद उन्हें कमल हसन निर्देशित चाची-420 में देखा गया था। फिल्म के प्रदर्शन के पहले उन्होंने एक पत्रिका को इंटरव्यू दिया था, पेश है उसके कुछ अंश-उनके मुताबिक मैं अपने समय में सभी फिल्में साइन नहीं करता था, बल्कि जिस भूमिका में मुझे अपनापन दिखता था, मैं उसे झट से साइन कर लेता था। हमारे समय में फिल्मों में काम करना आसान नहीं था। माहौल आज की तरह नहीं था, बल्कि बहुत मेहनत करनी होती थी। यदि आपका रोल सिर्फ दो दिनों के लिए है, तो पांच दिनों के लिए साइन किया जाता था और पांचों दिन मैकअप करके सेट पर बैठे रहना होता था। फिल्मों से एकाएक दूर होने के बारे में उन्होंने बताया- एक तो फिल्मों में अश्लीलता आ गई है। दूसरा मैं अपने परिवार से दूर होता जा रहा था। एक बार तो हद हो गई जब मैं शूटिंग से लौटा तो बच्चों ने पहचानने से इनकार कर दिया। तब अहसास हुआ कि फिल्मों ने मुझे परिवार से दूर कर दिया है। फिर क्या था फिल्मों से मैंने अपना किट पैक किया और फिल्मों को टाटा-बाय-बाय कह कर घर में सुकून की जिंदगी जीने का फैसला किया। फिल्मों के चक्कर में मैंने अपने बच्चों को बड़े होते नहीं देखा, मगर अब अपने नाती-पोती को बड़ा होते देखने का मोह नहीं छोड़ सकता। उन्होंने बताया कि युवावस्था में पैसा कमाने के अलावा उनका और कोई सपना नहीं था। जॉनी वाकर के अनुसार फिल्मों में मसखरे और चालबाज जैसे काम करते-करते लोग उन्हें चाचा 420 कहने लगे थे। उनके मुताबिक उन्हें दोस्तों के बीच हंसी मजाक पसंद था और फुर्सत के समय में बीते दिनों को याद करना उनका शौक था। उनके प्रिय गीतों में राजकपूर द्वारा निर्देशित फिल्म मेरा नाम जोकर का गाना जीना यहां मरना यहां.. सबसे पसंदीदा था। -
- पुण्यतिथि पर विशेष -आलेख मंजूषा शर्मा
हिंदी सिनेमा में कई ऐसी मशहूर अभिनेत्रियां रहीं जिन्होंने न सिर्फ अपनी खूबसूरती बल्कि अपने अभिनय से भी लोगों के दिलों में जगह बनाई । ऐसी ही एक अदाकारा हैं लीला नायडू। 50 और 60 के दशक में उनका काफी नाम था। पूर्व मिस इंडिया और फिल्म अनुराधा और द हाउसहोल्डर जैसी फिल्मों में सशक्त अभिनय करने वाली अदाकारा लीला नायडू का निधन आज ही के दिन वर्ष 2009 में हुआ था।लीला नायडू वर्ष 1954 में फेमिना मिस इंडिया का खिताब जीतकर चर्चा में आई। उस वक्त उनकी उम्र मात्र 14 की थी। उसी दौरान वोग मैग्जीन की दुनियाभर में 10 सबसे ज्यादा खूबसूरत महिलाओं की लिस्ट में भी लीला नायडू का नाम शामिल किया गया। इस लिस्ट में रानी गायत्री देवी भी शामिल थीं।कहा जाता है कि राजकपूर लीला नायडू की खूबसूरती के कायल हो गए थे और उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले थे। फिल्म की कहानी मुल्कराज आनंद ने लिखी। जब लीला स्क्रीन टेस्ट के लिए पहुंची को उन्हें पता चला कि फिल्म की कहानी गांव की पृष्ठभूमि की है। जेनेवा और स्विटजरलैंड में पली बढ़ी लीला गांव की जिंदगी से नावाकिफ थी। उसी दौरान राजकपूर ने लीला को बताया कि वे उन्हें अपनी चार फिल्मों के लिए साइन करना चाहते हैं। लेकिन लीला तो गांव की जिंदगी पर बनी राजकपूर की पहली फिल्म में अपने आप को एडजस्ट नहीं कर पा रही थीं। लीला को लगा कि वे इस फिल्म की भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाएंगी। आखिरकार उन्होंने फिल्म से हाथ खींच लिया। इसतरह से राजकपूर की एक नहीं बल्कि चार-चार फिल्में उनके हाथ से निकल गईं। इसी दौरान लीला ने विदेश का रास्ता पकड़ा और फिर पांच साल बाद उनकी वापसी फिल्म अनुराधा से हुई। दरअसल लीला का जन्म भले ही मुंबई में हुआ था, लेकिन उनकी दीक्षा-शिक्षा जेनेवा और स्विटजरलैंड में हुई थी। उनके पिता पट्टीपति रामैया नायड़ू परमाणु भौतिकविद थे और नोबेल पुरस्कारर विजेता मैरी क्यूरी के लिए काम कर चुके थे। .बाद में उन्होंने यूनेस्को से लेकर टाटा कंपनी में सलाहकार के पद पर भी काम किया।