- Home
- धर्म-अध्यात्म
-
आलेख - मंजूषा शर्मा
छत्तीसगढ़ में देवी मंदिरों की श्रृंखला में डोंगरगढ़ का प्रसिद्ध बम्लेश्वरी मंदिर भी बरसों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। प्राचीन काल में यह स्थान कामावती नगर के नाम से विख्यात था। समय के साथ राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन द्वारा मंदिर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में भक्तों के लिए अनेक सुविधाओं का विस्तार किया गया है, जिससे यहां अब और भी भक्त पहुंचने लगे हैं। वैसे तो साल भर यहां पर भक्तों का आना लगा ही रहता है, लेकिन शारदीय और चैत्र नवरात्र में दूर-दूर से भक्त माता के दरबार में मत्था टेकने के लिए पहुंचते हैं। इस मौके पर पहाड़ी के नीचे भव्य मेला भी लगता है, जो स्थानीय के साथ -साथ अनेक लोगों के लिए रोजगार का साधन भी उपलब्ध कराता है। इस साल कोरोना संक्रमण के मदद्ेनजर चैत्र के बाद अब शारदीय नवरात्र में भी मेले का आयोजन स्थगित कर दिया गया है।
ऊंचे पर्वत पर विराजमान मां बम्लेश्वरी देवी के दर्शन के लिए श्रद्घालुओं को करीब एक हजार एक सौ एक सीढिय़ां चढऩी पड़ती है। रोप- वे की सुविधा शुरू हो जाने से भक्तों का माता के दरबार तक पहुंचना और आसान हो गया है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे ये पहाड़ी अनादिकाल से जगत जननी मां बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी हैं। कहा जाता है कि मां बम्लेश्वरी के आशीर्वाद से भक्तों को शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति मिलती है साथ ही विजय का वरदान मिलता है। 1,600 फीट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित मां बमलेश्वरी देवी मंदिर आध्यात्मिक महत्व के साथ - साथ कई किंवदंतियों को भी अपने में समाहित किए हुए है।दो- पहर आरती का महत्वमां बम्लेश्वरी के दरबार में दो- पहर होने वाली आरती का भी काफी महत्व है। घंटी-घडियालों के बीच आरती की लौ के साथ मंदिर में भक्ति का अलौकिक नजारा देखने वालों को बांध लेता है, भक्ति के रस में डुबो देता है। मां बम्लेश्वरी बगलामुखी का रूप हैं , जो हिमाचल के कांगड़ा में सुंदर पहाडिय़ों के बीच साक्षात विराजमान हैं। मान्यता है कि 10 महाविद्याओं में से एक मां बगलामुखी के दरबार में भगवान राम ने तपस्या कर रावण पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद प्राप्त किया था।अद्भुत है माता की महिमाचारों तरफ पहाड़ों से घिरे डोंगरगढ़ का इतिहास अद्भुत है। राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है। दंतकथा है कि आज के करीब ढाई हजार साल पहले इस नगर का नाम कामावतीपुरी था। यहां राजा वीरसेन का शासन था। उनकी कोई संतान नहीं थी। राजा को यह जानकारी मिली कि नर्मदा नदी के तट पर एक तीर्थ है, महिष्मती, जहां भगवान शिव की आराधना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। राजा-रानी ने शुभ मुहुर्त में नर्मदा नदी के तट पर भगवान शंकर और पार्वती की आराधना की। इस प्रार्थना के एक वर्ष बाद उन्हें सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। इस चमत्कार से अभिभूत होकर राजा वीरसेन ने पहाड़ी की चोटी पर मां पार्वती के मंदिर की स्थापना की। भगवान शिव अर्थात महेश्वर की पत्नी होने के कारण पार्वती जी का नाम महेश्वरी भी है। कालान्तर में महेश्वरी देवी ही बम्लेश्वरी कहलाने लगी। तब से ऐसी मान्यता है कि मां बम्लेश्वरी की जो सच्चे मन से पूजा करता है, उसके सब दुख-दर्द दूर हो जाते हैं।वैसे भी डोंगरगढ़ की पर्वतवासिनी, मां बम्लेश्वरी के मंदिर की प्राचीनता संदेह की परिधि से सर्वथा बाहर है क्योंकि आस्था का आंकलन कभी नहीं किया जाता। यहां पर मां शक्ति बम्लेश्वरी रूप में विराजमान हैं जो करीब ढाई हजार से अधिक वर्षों से करोड़ों श्रद्घालुओं की श्रद्घा एवं उपासना का केंद्र बनी हुई है।डोंगरगढ़ तहसीलबात करें डोंगरगढ़ की तो यह राजनांदगांव जिले की सबसे बड़ी तहसील है। राजसी पहाड़ों और तालाबों के साथ, डोंगगढ़ शब्द से लिया गया है- डोंगर का मतलब पहाड़ और गढ़ का अर्थ किला है। पहले डोंगरगढ़ रियासत में शामिल था और खैरागढ़ नरेश कमल नारायण सिंह की वजह से इसकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंची। उन्होंने ही पहाड़ी की तलहटी पर छोटी बम्लई माता मंदिर का निर्माण करवाया। सन् 1964 में मंदिर के संचालन के लिए राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक समिति बनाई जो श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के नाम से जानी जाती है। इस समिति ने बम्लेश्वरी मंदिर के विकास में अहम भूमिका निभाई।करीब एक हजार सीढिय़ों की चढ़ाई करने के बाद जब भक्त ऊंची पहाड़ी पर माता के दरबार में पहुंचते हैं, तो उनकी सारी थकान छूमंतर हो जाती है। मां का प्रताप ही कुछ ऐसा है। ऊपर से डोंगरगढ़ शहर को देखना अपने आप में रोमांचक अनुभव है। नवरात्र के दौरान रात्रि में पूरी पहाड़ी रौशनी से जगमगा उठती है। दिन के समय यहां पहुंचे तो पहाड़ों और जंगलों की नैसर्गिक सुषमा यात्रियों के मन को शांति प्रदान करने के साथ ही अलौकिक सुख का अनुभव कराती है।अन्य आकर्षण-तपस्वी तालाब से जुड़ी हैं कई मान्यताएंपहाड़ी की तलहटी पर तपस्वी तालाब भी है जिसके बारे में कई मान्यताएं और किवदंतियां हैं। कहा जाता है कि ऋषि-मुनि इसके आसपास की गुफाओं में तप करने आते थे इसलिए इसका नाम तपस्वी तालाब हो गया।टोनही बम्लाई का मंदिरडोंगरगढ़ में मां रणचण्डी देवी का मंदिर भी भक्तों की आस्था का केंद्र है जिसे टोनही बम्लाई भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में पहले इस बात की जांच पड़ताल की जाती थी कि संबंधित व्यक्ति जादू-टोने का शिकार तो नहीं है। मंदिर में भक्त दीपक या अगरबत्ती जलाने के लिए अगर माचिस जलाता है और उसकी माचिस नहीं जलती है तो यह माना जाता है कि उस पर जादू-टोना किया गया है। माचिस अगर जल जाती है तो तंत्र-मंत्र की बात निर्मूल साबित होती है।मंदिर मार्ग में रणचण्डी मंदिर के अलावा नागदेवता का मंदिर भी है। भीम पैर के संदर्भ में भी कई दंत कथाएं हैं। कहा जाता है कि पाण्डव और भगवान राम ने भी इस नगरी में कुछ वक्त व्यतीत किया था।सभी सम्प्रदाय की इबादतगाहमां बम्लेश्वरी मंदिर के लिए विख्यात डोंगरगढ़ में हिन्दू- मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह भी है। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरूद्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का ब्रिटिश कालीन चर्च भी मौजूद है। बौद्घ धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्घ की विशाल प्रतिमा स्थापित की है, जो दूर से स्पष्ट नजर आ जाती है।आदिवासियों के अराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैया भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊंची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है। - मां दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। नवरात्रि में छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं।कात्य गोत्र में विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनका गुण शोधकार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। यह वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी। इसीलिए यह ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। यह स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दायीं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाँयी तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि इस देवी की उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।मंत्र- चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥माता का स्वरूप- मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। ये स्वर्ण के समान चमकीली हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। मां कात्यायनी का वाहन सिंह है।मां कात्यायनी की पौराणिक कथामां दुर्गा के इस स्वरूप की प्राचीन कथा इस प्रकार है कि एक प्रसिद्ध महर्षि जिनका नाम कात्यायन था, ने भगवती जगदम्बा को पुत्री के रूप में पाने के लिए उनकी कठिन तपस्या की। कई हजार वर्ष कठिन तपस्या के पश्चात् महर्षि कात्यायन के यहां देवी जगदम्बा ने पुत्री रूप में जन्म लिया और कात्यायनी कहलायीं। ये बहुत ही गुणवंती थीं। इनका प्रमुख गुण खोज करना था। इसीलिए वैज्ञानिक युग में देवी कात्यायनी का सर्वाधिक महत्व है। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस दिन जातक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने के कारण मां कात्यायनी के सहज रूप से दर्शन प्राप्त होते हैं। साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है।पूजा का महाउपाययदि किसी व्यक्ति की शादी में तमाम तरह की अड़चनें आ रही हैं या फिर वैवाहिक जीवन में कोई समस्या है तो आज के दिन ऐसे जातकों को माता की विशेष रूप से पूजा-आराधना करनी चाहिए। आज के दिन मां कात्यायनी की विधि पूर्वक स्तुति करने से सुखद वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद प्राप्त होता है और सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। जिन साधकों को विवाह से सम्बंधित समस्या है, इस दिन मां को हल्दी की गांठे माता को अर्पित करने से मां उन्हें उत्तम फल प्रदान करती हैं।पूजा विधिनवरात्रि के छठवें दिन स्नान-ध्यान के पश्चात् लाल रंग के कपड़े पहन कर मां कात्यायनी की प्रतिमा या फोटो के सामने माता का ध्यान करें। इसके बाद कलश आदि पूजन करने के बाद के बाद मां कात्यायनी की पीले रंग के फूलों से विशेष पूजा अर्चना करें। पूजा के पश्चात् मां कात्यायनी की वंदना या श्लोक पढऩा करना न भूलें। इसके पश्चात् मां का स्त्रोत पाठ करें और फिर मां को पीले नैवेद्य का भोग लगाएं।
-
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। उन्होंने अपने अवतारकाल में अनेकानेक गुढ़ातिगूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों एवं शंकाओं का निराकरण किया है जिससे भगवदीय प्रेम-पथिकों के लिये साधना का मार्ग नित्य निरंतर प्रकाशवान रहा है। अनेक जिज्ञासु जीवों ने उनसे अपनी जिज्ञासायें व्यक्त की थी, जिनका उन्होंने बड़ा सरल एवं वेदादिक सम्मत समाधान प्रदान किया है। ऐसा ही एक प्रश्न एक साधक ने उनसे पूछा था। आइये उस प्रश्न तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिये गये उत्तर पर हम सभी विचार करें :::::
एक साधक का प्रश्न ::: श्री महाराज जी! परमार्थ के पथ पर चलने वाले साधक को, क्या अपने भविष्य की चिन्ता करनी चाहिये?
