साधना भक्ति के दो प्रकार वैधी और रागानुगा भक्ति तथा भक्ति के कुछ रहस्यों पर जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा चर्चा
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 434
महत्वपूर्ण बिन्दु :
• साधन भक्ति के प्रकार
• भक्ति की अनिवार्य शर्त
• भक्ति किसे करनी है?
...आदि प्रश्नों पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन!
...साधन भक्ति 2 प्रकार से की जाती है - (1) वैधी भक्ति और (2) रागानुगा भक्ति। शास्त्र वेद की विधि के अनुसार जो भक्ति की जाती है उसे वैधी भक्ति कहते हैं, अर्थात वर्णाश्रम धर्म का पालन भी करे और भक्ति भी करे। वैधी अर्थात विधि से युक्त; वेद के संविधान के अनुसार कर्म करना, ये वैधी भक्ति है। इसमें नरक और शास्त्र आदि का भय रहता है।
रागानुगा भक्ति में शास्त्र वेद के कायदे-कानून, वर्णाश्रम धर्म के विधि-निषेधात्मक कायदे-कानून, ये सब कुछ लागू नहीं होता। रागानुगा भक्ति, केवल भक्ति है। रागानुगा भक्ति में दो बातें प्रमुख हैं, (1) सर्वाभिलाषिता शून्यं, (2) ज्ञानकर्मद्यनावृतं।
सर्वाभिलाषिता शून्यं, अर्थात सभी कामनाओं रहित भक्ति। अर्थात अपने सुख की कामनाओं का त्याग। अपने सुख के लिये प्रेम करना, जो जीव का स्वभाव है, इसको बदलना होगा, इसके विपरीत अपने प्रेमास्पद के सुख के लिये ही प्रेम करना होगा। आनंद की कामना करना, ये जीव का स्वभाव है, परन्तु प्रियतम की सेवा करने से उनको जो आनंद प्राप्त हो, उसे देखकर हम आनन्दमय हों, ऐसा आनंद चाहना है। इस प्रकार का आनंद प्राप्त करने के लिये पाँचों मुक्तियाँ त्याज्य हैं।
सनकादिक परमहंसों ने भगवान से कहा कि हमें नरकवास प्रदान कर दीजिये, परन्तु मेरा मन आपके चरणारविन्द मकरन्द का मिलिन्द बना रहे, आपकी भक्तियुक्त नरक अनंतकोटि ब्रम्हानंद के बराबर है। कामनाओं को छोड़ना होगा, क्योंकि ये कामनाएँ अंतःकरण में रहती हैं और उस अंतःकरण से सेवा भावना पैदा करनी है तो जब तक कामनाओं का त्याग करके सेवा की कामना नहीं लाई जाएगी, तब तक साधना का स्वरूप ही नहीं बनेगा, साधना भक्ति प्रारंभ ही नहीं होगी।
साधना भक्ति मन से करनी है, वो वैधी भक्ति हो या रागानुगा भक्ति। नवधा भक्ति रागानुगा भक्ति वालों के लिये है और वही वैधी भक्ति वालों के लिये भी है। नवधा भक्ति में सबसे प्रमुख है - स्मरण। स्मरण के साथ चाहे जप करो, चाहे कीर्तन करो, चाहे श्रवण करो, जो चाहे करो, परन्तु स्मरण परमावश्यक है। मन ही भगवान का स्मरण करेगा और यदि स्मरण नहीं किया तो मन संसार में आसक्त रहेगा और इंद्रियों से कीर्तन आदि करने का कोई लाभ नहीं। मन की आसक्ति को ही भगवान देखते हैं, शारीरिक कर्म को देखा ही नहीं जाता। यदि मन का लगाव भगवान में है तो अर्जुन द्वारा करोड़ों हत्यायें करने को भी भगवान नहीं देखते। नवधा भक्ति में मन ही प्राण है, स्मरण साधना का प्राण है। नवधा भक्ति में स्मरण ही एकमात्र वास्तविक भक्ति है, उसके साथ जो करो। नवधा भक्ति को वैधी भक्ति वाला भी स्वीकार करेगा, इसी को रागानुगा भक्ति वाला भी स्वीकार करेगा, दोनों के लिये यही साधना है। यदि कामना रखकर भक्ति की तो फिर कामना की भक्ति हो रही ही, श्रीकृष्ण की भक्ति नहीं हो रही है।
यदि हम भगवान के समक्ष आँसू बहाकर संसार माँगते हैं, तो वो संसार की भक्ति है। भक्ति अर्थात मन का लगाव भगवान में हो। वेद कहता है कि कामनाओं को छोड़कर उपासना करनी है। मन से ही भगवान की उपासना करनी है और मन से ही संसार की कामना होती है, परन्तु मन एक है, चाहे संसार की कामना बना लो, चाहे भगवान की कामना बना लो। कामना बनाना, यही उपासना है, भक्ति है। भगवान की भक्ति अर्थात भगवान की कामना बनाना। वेद कहता है जो कामना होगी, उसी का संकल्प होगा, बार-बार उसी का चिंतन, मनन होगा और जितना चिंतन होगा, उतनी आसक्ति होगी, वही भक्ति है।
• सन्दर्भ ::: जगदगुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित मासिक सूचना पत्र, मई 2012 अंक.
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