वर्ष 1960 में लीला नायडू विदेश से लौटी और मशहूर फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म अनुराधा से बॉलीवुड में कदम रखा। फिल्म में उन्होंने अभिनेता बलराज साहनी की पत्नी का किरदार निभाया था। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था। इस फिल्म का संगीत मशहूर सितारवादक रविशंकर ने तैयार किया था। जिसके गाने काफी लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के लता मंगेशकर के गाए दो गाने काफी मशहूर हुए- हाय रे वो दिन क्यूं न आए... और जाने कैसे सपनों में खो गई अंखिया...। दोनों ही गाने लीला नायडू पर फिल्माए गए थे।लीला को वास्तविक पहचान वर्ष 1963 में रिलीज हुई फिल्म ये रास्ते हैं प्यार के से मिली। फिल्म में उनके साथ अभिनेता सुनील दत्त हीरो थे। फिल्म की कहानी चर्चित नानावटी कांड पर आधारित थी। लीला ने बहुत कम फिल्में कीं। उन्होंने वही फिल्में स्वीकार की जिसके लिए उनका मन गवाही देता था। लीला ने मर्चेंट आइवोरी प्रोडक्शन द्वारा निर्मित फिल्म द हाउसहोल्डर में भी उन्होंने अभिनय किया, जिसका निर्देशन जेम्स आइवोरी ने किया था। फिल्म में उनकी जोड़ी शशिकपूर के साथ काफी पसंद की गई। वर्ष 1969 में द गुरू फिल्म में काम करने के बाद लीला ने फिल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया।लीला ने मात्र 17 साल की उम्र में होटल व्यवसायी तिलक राज ओबराय (टिक्की ओबराय) से शादी कर ली, जो उनसे 16 साल बड़े थे। तिलक राज मशहूर होटल ओबेराय के मालिक थे। उनकी जुड़वा बेटियां हुईं माया और प्रिया। बाद में दोनों में तलाक हो गया। ओबेराय ने दोनों बेटियों की कस्डटी ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपने बचपन के मित्र और साहित्यकार डॉम मॉरिस से शादी कर ली एवं हांगकांग चली गईं। दस वर्ष वहां बिताने के बाद वे फिर भारत वापस आ गईं। 1985 में श्याम बेनेगल की फिल्म त्रिकाल से इन्होंने हिंदी फिल्मी दुनिया में फिर प्रवेश किया। 1992 में प्रदीप कृष्णन द्वारा निर्देशित फिल्म इलेक्ट्रिक मून में इन्होंने आखिरी बार अभिनय किया था।लीला नायडू की निजी जिंदगी उथल-पुथल भरी रही। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने खुद को सभी से अलग कर लिया और गुमनाम जिंदगी बिताने लगीं। आर्थरायटिस की बीमारी के कारण उनका चलने-फिरना भी लगभग बंद हो गया था। इसी दौरान आर्थिक तंगी से भी वे परेशान रहीं। आखिरकार उन्हें अपने घर में किराएदार रखने पड़े। 2009 में उन्हें इन्फ्लूएंजा की बीमारी हुई जिसकी वजह से उनके फेफड़ों ने काम करना बंद कर दिया। 28 जुलाई 2009 को उन्होंने इस संसार को गुमनामी में ही अलविदा कह दिया। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) -
- पुण्यतिथि पर विशेष
आज भी जब हास्य फिल्मों की बात होती है, तो इसमें फि़ल्म जाने भी दो यारो का नाम भी होता है। इसी फिल्म के एक कलाकार रवि वासवानी की आज पुण्यतिथि है। 27 जुलाई 2010 को दिल का दौरा पडऩे से शिमला में उनका निधन हो गया। उस वक्त वे 64 साल के थे।उन्होंने 1981 में फि़ल्म चश्मेबद्दूर से अपने फि़ल्मी कॅरिअर की शुरुआत की थी। जाने भी दो यारो और चश्मेबद्दूर जैसी फि़ल्मों में रवि वासवानी के अभिनय को काफी सराहा गया। रवि का जब निधन हुआ, वे एक फिल्म पर काम कर रहे थे। वे अपनी ही फिल्म जाने भी दो यारो जैसी महान ऐतिहासिक फि़ल्म की अगली कड़ी बनाने के लिए वो हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में पहुंचे थे। इसके अलावा रवि वासवानी हिमाचल में अपनी पहली फि़ल्म का निर्देशन करने के लिए भी आए थे, लेकिन 27 जुलाई 2010 की शाम शिमला से दिल्ली लौटते हुए उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे अपना काम अधूरा छोड़कर ही इस दुनिया से चले गए।चश्मे के पीछे वो लंबूतरा चेहरा, बड़ी और हैरानी से फैली हुई सी आंखें, लंबा कद और व्यक्तित्व का ऐसा निरालापन की उनमें लोगों को हमेशा एक आम इंसान ही नजर आया। यही उनके अभिनय की सहजता भी थी।