क्या थी स्मिता पाटिल की अंतिम इच्छा..
जयंती पर विशेष
फिल्म इंडस्ट्री में जब भी सशक्त अभिनेत्रियों का नाम लिया जाएगा, उनमें एक नाम स्मिता पाटिल का भी होगा। अपने सशक्त अभिनय से पहचान बनाने वाली स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर 1955 में हुआ था। मात्र 31 साल की उम्र में 13 दिसंबर 1986 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया। अपने 10 साल के फिल्मी कॅरिअर में उन्होंने जो मुकाम बनाया, उसे आज भी लोग याद रखते हैं। यदि आज वे जीवित होती , तो वे अपना 65 वां जन्मदिन मना रही होतीं।
स्मिता पाटिल की जीवनी लिखने वाली मैथिली राव कहती हैं, स्मिता को वायरल इन्फेक्शन की वजह से ब्रेन इन्फेक्शन हुआ था। प्रतीक के पैदा होने के बाद वो घर आ गई थीं। वो बहुत जल्द हॉस्पिटल जाने के लिए तैयार नहीं होती थीं, कहती थीं कि मैं अपने बेटे को छोड़कर हॉस्पिटल नहीं जाऊंगी। जब ये इन्फेक्शन बहुत बढ़ गया तो उन्हें जसलोक हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। स्मिता के अंग एक के बाद एक फेल होते चले गए और एक दिन उनकी सांस उखड़ गई। स्मिता की अंतिम इच्छा थी कि वे जब भी इस संसार से विदा हों, उन्हें एक दुल्हन की तरह विदाई दी जाए और उनका दुल्हन की तरह ही मेकअप भी किया जाए। उनके मेकअप आर्टिस्ट दीपक सावंत बताते हैं, स्मिता कहा करती थीं कि दीपक जब मर जाउंगी तो मुझे सुहागन की तरह तैयार करना। स्मिता अक्सर कहती थी कि उनका जीवन लंबा नहीं है। एक बार तो वे लेटकर मेकअप कराने की जिद कर बैठी थीं, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, लेकिन उन्हें क्या पता था कि एक दिन वे सबसे अंतिम विदाई लेती जा रही अर्थी पर लेटी स्मिता का इसी तरह से मेकअप करेंगे।
स्मिता पाटिल ने अपने सशक्त अभिनय से समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यावसायिक सिनेमा में भी ख़ास पहचान बनाई थी। उत्कृष्ट अभिनय से सजी उनकी फि़ल्में भूमिका, मंथन, चक्र, शक्ति, निशांत और नमक हलाल आज भी दर्शकों के दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं। भारतीय संदर्भ में स्मिता पाटिल एक सक्रिय नारीवादी होने के अतिरिक्त मुंबई के महिला केंद्र की सदस्य भी थीं। वे महिलाओं के मुद्दों पर पूरी तरह से वचनबद्ध थीं। भारतीय सिनेमा में उनके अमूल्य योगदान के लिए उन्हें दो बार राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार और पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था। हिन्दी फि़ल्मों के अलावा स्मिता पाटिल ने मराठी, गुजराती, तेलुगू, बांग्ला, कन्नड़ और मलयालम फि़ल्मों में भी अपनी ख़ास पहचान बनाई थी।
उनका नाम स्मिता रखने जाने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। असल में जन्म के समय उनके चेहरे पर मुस्कराहट देख कर उनकी मां विद्या ताई पाटिल ने उनका नाम स्मिता रख दिया। यह मुस्कान आगे चलकर भी उनके व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पहलू बनी। स्मिता पाटिल अपने गंभीर अभिनय के लिए जानी जाती हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते है कि फिल्मी परदे पर सहज और गंभीर दिखने वाली स्मिता पाटिल असल जिंदगी में बहुत शरारती थीं। स्मिता पाटिल एक राजनीतिक परिवार से सम्बन्ध रखती थीं, उनके पिता शिवाजीराय पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे, जबकि उनकी मां समाज सेविका थी। स्मिता पाटिल ने फि़ल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया , पुणे से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्मिता ने मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात जाने माने फि़ल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल से हुई। श्याम बेनेगल उन दिनों अपनी फि़ल्म चरणदास चोर (1975) बनाने की तैयारी में थे। श्याम बेनेगल को स्मिता पाटिल में एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने अपनी फि़ल्म में स्मिता पाटिल को एक छोटी-सी भूमिका निभाने का अवसर दिया।
भारतीय सिनेमा जगत में चरणदास चोर को ऐतिहासिक फि़ल्म के तौर पर याद किया जाता है, क्योंकि इसी फि़ल्म के माध्यम से श्याम बेनेगल और स्मिता पाटिल के रूप में कलात्मक फि़ल्मों के दो दिग्गजों का आगमन हुआ। श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल के बारे में एक बार कहा था कि मैंने पहली नजर में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में गजब की स्क्रीन उपस्थिति है और जिसका उपयोग रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है। फि़ल्म चरणदास चोर हालांकि बाल फि़ल्म थी, लेकिन इस फि़ल्म के जरिए स्मिता पाटिल ने बता दिया कि हिन्दी फि़ल्मों में ख़ासकर यथार्थवादी सिनेमा में एक नया नाम स्मिता पाटिल के रूप में जुड़ गया है। स्मिता पाटिल ने 1980 में प्रदर्शित फि़ल्म चक्र में झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला के किरदार को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया। इसके साथ ही फि़ल्म चक्र के लिए वे दूसरी बार राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार से सम्मानित की गईं। अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा की ओर भी अपना रुख़ कर लिया। इस दौरान उन्हें सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के साथ नमक हलाल और शक्ति (1982 फि़ल्म) जैसी फि़ल्मों में काम करने का अवसर मिला, जिसकी सफलता ने स्मिता पाटिल को व्यावसायिक सिनेमा में भी स्थापित कर दिया। इस दौरान उन्होंने बाज़ार, भींगी पलकें, अर्थ, अद्र्धसत्य और मंडी जैसी कलात्मक फि़ल्में की तो वहीं दर्द का रिश्ता , कसम पैदा करने वाले की , आखिर क्यों , ग़ुलामी , अमृत, नजराना और डांस-डांस जैसी व्यावसायिक फि़ल्मों में भी अपनी धाक जमाई। - (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉमविशेष)
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