बन जाना मेरा संबल
-लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे
- दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
स्वर्ण मृगा मन को भटकाए, समझा देना यह है छल।
जब भी मैं कमजोर पड़ूँ प्रिय, बन जाना मेरा संबल।
हृदय सुकोमल करुण भावना,दिशा भ्रमित होतीं आँखें।
मन में सोयी दबी चाहतें, फैला देती हैं पाँखें।
कभी-कभी संयम खो देता,चितवन है थोड़ी चंचल ।।
जब भी मैं….
पक्षपात से दुखता है मन, अन्याय साथ में हो जब।
बेलगाम हो जाती रसना, उगल पड़े कड़ुवाहट तब।
कलुषित सोच नहीं रखती पर, मन है मेरा गंगाजल।।
जब भी…
साहचर्य विश्वास भरा दिन, प्रीति पगी हों शुचि रातें।
आँखों की पीड़ा पढ़ लें, समझ सकें मन की बातें।
साथ चलें हम हँसते गाते, सुखद सुनहरा होगा कल।।
जब भी मैं…
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