रवि वासवानी सिनेमा में हास्य और विद्रूप और विडंबना और मार्मिकता के अभिनय की उस महान कलाकार बिरादरी का हिस्सा थे जो चार्ची चैप्लिन से शुरू होती थी। वे हिंदी सिनेमा में अपने ढंग के चैप्लिन थे। उन्होंने बेशुमार ताबड़तोड़ फि़ल्में नहीं की, लेकिन जितनी की और जैसी भी भूमिका निभाई उसमें अपनी छाप छोड़ दी। किरदार की जटिलता तनाव और ऊंच-नीच को रवि वासवानी जज़्ब कर लेने के माहिर अभिनेता थे।जाने भी दो यारो फिल्म में अपने हास्य किरदार के लिए उन्हें 1984 में फि़ल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। वासवानी को उनके विनोदी स्वभाव और बेहतरीन कॉंमिक टाइमिंग के लिए जाना जाता था। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे वासवानी ने कभी घर नहीं बसाया। उन्होंने 30 से भी ज़्यादा फि़ल्मों के साथ-साथ कुछ टीवी धारावाहिकों में भी काम किया था।रवि का व्यक्तित्व बंजारा किस्म का था। वे हमेशा ख़ुश रहने वाले और दूसरों की मदद के लिए तैयार रहने वाले इंसान के रूप में पहचाने जाते थे। रवि वासवानी ने बंटी और बबली , प्यार तूने क्या किया जैसी कई सफल हिंदी फि़ल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में भी काम किया। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) -
- जन्मदिन पर विशेष
हिन्दी फिल्म जगत में जब भी देशभक्तिपूर्ण फिल्मों का जिक्र होता है, तो सबसे पहले भारत कुमार यानी मनोज कुमार ही याद किए जाते हैं। उनकी फिल्मों ने अपने दौर में एक अलग ही पहचान बनाई थी। मनोज कुमार की फिल्मों की कहानी , उसका संगीत ्आज भी कालजयी कहलाते हैं।हरिशंकर गिरि गोस्वामी यानी मनोज कुमार आज अपना 83 वां बर्थडे सेलिब्रेट कर रहे हैं। उनके नाम के साथ अनेक हिट फिल्में जुड़ी हुई है। भगत सिंह के जीवन पर आधारित शहीद फिल्म के बाद देशभक्ति आधारित फिल्मों में उनका खूब नाम हुआ। एक लंबे समय तक बॉलीवुड पर राज करने वाले मनोज कुमार को उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपडा और मकान, क्रांति, नील कमल, हरियाली और रास्ता, वो कौन थी, हिमालय की गोद में, दो बदन और शोर जैसी फिल्मों के लिए जाना जाता है। उन्हें भारत कुमार के नाम से अधिक पहचान मिली है, क्योंकि अपनी ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने अपना नाम भारत ही रखा।मनोज कुमार का जन्म का जन्म 24 जुलाई 1937 को ऐबटाबाद (पाकिस्तान) में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया और फिर मुंबई। जब उन्होंने फिल्मी दुनिया में कदम रखा तो वे दिलीप कुमार साहब से बहुत प्रभावित थे। दिलीप कुमार से ही प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी नाम हरिशंकर गिरि गोस्वामी से मनोज कुमार रखा और इसी नाम ने उन्हें अपार सफलता, लोकप्रियता दिलाई।मनोज कुमार ने अपने बॉलीवुड करिअर की शुरुआत डायरेक्टर लेखराज भाकरी की 1957 में आई फिल्म फैशन से की थी, लेकिन ये बात कम ही लोग जानते हैं कि लेखराज भाकरी असल जिंदगी में मनोज के रिश्तेदार ही थे। अपनी पहली फिल्म मनोज ने 80 साल के एक भिखारी का किरदार निभाया था। फिल्म सफल नहीं रही तो मनोज कुमार को किसी ने खास नोटिस भी नहीं किया। आखिरकार फिल्म शहीद से उन्हें सही पहचान मिली । इस फिल्म में उन्होंने भगत सिंह के रोल में जैसे जान ही डाल दी थी। यह फिल्म सुपर हिट हुई और मनोज कुमार भी निर्माता-निर्देशकों की पसंद बन गए। यहां तक भगत सिंह की असली मां विद्यावती भी मनोज कुमार को भगत सिंह के रूप में देखकर बोली थीं कि मेरा बेटा ऐसा ही लगता था।मनोज कुमार के जीवन से जुड़ी खास बातें- मनोज कुमार हवाई जहाज में सफर नहीं करते हैं। फिल्म पूरब और पश्चिम की शूटिंग के लिए हवाई जहाज में बैठने पर उनके मन में डर बैठ गया था, जिसके बाद से उन्होंने आज तक दुबारा हवाई सफर नहीं किया है।