रोमांटिक हीरो से इस तरह विलेन बने अजीत
-सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है....मोना डार्लिंग...जैसे संवाद के लिए हमेशा याद किए जाएंगे..
पुण्यतिथि पर विशेष
आलेख- मंजूषा शर्मा
फिल्मों में जब टॉप के खलनायकों की बात होगी, तो इसमें अभिनेता अजीत भी शामिल होंगे। अपनी संवाद अदायगी, तहजीब के साथ खलनायकी करने का उनका वो खास अंदाज लोगों को इतना पसंद आया कि उस दौर के लोग भूल गए कि यह कलाकार कभी हीरो बनकर रुपहले पर्दे पर आया करता था और उस समय न जाने कितनी ही लड़कियां उन्हें देखकर आहें भरा करती थीं। अपनी शुरुआती फिल्मों में उन्होंने रोमांटिक और एक्शन हीरो के रूप में काम किया। अभिनेत्री नलिनी जयवंत के साथ उनकी जोड़ी ऐसी लोकप्रिय हुई कि उन्होंने साथ में 15 फिल्में कीं। इसके अलावा शकीला, मधुबाला, मीना कुमारी, माला सिन्हा, सुरैया, निम्मी, मुमताज के साथ भी उनकी जोड़ी को पसंद किया गया।
वर्ष 1950 में फिल्म बेकसूर के निर्माण के दौरान निर्देशक के.अमरनाथ की सलाह पर उन्होंने अपने वास्तविक नाम हामिद अली खान को त्यागकर अजीत नाम रखा और इसी नाम से उन्हें भरपूर लोकप्रियता हासिल हुई। उनकी प्रारंभिक फिल्मों में - नास्तिक, पतंगा, बारादरी, ढोलक, ज़िद, सरकार, सैया,तरंग, मोती महल, सम्राट, तीरंदाज आदि हैं। वर्ष 1957 में अजीत ने बी.आर.चोपड़ा की फिल्म नया दौर में पहली बार ग्रे रोल निभाया, लेकिन छोटी सी भूमिका में उन्होंने लोगों को प्रभावित किया। वहीं दिलीप कुमार की अगली फिल्म मुगले आजम में भी अजीत ने सेनापति दुर्जनसिंह की छोटी सी भूमिका के जरिए दर्शकों का दिल जीत लिया था। 60 के दशक में हीरो के रूप में कुछ नए चेहरे आने से अजीत की पूछ परख कम होने लगी। ऐसे में उन्होंने अपने अभिन्न दोस्त अभिनेता राजेंद्र कुमार के कहने पर टी. प्रकाशराव की फिल्म सूरज में खलनायक का किरदार स्वीकार किया और यह उनके कॅरिअर का सबसे अच्छा निर्णय साबित हुआ। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की वाह-वाही लूटते रहे। दरअसल उनकी लोकप्रियता का एक कारण ये भी था कि वे खलनायकी भी जिस नफ़ासत और तहजीब से करते थे, कि लोग उनसे प्रभावित हो जाते थे। फिर उनकी आवाज भी काफी बुलंद थी। सुभाष घई की फिल्म कालीचरण ने तो एक इतिहास ही रच दिया। फि़ल्म कालीचरण में उनका निभाया किरदार लॉयन उनके नाम का पर्याय ही बन गया था।
जिंदगी और ख्वाब', 'शिकारी', 'हिमालय की गोद में', 'सूरज', 'प्रिंस', 'आदमी और इंसान' जैसी फि़ल्मों से मिली कामयाबी के जरिए अजीत दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसे मुकाम पर पहुंच गए, जहां वे फि़ल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। 1973 अजीत के सिने कॅरियर का अहम पड़ाव साबित हुआ। उस वर्ष उनकी 'जंजीर', 'यादों की बारात', 'समझौता', 'कहानी किस्मत की' और 'जुगनू' जैसी फि़ल्में प्रदर्शित हुईं, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। इन फि़ल्मों की सफलता के बाद अजीत ने उन ऊंचाइयों को छू लिया, जिसके लिए वे सपनों की नगरी मुंबई आए थे।
90 के दशक के आते - आते अजीत ने खराब स्वास्थ्य के कारण फि़ल्मों में काम करना कुछ कम कर दिया। इस दौरान उन्होंने 'जिगर' (1992), 'शक्तिमान' (1993), 'आदमी' (1993), 'आतिश', 'आ गले लग जा' और 'बेताज बादशाह' (1994) जैसी कई फि़ल्मों में अपने अभिनय की धाक जमाई। संवाद अदायगी के बेताज बादशाह अजीत ने करीब चार दशक के अपने फि़ल्मी कॅरिअर में लगभग 200 फि़ल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाया और 22 अक्टूबर, 1998 को इस दुनिया से रूखसत हो गए।
अजीत खान का जन्म 27 जनवरी 1922 को हैदराबाद रियासत के गोलकुंडा में हुआ था। उनके बचपन का नाम हामिद अली खान था। उनके पिता बशीर अली खान हैदराबाद में निजाम की सेना में काम करते थे। अजीत साहब को बचपन से ही अभिनय का शौक था। ये शौक इस कदर बढ़ गया था कि उन्होंने अपनी किताबें बेच दीं और घर से भागकर मुंबई आ गए। लेकिन मायानगरी तो मायानगरी थी, यहां हर किसी को काम बड़ी मुश्किल से मिलता है। अजीत को भी बहुत संघर्ष करना पड़ा। न पास में पैसा था और न ही सर के ऊपर छत। लेकिन अजीत ने हार नहीं मानी और सीमेंट के पाइप में रहकर अपना संघर्ष जारी रखा। मुंबई के गली के गुंडों से लड़ते फिड़ते उन्होंने अपनी सपनों को साकार किया।
परिवार
निजी जीवन में अजीत बड़े सज्जन थे। उन्होंने तीन शादियां की। उनकी पहली पत्नी एंग्लो इंडियन ईसाई थीं जिनसे उन्होंने प्रेम विवाह किया था। अलग-अलग संस्कारों के कारण यह विवाह ज्यादा दिनों तक नहीं चला। उसके बाद अजीत ने परिवार की पसंद शाहिदा से विवाह किया, जो उन्हीं की समुदाय की थीं। शाहिदा से उनके तीन बच्चे हुए, लेकिन शाहिदा का साथ भी ज्यादा दिनों तक नहीं रहा और उनका निधन हो गया। अजीत ने तीसरी बार सारा से निकाह किया। अजीत और सारा के दो बच्चे हुए।
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