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  श्रीकृष्ण द्वारा ब्रजगोपियों को महारास-रस दान की महारात्रि शरद-पूर्णिमा का महत्व कुछ और भी खास है!!
'शरद पूर्णिमा' का महत्त्व
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

हमारे देश में, हमारे सनातन धर्म में साल का प्रत्येक दिन ही कोई न कोई पर्व होता है। किसी न किसी देश में, किसी न किसी जाति में, यदि सबका हिसाब लगाया जाय तो साल का प्रत्येक दिन ही पर्व है। क्योंकि हमारे यहाँ भगवान् के सब अवतार हुए और अनतानंत महापुरुष भी हमारे देश ने ही आये इसलिए पर्वों की भरमार है। किन्तु जितने भी पर्व मनाये जाते हैं उन सबमें सर्वश्रेष्ठ पर्व है : शरत्पूर्णिमा। वैसे कुछ लोग जन्माष्टमी को कहते हैं, कुछ होली को, अनेक लोग अपनी अपनी भावना से पर्वों की इम्पोर्टेंस बताते हैं किन्तु माधुर्य भाव से श्रीकृष्ण की उपासना करने वालों के लिए शरत्पूर्णिमा ही सबसे बड़ा पर्व है क्योंकि शरत्पूर्णिमा के दिन ही लगभग 5000 वर्ष पूर्व पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रम्ह श्रीकृष्ण ने भाग्यशाली जीवात्माओं के साथ 'महारास' किया था अर्थात् आनंद की जो अंतिम सीमा है, उस अंतिम सीमा वाले आनंद को राधाकृष्ण ने जीवों को दिया था।

'रस' शब्द से बना है 'रास'। 'रसानां समूहो रासः'। रस ही अनंतमात्रा का होता है फिर दिव्यानंदो में सबसे उच्च कक्षा का रस, समर्था रति वालों का, उसका कहना ही क्या है ! उस रस का भी जो समूह है उसको रास कहते हैं। वैसे तो भगवान् का एक नाम है रस -

'रसो वै सः. रसङ्होवायं लब्ध्वानन्दी भवति।' (तैत्तिरियोपनिषद् 2-7)

उसी का पर्यायवाची है - 'आनन्दो ब्रम्हेति व्यजानात्।'

'आनंदाद्धेयव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।' (तैत्तिरियोपनिषद् 3-6)

लेकिन रस में भी कई कक्षाएँ होती हैं इसलिए पुनः वेद कहता है - 

'स एष रसानां रसतमः।' (छान्दोग्योपनिषद् 1-1-3)

यहाँ पर कहा है रसतम: परम:। पहले तो कह दिया 'रसो वै सः' वो रस है। ठीक है लेकिन वह परम रसतम भी है। देखो यह रस ब्रम्हानंद वाले भी पा चुके इसलिए ये लोग कहते हैं 'रसो वै सः'। आनंद मिल गया इनको, आनन्दो ब्रम्ह। लेकिन जिनको महारास मिला, वो 'रसो वै सः' से संतुष्ट नहीं है तो उनके लिए वेद की ऋचा ने कहा 'स एव रसानां रसतम: परम:'। वही ब्रम्ह जो रसरूप है, आनंद रुप है वही रस का समूह, एक 'तम' प्रत्यय होता है संस्कृत में, उसका मतलब होता है सर्वोच्च रस। गुह्य, गुह्यतर, गुह्यतम। तो तम जहाँ आ जाए उसका मतलब होता है सर्वोच्च रस। आगे और कुछ नहीं। जैसे पुरुषोत्तम। पुरुष जीव भी है, पुरुष ब्रम्ह भी है. पुरुष सब अवतार हैं, लेकिन श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम हैं, उत्तम, अंतिम। उच्च में तम् प्रत्यय हुआ 'उत्' ऊँचाई में, 'तम्' सर्वश्रेष्ठ। सर्वोच्च। तो ये रास का अर्थ हुआ।

