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  गरुड़ एवं नागों में शत्रुता क्यों थी?

  महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की 17 कन्याओं से विवाह किया जिनसे 17 प्रमुख जातियों की उत्पति हुई। इसी कारण महर्षि कश्यप प्रजापति के नाम से भी जाने जाते हैं। इनकी दो-दो पत्नियों से जो पुत्र हुए उनके बीच की शत्रुता प्रसिद्ध है। महर्षि और अदिति से आदित्यों (देवताओं) का जन्म हुआ और दिति से दैत्यों का। इन दोनों के बीच की प्रतिद्वंदिता के विषय में तो हम सभी जानते हैं किन्तु इस विषय में विस्तार से कभी और बात करेंगे। आज बार करते हैं महर्षि कश्यप और कुद्रू से उत्पन्न नागों और महर्षि कश्यप और विनता से उत्पन्न गरुड़ के बीच की शत्रुता के विषय में। आखिर क्या कारण था कि ये दोनों जातियां चिर शत्रु हुई? एक बार महर्षि कश्यप की दोनों पत्नियां - दक्षपुत्री कुद्रू एवं विनता अपने पति के पास संतान की कामना लेकर पहुँची। महर्षि का मन उस समय बड़ा प्रसन्न था इसीलिए उन्होंने दोनों से पूछा कि उन्हें कैसी संतान की कामना है? तब कुद्रू ने कहा कि उन्हें अति बलशाली और पराक्रमी 1000  पुत्रों की प्राप्ति हो। विनता ने कहा कि उन्हें केवल दो ऐसे पुत्र चाहिए जो कुद्रू के 1000  पुत्रों पर भारी पड़ें। महर्षि कश्यप ने उन्हें वो वरदान दे दिया।

समय आया और कुद्रू ने 1000 अण्डों का और विनता ने 2 अण्डों का प्रसव किया। कुद्रू के पुत्र पहले जन्में। 1000 अण्डों से1000  महान नागों की उत्पत्ति हुई। इनमें से शेषनाग सबसे ज्येष्ठ एवं वासुकि दूसरे पुत्र थे। इन 1000 पुत्रों से 1000 नागकुल चले जिनमें से 8 नागकुल सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए। उन आठ महान नागों के बारे में आ यहाँ देख सकते हैं। विनता ने कुद्रू को माता बनने पर बधाई दी और अपने अण्डों से बच्चों के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगी। बहुत काल बीत गया और कुद्रू के पुत्र बड़े भी हो गए किन्तु विनता के अण्डों से प्रसव नहीं हुआ। अधीर होकर विनता ने स्वयं समय से पहले ही उनमें से एक अंडे को तोड़ दिया। उसमें से अरुण की उत्पत्ति हुई जिनका आधा शरीर तो विकसित हो गया था किन्तु आधा शरीर समय से पहले अंडे को फोड़े जाने के कारण अपूर्ण रह गया। स्वयं को इस प्रकार अपूर्ण देख कर अरुण बड़े दुखी हुए और उन्होंने अपनी माता विनता को श्राप दे दिया कि आपने केवल माता कुद्रू से ईर्ष्या के कारण मुझे समय से पहले ही अंडे से बाहर आने को विवश कर दिया इसी कारण आपको भी उन्ही कुद्रू की दासी बनना पड़ेगा।एक तो विनता अपने पुत्र की ऐसी दशा देख कर वैसे ही दुखी थी, उस पर से श्राप मिलने से वो और दुखी हो गयी। उन्होंने अपने पुत्र से क्षमा मांगते हुए कहा कि वे उन्हें उस श्राप से मुक्त कर दें। अपनी माता को श्राप देकर अरुण वैसे ही अपराधबोध से ग्रस्त थे। उन्होंने कहा कि आप चिंता ना करें। समय आने पर इस दूसरे अंडे से आपको एक और पुत्र की प्राप्ति होगी जो अतुल बलशाली होगा। वही आपको दासत्व से मुक्त करवाएगा। ये कहकर अरुण एकांत में जाकर सूर्यदेव की तपस्या में रत हो गए और आगे चल कर वे उनके सारथि बनें।

 उधर समय आने पर दूसरे अंडे से महापराक्रमी गरुड़ का जन्म हुआ। उसे देखकर विनता की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। किन्तु अरुण का श्राप तो फलीभूत होना ही था। एक दिन कुद्रू एवं विनता भ्रमण कर रही थी कि उनकी दृष्टि आकाश मार्ग से जाते हुए उच्चैश्रवा अश्व पर पड़ी। उसका रंग पूर्ण श्वेत था जिसे विनता ने कुद्रू को बताया। इस पर कुद्रू ने कहा कि उसकी पूछ काली थी। इसी बात पर दोनों में शर्त लग गयी कि हारने वाली को जीतने वाली की दासी बनना पड़ेगा। दोनों कल पुनः उच्चैश्रवा को देखने को कह कर चली गयी। कुद्रू को ये पता था कि उच्चैःश्रवा की पूछ काली नहीं है इसीलिए उसने अपने पुत्रों से कहा कि वे उस अश्व की पूछ से लिपट जाएँ। दूर से विनता को कुछ समझ नहीं आएगा और कुद्रू शर्त जीत जाएगी। किन्तु शेषनाग, वासुकि और कुछ और नागों ने ऐसा छल करने से मना कर दिया। तब कुद्रू ने अपने पुत्रों को ही श्राप दे दिया कि जो उसकी बात नहीं मानेगा वो भविष्य में जन्मेजय के सर्पयज्ञ में भस्म हो जाएगा। शेषनाग, वासुकि और कुछ अन्य नागों ने उस श्राप के बाद भी माता के छल का साथ देना स्वीकार नहीं किया पर कुछ पुत्रों ने डर से उनकी बात मन ली। अगले दिन कुद्रू के पुत्र उच्चैःश्रवा की पूछ से लिपट गए और दूर से विनता को ऐसा लगा कि उसकी पूछ काली है। विनता ने अपने हार स्वीकार कर ली और कुद्रू की दासी बन गयी। कुद्रू भी प्रसन्नतापूर्वक उससे दसियों जैसा ही आचरण करना आरम्भ कर दिया। जब गरुड़ ने अपनी माता की ऐसी दशा देखी तो बड़े दुखी हुए। उन्होंने अपनी माता से इसका उपाय पूछा। तब विनता ने कहा कि जब तक कुद्रू स्वयं उसे दासत्व से मुक्त ना कर दे तब तक वो उसकी दासी बनने के लिए विवश है।