- फिल्म उपकार की प्रेरणा मनोज कुमार को तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मिली थी। दरअसल शास्त्री जी को मनोज कुमार की फिल्म शहीद बेहद पसंद आई थी जिसे देखने के बाद उन्होंने मनोज कुमार को जय जवान,जय किसान पर फिल्म बनाने का सुझाव दिया था। शास्त्री जी के सुझाव से मनोज इतने प्रभावित हुए कि शास्त्री जी से मुलाकात के बाद ट्रेन से दिल्ली से मुंबई लौटते वक्त ही उन्होंने फिल्म उपकार की कहानी तैयार कर ली थी। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुआ।- पूरब और पश्चिम से तो मनोज कुमार भारत कुमार के रूप में और भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए. इसका एक कारण यह भी था कि इस फिल्म के लिए इंदीवर ने एक गाना लिखा था- भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं। यह गीत उस समय इतना लोकप्रिय हुआ कि हर किसी की जुबान पर यह गीत चढ़ गया। आज भी यह गीत इतना लोकप्रिय है कि हमारे स्वतंत्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस पर यह रेडियो टीवी सहित स्कूल, कॉलेज आदि के समारोह में खूब गाया, बजाया जाता है।- बॉलीवुड की 16 फिल्मों में साथ काम कर चुके अमिताभ बच्चन और शशि कपूर को सबसे पहले स्क्रीन पर मनोज कुमार अपनी फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान में साथ लाए थे। इस फिल्म से पहले अमिताभ बच्चन का करिअर ढलान पर आ गया था और वो मुंबई छोडऩे का मन बना चुके थे, लेकिन मनोज कुमार ने उन्हें मुंबई छोड़ कर जाने से रोका और अपनी फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान का ऑफर दिया। फिल्म सुपर हिट हुई।- भारत कुमार के रूप में लोकप्रियता हासिल करने के बाद मनोज कुमार को सार्वजनिक जीवन में सिगरेट पीने पर एक लड़की की डांट भी सुननी पड़ी थी। एक बार मनोज कुमार ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया था। उन्होंने बताया- एक बार मैं परिवार के साथ किसी रेस्तरा में खाना खाने गया। खाने का ऑर्डर देने के बाद मैं सिगरेट पीने बैठ गया। तभी सामने बैठी एक लड़की बड़े गुस्से से मेरे पास आकर बोली- आप कैसे भारत कुमार हैं । भारत कुमार होकर सिगरेट पीते हैं। उस लड़की की यह बात सुन मैं और मेरा परिवार दंग रह गया लेकिन मैंने तभी सिगरेट फेंक दी थी।-मनोज कुमार ने देशभक्ति पूर्ण फिल्मों के अलावा ध्वनि प्रदूषण पर एक फिल्म बनाई थी- शोर। फिल्म में दिव्यांगों की जि़ंदगी की समस्याओं को भी बहुत ही संजीदगी से दिखाया गया था। फिल्म में संतोष आनंद के लिखे मधुर गीत एक प्यार का नगमा है, का जादू आज भी बरकरार है।-मनोज कुमार के पसंदीदा हीरो दिलीप कुमार थे, तो वहीं नायिकाओं में उन्हें कामिनी कौशल पसंद थी, जिनके साथ उन्होंने फिल्म शहीद में काम किया था।- मनोज कुमार को वर्ष 1992 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया था। इसके साथ ही उन्हें हिंदी सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के अवॉर्ड भी मिल चुका है।(छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)--- -
- मेहमूद की पुण्यतिथि पर विशेष
लोगों को हंसाने की विलक्षण प्रतिभा के धनी प्रख्यात हास्य कलाकार महमूद को कॉमेडी को भारतीय फिल्मों का अभिन्न अंग बनाने का श्रेय जाता है। हंसी-मजाक में बड़ी खूबसूरती से जिंदगी का फलसफा बयान करने का हुनर रखने वाले इस कलाकार ने हास्य भूमिका को नए आयाम और मायने दिये।महमूद ने भारतीय फिल्मों में महज औपचारिकता मानी जाने वाली कॉमेडी को एक अलग और विशेष स्थान दिलाया। उन्होंने कॉमेडी को एक नया स्तर और ऊंचाई देने के साथ-साथ यह भी साबित किया कि फिल्म का हास्य कलाकार उसके नायक पर भी भारी पड़ सकता है।