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 चुप्पी से सुरक्षा तक: मोदी सरकार के शासन में कानूनी सुधारों ने महिला सुरक्षा को नया रूप दिया

 सुश्री सावित्री ठाकुर : राज्य मंत्री, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
 2012 में क्रूर निर्भया कांड ने देश की अन्तरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। इस घटना ने महिलाओं की सुरक्षा में भारत के कानूनी और प्रशासनिक ढांचे की गहरी कमियों को भी उजागर कर दिया था। अपर्याप्त पुलिस व्यवस्था, धीमी न्यायिक प्रक्रिया, पुराने पड़ चुके कानून और पीड़ितों के ना-काफी सहायता इंतजाम निराशाजनक तस्वीरें पेश कर रहे थे।
2014 तक, भारत एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा था। जनता में जबरदस्त आक्रोश था। लेकिन कानूनी तंत्र सुस्त पड़ा था। फास्ट ट्रैक कोर्ट महज एक अवधारणा थी, वास्तविकता नहीं। कोई एकल समाधान और केंद्र नहीं थे, कोई राष्ट्रीय महिला हेल्पलाइन नहीं थी, जांच तेज़ करने के लिए कोई फोरेंसिक (न्यायालयिक विज्ञान जांच) सहायता नहीं थी और इन उपायों के संचालन के लिए कोई समर्पित निधि भी नहीं थी। महिलाओं के मुद्दों को सामाजिक सरोकारों के तौर पर देखा जाता था-राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के रूप में नहीं।
मोदी युग: सुरक्षा से संरचनात्मक सशक्तिकरण तक
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के दूरदर्शी नेतृत्व में केंद्र सरकार ने पिछले 11 वर्षों के शासन में  सुस्त आंशिक प्रतिक्रिया की जगह अब कानूनी सुधार, संस्थानों के दायित्वपूर्ण रवैये और हर महिला के सम्मान से संबधित दृष्टिकोण को मिशन-मोड में अपनाते हुए व्यापक बदलाव किया है।
कानूनी सुरक्षा, अब राष्ट्रीय प्रतिबद्धता 
सरकार ने देश भर में फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (त्वरित न्याय प्रदान करने के लिए स्थापित विशेष न्यायालय) की स्थापना की शुरुआत की और आज ऐसी 745 अदालतें क्रियाशील हैं। इनमें 404 विशेष रूप से यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम के तहत मामलों को निपटाती हैं। वर्ष 2014 की तुलना में जब वन स्टॉप सेंटर (शारीरिक, यौन, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक शोषण का सामना करने वाली महिलाओं की सहायता और निवारण संबंधी केंद्र) अस्तित्व में नहीं थे, अब 820 से अधिक जिलों में ये पूरी तरह कार्यान्वित हैं जो हिंसा से प्रभावित किसी भी महिला को एक ही स्थान पर कानूनी सहायता, पुलिस हस्तक्षेप, आश्रय और परामर्श प्रदान करते हैं। इस पारिस्थितिकी तंत्र के हिस्से के रूप में आरंभ की गई राष्ट्रीय महिला हेल्पलाइन 181 ने हर दिन चौबीसों घंटे 86 लाख से अधिक महिलाओं को आपातकालीन सहायता प्रदान की है। इसके अलावा, देश भर में 14,600 से अधिक पुलिस स्टेशनों (पुलिस थाने) में अब महिला हेल्प डेस्क स्थापित हैं, जिनमें महिला अधिकारी मौजूद हैं। यह महिलाओं के विरूद्ध होने वाले अपराध की स्थिति में पहले बरते जाने वाली उदासीनता या यहां तक कि आक्रामकता के माहौल की अपेक्षा अधिक संवेदनशीलता और सहायता प्रदान करने के माहौल में बदल गए हैं। निर्भया कोष के ज़रिए सरकार ने वर्ष 2014 से पहले की ढुलमुल प्रतिक्रिया प्रणाली की तुलना में अब महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा पर केंद्रित 50 से ज़्यादा बड़ी परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान की है।
प्रगतिशील कानूनी संशोधन
आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 में कुछ आवश्यक सुधारों से शुरुआत के बाद  अब भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) और 2023 में संबंधित कानूनों के व्यापक संहिताबद्ध किए जाने से औपनिवेशिक युग के आपराधिक न्यायशास्त्र की जगह अब भारतीय संदर्भ में कानून परिभाषित किए गए हैं।