श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर ::: नहीं। क्योंकि जो कुछ प्रारब्ध में होगा वही उसे प्राप्त होगा। अगर व्यक्ति के प्रारब्ध में नहीं है, उसे अगर वह एकत्र करेगा तो कोई न कोई ऐसा बनाव बन जायेगा कि चुटकी में वह सब समाप्त हो जायेगा।
परमार्थ के पथ पर चलने वाले को चिन्ता किस बात की? अगर कोई कहे कि भविष्य की चिन्ता नहीं करेंगे तो मर जायेंगे। यह कैसे हो सकता है? जबकि वह भगवान के शरणागत है, और शरणागत का योगक्षेम भगवान वहन करते हैं।
तुम्हारी जिस वस्तु में सबसे अधिक आसक्ति (अटैचमेन्ट) हो, उसी को भगवान को अर्पण कर दो। इससे तुम्हारी आसक्ति कम हो जायेगी। आसक्ति ही भगवत क्षेत्र में बाधा डालती है। तुम्हारी आसक्ति किसमें है, यह जानने के लिये, चिन्तन द्वारा पता लगाओ, तत्पश्चात उस वस्तु का समर्पण कर दो। गुरु की शरणागति और कृपा से ही सब कुछ सम्भव है।
0 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, मार्च 2002 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -मंदिर की बनावट में जुड़े हैं कई रहस्य-तांत्रिक विधि से किया गया है मंदिर का निर्माणआलेख-सुस्मिता मिश्राराजधानी रायपुर में प्रमुख शक्तिपीठों में एक प्राचीन महामाया मंदिर भी है। साल भर यहां पर माता के भक्तों की भीड़ लगी रहती है। माता का प्रताप ही कुछ ऐसा है कि एक बार वहां जाने वाले भक्त की इच्छा बार-बार माता के दर्शन करने की होती है। इस मंदिर की ऐतिहासिकता और प्रताप हर किसी को प्रभावित करता है। मां का दरबार सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। तांत्रिक पद्धति से बने इस मंदिर में दूर-दूर से भक्त आते हैं। माना जाता है कि मंदिर में महामाया माता से सच्चे मन से की गई प्रार्थना हमेशा पूरी होती है।इतिहासमहामाया मंदिर का इतिहास करीब छह सौ साल पुराना है। इस मंदिर की स्थापना हैहयवंशी कलचुरिया वंश के राजा मोरध्वज ने करवाई थी । छत्तीसगढ़ में इस वंश का शासन काफी समय तक रहा। इस वंश के राजाओं ने इस क्षेत्र में छत्तीस किले यानी गढ़ बनवाए और इस वजह से इस राज्य का नाम छत्तीसगढ़ हुआ। इन गढ़ों में प्रमुख है रतनपुर और रायपुर। इन दोनों स्थानों में महामाया मंदिर का निर्माण किया गया। रायपुर के महामाया मंदिर की बात करें तो शुरू से ही यह हिस्सा आसपास के क्षेत्र से अधिक ऊंचाई पर था। आज भी कमोबेश यही स्थित है। एक ओर कंकाली तालाब, दूसरी ओर महाराज बंध तालाब और तीसरी ओर पुरानी बस्ती की तरफ ढलान है। भले की प्राचीन डबरियां पर लुप्तप्राय हो गई हैं, लेकिन ढलान आज भी कायम है ।जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर की प्रतिष्ठा हैहयवंशी राजा मोरध्वज के हाथों किया गया था। बाद में भोंसला राजवंशीय सामन्तों व अंग्रेजी सल्तनत द्वारा भी इसकी देखरेख की गई है। किवदन्ती है कि एक बार राजा मोरध्वज अपनी रानी कुमुद्धती देवी (सहशीला देवी) के साथ राज्य के भ्रमण में निकले थे, जब वे वापस लौट रहे थे, तो प्रात: काल का समय था। राजा मोरध्वज के मन में खारुन नदी पार करते समय विचार आया कि प्रात: कालीन दिनचर्या से निवृत्त होकर ही आगे यात्रा की जाए। यह सोचकर नदी किनारे (वर्तमान महादेवघाट) पर उन्होंने पड़ाव डलवाया। दासियां कपड़े का पर्दा कर रानी को स्नान कराने नदी की ओर ले जाने लगीं। जैसे ही नदी के पास पहुंचीं तो रानी व उनकी दासियां देखती हैं कि बहुत बड़ी शीला पानी में है और तीन विशालकाय सर्प वहां मौजूद हैं। यह दृश्य देखकर वे सभी डर गईं और पड़ाव में लौट आईं। इसकी सूचना राजा को भेजी गई। राजा ने भी यह दृश्य देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। तत्काल अपने राज ज्योतिषी व राजपुरोहित को बुलवाया। उनकी बताई सलाह पर राजा मोरध्वज ने स्नान आदि के पश्चात विधिपूर्वक पूजन किया और शीला की ओर धीरे-धीरे बढऩे लगे। तीन विशालकाय सर्प वहां से एक-एक कर सरकने लगे। उनके हट जाने के बाद राजा ने उस शीला को स्पर्श कर प्रणाम किया और सीधा करवाया। सभी लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि वह शीला नहीं महिषासुरमर्दिनी रूप में अष्टभुजी भगवती की मूर्ति है। यह देख सभी ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।कहा जाता है कि उस समय मूर्ति से आवाज निकली। हे राजन! मैं तुम्हारी कुल देवी हूं। तुम मेरी पूजा कर प्रतिष्ठा करो, मैं स्वयं महामाया हूं। राजा ने अपने पंडितों, आचार्यों व ज्योतिषियों से विचार विमर्श कर सलाह ली। सभी ने सलाह दी कि भगवती मां महामाया की प्राण-प्रतिष्ठा की जाए। तभी जानकारी प्राप्त हुई कि वर्तमान पुरानी बस्ती क्षेत्र में एक नये मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। उसी मंदिर को देवी के आदेश के अनुसार ही कुछ संशोधित करते हुए निर्माण कार्य को पूरा करके पूर्णत: वैदिक व तांत्रिक विधि से आदिशक्ति मां महामाया की प्राण प्रतिष्ठा की गई। कहा जाता है कि माता ने राजा से कहा था कि वह उनकी प्रतिमा को अपने कंधे पर रखकर मंदिर तक ले जाएं। रास्ते में प्रतिमा को कहीं रखें नहीं। अगर प्रतिमा को कहीं रखा तो मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगी। राजा ने मंदिर पहुंचने तक प्रतिमा को कहीं नहीं रखा , लेकिन मंदिर के गर्भगृह में पहुंचने के बाद वे मां की बात भूल गए और जहां स्थापित किया जाना था, उसके पहले ही एक चबूतरे पर रख दिया। बस प्रतिमा वहीं स्थापित हो गई। राजा ने प्रतिमा को उठाकर निर्धारित जगह पर रखने की कोशिश की , लेकिन नाकाम रहे। प्रतिमा को रखने के लिए जो जगह बनाई गई थी वह कुछ ऊंचा स्थान थी। इसी वजह से आज भी मां की प्रतिमा चौखट से तिरछी दिखाई पड़ती है। जानकारों के मुताबिक मंदिर का निर्माण राजा मोरध्वज ने तांत्रिक विधि से करवाया था। इसकी बनावट से भी कई रहस्य जुड़े हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह के बाहरी हिस्से में दो खिड़कियां एक सीध पर हैं। सामान्यत: दोनों खिड़कियों से मां की प्रतिमा की झलक नजर आनी चाहिए ,लेकिन ऐसा नहीं होता। दाईं तरफ की खिड़की से मां की प्रतिमा का कुछ हिस्सा नजर आता है परंतु बाईं तरफ नहीं। माता के मंदिर के बाहरी हिस्से में सम्लेश्वरी देवी का भी मंदिर है। सूर्योदय के समय किरणें सम्लेश्वरी माता के गर्भगृह तक पहुंचती हैं। सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणें मां महामाया के गर्भगृह में उनके चरणों को स्पर्श करती हैं। मंदिर की डिजाइन से यह अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है कि प्रतिमा तक सूर्य की किरणें पहुंचती कैसे होंगी। पौराणिक मान्यता है कि मंदिर के साथ दिव्य शक्तियां जुड़ी हुई हैं।मंदिर के इतिहास पर सबसे पहले 1977 में महामाया महत्तम नामक किताब लिखी गई। इसके बाद मंदिर ट्रस्ट ने 1996 में इसका संशोधित अंक प्रकाशित करवाया। 2012 में मंदिर की ओर से प्रकाशित की गई रायपुर का वैभव श्री महामाया देवी मंदिर को इतिहासकारों ने प्रमाणिक किया है। सभी किवदंतियों और जनश्रुति का उल्लेख प्रमाणिक किताबों में मिलता है।
- नवरात्रि का पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। मां अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरद मुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं।यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। यह कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। शास्त्रों में इसका पुष्कल महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। अत: मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वालीं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।मंत्र- सिंहसनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥कथा- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी स्कंदमाता ही हिमालय की पुत्री हैं और इस वजह से इन्हें पार्वती कहा जाता है। महादेव की पत्नी होने के कारण इन्हें माहेश्वरी भी कहते हैं। इनका वर्ण गौर है इसलिए इन्हें देवी गौरी के नाम से भी जाना जाता है। मां कमल के पुष्प पर विराजित अभय मुद्रा में होती हैं इसलिए इन्हें पद्मासना देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहा जाता है। भगवान स्कंद यानी कार्तिकेय की माता होने के कारण इनका नाम स्कंदमाता पड़ा। स्कंदमाता प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं की सेनापति बनी थीं। इस वजह से पुराणों में कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है।कैसे करें स्कंदमाता की पूजा- नवरात्रि के पांचवें दिन सबसे पहले स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। अब घर के मंदिर या पूजा स्थान में चौकी पर स्कंदमाता की तस्वीर या प्रतिमा स्थापित करें। गंगाजल से शुद्धिकरण करें। अब एक कलश में पानी लेकर उसमें कुछ सिक्के डालें और उसे चौकी पर रखें। अब पूजा का संकल्प लें। इसके बाद स्कंदमाता को रोली-कुमकुम लगाएं और नैवेद्य अर्पित करें। अब धूप-दीपक से मां की आरती उतारें. आरती के बाद घर के सभी लोगों को प्रसाद बांटें और खुद भी ग्रहण करें। स्कंद माता को सफेद रंग पसंद है। आप श्वेत कपड़े पहनकर मां को केले का भोग लगाएं। मान्यता है कि ऐसा करने से मां निरोगी रहने का आशीर्वाद देती हैं।स्कंदमाता का मनपसंद रंग और भोगस्कंदमाता को नारंगी रंग पसंद है। दिन भर व्रत रखने के बाद शाम को माता को केले का भोग लगाया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से शरीर स्वस्थ रहता है।