 तब गरुड़ अपनी विमाता कुद्रू के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे उनकी माता को दासत्व से मुक्त कर दें। कुद्रू ने सोचा कि अपने पुत्रों को अमर बनाने का यही मौका है। उसने गरुड़ से कहा कि यदि वो उनके पुत्रों के लिए अमृत ले आएं तो वो उसकी माता को दासत्व से मुक्त कर देगी। ये सुनकर गरुड़ ने उनकी बात मान ली और अपने पिता के पास जाकर पूछा कि अमृत कहाँ मिलेगा। तब महर्षि कश्यप ने उन्हें बताया कि अमृत देवलोक में है किन्तु उसे लाना अत्यंत दुष्कर है। इस पर भी गरुड़ अमृत लाने देवलोक को चल दिए। वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि अमृत को कड़े पहरे में रखा गया है। उन्होंने सभी देवताओं को युद्ध के लिए ललकारा और सबको परास्त कर अमृत कलश को लेकर उड़ चले। उधर जब देवराज इंद्र को ये सूचना मिली तो उन्होंने मार्ग में ही गरुड़ को रोका। दोनों में घोर युद्ध हुआ और अंत में इंद्रदेव ने गरुड़ पर अपने वज्र से प्रहार किया। किन्तु महाबलशाली गरुड़ ने उस प्रहार को भी सह लिया। ये देख कर इंद्र बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने गरुड़ से मित्रता कर ली।इंद्र ने गरुड़ से पूछा कि उन्हें अमृत क्यों चाहिए? इस पर गरुड़ ने उन्हें पूरी बात बताई। तब इंद्र ने कहा कि कुद्रू के पुत्र दुराचारी हैं। यदि अमृत उनके हाथ लग गया तो वे इसका दुरूपयोग करेंगे। तब गरुड़ ने कहा कि हे इंद्रदेव। मुझे अमृत उन्हें देकर अपनी माता को दासत्व से मुक्त करा लेने दीजिये। फिर आप अमृत लेकर वापस स्वर्गलोग आ जाइएगा। इस बात से प्रसन्न होकर इंद्र ने उन्हें वो अमृत कलश ले जाने की स्वीकृति दे दी।गरुड़ अमृत लेकर आये और उस कलश को कुश के एक आसन पर रख दिया। ये देख कर कुद्रू ने विनता को दासत्व से मुक्त कर दिया। जब नाग अमृत पान के लिए बढे तो गरुड़ ने कहा कि उन्हें इस पवित्र अमृत का पान करने से पहले स्नान करना चाहिए। नागों को ये बात जचीं और वे स्नान करने चले गए। इंद्र देव इसी मौके की प्रतीक्षा में थे, उन्होंने अमृत कलश उठा लिया और वापस स्वर्गलोक आ गए।गरुड़ की चतुराई देख कर इंद्र ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो गरुड़ ने उनसे वरदान माँगा कि आज से नाग ही उनका भोजन हो। उधर जब नाग स्नान कर वापस आये तो अमृत को ना देख कर बड़ा पछताए। वे समझ गए कि उनकी माता के छल के कारण ही उनके साथ भी छल हो गया है। ये सोच कर कि कदाचित कुश पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गयी हो, नाग उसे चाटने लगे। कुश की धार से उनकी जीभ के दो टुकड़े हो गए। यही कारण है कि आज भी नागों की जीभ दो भागों में विभक्त होती है।बस यहीं से नागों और गरुड़ में घोर शत्रुता उत्पन्न हो गयी। नागों ने गरुड़ को युद्ध में भी परास्त करना चाहा किन्तु इंद्र के वरदान के कारण वे उनका भोजन बनने लगे। तब नाग अपने प्राण बचाने के लिए पृथ्वी और पाताल में इधर-उधर छिप गए। शेषनाग और वासुकि जैसे कुछ सात्विक नाग पहले ही श्रीहरि और महादेव की शरण में चले गए थे। वासुकि के नागराज बनने के बाद उन्होंने गरुड़ से इस परस्पर विरोध को समाप्त किया किन्तु बांकी नागों से साथ तो गरुड़ की शत्रुता पूर्ववत बनी रही।

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