महमूद को भारतीय फिल्मों में कॉमेडी के नए युग की शुरुआत करने वाला कलाकार माना जाता है। इस फनकार ने कॉमेडी को भारतीय फिल्मों के कथानक का अंतरंग हिस्सा बनाया। उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था कि 60 के दशक में फिल्मों पर कॉमेडी हावी होने लगी थी और महमूद अभिनय की इस विधा के बेताज बादशाह बन गए थे। महमूद ने 60 के दशक में अपने अभिनय की विशिष्ट शैली के जादू से हिन्दी फिल्मों में कॉमेडियन की भूमिका को विस्तार दिया और एक वक्त ऐसा भी आया जब महमूद दर्शकों के लिये अपरिहार्य बन गए।महमूद का जन्म 29 सितम्बर 1932 को मुम्बई में हुआ था। अपने माता-पिता की आठ में से दूसरे नम्बर की संतान महमूद ने शुरुआत में बाल कलाकार के तौर पर कुछ फिल्मों में काम किया था।बॉलीवुड में कदम रखने के लिए महमूद सभी तरह के प्रयास करते थे। महमूद ने इसके लिए ड्राइविंग तक सीख ली और निर्माता ज्ञान मुखर्जी के ड्राइवर बन गए। महमूद ने सोचा की अब उन्हें कलाकारों और निर्माता, निर्देशक के करीब जाने का मौका मिलेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही। यही से खुली महमूद की किस्मत और उन्हें दो बीघा जमीन , प्यासा जैसी फिल्मों में छोटे-मोटे रोल मिलने शुरू हो गए। 1958 में आई फिल्म परवरिश से महमूद को बड़ा ब्रेक मिला। इस फिल्म में उन्होंने राजकपूर के भाई की भूमिका निभाई थी। महमूद के अभिनय को हर किसी ने पसंद किय। इसके बाद छोटी बहन फिल्म उनके करिअर की अहम फिल्म साबित हुई। इन फिल्मों की सफलता के बाद तो महमूद के लिए बॉलीवुड के दरवाजे पूरी तरह से खुल गए। महमूद ने फिल्म गुमनाम में एक दक्षिण भारतीय रसोइये का कालजयी किरदार अदा किया। उसके बाद उन्होंने प्यार किये जा, प्यार ही प्यार, ससुराल, लव इन टोक्यो और जिद्दी जैसी हिट फिल्में दीं।बॉलीवुड में महमूद की धाक का अंदाज आप इस तरह से लगा सकते हैं कि उन्होंने अमिताभ बच्चन को पहला सोलो रोल दिया था। ये वही महमूद हैं जिन्होंने आर.डी बर्मन और पंचम दा जैसे संगीत के धुरंधरों को पहला ब्रेक दिया था। अपनी अनेक फिल्मों में महमूद नायक के किरदार पर भारी नजर आए। यह उनके अभिनय की खूबी थी कि दर्शक अक्सर नायक के बजाय उन्हें देखना पसंद करते थे।फिल्मों में अपनी बहुविविध कॉमेडी से दर्शकों को दीवाना बनाने के बाद महमूद ने अपनी फिल्म निर्माण कम्पनी पर ध्यान देने का फैसला किया। उनकी पहली होम प्रोडक्शन फिल्म छोटे नवाब थी। बाद में उन्होंने बतौर निर्देशक सस्पेंस-कॉमेडी फिल्म भूत बंगला बनाई। जिसमें उन्होंने अपने दोस्त और संगीतकार आर. डी. बर्मन को भी अभिनय करने का मौका दिया। उसके बाद उनकी फिल्म पड़ोसन 60 के दशक की जबरदस्त हिट कॉमेडी फिल्म साबित हुई। पड़ोसन को हिंदी सिने जगत की श्रेष्ठ हास्य फिल्मों में गिना जाता है। इसमें सुनील दत्त भी एक अच्छे कॉमेडी कलाकार बनकर उभरे।अभिनेता, निर्देशक, कथाकार और निर्माता के रूप में काम करने वाले महमूद ने बॉलीवुड के मौजूदा किंग शाहरुख खान को लेकर वर्ष 1996 में अपनी आखिरी फिल्म दुश्मन दुनिया बनाई , लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नाकाम रही। अपने जीवन के आखिरी दिनों में महमूद का स्वास्थ्य काफी खराब हो गया। उन्हें अनेक बीमारियां हो गई थी। वह इलाज के लिये अमेरिका गए जहां 23 जुलाई 2004 को उनका निधन हो गया। उनकी बीमारी का एक कारण उनका अत्यधिक धूम्रपान करना भी था। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)---- -
- अमर गायक मुकेश की जयंती पर विशेष
- फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाले पहले पुरुष गायक थे मुकेश