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला :::::जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने सन 1957 में जगद्गुरु बनने के पश्चात पूरे भारतवर्ष तथा अनेक अवसरों पर विदेशों में जाकर भी सनातन वैदिक धर्म तथा भक्तितत्व का अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार किया है। उनके इस भक्ति-आन्दोलन का प्रसाद और उनका दिव्य सहज सान्निध्य भगवान श्रीरामचन्द्र जी के ननिहाल छत्तीसगढ़ राज्य ने भी प्राप्त किया है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज 1950 के दशक से अनेक बार यहाँ की धरा और जनमानस को सँग प्रदान कर उन पर श्रीराधाकृष्ण के ब्रजरस तथा कृपा की वर्षा कर चुके हैं। विशेषत: भिलाई, जिन्हें वे अपना हृदय स्थल कहते थे, भाटापारा, राजनांदगांव, बिलासपुर, रायगढ़, रायपुर आदि स्थानों पर वे अनेक बार आ चुके हैं तथा प्रवचन-रस का भी पान करा चुके हैं। आज भी उनके सान्निध्य का दिव्य स्पर्श उन स्थानों की भूमि, वातावरण, वृक्षों, पत्तों, फूलों तथा जनमानस के हृदय में जैसे ज्यों की त्यों अंकित हैं।नीचे एक संस्मरण है उनके जगद्गुरु बनने के कुछ वर्ष पश्चात का, जब राजनांदगाँव में श्री कृपालु महाप्रभु जी पब्लिक स्पीच दे रहे थे, तब के समय का एक संस्मरण उन्होंने स्वयं ही अपने सत्संगियों को सुनाया था। इनमें जिन आदरणीय व्यक्तित्व का जिक्र है, राजनांदगाँव के वे महानुभाव श्री बलदेव प्रसाद जी मिश्र, जो कि एक महान साहित्यकार, न्यायविद थे तथा जिन्होंने 'तुलसी-दर्शन' पर सराहनीय कार्य किया। वे बलदेव प्रसाद मिश्र जी, श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 1955 तथा 1956 में क्रमश: चित्रकूट तथा कानपुर में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मलेन में आमंत्रित महात्माओं की सूची में शामिल रहे थे तथा वे श्री कृपालु जी महाराज के 'जगदगुरुत्तम' बनने के साक्षी भी रहे हैं। वे एक अवसर पर राजनांदगाँव में श्री कृपालु जी महाराज से मिले थे, उसी मुलाकात का यह वर्णन है।यह संस्मरण स्वयं जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने शब्दों में सुनाया था, उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है ::::::'...हम राजनांदगाँव (तब मध्यप्रदेश में था) में लेक्चर दे रहे थे, तो वहाँ एक बलदेव मिश्र (डी. लिट्.) थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी हमारे प्रेसिडेन्ट थे पहले वाले, उनके गुरु। तो वो हमसे मिलने आये, लेक्चर सुना एक बार खाली। तो इतने प्रभावित हुये, इनको सब शास्त्र वेद याद है। उस जमाने में हम नम्बर नहीं बोलते थे शास्त्रों वेदों के, खाली कोटेशन बोल दें, ये गीता, ये भागवत, ये रामायण, ये वेद।तो मिलने आये हमसे, हमारे साथ उस समय सिंहासन भी चलता था - जगद्गुरु का। करीब 55 साल पहले की बात है. (जब वे यह संस्मरण सुना रहे थे, तब से 55 साल पहले) तो हमारा चपरासी बाहर बैठा था, हम कमरे में आराम कर रहे थे, जैसे दोपहर को आराम करते हैं। तो मामूली पढ़ा लिखा था वो। यादव जानते हैं कुछ पुराने लोग, रायगढ़ का था वो। बहुत मामूली पढ़ा लिखा दर्जा चार तक मुश्किल से।हमको उठने में देर हुई, वो बैठे रहे कि हम तो मिल के ही जायेंगे, इतनी छोटी उमर में इतने शास्त्र वेद याद हैं। तो उससे (चपरासी से) बात करते रहे वो। आपके गुरु जी कितने घंटे पढ़ते हैं? कितनी पुस्तकें उनके पास हैं? उसने (चपरासी ने) कहा - एक भी पुस्तक नहीं रखते, एक भी। और वो रेडियो सुनते रहते हैं। (बलदेव मिश्र जी ने आगे कहा) अरे शास्त्री वगैरह तो बड़ी किताबें लेकर साथ साथ चलते हैं, जहाँ जाते हैं लेक्चर देने।(चपरासी ने) कहा, वो कुछ नहीं रखते। विश्वास नहीं किया उन्होंने। खैर वो बैठे रहे, और प्रश्न करते रहे उनसे वो क्या समझाते हैं? वो अपढ़ गँवार लेकिन फिर दिन-रात सुनता रहे लेक्चर तो कुछ दिमाग में भर गया था उसके, वो अपनी अक्ल से जवाब देता रहा। जब हम उठे, हमसे मिलने आये तो कहने लगे, आपका तो चपरासी भी फिलॉसफर है। क्यों? कहे, हम तमाम सारे क्वेश्चन उससे किये, सबका उत्तर धड़ाधड़ देता रहा वो। वो तो बेपढ़ा लिखा है बिचारा। आप कोई पुस्तक साथ में नहीं रखते? हमने कहा - नहीं मेरे सामान में तो कोई पुस्तक कभी नहीं रही। उनको बहुत आश्चर्य हुआ...'(जैसा कि श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अपने शब्दों में सुनाया)
0 स्त्रोत ::: 'जगदगुरुत्तम' पुस्तक, पृष्ठ संख्या 1320 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - मंदिर और पहाड़ी के साथ जुड़ी हैं कई कथाएं और किंवदंतियां-महाभारत काल से भी है जुड़ाव-आलेख -वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुरोहितछत्तीसगढ़ के प्राय: सभी क्षेत्र ऐतिहासिक और पौराणिक संपदा की दृष्टि से अत्यंत संपन्न हैं और श्रद्धा, भक्ति व समर्पण की पावन त्रिवेणी के अजस्र प्रवाह में समूचा लोकमानस अवगाहन करता है। राज्य के महासमुंद जिले के ही बागबाहरा तहसील मुख्यालय से करीब 14 किलोमीटर दूर स्थित भीमखोज से लगे खल्लारी ग्राम की पहाड़ी पर मां खल्लारी का मंदिर ऐसा ही एक महत्वपूर्ण केंद्र है। दर्शनार्थी भक्तों की सुविधा की दृष्टि से पहाड़ी के नीचे भी एक मंदिर में मां खल्लारी की प्राण-प्रतिष्ठा की गई है। यहां आसपास का स्थान प्राकृतिक रूप से जंगल व पहाडिय़ों से घिरा हुआ है। यहां के प्राकृतिक वातावरण और पौराणिक महत्व ने इसे पर्यटन की दृष्टि से भी उभारा है। इस मंदिर और पहाड़ी के साथ कई कथाएं, किंवदंतियां और घटनाएं जुड़ी हैं जिनके बारे में लोग कम ही जानते हैं।खल्लारी दो शब्दों से मिलकर बना नाम है- खल और अरि; जिसका तात्पर्य है : दुष्टों का नाश करने वाली! जानकार लोगों और उपलब्ध शिलालेखों से ज्ञात होता है कि यह मंदिर सन 1415-16 का है। यह भी कहा जाता है कि यह स्थान तत्कालीन हैहयवंशी राजा हरि ब्रह्मदेव की राजधानी था। इससे पहले यहां आदिवासियों का प्रभुत्व होने की बात जानकार लोग बताते हैं। जब राजा हरि ब्रह्मदेव ने खल्लारी को अपनी राजधानी बनाया तो उन्होंने इसकी रक्षा के लिए यहां मां खल्लारी की मूर्ति की स्थापना की। यहां मिले एक शिलालेख के नौवें श्लोक में मोची देवमाल की वंशावलि और 10वें श्लोक में उसके द्वारा मंदिर बनवाए जाने का उल्लेख भी मिलता है। यहां चैत्र मास की पूर्णिमा पर पांच दिनों का मेला भरता है जिसमें इस क्षेत्र के अलावा विदर्भ और प. ओडि़शा तक से लोग शिरकत करने पहुंचते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद और पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय द्वारा इस स्थान को पर्यटन स्थल घोषित किए जाने के बाद इस मेले का स्वरूप काफी व्यापक हुआ है। यहां के जानकार लोगों का दावा है कि दूर-दूर से मां खल्लारी के दर्शन के लिए यहां पहुंचने वाले श्रद्धालु भक्तों में से किसी को भी माता के पाषाण रूप में परिवर्तित होने के बाद उनके शृंगारिक रूप में दर्शन नहीं हुए! अलबत्ते, माता के दर्शन अन्य रूपों, यथा वृद्धा अथवा श्वेतवस्त्रधारिणी, में यहां के भक्तों को होते रहने की बात कही जाती है।बेमचा से आईं हैं माताकिंवदंती के अनुसार, महासमुंद के पास के ग्राम बेमचा से माता का आगमन होना माना जाता है। उस समय खल्लारी ग्राम का बाजार पूरे अंचल में काफी प्रसिद्ध था। जनश्रुति यह है कि उन दिनों मां खल्लारी एक नवयुवती का रूप धारण कर यहां बाजार आया करती थीं। एक समय एक बंजारा गोंड़ युवक देवी के रूप-रंग को देखकर मुग्ध हो उनका पीछा करने लगा। देवी की चेतावनी के बाद भी उसने उनका पीछा करना नहीं छोड़ा। अंतत: पर्वत (पहाड़) तक पीछे-पीछे आने पर देवी ने उस युवक को श्राप दे दिया। वह युवक वहीं से कुछ नीचे गिरकर पत्थर के रूप में बदल गया। इस पत्थर को गोंड़ नायक पत्थर के नाम से जाना जाता है। इधर, मानव की बढ़ती पाशविक प्रवृत्ति से क्षुब्ध देवी ने इसी पहाड़ी के ऊपर पाषाण रूप धारण कर यहीं निवास करना शुरू कर दिया। कहा-सुना तो यह भी जाता है कि पहले देवी का रूप पहाड़ी पर स्थित मंदिर के पास के शिलाखंडों से साफ नजर आता था जो बाद में धीरे-धीरे दिखना बंद हो गया। देवी खल्लारी और आसपास के गांवों में आने वाली विपत्ति से आगाह करने पुजारी को आवाज देकर संदेश देती थीं। यहां भी श्रद्धालु यह मानते हैं कि तब एक प्रकाश-पुंज मंदिर से निकलता था! भक्तजन यहां पहाड़ी पर जाकर माता के दर्शन करते हैं। मंदिर तक पहुंचने के लिए तब 481 सीढिय़ां चढऩी होती थीं जिसे 13 खंडों में विभक्त कर भक्तों को सुविधा उपलब्ध कराई गई थी। अब नागरिकों को सहयोग से यहां 710 नई सीढिय़ां बनाकर दोनों तरफ रेलिंग दी गईं हैं। पहाड़ी के नीचे स्थित मंदिर को नीचे वाली माता या राउर माता का मंदिर कहते हैं। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां के पूर्व मालगुजार को देवी ने स्वप्न में आदेश दिया था कि उनकी (देवी की) फेंकी गई कटार नीचे जहां गिरी है, वहीं पर मूर्ति स्थापित कर पूजा शुरू की जाए। चूंकि वृद्ध और शारीरिक रूप से कमजोर भक्त पहाड़ी पर चढ़ नहीं पाएंगे, अत: उन्हें इस मंदिर का दर्शन करने पर भी उतना ही पुण्य मिलेगा जितना पहाड़ी पर दर्शन करने पर। कहते हैं, माता की फेंकी कटार आज भी इस मंदिर में है।पूजा पद्धतिमाता पूजा के ठीक पहले पहाड़ी पर स्थित सिद्धबाबा (भगवान शंकर) की पूजा क्षेत्र के आदिवासी बैगा करते हैं। आदिवासी शासकों के प्रभुत्व के कारण यहां शुरू से ही सिदार जाति के पुजारी मुख्य तौर पर पूजा आदि कराते आ रहे हैं। यहां पर कुछ समय पूर्व तक जारी बलि-प्रथा अब नागरिकों और समाजसेवी संस्थाओं के साथ ही शासन-प्रशासन की पहल पर बंद हो गई है।महाभारत काल से जुड़ावऊपर पहाड़ी पर प्रकृति से जुड़ाव का आनंद तो मिलता ही है, साथ ही यहां अनेक ऐसे स्थल भी हैं जिन्हें महाभारत काल से जोड़कर देखा, कहा-सुना जाता है। ऐसा माना जाता है कि पांडवों ने वनवास की कुछ अवधि यहां बिताई थी। मां के दर्शन के बाद परिक्रमा करते समय पहले भीम चौरा नाम का विशाल पत्थर दिखता है। यहीं विशालकाय पत्थरों के बीच एक कंदरा है जहां झुकी दशा में मुश्किल से अंदर जाने के बाद दो पत्थरों के बीच लगभग आठ-नौ इंच के अंतर को पार करने वाला व्यक्ति खुद को सौभाग्यशाली मानता है। परिक्रमा के दौरान ही पैरों की आकृति के बड़े निशान दिखते हैं जिन्हें भीम पांव कहा जाता है। इसमें बारहों महीने पानी भरा रहता है। इसी पहाड़ी पर चूल्हे की एक आकृति है। यह है तो गड्ढानुमा, पर हर समय यह सूखा रहता है। कहते हैं, भीम इस चूल्हे पर भोजन पकाया करते थे।लाक्षागृहइधर, उत्तर दिशा की तरफ एक मूर्तिविहीन मंदिर दिखाई पड़ता है। इसे लखेश्वरी गुड़ी या लाखा महल कहा जाता है। किंवदंती है कि महाभारत काल में दुर्योधन ने पांडवों को षड्यंत्रपूर्वक समाप्त करने के लिए जो लाक्षागृह बनवाया था, वह यही लखेश्वरी गुड़ी या लाखा महल है। ऐसा मानने की एक वजह यह भी है कि इस लखेश्वरी गुड़ी के अंदर से लगभग दो किलोमीटर लंबी एक सुरंग है जो गांव के बाहर जाकर खुलती है। इस इमारत के पास से गुजरने पर लाख की गंध महसूस की जाती थी, ऐसा लोग कहते हैं।
