ए माटी के चोला ला
-लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे
- दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
सुघरा सुघरा कतका राखे, मानुष तन बड़बोला ला ।
बखत आय त्यागे ला परही, ए माटी के चोला ला।।
परब तिहार बिहाव मड़ाए, ढम गँड़वा बाजा बाजे।
चिकमिक नवा ओनहा पहिरे,तन गहना गुंठा साजे।
अहंकार मा डोलत मनखे, बड़े काज कर डारे तैं।
लालच मा होगे हस अंधा, नाता मया ल मारे तैं।
कोठी भरे हवय तब्भो ले, फैलाए हस झोला ला ।।
बखत आय त्यागे ला परही, ए माटी के चोला ला ।।
फूल सेमरा झरथे जइसे, झरही डारा ले पाना।
साँस चलत ले मजा उड़ा ले, मया प्रीत के गा गाना।
सुरुज उगे ले जइसे भागे, पल्ला मारत मुँधियारी।
जोत बरे ले धरम करम के, कलुष ह भागय सँगवारी।
लेजे बर जमदूत आय हे, कोन छेंकही डोला ला ।।
बखत आय त्यागे ला परही, ए माटी के चोला ला।।
आठों पीढ़ी बर जोरत हे, धन दौलत के ढेरी ला।
करत हवय निशदिन पइसा बर, कलह कपट के फेरी ला।
संग जाय नइ महल अटारी, तभो बने हे ब्यापारी।
दया मया कल्यान भुला के, लूट करत अत्याचारी।
जान बूझ के गलती करथे, कोन सिखोवय भोला ला।।
बखत आय त्यागे ला परही, ए माटी के चोला ला।।









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