काशी का मणिकर्णिका घाट
काशी, बनारस, वाराणसी में गंगा नदी के 84 घाटों में से एक है मणिकर्णिका घाट, जहां पर दाह संस्कार कर्म किया जाता है। वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर हर वक्त चिताएं जलती रहती हैं। इस घाट पर अंतिम संस्कार कराने वाले मुख्य लोग डोम राजा के परिवार से आते हैं। औसतन 24 घंटे में यहां 70 दाह संस्कार किए जाते हैं।
मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर बड़ी संख्या में शवों के दाह संस्कार होने के चलते तमाम लोगों का यहां रोजगार भी चलता है। बहुत से लोग तो घाटों पर ही दिहाड़ी मजदूरी करते हैं । हिन्दू धर्म में मान्यता है कि काशी में मरने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि काशी यानी बनारस के रहने वाले तो यहीं मरने की इच्छा रखते ही हैं, देश के अन्य हिस्सों और विदेशों से भी तमाम लोग वृद्धावस्था में यहां आकर इसीलिए रहने लगते हैं कि उनकी मृत्यु काशी में ही हो।
मणिकर्णिका घाट को लेकर एक मान्यता है कि माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहां एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शंकर जी द्वारा किया गया, जिस कारण इस स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ गया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान शंकर जी द्वारा माता सती के पार्थिव शरीर का यही अग्नि संस्कार किया गया, जिस कारण इसे महाश्मशान भी कहते हैं।
जलते शवों के बीच साल में एक बार मणिकर्णिका घाट पर एक महोत्सव का आयोजन भी किया जाता है। यह महोत्सव चैत्र नवरात्र की सप्तमी की रात में होता है। यह परंपरा अकबर काल में आमेर के राजा सवई मानसिंह के समय से शुरू हुई थी। मानसिंह ने ही 1585 में मणिकर्णिका घाट पर मंदिर का निर्माण करवाया था। महाश्मशान पर अनूठी साधना की परंपरा श्मशान नाथ महोत्सव का हिस्सा है।
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