कुछ और भी है खास...0 भीम पांव से दक्षिण-पश्चिम में कुछ दूर पहाड़ी से उतरने पर गज-आकृति की दो विशालकाय शिलाएं नजर आती हैं। इन्हें नायक राजा का हाथी बताया जाता है। खल्लारी में प्रवेश करते समय विद्युत मंडल कार्यालय और स्कूल के पास से देखने पर यह हाथी-हथिनी का जोड़ा नजर आता है।0 भीम चूल्हा के पास कुछ ऊपर की ओर सिद्धबाबा की गुफा है जहां उनकी मूर्ति स्थापित है। देवी के पूजा-विधान की शुरुआत यहां की पूजा के बाद ही होती है।0 भीम चूल्हा के पास ही जल की एक धारा सतत प्रवाहित होती है जो पहाड़ी के अंदर-ही-अंदर से बहकर पहाड़ी की पूर्व दिशा के मध्यभाग में नजर आती है।0 पश्चिम दिशा में नाव की आकृति का एक विशालकाय पत्थर है जिसका एक हिस्सा मैदान की तरफ तो दूसरा हिस्सा सैकड़ों फीट गहरी खाई की तरफ झुका हुआ है। एक छोटे-से पत्थर पर टिका नाव आकृति का यह पत्थर अपने संतुलन के कारण दृष्टव्य है। इसे भीम नाव भी कहते हैं।0 यहीं गस्ति वृक्ष के पास पत्थर मारने से पहाड़ी के आधा फुट व्यास क्षेत्र में अलग-अलग आवाज निकलती है जो दर्शनार्थियों के मनोरंजन का विषय होती है।विकास के काम चल रहेअपने गर्भ में समृद्ध ऐतिहासिक और पौराणिक महत्ता को समेटे इस मंदिर परिसर में भी विकास के कई काम आकार ले चुके हैं वहीं और भी काम अभी कराए जाने प्रस्तावित हैं। नीचे और ऊपर के मंदिर के साथ ही सीढिय़ों तथा मेलास्थल पर 1986-87 में विद्युतीकरण का काम कराया गया था जिससे अब रात्रि में भी भक्तों को पहाड़ी पर चढऩे में असुविधा नहीं होती। पहाड़ी पर नल-जल योजना के तहत पेयजल आपूर्ति की सुविधा मुहैया कराई गई है। अभी राज्य शासन और नागरिकों के सहयोग से इस परिसर को और सुविधा-संपन्न बनाने की कवायद चल रही है। भक्तों के विश्राम के लिए भी भवन आदि अभी तो हैं, पर इनकी संख्या बढ़ाने की दिशा में भी पहल जारी है। आसपास के करीब एक सौ ग्रामवासियों द्वारा पिछले कुछ वर्षों से यहां नियमित भंडारा का आयोजन किया जा रहा है। इसके अलावा आदर्श विवाह और तीज-त्योहारों का भी धूमधाम से यहां आयोजन किया जाता है। मां खल्लारी मंदिर विकास समिति इस मंदिर परिसर के सर्वांगीण विकास की दिशा में सतत प्रयत्नशील है। - नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कुष्मांडा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अदाहत चक्र में अवस्थित होता है।नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्मांडा के रूप में पूजा जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। यह देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। यह देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अंतत: इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।मंत्र- सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे॥मां कुष्मांडा की कथापौराणिक कथा के अनुसार मां कुष्मांडा का अर्थ होता है कुम्हड़ा। मां दुर्गा असुरों के अत्याचार से संसार को मुक्त करने के लिए कुष्मांडा का अवतार लिया था। मान्यता है कि देवी कुष्मांडा ने पूरे ब्रह्माण्ड की रचना की थी। पूजा के दौरान कुम्हड़े की बलि देने की भी परंपरा है। इसके पीछे मान्यता है ऐसा करने से मां प्रसन्न होती हैं और पूजा सफल होती है।मां कुष्मांडा की पूजा विधिनवरात्रि के चौथे दिन सुबह स्नान करने के बाद मां कुष्मांडा स्वरूप की विधिवत करने से विशेष फल मिलता है। पूजा में मां को लाल रंग के फूल, गुड़हल या गुलाब का फूल भी प्रयोग में ला सकते हैं, इसके बाद सिंदूर, धूप, गंध, अक्षत् आदि अर्पित करें। सफेद कुम्हड़े की बलि माता को अर्पित करें। कुम्हड़ा भेंट करने के बाद मां को दही और हलवा का भोग लगाएं और प्रसाद में वितरित करें।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के 'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ के सिद्धांत
सत्य ही है कि मृत्यु से बड़ा छलावा और कोई नहीं करता। मनुष्य सारे जीवन बड़ा निश्चिंत बना हुआ जीता रहता है, और मृत्यु की ओर से आँख दुराये रहता है। परन्तु वह तो आती ही है, कौन ऐसा मायाधीन हुआ है जो यह जानता हो कि कब उसकी देह छूट जायेगी। यह मानव-जीवन तो चार दिन का है पर बड़ा महत्व है इसका और एक बड़े महत्वपूर्ण उद्देश्य के लिये मिला है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज अपनी 'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ के सिद्धांत-माधुरी खण्ड के 12 वें पद में इस ओर ध्यानाकृष्ट करते हुये चेतावनी और इसकी साफल्यता के संबंध में निर्देश दे रहे हैं ::::::
प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ से,सिध्दान्त माधुरी, पद - 12
अरे मन! चार दिना की बात।नर-तनु शरद चाँदनी बीते, पुनि अँधियारी रात।तू सोवत कछु जानत नाहीं, काल लगायो घात।तजत न नींद यदपि विषयन के, छिन छिन जूते खात।अवसर चूकि फिरिय चौरासी, कर मींजत पछितात।रसिकनि कही 'कृपालु' मानु गहु, युगल चरण जलजात।।
भावार्थ ::: अरे मन! चार दिन की बात है, क्योंकि मनुष्य शरीर रूपी शरदकाल की चाँदनी बीत जाने पर फिर चौरासी लाख योनियों की अँधेरी रात आ जायेगी। तू अज्ञान की नींद में सो रहा है। काल अवसर देख रहा है, तुझे यह पता नहीं। यद्यपि सांसारिक विषय वासनाओं के क्षण-क्षण में जूते खा रहा है फिर भी निद्रा का परित्याग नहीं करता। याद रख! इस अवसर को खो देने पर फिर हाथ मींजता हुआ और पछताता हुआ चौरासी लाख योनियों में भटकेगा। अतएव 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि महापुरुषों के आदेशों को मान ले अर्थात राधाकृष्ण के युगल चरण-कमलों की शरण चला जा।
0 रचयिता ::: जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
नोट ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा संबंधी श्रृंखला में श्री कृपालु जी महाराज के संबंध में लेख प्रति सोमवार और मंगलवार को प्रकाशित होते थे, वह किसी कारणवश आज प्रकाशित न हो सका। बुधवार को इस श्रृंखला का अगला लेख प्रकाशित होगा।वहाँ श्रीराधाकृष्ण भक्ति तथा प्रेम का दिव्य सन्देश दिया।
- मां दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं।देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी माना गया है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं। सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस कांपते रहते हैं। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। यह देवी कल्याणकारी है।पूजन विधि- माता की चौकी (बाजोट) पर माता चंद्रघंटा की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद गंगा जल या गोमूत्र से शुद्धिकरण करें। चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर नारियल रखकर कलश स्थापना करें। इसके बाद पूजन का संकल्प लें और वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों द्वारा मां चंद्रघंटा सहित समस्त स्थापित देवताओं की षोडशोपचार पूजा करें। इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्र पुष्पांजलि आदि करें। तत्पश्चात प्रसाद वितरण कर पूजन संपन्न करें।मंत्र- पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥माता चंद्रघंटा की कथादेवताओं और असुरों के बीच लंबे समय तक युद्ध चला. असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के इंद्र। महिषासुर ने देवाताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया और स्वर्गलोक पर राज करने लगा। इसे देखकर सभी देवतागण परेशान हो गए और इस समस्या से निकलने का उपाय जानने के लिए त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास गए। देवताओं ने बताया कि महिषासुर ने इंद्र, चंद्र, सूर्य, वायु और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और उन्हें बंधक बनाकर स्वयं स्वर्गलोक का राजा बन गया है। देवताओं ने बताया कि महिषासुर के अत्याचार के कारण अब देवता पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं और स्वर्ग में उनके लिए स्थान नहीं है। यह सुनकर ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शंकर को अत्यधिक क्रोध आया। क्रोध के कारण तीनों के मुख से ऊर्जा उत्पन्न हुई। देवगणों के शरीर से निकली ऊर्जा भी उस ऊर्जा से जाकर मिल गई। यह दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। तभी वहां एक देवी का अवतरण हुआ। भगवान शंकर ने देवी को त्रिशूल और भगवान विष्णु ने चक्र प्रदान किया। इसी प्रकार अन्य देवी देवताओं ने भी माता के हाथों में अस्त्र शस्त्र सजा दिए। इंद्र ने भी अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतरकर एक घंटा दिया। सूर्य ने अपना तेज और तलवार दिया और सवारी के लिए शेर दिया। देवी अब महिषासुर से युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार थीं। उनका विशालकाय रूप देखकर महिषासुर यह समझ गया कि अब उसका काल आ गया है। महिषासुर ने अपनी सेना को देवी पर हमला करने को कहा। देवी ने एक ही झटके में ही दानवों का संहार कर दिया। इस युद्ध में महिषासुर तो मारा ही गया, साथ में अन्य बड़े दानवों और राक्षसों का संहार मां ने कर दिया। इस तरह मां ने सभी देवताओं को असुरों से अभयदान दिलाया।
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला- 'विश्व-शान्ति' के संवाहक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के परमाचार्य हैं, जिन्हें काशी विद्वत परिषत द्वारा 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से विभूषित किया गया है। श्री कृपालु जी महाराज ने अपने पूर्ववर्ती समस्त मूल जगदगुरुओं तथा संतों के मतों का समन्वय करते हुये अन्यान्य धर्मग्रंथों, धर्मानुयायियों को दिव्य प्रेम का सन्देश देकर सबको एक सूत्र में बाँधकर आपसी झगड़े समाप्त करके श्रीकृष्ण भक्ति रूपी एक सार्वभौमिक मार्ग का प्रतिपादन किया, जो सभी धर्मानुयायियों को मान्य है।
'विश्व-शान्ति' के लिये उनका महत्वपूर्ण सन्देश, उनके शब्दों में नीचे इस प्रकार है ::::
'..यदि विश्व के सभी मनुष्य श्रीकृष्ण भक्ति रूपी शस्त्र को स्वीकार कर लें तो समस्त देशों का, समस्त प्रान्तों का, समस्त नगरों का, समस्त परिवारों का झगड़ा ही समाप्त हो जाय। केवल यही मान लें कि सभी जीव, श्रीकृष्ण के पुत्र हैं।
अत: परस्पर भाई-भाई हैं। पुन: सभी जीवों के अंत:करण में श्रीकृष्ण बैठे हैं। यथा - ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्द्येशेर्जुन तिष्ठति। (गीता 18-61)। अतएव किसी के प्रति भी हेय बुद्धि, निन्दनीय है। वर्तमान विश्व में इस सिद्धान्त पर राजनीतिज्ञों का ध्यान नहीं जाता अतएव अन्य भौतिक उपायों से शान्ति के स्थान पर क्रान्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। केवल उपर्युक्त भावों के भरने से ही विश्व शान्ति सम्भव है।
कोई भी मजहब हो, कोई भी धर्म हो, सबका धर्मी बस एक ही है, जिसे हिन्दू धर्म में 'ब्रम्ह', 'परमात्मा', 'भगवान' आदि कहते हैं, इस्लाम में उसी को 'अल्लाह' कहते हैं, फारसी में उसी को 'खुदा' कहते हैं। पारसी लोग उसी को 'अहुरमज्द' कहते हैं। उसी एक भगवान के ये सब नाम हैं। 'लाओत्सी' धर्म वाले 'ताओ' कहते हैं, बौद्ध लोग 'शून्य' कहते हैं। जैन लोग 'निरंजन' कहते हैं, सिक्ख लोग 'सत श्री अकाल' कहते हैं और अंग्रेज लोग 'गॉड' कहते हैं। ये सब उसी एक के अपनी अपनी भाषाओं में नाम हैं...'
-- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
इस तरह से जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने समस्त विश्व को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया है। वस्तुत: उनके हृदय में किसी भी जाति-पाँति का बंधन नहीं है। मुसलमानों के खुदा, ईसाइयों के परमात्मा, सिक्खों के वाहेगुरु सभी एक रुप में समा गये हैं, ऐसा विभिन्न मतानुयायी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के पास आकर अनुभव करते थे। वे सभी को यही उपदेश देते थे कि जाति तो शरीर की होती है, आत्मा की कोई जाति नहीं होती। हमने अपने आपको शरीर मान लिया यही हमारे दु:ख का कारण है और यही विश्व में सब झगड़ों का कारण है। अगर हम अपने आपको आत्मा मान लें तो शाश्वत शान्ति प्राप्त हो जाय, सारे झगड़े समाप्त हो जायें।
समस्त मूल जगदगुरुओं में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ऐसे पहले जगद्गुरु हुये हैं, जो श्रीराधाकृष्ण भक्ति के प्रचारार्थ विदेश गये तथा वहाँ श्रीराधाकृष्ण भक्ति तथा प्रेम का दिव्य सन्देश दिया।
ऐसे समन्वयवादी, विश्व-शांति के संवाहक, महानतम विभूति जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की महानता, कृपालुता, अपनत्व आदि को कोटिश: वन्दन, नमन तथा कृतज्ञ भरे हृदय से बारम्बार नमस्कार!!!