आनंद में भी अनेक स्तर हैं। जैसे माया के क्षेत्र में अनेक स्तर हैं - तमोगुण, रजोगुण, सत्वगुण। ऐसे ही आनंद के क्षेत्र में भी अनेक स्तर हैं - जैसे ज्ञानियों का ब्रम्हानंद। आनंद जो है वह अनंत मात्रा का होता है दिव्य होता है, सदा के लिए होता है। तो वो आनंद जिसे परमानंद, दिव्यानंद, ईश्वरीय आनंद कहते हैं, वह ज्ञानियों को मिलता है। वो सबसे निम्न कक्षा का आनंद है। आनंद और निम्न कक्षा ये दो विरोधी बातें लगती हैं। ईश्वरीय आनंद अनंत मात्रा का होता है, अनिर्वचनीय होता है, शब्दों में उसका निरुपण नहीं हो सकता। न कोई कल्पना कर सकता है मन, बुद्धि से। इन्द्रिय, मन, बुद्धि की वहाँ गति नहीं है। वो भूमा है। फिर भी आनंद के जितने स्तर हैं उनमे सबसे निम्न स्तर है ज्ञानियों का ब्रम्हानंद - निर्गुण, निर्विशेष, निराकार ब्रम्हानंद। इसके बाद फिर सगुण साकार का आनंद प्रारम्भ होता है। उसमें भी अनेक स्तर हैं - शान्त भाव का प्रेमानंद, उससे ऊँचा दास्य भाव का प्रेमानंद, उससे ऊँचा सख्य भाव का प्रेमानंद, उससे अधिक सरस वात्सल्य भाव का प्रेमानंद, उससे अधिक सरस माधुर्य भाव का प्रेमानंद।

माधुर्य भाव में भी 3 स्तर हैं। सकाम माधुर्यभाव के प्रेमानंद का स्तर उन तीनों में निम्न कक्षा का है। उसे साधारणी रति (जिसमें श्रीकृष्ण से अपने ही सुख के लिए प्यार किया जाय, उन्हें मिलने वाला आनंद) का प्रेमानंद कहते हैं और समञ्जसा रति (जिसमें अपने और श्रीकृष्ण दोनों के सुख का ध्यान रखा जाय, उन्हें मिलने वाला आनंद) का प्रेमानंद उससे उच्च कक्षा का है और समर्था रति (जिसमें एकमात्र श्रीकृष्ण के सुख के लिए उनसे प्यार किया जाय, जैसे बृज की गोपियाँ, उन्हें मिलने वाला आनंद) का आनंद सर्वोच्च कक्षा का है। तो समर्थारति का प्रेमानंद जिनको मिलता है, सिद्ध महापुरुषों में भी अरबों खरबों में किसी एक को मिलता है वो। उस रस को महारास के रुप में 'शरत्पूर्णिमा' के दिन 5000 हजार वर्ष पहले राधाकृष्ण ने जीवों को वितरित किया था। इसलिए यह पर्व सर्वोत्कृष्ट पर्व है।

(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)

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…..........और हमारा यह सौभाग्य भी !!!!!
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु अवतरण दिवस ::: जगदगुरुत्तम दिवस

हम बड़भागी जीवों के लिए इस पर्व का महत्त्व और बढ़ गया है क्योंकि सन् 1922 शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में ही एक ऐसे अलौकिक महापुरुष का अवतरण इस धराधाम पर हुआ जिसने भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को अपनी दिव्य प्रतिभा एवं स्नेहमय व्यक्तित्त्व से आश्चर्यचकित किया है। यह परमाचार्य जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ही हैं जिन्होंने विश्व में धार्मिक क्रान्ति लाई। भारत की अमूल्य सम्पदा शास्त्रों वेदों के दुर्लभ ज्ञान को साधारण भाषा में जन जन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने अहर्निश प्रयत्न किया है। भारत जिन कारणों से सदा से विश्वगुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है उसके मूलाधार में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ही हैं। राधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरुप गुरुवर ने अपने दिव्य सन्देश द्वारा दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से तप्त भगवद् बहिर्मुख जीवों को श्रीकृष्ण सन्मुख करने का भरसक प्रयास किया है जिससे वे श्रीकृष्ण भक्ति द्वारा उस सर्वोच्च रस के अधिकारी बन सकें जो शरत्पूर्णिमा के दिन श्रीकृष्ण ने सौभाग्यशाली अधिकारी जीवों (बृजगोपियों) को प्रदान किया था।

ऐसे परम कृपामय, प्रेममय भक्तिरस के अवतार जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज का यह प्राकट्य दिवस शरत्पूर्णिमा ही 'जगद्गुरुत्तम् जयंती' के रुप में मनाया जाता है। शरत्पूर्णिमा तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है ही, आचार्य श्री ने इस दिन अवतार लेकर इसकी महत्ता को अनंताधिक कर दिया है।

० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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