मुकेश चंद माथुर (जन्म - 22 जुलाई 1923, दिल्ली, भारत - निधन- 27 अगस्त 1976), लोकप्रिय तौर पर सिर्फ़ मुकेश के नाम से जाने वाले, हिन्दी सिनेमा के एक प्रमुख पाश्र्व गायक थे, जिनके गाने आज की पीढ़ी भी बड़े चाव से गुनगुनाती है।मुकेश की आवाज़ बहुत खूबसूरत थी पर उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने उन्हें तब पहचाना जब उन्होंने उसे अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिए रियाज़ का पूरा इन्तजाम किया। इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फि़ल्म निर्दोष (1941) में मुख्य कलाकार का काम मिला। पाश्र्व गायक के तौर पर उन्हें अपना पहला काम 1945 में फि़ल्म पहली नजऱ में मिला। मुकेश ने हिन्दी फि़ल्म में जो पहला गाना गाया, वह था दिल जलता है तो जलने दे ....जिसमें अदाकारी मोतीलाल ने की। इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक के एल सहगल के प्रभाव का असर साफ़-साफ़ नजऱ आता है। 1959 में अनाड़ी फि़ल्म के सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायन का पहला फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। 1974 में मुकेश को रजनीगन्धा फि़ल्म में कई बार यूं भी देखा है .... गाना गाने के लिए राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार मिला।60 के दशक में मुकेश का करिअर अपने चरम पर था और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नये प्रयोग शुरू कर दिये थे। उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाये गीत। 70 के दशक का आगाज़ मुकेश ने जीना यहां मरना यहां गाने से किया। उस वक्त के हर बड़े फि़ल्मी सितारों की ये आवाज़ बन गये थे। साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फि़ल्म पहचान के गीत के लिए दूसरा फि़ल्मफेयर मिला और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फि़ल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फि़ल्मफेयर पुरस्कार दिया गया।इस दौर में मुकेश ज़्यादातर कल्याणजी-आंनदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर. डी. बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। अपने उत्कृष्ट गायन के लिये ऐसा कौन सा पुरस्कार है जिसे मुकेश ने प्राप्त न किया हो। वे फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाले पहले पुरुष गायक थे। वे उस ऊंचाई पर पहुंच गए थे कि पुरस्कारों कि गरिमा उनसे बढऩे लगी थी, लोकप्रियता के उस शिखर पर विद्यमान थे जहां पहुंच पाना किसी के लिए एक सपना होता है। करोड़ों भारतवासियों के हृदयों पर मुकेश का अखंड साम्राज्य था और रहेगा।मुकेश ने विनोद मेहरा और फिऱोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी गाने गाये। 70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये जैसे— फि़ल्म धरम करम का एक दिन बिक जाएगा। फि़ल्म आनंद और अमर अकबर एंथनी की वो बेहतरीन नगमें। साल 1976 में यश चोपड़ा की फि़ल्म कभी कभी के इस शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करिअर का चौथा फि़ल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करिअर में फिर से एक नयी जान फूंक दी। मुकेश ने अपने करिअर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फि़ल्म के लिए ही गाया था। मुकेश की राजकपूर के साथ अच्छी दोस्ती थी, लेकिन उन्होंने दिलीप कुमार के लिए सबसे अधिक गाने गाए।अपने करीब 35 साल के कॅरिअर में मुकेश ने हजारों कर्णप्रिय और लोकप्रिय गाने गाए जो आज भी उतने ही हसीन लगते हैं जितने पहली बार लोगों ने इन्हें सुना था। मुकेश ने हर तरह के गीत गाए हैं - रोमांस, देशभक्ति, खुशी और गम में डुबे हुए, लेकिन जो भी गाया पूर्णता और परिपक्वता से। रियाज़ से सन्तुष्ट होने पर ही रिकार्डिंग की सहमति देते थे। मेरा नाम जोकर का कालजयी गीत, जाने कहां गए वो दिन, उन्होंने सत्रह दिनों के अभ्यास के बाद रिकार्ड कराया था। पाश्चात्य और शास्त्रीय संगीत क अद्भुत संगम है इस गीत में। मुकेश की मधुर आवाज़ में उभरते दर्द ने इसे सर्वकालिक महान गीत बना दिया है।मुकेश का निधन 27 अगस्त, 1976 को अमेरिका में एक स्टेज शो के दौरान दिल का दौरा पडऩे से हुआ। उस समय वह गा रहे थे, एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल । उस कार्यक्रम का लता मंगेशकर और नितिन मुकेश भी हिस्सा थे।- मुकेश साहब के गाए 15 लोकप्रिय गाने..