सन्दर्भ ::: 'जगदगुरुत्तम' - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा संबंधी पुस्तकसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - दक्षिणाभिमुखी प्राकृतिक प्रस्तर प्रतिमा का अपना विशेष शास्त्रीय महत्व-आधा दर्जन पहाडिय़ों के साथ जुड़ी हैं कई कथाएं, किंवदंतियां-करीब 70 बरसों से हो रहा है मड़ई मेले का आयोजनआलेख- वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुरोहितछत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में बागबाहरा तहसील मुख्यालय से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित ग्राम घुंचापाली से लगी लगभग आधा दर्जन पहाडिय़ों की शृंखला चंडी डोंगरी के नाम से काफी प्रसिद्धि अर्जित कर चुकी है। यहीं है आसुरी शक्तियों व दैवीय आपदाओं की रक्षक मानी जाने वाली मां चंडी देवी का मंदिर, जिसके आसपास का स्थान प्राकृतिक रूप से जंगल व पहाडिय़ों घिरा हुआ है। यहां के प्राकृतिक वातावरण और मां के आंचल तले निर्मित चंडी बांध ने इसे पर्यटन की दृष्टि से भी उभारा है। इन पहाडिय़ों के साथ कई कथाएं, किंवदंतियां और घटनाएं जुड़ी हैं जिनके बारे में लोग कम ही जानते हैं।श्रद्धा और भक्ति का प्रमुख केंद्र बन चुकी इस चंडी डोंगरी में मां चंडी देवी विराजमान हैं। रौद्ररूपिणी मां चंडी की साढ़े 23 फीट ऊंची दक्षिणाभिमुखी प्राकृतिक प्रस्तर प्रतिमा का अपना विशेष शास्त्रीय महत्व है। ऐसी प्रतिमा कदाचित ही कहीं और देखने को मिले। तंत्र साधना की प्रमुख स्थली माना जाने वाला यह स्थल अब एक पीठ के रूप में भी ख्याति अर्जित कर चुका है। मां चंडी की महिमा और प्रभाव से जनसामान्य काफी प्रभावित है और इस क्षेत्र में लोग प्रत्येक कार्य मां चंडी के भक्तिपूर्वक स्मरण से ही शुरू करते हैं। मां के चमत्कार से जुड़े अनेक प्रसंगों की चर्चा यहां सुनी जाती हैं। एक बहुश्रुत चर्चा यह भी है कि मां चंडी के इस मंदिर की पूर्व दिशा में स्थित पहाड़ ठाड़ डोंगर (खड़ा पहाड़) से मध्यरात्रि में एक प्रकाश-पुंज निकलता है और मां के चरणों में विलीन हो जाता है! अनेक लोग हैं जो इस अलौकिक दृश्य को साक्षात देखने का दावा करते हैं और इसे सिद्ध बाबा के शक्ति-पुंज की संज्ञा देते हैं। यहां कई गुफाएं हैं जहां वर्षों पहले वन्य प्राणियों का बसेरा हुआ करता था। इनमें से चंडी जलाशय से लगा भाग भलवा माड़ा के नाम से जाना जाता है।गागर में सागर!पहाड़ी के नीचे बघवा माड़ा और मंदिर वाली पहाड़ी के मार्ग पर पांच फीट गहरा और लगभग इतना ही चौड़ा एक कुआं है। ऊंचे पथरीले भाग में स्थित इस कुएं की विशेषता यह है कि बारहों महीने इसमें पानी भरा रहता है और कभी कम नहीं होता! कहते हैं वह सोतेनुमा (गढ़ा) स्थल है जो दर्शनार्थियों के साथ ही वन्य प्राणियों के लिए पेयजल प्राप्ति का साधन था। आज भी स्थिति ऐसी ही है। आज तो इसी कुएं के जल से माता के मंदिर में विभिन्न निर्माण कार्य कराए जा रहे हैं। अपनी इसी विशिष्टता के कारण यह कुआं गागर में सागर की उपमा अर्जित कर चुका है। पिछले चार-पांच दशकों में पूर्व सरपंच स्व. शंकरलाल अग्रवाल, राजमिस्त्री स्व. लखनलाल सोलंकी, स्व. बेनीराम चंद्राकर, पूर्व नपा अध्यक्ष स्व. विद्यासागर अग्रवाल, स्व. गोरेलाल श्रीवास्तव, बाबूलाल आदि ने इस कुएं के पुनरुद्धार के काम में रुचि लेकर इस दिशा में सक्रिय पहल की। बाद में के. एस. ठाकुर ने इस कुएं को बंधवाने का काम पूरा किया।पूजा पद्धतिगोड़ बहुल क्षेत्र और ओडि़शा से नजदीक होने के कारण कमोबेश उन्हीं परंपराओं के अनुसार यहां मां की पूजा की जाती रही है। तब यहां पशु-बलि अनिवार्य हुआ करती थी। पहले वर्ष में दो बार, दशहरा और चैत्र पूर्णिमा को यहां धूमधाम से पूजा की जाती थी। इस दौरान बैगा द्वारा देवी को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि देकर उसका रक्त एक कटोरे में भरकर रख दिया जाता था और वहीं जंगल में बकरे को पकाकर उसे प्रसाद रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। इस प्रसाद को घर नहीं लाया जाता था। तब महिलाओं के लिए यह प्रसाद और मंदिर में जाना वर्जित था। माना जाता है कि तंत्र-साधना के लिए इस स्थान की गोपनीयता बनाए रखने के लिए ही ऐसे प्रतिबंध लगाए गए होंगे। पर बाद में, कहते हैं कि माता ने स्वयं इस भ्रांति को दूर कर उन्हें चमत्कार दिखाकर समीप से पूजा-पाठ का अवसर दिया और उनकी मनोकामनाएं पूर्ण कीं। मां की कृपा से अनेक नि:संतान महिलाओं को संतान-सुख, रोगियों को आरोग्य-सुख प्राप्त होने की कई चर्चाएं क्षेत्र में सुनी जाती हैं। कालांतर में, साधकों के साथ ही भक्तों का माता के दरबार में जब आना-जाना बढ़ा, तब से यहां वैदिक और शास्त्रीय रीति से पूजन होने लगा। 1950-51 में नवरात्रि पर्व पर पहली बार यहां दुर्गा सप्तशती का पाठ और शत चंडी महायज्ञ कर पूजा प्रारंभ कराए जाने की बात जानकार बताते हैं। उसी समय से शुरू हुआ मड़ई मेला अब तक जारी है। उन दिनों पं. चंद्रशेखर मिश्र और पं. चतुर्भुज मिश्र चैत्र और शारदीय नवरात्रि पर्व में यहां का पूजा-विधान संपन्न कराया करते थे। बागबाहरा के पुराना थानापारा निवासी स्व. गोपालप्रसाद देवांगन को तो काफी समय तक किसी भी समय मां का बुलावा आते ही इस मंदिर में अकेले ही पहुंच जाने के लिए जाना जाता है! कहते हैं कि उन्हें माता की सिद्धि प्राप्त थी। चूंकि यह ग्राम घुंचापाली की कुलदेवी है, इसलिए इसी ग्राम के बैगा रहे हैं। आगे चलकर यहां अनेक मातासेवक पुजारियों के अलावा पं. सियाकिशोरी शरण भी आसपास के युवकों को साथ लेकर पूजा-अर्चना करते रहे हैं।पत्थर की नागिनइस पहाड़ी से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर ही ग्राम जुनवानी में नागिन डोंगरी है। यहां लगभग 60 फीट लंबा एक ऐसा स्थान है मानो वहां कोई सर्प पड़ा हो और जिसे किसी ने धारदार हथियार से टुकड़े-टुकड़े कर दिया हो। जुनवानी के ग्रामीण श्रावण के महीने में इसकी 'ग्राम रसिका' के रूप में पूजा करते हैं। यहां पड़े अनेक निशान ऐसा आभास देते हैं कि कोई सर्प अभी-अभी ही वहां से गुजरा है। यहां कुछ ऐसे बिंदु हैं जहां पत्थरे के टुकड़े मारने से वहां मधुर ध्वनि निकलती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो इस डोंगरी के गर्भ में कुछ छिपा है।संतुलित अंडाकार पत्थरचंडी मंदिर चढ़ते समय दायीं ओर पहाड़ी के ढलान धरातल पर कोई 17 फीट लंबा अंडाकार विशालकाय पत्थर दर्शनार्थियों के आकर्षण का एक केंद्र होता है। वर्षों से उसी स्थान पर उसी स्थिति में अवस्थित यह पत्थर प्रकृति और मां चंडी के चमत्कार के रूप में श्रद्धा का केंद्र बन गया है। इसी डोंगरी में एक स्थान ऐसा भी है जहां छोटा-कंकड़ मारने पर आवाज गूंजती है। दर्शनार्थी इस बिंदु पर कंकड़ मारकर यह आवाज सुनते हैं।नगाड़ा पत्थरमां चंडी के मंदिर के एकदम बाजू में गस्ति वृक्ष के नीचे दो विशालकाय नगाड़ा रूपी दो पत्थर अगल-बगल रखे हुए हैं। इसी के पास है एक तुलसी पौधा, जहां नवरात्रि पर्व पर नाग देवता के दर्शन होने की बात श्रद्धालु भक्त बताते हैं। यहां की बघवा माड़ा पहाड़ी पर स्थित अनेक गुफाएं दर्शकों के मनोरंजन का केंद्र हैं। मंदिर जाते समय राम भक्त हनुमानजी का एक मंदिर है जो पहले गुफा में विराजमान थे। इसके ठीक सामने भैरव बाबा की मुक्ताकाशी प्रतिमा एक वृक्ष के नीचे स्थित थी। अब मंदिर बनाकर इन दोनों देव प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई है। मां के मंदिर के ठीक पीछे एक गुफा में मां काली विराज रही हैं।हो रहे हैं बहुत-से कामचंडी देवी मंदिर के निर्माण की दिशा में पांच-छ: दशकों से चल रहे प्रयास अब काफी सीमा तक साकार हो चुके हैं और अभी भी बहुत-से काम चल रहे हैं। विशाल ज्योति-कलश भवन, इसी से लगकर स्व. हरकेशराय अग्रवाल की स्मृति में उनके परिजनों द्वारा बनवाया गया विशाल सभाकक्ष, भव्य मंदिर, व्यवस्थित यज्ञशाला, पानी टंकी, भोजन शाला और भोजन हाल आदि अब इस मंदिर को काफी सुविधा संपन्न केंद्र के रूप में स्थापित कर चुके हैं। मंदिर के सतत विकास में जुटी चंडी मंदिर समिति इस मंदिर परिसर के बहुमुखी विकास के काम हाथ में लिए हुए है। इस काम में समिति को श्रद्धालु भक्तों का मुक्त सहयोग भी प्राप्त हो रहा है। शासन-प्रशासन के सहयोग से यहां सौंदर्यीकरण का काम भी प्रस्तावित है। घुंचापाली के प्रतिष्ठित नीलकंठ चंद्राकर और बागबाहरा के युवा समाजसेवी व धर्मपरायण लालचंद जैन के साथ समिति के सभी पदाधिकारी व सदस्य कदम-से-कदम मिलाकर चल रहे हैं, सहयोग कर रहे हैं। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- शारदीय नवरात्रि आरंभ हो चुके हैं। नवरात्रि पर माता को प्रसन्न करने के लिए दुर्गा सप्तशी का पाठ अवश्य किया जाता है। माना जाता है कि नवरात्रि पर जो भी दुर्गा सप्तशी का विधिवत पाठ करता है उसकी हर मनोकामना जरूर पूरी होती है। दुर्गा सप्तशी में देवी को प्रसन्न करने के कई सिद्धि मंत्र है जिसका जाप करने से सभी तरह की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। जानिए ऐसे ही 10 चमत्कारिक मंत्र1. स्वास्थ्य और धन के साथ ऐश्वर्य से भरपूर जीवन पाना चाहते हैं तो देवी के इस सिद्ध मंत्र का जप करें-ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पद:।शत्रु हानि परो मोक्ष: स्तुयते सान किं जनै।।2. मृत्यु के भय को दूर करने और मोक्ष प्राप्ति के लिए नियमित देवी के इस मंत्र का जप करें-सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य हृदि संस्थिते।वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।3. सिद्धि प्राप्ति के लिए इस मंत्र का जप करें-
दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।4. धन प्राप्ति के साथ संतान सुख भी पाना चाहते हैं तो नियमित इस मंत्र का जप करें-
सर्वाबाधा वि निर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वित:।मनुष्यो मत्प्रसादेन भवष्यति न संशय॥5. धन संबंधी परेशानियों से बुरी तरह परेशान हैं तो पैसों की तंगी को दूर करने के लिए नियमित माता के इस सिद्धि मंत्र का जप करें।दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:।सवस्र्ध: स्मृता मतिमतीव शुभाम् ददासि।।6. इन दिनों आपका बुरा समय चल रहा है और बार-बार संकट में फंस जा रहे हैं तो देवी के इस मंत्र का जप करें-शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।7. देवी के इस सिद्ध मंत्र से व्यक्ति में आकर्षण क्षमता और व्यक्तित्व में निखार आता है।ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती ह्री सा।बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति।।8. देवी के इस सिद्ध मंत्र से सुंदर और सुयोग्य जीवनसाथी पाने की चाहत पूरी होती है।पत्नीं मनोरमां देहि नोवृत्तानुसारिणीम।तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम॥9. इस मंत्र का नियमित जप व्यक्ति को गुणवान और शक्तिशाली बनाता है।सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते।।10. जीवन में प्रसन्नता और आनंद चाहते हैं तो नियमित इस सिद्ध मंत्र का जप करें-प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव।। - - भक्तियोगरस के परमाचार्य जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन
साधक तथा गृहस्थ, दोनों के लिये शरीर की स्वस्थता परमावश्यक है। क्योंकि शरीर से ही दोनों अपने कर्तव्य एवं लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं। इसलिये शरीर की स्वस्थता पर विशेष ध्यान देने की बात हमारे यहाँ शास्त्रों में कही गई है। 'जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय' के वार्षिक समारोह, वर्ष 2010 के अवसर पर जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इसी संबंध में एक संक्षिप्त प्रवचन दिया था। निम्नलिखित प्रवचन उनके सम्पूर्ण प्रवचन का एक अंश ही है, आइये इस अंश से हम अपना लाभ उठावें :::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)
..हमारे शास्त्रों में धर्म की परिभाषा की गई है;
यतोभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म:।(वैशेषिक दर्शन)
जिससे इहलौकिक और पारलौकिक परमार्थ सिद्ध हो, उसका नाम धर्म है। भावार्थ ये कि हम दो हैं; एक हम नाम की आत्मा और एक हम नाम का शरीर। दोनों का उत्थान कम्पलसरी है। अगर कोई कहता है कि शरीर मिथ्या है तो ऐसा कोई विश्व में ज्ञानी नहीं है जो शरीर के बिना एक सेकण्ड भी रह सके।
आत्मा और शरीर का संबंध अभिन्न है। बिना शरीर के आत्मा नहीं रहती, सदा साथ रहती है। तो शरीर की उन्नति भी परमावश्यक है। वेद कहता है;
अत्याहारमनाहारम्।
देखो! खाना, पीना, सोना, सब संयमित रखना, मनुष्यों! अगर इसमें गड़बड़ करोगे तो शरीर में अनेक प्रकार के रोग होंगे तो तुम्हारा मन भगवान की ओर नहीं जा सकता। क्योंकि तुम्हारे भीतर देहाभिमान है, देह की फीलिंग होगी और देह के दु:ख से भगवान के चिन्तन के स्थान पर देह का चिन्तन होगा। इसलिये शरीर को स्वस्थ रखने के लिये आहार-विहार सब संयमित होना चाहिये। हमने इसको कोई महत्त्व नहीं दिया। भगवान ने गीता में भी कहा है;
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।(गीता 6-17)
अर्जुन! कोई भी कर्मी, ज्ञानी, योगी हो, शरीर को स्वस्थ रखना परमावश्यक है। अगर नहीं रखोगे तो;
तनु बिनु भजन वेद नहिं बरना।
शरीर के बिना भगवान की उपासना कैसे करोगे? इसलिये डॉक्टरों के अनुसार समझ करके, वैज्ञानिक ढंग से कितना विटामिन, प्रोटीन, ए बी सी डी, ये सब लेना चाहिये। क्योंकि शरीर को स्वस्थ रखना है। कितना ही बड़ा आदमी हो खरबपति हो अगर वो स्वयं स्वस्थ रहने का संयम नहीं करता तो करोड़ों डॉक्टर लगा दो उसके पीछे, वो कुछ नहीं कर सकते डॉक्टर। वो रहता रहेगा, पूरे जीवन बिस्तर पर पड़ा रहेगा। क्यों?
