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 विश्व साहित्य का सबसे प्रथम शब्द अग्नि... जानें कौन हैं अग्नि देव के पुत्र...
हिन्दू धर्म में अग्नि की बड़ी महत्ता बताई गयी है। बिना अग्नि के मनुष्यों का जीवन संभव नहीं और इसीलिए हम अग्नि को देवता की भांति पूजते हैं। इसी अग्नि के अधिष्ठाता अग्निदेव बताये गए हैं जिनकी उत्पत्ति स्वयं परमपिता ब्रह्मा से हुई मानी गयी है। हिन्दू धर्म में पंचमहाभूतों की जो अवधारणा है उनमें से एक अग्नि हैं। अन्य चार पृथ्वी, जल (वरुण), वायु एवं आकाश हैं।
 हिन्दू धर्म के दस दिग्पाल भी माने गए हैं और अग्निदेव उनमें से एक हैं। वे आग्नेय दिशा के अधिष्ठाता हैं। वैदिक काल में अग्नि को त्रिदेवों में से एक माना गया है। वैदिक काल के त्रिदेवों में अन्य दो इंद्र और वरुण थे। पौराणिक काल में भी अग्नि का महत्व  काफी रहा और 18 महापुराणों में से एक अग्नि पुराण उन्हें ही समर्पित है।
 विश्व साहित्य का सबसे प्रथम शब्द अग्नि ही है। इसका कारण ये है कि सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्नि शब्द से ही आरम्भ होता है। केवल ऋग्वेद में ही अग्नि से सम्बंधित 200 से भी अधिक सूक्त हैं। इसके अतिरिक्त ऐतरेय ब्राह्मण में भी बारम्बार अग्नि को ही प्रथम देव कहा गया है। इन्हे यज्ञ का प्रधान माना गया है। इन्हे देवताओं का मुख कहा गया है, क्योंकि यज्ञ में डाला गया हर हविष्य अग्नि के मुख द्वारा ही अन्य देवताओं तक पहुँचता है।
 अग्नि की कुल सात जिह्वाएँ बताई गयी हैं जिनसे वे हविष्य ग्रहण करते हैं। वे हैं - काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरुचि। ऐसी मान्यता है कि अग्नि देवताओं के रक्षक हैं और किसी भी युद्ध में वे देवताओं के आगे-आगे चलते हैं। कई स्थानों पर इन्हे देवताओं का सेनापति भी कहा गया है। सभी प्रकार के रत्न अग्नि से ही उत्पन्न हुए माने जाते हैं और अग्निदेव ही समस्त रत्नों को धारण करते हैं।
 अग्नि की पत्नी स्वाहा बताई गयी है जो प्रजापति दक्ष की पुत्री थी। कहते हैं कि अग्नि देव अपनी पत्नी से इतना प्रेम करते हैं कि उनके बिना वे कोई भी हविष्य ग्रहण नहीं करते। यही कारण है कि अग्नि में समर्पित सभी चीजों के अंत में "स्वाहा" का उच्चारण करना आवश्यक है। इनके 4 पुत्र बताये गए हैं - पावक, पवमान, शुचि एवं स्वरोचिष। इनमें से स्वरोचिष ने ही द्वितीय मनु का पदभार संभाला था। इसके अतिरिक्त रामायण में वानर सेना के सेनापति नील भी अग्नि के ही पुत्र माने जाते हैं। इनके सभी पुत्र-पौत्रादियों की संख्या उनन्चास बताई गयी है।
 अग्निदेव बहुत जल्दी क्रुद्ध होने वाले देव हैं। साथ ही उनकी भूख भी अत्यंत तीव्र है। महाभारत में अग्निदेव की भूख शांत करने के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उन्हें खांडव वन को खाने को कहा। उसी वन में तक्षक भी रहता था जिसकी रक्षा के लिए स्वयं इंद्र आये। तब श्रीकृष्ण और अर्जुन ने इंद्र को रोका जिससे अग्नि से समस्त वन को खा लिया। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने अर्जुन को "गांडीव" नामक अद्वितीय धनुष और एक दिव्य रथ प्रदान किया।
 वैदिक ग्रंथों में अग्निदेव को लाल रंग के शरीर के रूप में वर्णित किया गया है, जिसके तीन पैर, सात भुजाएं, सात जीभ और तेज सुनहरे दांत होते हैं। अग्नि देव दो चेहरे, काली आँखें और काले बाल के साथ घी के साथ घिरे होते हैं। अग्नि देव के दोनों चेहरे उनके फायदेमंद और विनाशकारी गुणों का संकेत करते हैं। उनकी सात जीभें उनके शरीर से विकिरित प्रकाश की सात किरणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनका वाहन भेड़ है। कुछ छवियों में अग्नि देव को एक रथ पर सवारी करते हुए भी दिखलाया गया है जिसे बकरियों और तोतों द्वारा खींचा जा रहा होता है।
 

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