नए कानूनों में महिलाओं के विरूद्ध सभी अपराधों को एक अध्याय में समेकित किया गया है। पीड़ित के बयानों को वीडियो-रिकॉर्ड किया जाना अनिवार्य बनाया गया है जिसमें संवेदनशीलता बरतने के लिए महिला मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में बयान दर्ज कराने को प्राथमिकता दी गई है।  डिजिटल स्टॉकिंग (डिजिटल माध्यम से पीछा करना), वॉयरिज्म (रति क्रिया छुपकर देखना) और शादी के झूठे वादे कर शारीरिक शोषण जैसे अपराधों को पहली बार आपराधिक बनाया गया है। कानूनी प्रणाली में अब तेजाब हमलों, मानव तस्करी, सामूहिक बलात्कार और हिरासत में यौन हिंसा के विरूद्ध कठोर दंड की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त, बलात्कार पीड़िता को प्राथमिकी दर्ज करने या आपातकालीन चिकित्सा देखभाल प्रदान न करना भी  अपराध माना गया है। पुराने संरक्षणवादी प्रतिबंधों को हटाते हुए महिलाओं को अब कानूनी रूप से किसी भी क्षेत्र में और किसी भी समय काम करने की अनुमति है, जो उनके खुद निर्णय लेने की आजादी की पुष्टि करते हैं। महत्वपूर्ण प्रक्रियागत सुधार भी किए गए हैं जिनमें गवाहों की सुरक्षा और डिजिटल साक्ष्यों को मंजूरी देना शामिल है। यौन हिंसा के मामलों में पीड़ितों को न्याय दिलाने की प्रक्रिया को यह पुनर्परिभाषित करता है।
ये सभी केवल संशोधन भर नहीं हैं - ये पीड़ितों को न्याय दिलाने की प्रणाली को पुन:स्थापित करते हैं।
कानून से परे भी सशक्तिकरण
कानूनी सुरक्षा के दायरे से परे, महिलाओं के प्रति सरकार का दृष्टिकोण सामाजिक, वित्तीय और डिजिटल सशक्तिकरण के व्यापक पहलुओं में कानूनी सुधार लाना है। मातृत्व अवकाश को अब 12 से बढ़ाकर 26 सप्ताह कर दिया गया है, और 50 से अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों मंै अब क्रेच (बच्चों की देखभाल) की सुविधा प्रदान करना आवश्यक है। महिलाएं अब सशस्त्र बलों में युद्धक-भूमिकाओं में सक्रियता से भाग ले रही हैं। वे सैनिक स्कूलों में प्रवेश पा रही हैं, प्रतिष्ठित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला ले रही हैं, और स्थायी कमीशन प्राप्त कर रही हैं। ये ऐसे उल्लेखनीय बदलाव हैं जो पहले उनके लिए बहुत मुश्किल थे। तीन तलाक जैसी भेदभावपूर्ण प्रथाओं को कानूनी तौर पर समाप्त कर दिया गया है, साथ ही महिलाओं को अब पुरुष अभिभावक के बिना भी हज यात्रा करने की अनुमति है। न्याय प्रदान करने को अब समुदाय-आधारित नारी अदालतों और शी-बॉक्स 2.0 जैसे प्लेटफार्म के माध्यम से विकेंद्रीकृत और डिजिटीकृत किया गया है।  इससे सीधे जमीनी स्तर पर समयबद्ध निवारण तंत्र सक्रिय हो गया है।
सुरक्षित, मजबूत भारत की शुरुआत कानूनी गरिमा से 
वर्ष 2014 से पहले, महिलाओं की सुरक्षा को अक्सर नीति नहीं बल्कि सुर्खियों से प्रेरित प्रतिक्रियात्मक मुद्दे के रूप में देखा जाता था लेकिन आज यह शासन की संरचना में अंतर्निहित है  जो वित्त पोषित,  फोरेंसिक उपकरणों, कानूनी सुधार और अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं द्वारा सहायता प्रदत्त है। 
अमृत काल में प्रवेश करने के साथ ही अब स्पष्ट दृष्टि है कि इस नए भारत में कोई भी महिला अकेली नहीं है। अब उसकी सुरक्षा विशेषाधिकार नहीं बल्कि सरकार की क्षमता से समर्थित संवैधानिक गारंटी है।
यह यात्रा अभी जारी है, लेकिन महिलाओं की सुरक्षा में हम अब तक एक लंबा सफर तय कर चुके हैं। निरंतर राजनीतिक इच्छाशक्ति, सामाजिक भागीदारी और कानूनी प्रतिबद्धता के साथ, भारत निश्चित रूप से एक महिला के रहने, काम करने और नेतृत्व करने का सबसे सुरक्षित स्थान बन सकता है।
 
 

 

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