अरे! वो कभी व्यायाम नहीं करता, वो कभी विटामिन प्रोटीन का ध्यान नहीं रखता, मनमाना खाता है, मनमाना सोता रहता है तो फिर दण्ड भोगना पड़ेगा। डॉक्टर साहब क्या करेंगे बेचारे। इसलिये शरीर स्वस्थ रखने के लिये हमको सावधान रहना है।
(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
0 सन्दर्भ : साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - नवरात्र पर्व के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को मां के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।कहते हैं मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।मंत्र- दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥कथा- पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया। कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रहकर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया। कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।पूजा विधि- देवी को पंचामृत से स्नान कराएं, फिर अलग-अलग तरह के फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर, अर्पित करें। देवी को सफेद और सुगंधित फूल चढ़ाएं। इसके अलावा कमल या गुड़हल का फूल भी देवी मां को चढ़ाएं। मिश्री या सफ़ेद मिठाई से मां का भोग लगाएं आरती करें एवं हाथों में एक फूल लेकर उनका ध्यान करें।1. या देवी सर्वभूतेषु मां ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।2. दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें-
इधाना कदपद्माभ्याममक्षमालाक कमण्डलुदेवी प्रसिदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्त्मा
मां ब्रह्मचारिणी का स्रोत पाठतपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥"मां ब्रह्मचारिणी का कवच"त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।स्वरूपमाता अपने इस स्वरूप में बिना किसी वाहन के नजर आती हैं। मां ब्रह्मचारिणी के दाएं हाथ में माला और बाएं हाथ में कमंडल है।महत्त्वमाता ब्रह्मचारिणी हमें यह संदेश देती हैं कि जीवन में बिना तपस्या अर्थात कठोर परिश्रम के सफलता प्राप्त करना असंभव है। बिना श्रम के सफलता प्राप्त करना ईश्वर के प्रबंधन के विपरीत है। अत: ब्रह्मशक्ति अर्थात समझने व तप करने की शक्ति हेतु इस दिन शक्ति का स्मरण करें। योग-शास्त्र में यह शक्ति स्वाधिष्ठान में स्थित होती है। अत: समस्त ध्यान स्वाधिष्ठान में करने से यह शक्ति बलवान होती है एवं सर्वत्र सिद्धि व विजय प्राप्त होती है। - छत्तीसगढ़ में मां शक्ति के प्राचीन मंदिरों की एक लंबी श्रंृखला है। शारदीय और चैत्र नवरात्र पर इन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है। इस दौरान इन मंदिरों को आकर्षक रूप से संवारा जाता है। मां शक्ति की कृपा पाने और उनके दर्शनों के लिए दूर- दूर से लोग पहुंचते हैं।इन्हीं प्राचीन मंदिरों में से एक हैं मां चंद्रहासिनी देवी मंदिर, जो राजधानी रायपुर से करीब 221 किमी की दूर जांजगीर-चाम्पा जिले के डभरा तहसील में चंद्रपुर में स्थित है। मांड नदी, लात नदी और महानदी के त्रिवेणी संगम पर स्थित होने के कारण इस मंदिर की महत्ता और बढ़ गई है। इस मंदिर को भक्तगण मां शक्ति के 52 सिद्ध शक्तिपीठों में से एक मानते हैं। चंंद्रमा की आकृति जैसा मुख होने के कारण इसकी प्रसिद्धि चंद्रहासिनी और चंद्रसेनी मां के रूप में हुई है। प्राचीन ग्रंथों में संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि मां सती का वामकपोल (वामगण्ड) महानदी के पास स्थित पहाड़ी में गिरा, जो बाराही मां चंद्रहासिनी का मंदिर बना और मां की नथनी नदी के बीच टापू में गिरी, जिससे मां नाथलदाई के नाम से मंदिर बना।मंदिर परिसर में लगातार विस्तार हो रहा है। परिसर में अब आकर्षक रूप से पौराणिक और धार्मिक कथाओं की झाकियां, समुद्र मंथन, महाबलशाली पवन पुत्र, कृष्ण लीला, चीरहरण, महिषासुर वध, नवग्रह की मूर्तियां, शेष शैश्या , सर्वधर्म सभा, चारों धाम की झांकियां तथा अन्य देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियां स्थापित की गई हैं, जो इस मंदिर की शोभा में चार चांद लगा रही है। भक्तों की सुविधा के लिए मंदिर तक पहुंचने के लिए छोटी- छोटी सीढ़ी बनाई गई हैं। वैसे तो यहां पर साल भर भक्तों का आना होता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर यहां पर बड़ी संख्या में भक्त माता के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। दूसरे राज्यों से भी लोग मां चंद्रहासिनी के दर्शनों के लिए आते हैं। पूरा मंदिर परिसर माता के जयकारों और भजनों से गूंजता रहता है। भक्त माता के दरबार में नारियल,अगरबत्ती, फूलमाला भेंटकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।नवरात्र में लोग अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए यहां पर ज्योतिकलश प्रज्ज्वलित करते हैं। चंद्रहासिनी मंदिर के कुछ दूर आगे महानदी के बीच मां नाथलदाई का मंदिर स्थित है जो रायगढ़ जिले की सीमा अंतर्गत आता है। मान्यता है कि मां चंद्रहासिनी के दर्शन के बाद माता नाथलदाई के दर्शन भी जरूरी है। मां नाथलदाई को मां चंद्रहासिनी की छोटी बहन माना जाता है।किंवदंतियों के अनुसार हजारों वर्षो पूर्व माता चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ से होते हुए चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ गई। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर माता यहां पर विश्राम करने लगती हैं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुलती।एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहां से गुजरती है, तभी अनजाने में चंद्रसेनी देवी को उनका पैर लग जाता है और माता की नींद खुल जाती है। फिर स्वप्न में देवी उन्हें यहां मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना का निर्देश देती हैं। संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। राजपरिवार ने मंदिर की व्यवस्था का भार यहां के एक जमींदार को सौंप दिया। उस जमींदार ने माता को अपनी कुलदेवी स्वीकार करके पूजा अर्चना की। इसके बाद से माता चंद्रहासिनी की आराधना जारी है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉमविशेष)
- माना जाता है कि प्रत्येक देवी औषधि स्वरूप है। विभिन्न औषधियां इनकी कृपा से ही पुष्ट होती हैं। नवदुर्गा के नौ रूप औषधियों के रूप में भी कार्य करते हैं। यह नवरात्रि इसीलिए सेहत नवरात्रि के रूप में भी जानी जाती है। सर्वप्रथम इस पद्धति को मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया परंतु गुप्त ही रहा।1. शैलपुत्रीजड़ पदार्थ भगवती का पहला स्वरूप है। पत्थर, मिट्टी, जल, वायु ,अग्नि, आकाश सब शैल पुत्री का प्रथम रूप हैं। इस पूजन का अर्थ है प्रत्येक जड़ पदार्थ में परमात्मा को महसूस करना। भगवती देवी शैलपुत्री को हिमावती हरड़ कहते हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है जो सात प्रकार की होती है। यूनानी चिकित्सा पद्धति में इस जड़ी-बूटी का इस्तेमाल एंटी-टॉक्सिन के रूप में कंजक्टीवाइटिस, गैस्ट्रिक समस्याओं, पुराने और बार-बार होने वाले बुखार, साइनस, एनीमिया और हिस्टीरिया के इलाज में किया जाता है।2. ब्रह्मचारिणीभगवती का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी यानी ब्राह्मी का है। पथया, कायस्थ, अमृता, हेमवती, चेतकी, और श्रेयसी (यशदाता) शिवा। प्रस्फुरण, चेतना का संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। जड़ चेतन का संयोग है। प्रत्येक अंकुरण में इसे देख सकते हैं। इस औषधि को मस्तिष्क का टॉनिक कहा जाता है। ब्राह्मी मन, मस्तिष्क और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाले के साथ रक्त संबंधी समस्याओं को दूर करने और और स्वर को मधुर करने में मदद करती है। इसके अलावा यह गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन समस्याओं से ग्रस्त लोगों को ब्रह्मचारिणी की आराधना करनी चाहिए।3. चंद्रघंटाचंद्रघंटा यानी चन्दुसूर भगवती का तीसरा रूप है। यहां जीव में वाणी प्रकट होती है जिसकी अंतिम परिणति मनुष्य में वाणी है। चंद्रघंटा देवी हृदय रोग ठीक करती हैं। कल्याणकारी मोटापा दूर करने बाली, शक्ति बढ़ाने वाली हैं। अत: संबंधित रोगी-भक्तों को मां चंद्रघंटा की पूजा करना चाहिए। यदि आप मोटापे की समस्या से परेशान हैं तो आज मां चंद्रघंटा को चंदुसूर चढ़ाएं। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के जैसा होता है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है। इस पौधे में कई औषधीय गुण हैं। इससे मोटापा दूर होता है। यह शक्ति को बढ़ाने वाली एवं हृदयरोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है। इसलिए इस बीमारी से संबंधित लोगों को मां चंद्रघंटा की पूजा और प्रसाद के रूप में चंदुसूर ग्रहण करना चाहिए।4. मां कुष्मांडामां कुष्मांडा रक्त विकार को ठीक करने वाली हैं। तुर्थ कुष्माण्डा यानी पेठा। इसे कुम्हड़ा भी कहा जाता हैं। यह हृदयरोगियों के लिए लाभदायक, कोलेस्ट्रॉल को कम करने वाला, ठंडक पहुंचाने वाला और मूत्रवर्धक होता है। यह पेट की गड़बडिय़ों में भी असरदायक होता है। रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित कर अग्न्याशय को सक्रिय करता है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। इन बीमारी से पीडि़त व्यक्ति को पेठा के उपयोग के साथ कुष्माण्डा देवी की आराधना करनी चाहिए। पुुष्टिकारक, वीर्यवर्धक, रक्त-विकार, उदय विकार, मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए मां कुष्मांडा देवी की आराधना अमृततुल्य है।5. स्कन्दमातानवरात्रि का पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। पुत्रवती माता-पिता का स्वरूप है अथवा प्रत्येक पुत्रवान माता-पिता स्कन्द माता के रूप हैं। ये भक्तों को ज्ञान के सागर से भर देने वाली, उन्हें सुख-समृद्धि, धन-धान्य से परिपूर्ण कर देने वाली हैं। शक्ति, बुद्धि और संवेदनाओं से परिपूर्ण ताड़कासुर का विनाश करने वाली देवी मां औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है। अलसी में कई सारे महत्वपूर्ण गुण होते हैं। अलसी का रोज सेवन करने से आप कई रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। सुपर फूड अलसी में ओमेगा 3 और फाइबर बहुत अधिक मात्रा में होता है। यह रोगों के उपचार में लाभप्रद है और यह हमें कई रोगों से लडऩे की शक्ति देता है। कफ प्रकृति और पेट से संबंधित समस्याओं से ग्रस्त लोगों को स्कंदमाता की आराधना और अलसी का सेवन करना चाहिए।6. कात्यायनीभगवती देवी का छठां रूप है मां कात्यायनी का। मां कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका। इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह औषधि कफ, पित्त, अधिक विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है। इससे ग्रस्त लोगों को इसका सेवन व कात्यायनी की आराधना करना चाहिए।7. कालरात्रिदेवी भगवती का सातवां रूप है कालरात्रि, जिससे सब जड़ चेतन मृत्यु को प्राप्त होते हैं और मृत्यु के समय सब प्राणियों को इस स्वरूप का अनुभव होता है। इन्हें महायोगिनी, महायोगीश्वरी भी कहा गया है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक, सर्वत्र विजय दिलाने वाली, मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि-स्वरूप हैं। यह देवी नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी, मन और मस्तिष्क के विकारों को दूर करने वाली औषधि है।8. महागौरीभगवती का आठवां स्वरूप महागौरी गौर वर्ण का है। यह ज्ञान अथवा बोध का प्रतीक है, जिसे जन्म जन्मांतर की साधना से पाया जा सकता है। ये रक्त शोधक एवं हृदय रोग का नाश करने वाली हैं। मां महागौरी देवी जी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को करना चाहिए। नवदुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है और प्रत्येक व्यक्ति इसे औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधीय नाम तुलसी है और इसे घर में लगाकर इसकी पूजा की जाती है। पौराणिक महत्व से अलग तुलसी एक जानी-मानी औषधि भी है, जिसका इस्तेमाल कई बीमारियों में किया जाता है। तुलसी सात प्रकार की होती है - सफेद, काली, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। आयुर्वेद के अनुसार सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ एवं हृदय रोग का नाश करते हंै। इस देवी की आराधना सभी को करनी चाहिए।9. सिद्धिदात्रीयह भगवती का नौवां स्वरूप है। इसे प्राप्त कर साधक परम सिद्ध हो जाता है। भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। ये सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली हैं। दुर्गा के इस स्वरूप को नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। यह रक्त विकार एवं वात पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। शतावरी का नियमपूर्वक सेवन करने वाले व्यक्ति के सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इसलिए हृदय को बल देने के लिए सिद्धिदात्री देवी की आराधना करनी चाहिए।----
- - भक्तियोगरस के परमाचार्य जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन
भक्तियोगरस के परमाचार्य जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत श्री दुर्गा-तत्व तथा गोपियों के माँ कात्यायनी देवी पूजन सम्बन्धी प्रवचन, सभी भगवत्प्रेमपिपासु भावुक पाठक समुदाय को 'शारदीय नवरात्रि' की हार्दिक शुभकामनाएं :::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है..)