- 1. दिल जलता है, तो जलने दे
- 2. जाने कहां गए वो दिन
- 3. सावन का महीना
- 4. चंदन सा बदन चंचल चितवन
- 5. कहीं दूर जब दिन ढल जाए
- 6. कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
- 7. ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना
- 8. जीना यहां मरना यहां
- 9. तारो में सजके अपने सूरज से
- 10. कई बार यूं भी देखा है
- 11. मेरा जूता है जापानी
- 12. मेहबूब मेरे
- 13. आवारा हूं
- 14. दुनिया बनाने वाले
- 15. डम डम डिगा डिगा
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- 21 जुलाई- जन्मदिन पर विशेष
- आलेख- मंजूषा शर्मा
हिन्दी फिल्म जगत के जाने-माने गीतकार आनंद बख्शी (जन्म21 जुलाई 1930 — निधन 30 मार्च 2002) को गुजरे हुए 18 साल बीत गए हैं, लेकिन अपने गीतों के माध्यम से वे आज भी लोगों की जुबां पर जीवित हैं। यदि वे आज सशरीर जीवित होते तो यकीनन आज के माहौल के हिसाब से गीत लिख रहे होते।गीतकार आनंद बख्शी ने एक बार भारतीय गीत-संगीत के स्तर पर टिप्पणी करते हुए एक वाकये का जिक्र किया था- दो अमरीकी पत्रकारों ने मुझसे पूछा था कि उन्होंने इतनी सारी हिन्दी फिल्में देखीं पर उन्हें कहीं भी भारतीय संगीत की झलक देखने नहीं मिली?दरअसल यह बदला हुआ संगीत था , जिसमें भारतीय शब्द तो थे, लेकिन सब कुछ पाश्चात्य हो चुका था। न शब्दों की सरलता थी, न धुनें दिल को छू लेने वाली। यह आनंद बख्शी के अंदर के कवि का दुख था। रौशन, मदन मोहन, सचिन देव बर्मन, आर. डी. बर्मन , लक्ष्मी-प्यारे जैसे संगीतकारों के साथ करने के बाद बख्शी साहब नए संगीतकारों से भी यादगार धुनों की उम्मीद रखते थे। उनकी कलम से उम्दा शायरी भी निकली और जुम्मा चुम्मा दे दे, चोली के पीछे क्या है, जैसा लोगों की जुबां पर चढऩे वाला गीत भी। हालांकि उस वक्त बख्शी साहब को इन्हीं गानों की वजह से आलोचना भी सहनी पड़ी, लेकिन उनकी कलम में समय के बदलाव की झलक हमेशा दिखाई देती रही। फिल्म गदर का यह गीत - मैं निकला गड्डïी लेकर, आनंद बख्शी ने समय की नब्ज़ पहचान कर ही लिखा।जिन फिल्मी सितारों, फिल्मकारों के साथ बख्शी साहब एक बार जुड़ जाते, उनकी जोड़ी जम जाती थी। यश चोपड़ा, शक्ति सामंत, सुभाष घई राजकपूर, ऐसे कुछ नाम हैं, जिनकी फिल्मों की घोषणा होने के साथ, गीतकार का नाम भी जुड़ जाता था और वे अक्सर बख्शी साहब ही होते थे। यश चोपड़ा के साथ तो उन्होंने एक लंबी पारी खेली। बी. आर. चोपड़ा. और यश चोपड़ा जब एक साथ फिल्में बनाया करते थे, तभी से आनंद बख्शी को उन्होंने चोपड़ा खेम में शामिल कर लिया। बी. आर. और यश जब अलग हुए, तो बख्शी साहब का साथ किसी भाई ने नहींं छोड़ा। लम्हे, चांदनी, दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे, दिल तो पागल है, और मोहब्बतें। यश चोपड़ा के बैनर के लिए बख्शी साहब का लिखा हर गाना हिट होता था। यश मानते थे कि उनका इतना लंबा साथ इसलिए रहा , क्योंकि बख्शी साहब धरती के नजदीक थे। वे फिल्म की हर परिस्थिति को अच्छी तरह समझते थे। सही मायने में वे एक कवि , सिंगर थे। वे लव टु सिंग पर विश्वास रखते थे। हमने बरसों साथ काम किया और बेटे आदित्य के साथ भी बक्खी साहब उसी सहजता से जुड़े थे।आनंद बख्शी और यश चोपड़ा का साथ इसलिए भी एक अटूट बंधन में बंध गया था, क्योंकि दोनों ही पंजाब की धरती से जुड़े थे और जब- जब उनकी जोड़ी जमती, पंजाब की मिट्टïी की वह सोंधी-सोंधी और सरसों की तीखी खुशबू उनके गीतों में महसूस होने लगती। दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे पंजाबी पृष्ठïभूमि की फिल्म थी। बख्शी साहब ने खुद ये माना था कि इस फिल्म के गाने लिखने में उन्हें जितना मजा आया , उससे अधिक प्रसन्नता गीतों के फिल्मांकन को लेकर हुई। घर आ जा परदेसी तेरा देस बुलाए रे, उनका सबसे पसंदीदा गाना था।