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 कैसा था पौराणिक कथाओं में उल्लेखित मेरु पर्वत....
 मेरु पर्वत, एक ऐसा स्थान है, जिसका उल्लेख आपको लगभग सभी प्रमुख धर्मों में मिल जाएगा, यहाँ तक कि इससे जुड़ी मान्यताएं भी लगभग समान हैं। पौराणिक कहानियों और दस्तावेजों में मेरु पर्वत का जिक्र एक ऐसे पर्वत के तौर पर मिलता है, जो सोने के समान चमकीले सुनहरे रंग का है तथा इसके पांच मुख्य शिखर हैं। हिमालय की गोद में स्थित मेरु पर्वत की विशेषता यही समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि इसे ब्रह्मा का निवास स्थान भी माना जाता है।
 हिन्दू धर्म से जुड़े दस्तावेजों में मेरु पर्वत को अलौकिक पर्वत की संज्ञा दी गई है और इसे सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा समेत समस्त देवी-देवताओं का स्थान कहा गया है। पौराणिक हिन्दू खगोलीय ग्रंथ, सूर्य सिद्धांत के अनुसार मेरु पर्वत पृथ्वी की नाभि पर स्थित है। इसके अलावा यह भी उल्लिखित है कि सुमेरु अर्थात मेरु पर्वत, उत्तरी ध्रुव और कुमेरु पर्वत दक्षिणी ध्रुव पर स्थित है, जिसका अर्थ है कि मेरु पर्वत का आकार उत्तर से दक्षिण ध्रुव तक फैला हुआ है। मेरु पर्वत को स्वर्ग की संज्ञा दी जाती है जिसकी संरचना धरती पर होने के बावजूद भी धरती पर नहीं हुई है।
 पौराणिक कथाओं में मेरु पर्वत के विषय में बहुत कुछ कहा गया है। मत्स्य पुराण और भागवत पुराण में इसकी ऊंचाई 84 हजार योजन (10 लाख 82 हजार किलोमीटर) बताई गई है, जो धरती के कुल व्यास से करीब 85 गुणा है। इसका फैलाव 16 हजार योजन, ऊपर की ओर की चौड़ाई 32 हजार  योजन और नीचे की चौड़ाई 16 हजार  योजन है। कूर्म पुराण के अनुसार इस विशाल क्षेत्र के बीचो-बीच जंबूद्वीप स्थित है, जिसके मध्य में स्थित है सुनहरा मेरु पर्वत। हम मुख्यत: चार दिशाओं से परिचित हैं और हिन्दू धर्म में इन चारों दिशाओं के अलग-अलग द्वारपाल या संरक्षक बताए गए हैं।
 पूर्वी दिशा का संरक्षण इन्द्र देव के हाथ है, पश्चिमी दिशा की रक्षा वरुण देव करते हैं, दक्षिण दिशा की रक्षा स्वयं मृत्यु के देवता यम द्वारा की जाती है और उत्तरी दिशा के द्वारपाल धनकुबेर हैं। ये चारों देव मेरु पर्वत को अलग-अलग दिशाओं को एक अभिभावक की तरह देखते हैं। केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं बल्कि जैन और बौद्ध धर्म के लोग भी मेरु पर्वत को स्वर्ग की संज्ञा देते हैं। यहाँ तक कि प्राचीन यूनानी कथाओं में मेरु को ही ऑलिम्पस पर्वत का नाम दिया गया है जहाँ देवताओं के राजा ज्यूस निवास करते हैं। जावा (इंडोनेशिया) में प्रचलित लोक कथाओं में भी मेरु पर्वत का जिक्र देवताओं के पौराणिक निवास के रूप में किया गया है। पंद्रहवी शताब्दी से संबंधित प्राचीन पांडुलिपियों में जावा द्वीप के उद्भव और मेरु पर्वत के कुछ हिस्सों को जावा द्वीप से क्यों जोड़ा गया, इसका भी रहस्य बताया गया है। 
 जावा की इस प्राचीन पांडुलिपि के अनुसार बतारा गुरु (शिव) ने विष्णु और ब्रह्मा को यह आदेश दिया कि वह इस द्वीप पर मानवता को जन्म दें और समस्त द्वीप को मनुष्यों से भर दें। उस समय जावा द्वीप हर समय हिलता और सागर पर बहता रहता था। ऐसे हालात में मनुष्यों का वहां रहना कठिन था, इसलिए द्वीप को स्थिर रखने के लिए ब्रह्मा और विष्णु ने महामेरु पर्वत के भाग को जंबूूद्वीप पर ले जाकर उसे जावा द्वीप से जोडऩे का निश्चय किया। इसके परिणाम के तौर पर जावा के सबसे लंबे पर्वत, सुमेरु पर्वत की स्थापना हुई। ऐसा कहा जाता है आदिकाल में मेरु पर्वत से जुड़ी अवधारणा इतनी पुख्ता और मजबूत थी कि कई बेहद प्राचीन मंदिरों का निर्माण भी इस पर्वत की संरचना की तरह ही हुआ है। हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिर इस बात के सशक्त उदाहरण हैं।
 मेरु पर्वत की चोटी पर 33 देवताओं का निवास स्थान है। इंद्र भी यहीं रहते हैं। इसकी हर ढलान पर इस पर्वत के चार अभिभावक यम, कुबेर, इन्द्र और वरुण देव रहते हैं। इसके नीचे अन्य पौराणिक पात्र जैसे अप्सरा, गंधर्व, यक्ष, नाग, सिद्ध, विद्याधर रहते हैं और सबसे नीचे असुरों का वास है।

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