जय जय जय जय दुर्गा मैया गोविन्द राधे।कृपा करि मोहे कृष्ण प्रेम दिला दे।।
प्रेम की अन्तिम आचार्या ब्रजांगनाएँ हैं, ब्रजगोपियाँ हैं जिनकी चरणधूलि ब्रम्हा, शंकर, सनकादिक, जनकादिक, उद्धवादिक समस्त परमहंस चाहते हैं। वृक्ष बन-बनकर ब्रज में उनकी चरणधूलि के लिये गये थे। वो ब्रजगोपियाँ प्रेम की आचार्या हैं। उनके प्रेम के आगे और किसी का प्रेम न हुआ था, न होगा। महाभाव कक्षा पर पहुँची हुई हैं ब्रजगोपियाँ। उसमें दो प्रकार की गोपियाँ थीं - एक ऊढ़ा एक अनूढ़ा। एक विवाहिता और एक कन्यायें। जो विवाहिता गोपियाँ थीं, उनका प्रेम अधिक उच्च कक्षा का था और नम्बर दो की कन्यायें थीं। विवाहिता का प्रेम परकीया भाव का प्रेम कहलाता है और कन्याओं का प्रेम स्वकीया भाव का प्रेम है।
स्वकीया माने जिसका और किसी से संबंध न हो और परकीया माने जिसका विवाह हो चुका है, पति है लेकिन चोरी चोरी प्यार करती है श्यामसुन्दर से। तो ब्रजांगनाओं का परकीया भाव का प्रेम सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ये दो प्रकार की गोपियाँ थीं और दो प्रकार की वेद ऋचायें भी थीं इनकी दासियाँ यानी विवाहिताओं की दासियाँ। ऐसी वेद की ऋचायें थीं जो इन्द्र, वरुण, कुबेरादि देवताओं की वाचिका थीं।
इन्द्रो जातो वसितस्य राजा, अग्निर्देवता, वायोर्देवता सूर्यो देवताचन्द्रमा देवता वसवो रुद्रादेवता वृहस्पते देवतेन्द्र इन्द्रोदेवता।
इत्यादि तमाम वेद मंत्र हैं जो डायरेक्ट भगवान के लिये नहीं हैं, उनका नाम लिखा है इन्द्र वरुण कुबेरादि। और कुछ ऐसी वेद की ऋचायें हैं जो डायरेक्ट भगवान की वाचिका हैं;
सत्यंज्ञानमनंतम् ब्रम्ह।
इत्यादि। तो जो अनंत वाचिका हैं यानी अनूढ़ा हैं यानी कन्यायें हैं वे स्वकीया भाव की हैं और जो अन्य पूर्विका हैं, ऊढ़ा हैं, विवाहिता हैं, वे परकीया भाव की हैं। तो ये दोनों प्रकार की गोपियों के प्रेम सर्वोच्च प्रेम कहलाता है। उन दोनों ब्रजगोपियों ने दुर्गा की उपासना की थी;
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।नन्दगोपसुतम् देव पतिं मे कुरुते नम:।।(भागवत 10-22-4)
कात्यायनी नाम है। दुर्गा के बहुत नाम हैं, बहुत रुप हैं, चार भुजा की दुर्गा, आठ भुजा की, हजार भुजा की। तो उन्हीं दुर्गा का एक रुप कात्यायनी देवी था, उसी को योगमाया कहते हैं। श्रीकृष्ण की बड़ी बहन है ये योगमाया जो यशोदा की पुत्री हैं। यशोदा की पुत्री हुई थी और देवकी के पुत्र हुये थे श्रीकृष्ण। तो श्रीकृष्ण को वसुदेव ले जाकर यशोदा के बगल में लिटा दिये थे और योगमाया को यानि यशोदा की पुत्री को उठा लाये थे और देवकी को दे दिया था। उसी को कंस ने चट्टान पर पटका था। लेकिन चट्टान पर गिरने के पहले ही वो आकाश को चली गईं और आठ भुजा से प्रकट होकर कंस को डाँटा, 'तुझे मारने वाला आ गया है तू मुझे क्या मारेगा?'
तो वो कात्यायनी देवी योगमाया दुर्गा हैं, उनकी उपासना किया था ब्रजगोपियों ने और उनसे वर माँगा था कि हमारे वर श्रीकृष्ण बनें।
पतिं मे कुरुते नम:। (भागवत 10-22-4)
हे कात्यायनी! हम तुमको नमस्कार करते हैं। ऐसा वरदान दो कि श्रीकृष्ण हमारे पति बनें, प्रियतम बनें। और यही दुर्गा रामावतार में पार्वती के रुप में थीं जिनकी सीता ने, राम ने सबने इनकी उपासना की थी।
मनजाहि राच्यो मिलहिं सो वर सहज सुन्दर साँवरो।
और वहाँ वर दिया था पार्वती ने सीता को कि जाओ तुमको तुम्हारे पति राम मिलेंगे, वो पति बनेंगे। तो दुर्गा की उपासना करके हम उनसे वर माँगें, हमको श्रीकृष्ण प्रेम दे दो।
(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
0 सन्दर्भ : साधन साध्य पत्रिका, अक्टूबर 2009 अंक, पृष्ठ संख्या 260 सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
महापुरुष तथा भगवान के द्वारा किये जाने वाले कार्यों की अलौकिकता एवं दिव्यता के संबंध में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन ::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)
...यदि महापुरुष अथवा भगवान के कार्य लौकिक बुद्धि के आधार पर ही तौले जा सकें, तब तो महापुरुष एवं भगवान् भी गुणातीत, लोकातीत, शुभाशुभ-कर्मातीत, बुद्धि-अतीत न रह जायगा। अतएव आस्तिक विचारशील व्यक्ति को उन लोकातीत अचिन्त्य महापुरुषों के कार्यों पर लौकिक बुद्धि से विचार न करना चाहिये, अन्यथा सब किया-कराया मटियामेट हो जायगा। साथ ही यह भी अत्यन्त विचारणीय बात है कि उनकी उपमा मायिक जीव को भूलकर भी अपने मिथ्याहंकार युक्त निकृष्ट कर्मों में न देनी चाहिये। महापुरुषों के कार्य, भगवान के संकल्पों से सम्बद्ध होने के कारण मंगलमय होते हैं, भले ही वे कार्य देखने में प्राकृत प्रतीत हों।
ईश्वराणां वच: सत्यं तेषामाचरितंक्वचित्।(भागवत 10-33-32)
अर्थात् महापुरुष के आदेश माननीय हैं उनका आचरण तो कहीं-कहीं ही मान्य होता है। महापुरुष एवं उसका कार्य सदा ही परम पवित्र है। महापुरुष के कार्य तो 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' इस गीता के सिद्धांतानुसार भगवान के द्वारा ही होते हैं
मयि ते तेषु चाप्यहम् - इस गीता के सिद्धांतानुसार जब भगवान भक्त में रहता है, एवं भक्त भगवान में रहता है, तब फिर महापुरुषों का कार्य भगवत्कार्य ही तो है। यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार भगवान एवं महापुरुष दोनों ही के कार्य अचिन्त्य हैं। अतएव हम लोकातीत, गुणातीत, मायातीत, भगवत्स्वरूप महापुरुषों के आचरणों पर अपनी सीमित, लौकिक, मायिक बुद्धि लगा कर अपने पागलपन का परिचय न दें। हम केवल उनके आदेशों का ही पालन करें। अन्यथा उनके खिलवाड़ में पड़कर हम नष्ट हो जायेंगे।
-- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि माता भगवती की आराधना,संकल्प, साधना और सिद्धि का दिव्य समय है। यह तन-मन को निरोग रखने का सुअवसर भी है। देवी भागवत के अनुसार देवी ही ब्रह्मा,विष्णु एवं महेश के रूप में सृष्टि का सृजन,पालन और संहार करती हैं। भगवान महादेव के कहने पर रक्तबीज शुंभ-निशुंभ,मधु-कैटभ आदि दानवों का संहार करने के लिए मां पार्वती ने असंख्य रूप धारण किए किंतु देवी के प्रमुख नौ रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। नवरात्रि का प्रत्येक दिन देवी मां के विशिष्ठ रूप को समर्पित होता है और हर स्वरुप की उपासना करने से अलग-अलग प्रकार के मनोरथ पूर्ण होते हैं। नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है।ये ही नवदुर्गा में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं।मंत्र- वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम।वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम ॥पूजा विधि-सर्वप्रथम शुद्ध होकर चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर देवी शैलपुत्री की प्रतिमा स्थापित करें। तत्पश्चात कलश स्थापना करें। प्रथम पूजन के दिन शैलपुत्री के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा लाल फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है। उसके बाद उनकी वंदना मंत्र का एक माला जाप करे तत्पश्चात उनके स्त्रोत पाठ करें। यह पूर्ण होने के बाद माता शैलपुत्री को सफेद चीजों का भोग लगाएं और यह शुद्ध गाय के घी में बना होना चाहिए। माता को लगाए गए इस भोग से रोगों का नाश होता है।कथा- एक बार जब सती के पिता प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, पर भगवान शंकर को नहीं। सती अपने पिता के यज्ञ में जाने के लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। परन्तु सती संतुष्ट नही हुईं। सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव था। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपनेआप को जलाकर भस्म कर लिया।इस दारुण दुख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने तांडव करते हुये उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री का विवाह भी फिर से भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिव की अद्र्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है।----
- मां भगवती की आराधना का पर्व है नवरात्रि। मां भगवती के नौ रूपों की भक्ति करने से हर मनोकामना पूरी होती है। नौ शक्तियों से मिलन को नवरात्रि कहते हैं। देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं।वर्ष के प्रथम महीने अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में तीसरी और प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में चौथी नवरात्रि का महोत्सव मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें आश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती,इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि भी कहते हैं। माना जाता है कि गुप्त और चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है।धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्रि में प्रमुख रूप से भगवान शंकर और देवी शक्ति की आराधना की जाती है। देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है। दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है। यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का। यह सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं। यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना के विशेष काल में ध्यान शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है।चैत्र प्रतिपदा से नवरात्रि का प्रारंभ होता है और इसी दिन से हिंदू नव वर्ष और नए विक्रम संवत का प्रारंभ भी माना जाता है। 21 मार्च 2015 से शुरू हो रहा विक्रम संवत 2072 और शक संवत 1937। धर्म ग्रंथों के अनुसार युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारम्भ भी चैत्र की प्रतिपदा तिथि से माना जाता है। साथ ही मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी तिथि को हुआ था। माता के पवित्र रूप की आराधना- नवरात्र के पहले 3 दिन मां दुर्गा की पूजा होती है जो नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करती हैं। अगले 3 दिन देवी लक्ष्मी की आराधना होती है जिससे सकरात्मक आचरण और विचार मिलता है और अंतिम 3 दिन मां सरस्वती की पूजा, ज्ञान और सचाई की रौशनी बिखेरने का प्रतीक है। शक्ति के 9 रूप मनुष्य की 9 अलग-अलग विशेषताओं के प्रतीक हैं। जिनमें स्मृति, श्रद्धा, लज्जा, भूख, प्यास, क्षमा, सौन्दर्य, दृष्टि और सच्चाई शामिल है। चैत्र नवरात्र बसंत ऋतुु के दौरान आता है और इस समय धरती, सूर्य से अपेक्षाकृत अधिक नजदीक होती है और सबसे अधिक गुरुत्व बल झेल रही होती है। इस संदर्भ में नवरात्र, देवी दुर्गा को धन्यवाद कहने का त्योहार है जिन्होंने धरती की रक्षा करने के साथ ही यहां जीवन को विकसित करने में भी मदद की।