शक्ति सामंत की हिट फिल्मों में संगीत का सबसे बड़ा योगदान रहा है।। शक्ति सामंत जब भी किसी फिल्म की घोषणा करने वाले होते, पहले बख्शी के पास जाते और उन्हें पटकथा दिखाकर गाने लिखने को कहते। शक्ति सामंत, आनंद बख्शी को अपनी आधी जिदंगी मानते थे। करवटें बदलते रहे, सारी रात हम... जैसा रोमांटिक गीत और जय जय शिवशंंकर जैसा हुड़़दंगी गीत आनंद बख्शी ने राजेश खन्ना के लिए लिखा। राजेश खन्ना के वे अजीज दोस्त थे। राजेश खन्ना आज भी मानते हैं कि बख्शी साहब न सिर्फ कवि, बल्कि खुद एक कविता थे, जिसे बार-बार पढऩे को जी चाहता था।सुभाष घई जब फिल्म ताल बना रहे थे, तब उन्होंने इसके गीतों की जिम्मेदारी भी आनंद बख्शी को सौंपी। उन्होंने इस फिल्म की पटकथा दिखाते हुए कहा कि इस संगीत प्रधान फिल्म की जान इसके गीत ही हैं। आनंद बख्शी ने इस फिल्म के गीतों के साथ पूरा न्याय किया और इसी फिल्म के गानों के लिए उन्हें उस वर्ष का फिल्म फेयर, वीडियोकॉन, स्क्रीन और लक्स जी सिने अवाड्र्स मिला। मंच पर लक्स जी सिने अवार्ड लेते समय आनंद बख्शी काफी भावुक हो गए थे और उन्होंने अच्छी धुन के लिए ए. आर. रहमान को धन्यवाद भी दिया। अपना अनुभव सुनाते हुए उन्होंने बताया था कि किस तरह रहमान को उनके साथ काम करने में परेशानी आई। हालांकि रहमान के साथ काम करना उनके लिए प्रेरणादायक रहा। उन्होंने बताया- मैं जैसे ही गीत पूरा करता, रहमान उसकी धुन बनाने लग जाते। रहमान अपने चेन्नई के स्टुडियो में ही धुनें बनाया करते हैं। बख्शी साहब बार-बार चेन्नई नहीं जा सकते थे, इसलिए वे मुंबई में काम करते और रहमान चेन्नई में गाने रिकॉर्ड करते। सुभाष घई दोनों के बीच की कड़ी बनते और उन्हें बार-बार मुंबई से चेन्नई दौड़ लगानी पड़ती। यदि रहमान कोई परिवर्तन चाहते तो वे सुभाष घई को कहते और घई उनके पास दौड़े-दौड़े आते। यह काफी जटिल प्रक्रिया थी, लेकिन जब ताल का संगीत मैंने सुना तो बहुत खुशी हुई। रहमान ने उनके गीतों के साथ पूरा न्याय किया था। फिल्मांकन भी बहुत बढिय़ा हुआ था। बख्शी साहब जानते थे किए सुभाष घई इन परेशानियों से बचने के लिए कोई भी गीतकार ले सकते थे , लेकिन उन्हें क्वालिटी चाहिए थी। सुभाष घई ने ही अपनी पहली फिल्म में बख्शी साहब को मौका दिया था और वे फिर उनके साथ ऐसे जुड़े कि फिल्म यादें तक उनकी जोड़ी बनी रही । घई की प्रेरणा से ही बख्शी साहब ने कर्मा का गीत हर करम अपना सहेंगे, में हिन्दू-मुस्लिम सिख ईसाई वाला अंतरा लिखा था।आनंद बख्शी जब बयालिस साल के थे, तब राजकपूर ने उन्हें फिल्म बॉबी के लिए रोमांटिक गाने लिखने कहा था। चाबी खो जाए, मैं शायर तो नहीं, जैसे रोमांटिक गीत के साथ उन्होंने -मैं नहीं बोलना जा जैसा गंभीर गीत भी लिखा तो 50 बरस में उन्होंने सौदागर के इलु इलु गीत को अपनी कलम दी।67 बरस की उम्र में आनंद बख्शी नेे दिल तो पागल के लिए गाने लिखे। अशोका के लिए उन्होंने सन सनन सन गीत 72 वें बरस में प्रवेश करने के बाद लिखा, लेकिन आनंद बख्शी अपने आप को महाकवि तो क्या एक कवि भी नहीं मानते थे। साहिर लुधियानवी और रामप्रकाश अश्क उनके प्रेरणा स्रोत थे। ऐसा नहीं है कि आनंद बख्शी को संघर्ष नहीं करना पड़ा। वे तो निराश होकर फिल्म इंडस्ट्री ही छोड़ चुके थे, लेकिन 1957 वे फिर लौटे और जब जब फूल खिले, मिलन से उनका सितारा चमका, तो आराधना के गीतों ने उन्हें शीर्ष पर पहुंचा दिया।बख्शी साहब की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उनकी कलम ने समय की मांग को पहचाना और सिर्फ फिल्मी गीत ही लिखे। एक गीतकार के रूप में ही विकसित हुए और लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई। वे मानते थे कि शास्त्रीय संगीत और लोकधुनों पर आधारित गीत ही स्थायी रहेंगे बाकी सब उन बरसाती मकानों की तरह साबित होंगे, जो बरसात के आते ही ढह जाया करते हैं।