- - किस दिन किस देवी की करें आराधनाभारतवर्ष में हिंदूओं द्वारा मनाया जाने प्रमुख पर्व है। इस दौरान मां के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है। वैसे तो एक वर्ष में चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ के महीनों में कुल मिलाकर चार बार नवरात्र आते हैं लेकिन चैत्र और आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक पडऩे वाले नवरात्र काफी लोकप्रिय हैं।बसंत ऋतु में होने के कारण चैत्र नवरात्र को वासंती नवरात्र तो शरद ऋतु में आने वाले आश्विन मास के नवरात्र को शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है। चैत्र और आश्विन नवरात्र में आश्विन नवरात्र को महानवरात्र कहा जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि ये नवरात्र दशहरे से ठीक पहले पड़ते हैं। दशहरे के दिन ही नवरात्र को खोला जाता है। नवरात्र के नौ दिनों में मां के अलग-अलग रुपों की पूजा को शक्ति की पूजा के रुप में भी देखा जाता है।कब और कैसे करें घटस्थापना? पढ़ें मुहूर्त और पूजा विधि -निर्णय सिन्धु के अनुसार- संपूर्णप्रतिपद्येव चित्रायुक्तायदा भवेत। वैधृत्यावापियुक्तास्यात्तदामध्यदिनेरावौ।। अभिजीत मुहुत्र्त यत्तत्र स्थापनमिष्यते। अर्थात अभिजीत मुहूर्त में ही कलश स्थापना कर लेना चाहिए।घट स्थापना मुहूर्त का समय शनिवार, अक्टूबर 17, 2020 को प्रात:काल 06:27 से 10:13 तक है। घटस्थापना के लिए अभिजित मुहूर्त प्रात:काल 11:44 से 12:29 तक रहेगा। नवरात्रि के प्रथम दिन ही घटस्थापना की जाती है। इसे कलश स्थापना भी कहा जाता है।मां शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्रि मां के नौ अलग-अलग रुप हैं। नवरात्र के पहले दिन घटस्थापना की जाती है। इसके बाद लगातार नौ दिनों तक मां की पूजा व उपवास किया जाता है। दसवें दिन कन्या पूजन के पश्चात उपवास खोला जाता है।आषाढ़ और माघ मास के शुक्ल पक्ष में पडऩे वाले नवरात्र गुप्त नवरात्र कहलाते हैं। हालांकि गुप्त नवरात्र को आमतौर पर नहीं मनाया जाता लेकिन तंत्र साधना करने वालों के लिये गुप्त नवरात्र बहुत ज्यादा मायने रखते हैं। तांत्रिकों द्वारा इस दौरान देवी मां की साधना की जाती है।इस बार नवरात्र व पितृ पक्ष के बीच एक महीने का अंतर आया है। आश्विन मास में मलमास लगने व एक महीने के अंतर पर नवरात्रारंभ का संयोग 165 साल पहले बना था। हर साल पितृ पक्ष याने श्राद्घ समाप्ति के अगले ही दिन से नवरात्रि उत्सव शुरू हो जाता है, लेकिन इस बार यह पर्व पितृ पक्ष समाप्ति के एक माह बाद शुरू होगा। इस बार श्राद्घ पक्ष समाप्त होते ही अधिकमास लग गया है। यानी नवरात्र व पितृ पक्ष के बीच एक महीने का अंतर आया है। आश्विन मास में मलमास लगने व एक महीने के अंतर पर नवरात्रारंभ का संयोग 165 साल पहले बना था।नवरात्रि में किस दिन किस देवी की पूजा होगी-नवरात्रि दिन 1- प्रतिपदा मां शैलपुत्री पूजा घटस्थापना 17 अक्टूबर 2020(शनिवार)नवरात्रि दिन 2- द्वितीया मां ब्रह्मचारिणी पूजा 18 अक्टूबर 2020 (रविवार)-नवरात्रि दिन 3:-तृतीय मां चंद्रघंटा पूजा 19 अक्टूबर 2020 (सोमवार)-नवरात्रि दिन 4- चतुर्थी मां कुष्मांडा पूजा 20 अक्टूबर 2020 (मंगलवार)-नवरात्रि दिन 5- पंचमी मां स्कंदमाता पूजा 21 अक्टूबर 2020 (बुधवार)नवरात्रि दिन 6- षष्ठी मां कात्यायनी पूजा 22 अक्टूबर 2020 (गुरुवार)-नवरात्रि दिन 7- सप्तमी मां कालरात्रि पूजा 23 अक्टूबर 2020 (शुक्रवार)-नवरात्रि दिन 8- अष्टमी मां महागौरी दुर्गा महा नवमी पूजा दुर्गा महा अष्टमी पूजा 24 अक्टूबर 2020 (शनिवार)-नवरात्रि दिन 9- नवमी मां सिद्धिदात्री नवरात्रि पारणा विजय दशमी 25 अक्टूबर 2020 (रविवार)-नवरात्रि दिन 10- दशमी दुर्गा विसर्जन 26 अक्टूबर 2020 (सोमवार)इस बार चातुर्मास जो हमेशा चार महीने का होता है, इस बार पांच महीने का होगा। 160 साल बाद लीप वर्ष व अधिकमास दोनों ही एक साल में आए हैं। चातुर्मास लगने से विवाह, मुंडन, कर्ण छेदन जैसे मांगलिक कार्य नहीं होंगे। इस काल में पूजन पाठ, व्रत उपवास और साधना का विशेष महत्व रहेगा।इस बार 17 सितंबर को पितृ पक्ष खत्म हुआ । इसके अगले दिन 18 सितंबर से अधिकमास शुरू हो गया , जो 16 अक्टूबर तक चलेगा। 17 अक्टूबर से नवरात्रि पर्व शुरू होगा। 25 नवंबर को देवउठनी एकादशी होगी। जिसके साथ ही चातुर्मास समाप्त होंगे। इसके बाद ही विवाह, मुंडन आदि मंगल कार्य शुरू होंगे।---
- भागवत पुराण हिन्दुओं के 18 पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वण्र्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण के रचयिता वेद व्यास को माना जाता है।श्रीमद्भागवत पुराण में काल गणना भी अत्यधिक सूक्ष्म रूप से की गई है। वस्तु के सूक्ष्मतम स्वरूप को परमाणु कहते हैं। दो परमाणुओं से एक अणु और तीन अणुओं से मिलकर एक त्रसरेणु बनता है। तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य किरणों को जितना समय लगता है, उसे त्रुटि कहते हैं। त्रुटि का सौ गुना कालवेध होता है और तीन कालवेध का एक लव होता है। तीन लव का एक निमेष, तीन निमेष का एक क्षण तथा पांच क्षणों का एक काष्टा होता है। पन्द्रह काष्टा का एक लघु, पन्द्रह लघुओं की एक नाडि़का अथवा दण्ड तथा दो नाडि़का या दण्डों का एक मुहूर्त होता है। छह मुहूर्त का एक प्रहर अथवा याम होता है।एक चतुर्युग (सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग, कलि युग) में बारह हज़ार दिव्य वर्ष होते हैं। एक दिव्य वर्ष मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष के बराबर होता है।जैसे कि-1. सत युग- चार हज़ार आठ सौ वर्ष का हुआ।2. त्रेता युग- तीन हज़ार छह सौ वर्ष का हुआ।3. द्वापर युग- दो हज़ार चार सौ वर्ष का हुआ।4. कलि युग- एक हज़ार दो सौ वर्ष का है।प्रत्येक मनु 7 लाख 16 हजार 114 चतुर्युगों तक अधिकारी रहता है। ब्रह्मा के एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। यह ब्रह्मा की प्रतिदिन की सृष्टि है। सोलह विकारों (प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रांए, दो प्रकार की इन्द्रियां, मन और पंचभूत) से बना यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है। उसके ऊपर दस-दस आवरण हैं। ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड राशियां, जिस ब्रह्माण्ड में परमाणु रूप में दिखाई देती हैं, वही परमात्मा का परमधाम है। इस प्रकार पुराणकार ने ईश्वर की महत्ता, काल की महानता और उसकी तुलना में चराचर पदार्थ अथवा जीव की अत्यल्पता का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है।-----
- -जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के दिव्य सन्देश
जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत जीव के साध्य एवं कर्तव्य सम्बन्धी दिव्य सन्देश ::::::
(साधन-साध्य तत्वज्ञान)
...सभी विवेकी जीवों को यही निश्चय करना है कि हमारा लक्ष्य, हमारे सेव्य श्रीकृष्ण की सेवा ही है। वह सेवा भी उनकी इच्छानुसार हो। अपनी इच्छानुसार सेवा, सेवा नहीं है। वह तो अपने सुख वाली कही जायेगी। वह सेवाधिकार स्वाभाविक है। यथा,
दासभूतो हरेरेव नान्यस्यैव कदाचन। (चै.)
अर्थात समस्त जीवमात्र, अपने अंशी ब्रम्ह श्रीकृष्ण के नित्यदास हैं। यह दासत्व ही उनका स्व स्वरुप है। जिस प्रकार वृक्ष के अंश स्वरुप मूल, शाखा, उप शाखा, पत्रादि अपने अंशी वृक्ष की सेवा करते हैं अर्थात वृक्ष की जड़ें पृथिवी से तत्त्व निकाल कर वृक्ष को देती हैं। शाखा, पत्ते आदि भी सूर्यताप, वायु आदि के द्वारा सेवा करते हैं। इसी प्रकार जीवों को भी अपने अंशी श्रीकृष्ण की सेवा करनी है। यही ज्ञातव्य (जो जानना है) है, यही कर्तव्य है।
-- जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, अक्टूबर 2007 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के आज के प्रकाशित प्रवचन अंश में हम जानेंगे कि किन-किन पड़ावों को पार करने के बाद जीव को भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के गोलोक धाम की प्राप्ति होगी? इस प्रवचन में विशेष रुप से तत्वज्ञान, साधना एवं कृपा तत्व के विषय में बतलाया गया है। श्रीकृष्णचन्द्र के प्रेम, सेवा, धाम प्राप्ति के इच्छुक पिपासु जीव को इसे समझकर तदनुकूल प्रयत्न करने पर निश्चय ही लाभ प्राप्त होगा ::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है....)जीव के तीन शत्रु है। एक शत्रु को जीतना तो आसान है, दूसरे शत्रु को जीतना थोड़ा कठिन है लेकिन उसको जीता जा सकता है और तीसरा शत्रु जो है वो इतना बलवान है कि उसको कोई नहीं जीत सकता।उनका नाम है मल, विक्षेप और आवरण।पहला मल तो तत्व ज्ञान होने से चला जाता है, शास्त्र वेद का ज्ञान, माया क्या है, जीव क्या है, ब्रह्म क्या है, जीव को भगवत प्राप्ति कैसे होगी - ये थिअरी की नॉलेज से चला जाता है या शब्दज्ञान कह दो, ये तो कोई भी कर सकता है बार बार सुनने से। ये मल आवरण है। ये पहला है।दूसरा है विक्षेप। ये भी हमने पैदा किया है। मल के गड़बड़ होने से विक्षेप हो गया। विक्षेप का रीजन मल यानी तत्त्वज्ञान का अभाव। हमने सबसे पहले थिअरी की नॉलेज नहीं प्राप्त की तो अपने आप को देह मान लिया और फिर देह के सुख के पीछे भाग पड़े, भागते रहे, भागते रहे, अनंत जन्म बीत गए, लेकिन अगर कोई बहादुर मल के हट जाने के बाद साधना कर ले, हरि गुरु का रुपध्यान करते हुए रोते हुए उनके नाम, गुण, लीला आदि का गान; तो अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा। यानी वो जो भीतर वाला अन्त:करण गंदा है वो धुल जाएगा, शुद्ध हो जाएगा। तो विक्षेप समाप्त होने का मतलब अन्त:करण की शुद्धि। तो अन्त:करण कैसे शुद्ध होगा इसका ज्ञान मल के हटने से हो गया और साधना करने से, भक्ति करने से विक्षेप भी चला गया।लेकिन वो कोई कोई बहादुर है जो साधना करके अन्त:करण शुद्ध कर ले। ये आम बात नहीं है, लेकिन वो कर सकता है।तीसरा है आवरण; ये माया की शक्ति है और दैवी शक्ति है। अन्त:करण की शुद्धि के बाद जब गुरु कृपा से स्वरूप शक्ति मिलती है, वो कृपा से मिलती है, साधना से नहीं मिलती। साधना से तो केवल अन्त:करण शुद्ध होता है। उसको दिव्य भी बनाना होगा तभी उसमें दिव्य प्रेम ठहर सकेगा। वो दिव्य बनाने के लिए गुरु, भगवान की कृपा चाहिए। वो हो गई जब तब तीसरा शत्रु भी ख़तम हो जाएगा। तब जीव सदा के लिए आनंदमय ज्ञानमय होकर गोलोक में रहेगा।(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।