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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन, जो कि भगवत्प्रेमपिपासु जनों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है, आइये इन शब्दों को हृदयंगम करें....(पिछले भाग से आगे)यह जो आंसू आप बहाते हैं, भगवान के लिये साधना के समय, यह आंसू इसलिये हैं कि असली आंसू मिल जायें। यानी हम जो मन का अटैचमेंट करते हैं, जो विरह की फीलिंग होती है, हमको मिलन के लिये, यह प्रेम नहीं है। यह तो याचना का एक रुप है।जैसे हम ठीक-ठीक कोई चीज मांगें नॉर्मल होकर के अहंकाररहित होकर, तो वह धनी हमको सामान दे देता है। तो हृदय की गंदगी को साफ करने के लिये आपको अभी आंसू बहाना है। यह अहंकार नहीं करना है कि ऐसे ही आंसू आते होंगे उधर भी। सिद्ध पुरुषों के आंसू प्रेमाश्रु हैं, दिव्य प्रेम उनको मिल जाता है उससे सात्विक भाव होते हैं। अभी हम लोगों को जो कुछ मिल जाता है गुरु कृपा हरि कृपा से, इससे अपना अहंकार न बढ़ावें।सात्विक अश्रु तो प्रेमाभक्ति की प्राप्ति पर ही आते हैं। यह सिद्धावस्था की बात है। साधनावस्था के सबसे अच्छे आंसू वह कहे जाते हैं, जो भगवान के मिलन अथवा वियोग में आते हैं। इसके नीचे के भी आंसू होते हैं जो अपने को अधम पतित मानने से आते हैं। एक गलत आंसू भी होता है। जैसे यशोदा जो अपने लाला के लिये तड़प रही है। किसी मां को उसका ध्यान करते-करते अपने लड़के की याद आ गई और वह रोने लगी - यह गलत आंसू है।(समाप्त)( प्रवचन स्त्रोत- आध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 2005 अंक से।सर्वाधिकार सुरक्षित - जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन, जो कि भगवत्प्रेमपिपासु जनों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है, आइये इन शब्दों को हृदयंगम करें....
- (प्रथम भाग)
यदि श्यामसुन्दर के लिये तुम एक आंसू बहाते हो तो वो तुम्हारे लिये हजार आंसू बहाते हैं। काश कि मेरी इस वाणी और तुम विश्वास कर लेते, तो आंसू बहाते न थकते।अरे! इसमें तुम्हारा क्या खर्च होता है? इसमें क्या कुछ अक्ल लगाना है? क्या इसके लिये कुछ साधना करनी है? क्या इसमें कोई मेहनत है? क्या यह कोई जप है? आंसू उनको इतने प्रिय हैं, और तुम्हारे पास फ्री हैं। क्यों नहीं उनके लिये बहाते हो? निर्भय होकर उनसे कहो कि, तुम हमारे होकर भी हमें अभी तक क्यों नहीं मिले? तुम बड़े कृपण हो, बड़े निष्ठुर हो, तुमको जरा भी दया नहीं आती। हमारे होकर भी हमें नहीं मिलते हो। इस अधिकार से आंसू बहाओ।हम पतित हैं, हम अपराधी हैं तो क्या हुआ? हम पतित हैं, तो तुम पतितपावन हो, फिर अभी तक क्यों नहीं मिले? इतना बड़ा अधिकार है, तभी तो वह तुम्हारे एक आंसू बहाने पर हजार आंसू बहाते हैं।हम लोग जो भजन कीर्तन साधना करते हैं उसमें एक बहुत बड़ी बीमारी है। जरा से आंसू निकल गये, जरा सा रोमांच हो गया, जरा सा ध्यान लग गया तो हम अपने को समझने लगते हैं कि हम भी एक गोपी बन गये। अभी आप को पता ही नहीं है आंसू कितने प्रकार के होते हैं? अभी लाखों करोड़ों आंसू आप बहायेंगे तब असली आंसू पाने की बात बनेगी। यह जो आंसू आप बहाते हैं, भगवान के लिये साधना के समय, यह आंसूू इसलिये हैं कि असली आंसू मिल जाएं।(शेष प्रवचन कल के दूसरे भाग में..)(प्रवचन स्त्रोत-आध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 2005 अंक से।)(सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।) -
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन
- (पिछले भाग से आगे)
मान-अपमान के गर्त से निकलना होगा। इसे छोडऩा होगा नहीं तो हमारा जो भविष्य है, परलोक, वो बिगड़ जायेगा। और वर्तमान में भी परेशान रहेंगे। वर्तमान भी दु:खमय और भविष्य भी हानिकारक।अगर इसी प्रकार मान-अपमान के चक्कर में पड़े रहे, तो अभी तो आपस में मान-अपमान की बीमारी है, फिर संत और भगवान का भी अपमान करेंगे। इसलिये हमें इसको छोड़कर निरंतर भगवत्प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। जब श्यामसुन्दर स्वयं अपने पीताम्बर से हमारे आँसू पोंछकर हमें सम्मानित करेंगे तब वो दिन हमारे लिये सम्मान का दिन होगा। उस दिन मानव-देह का मूल्य चुक जायेगा।कोई अच्छा है, या बुरा है उसको छूना नहीं है, अंदर से उसको नहीं छूना है। यह मन, संसार को छूने के लिये नहीं है, इस मन से तो भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम और जन (संत, भक्त) को छूना है। इसलिये मान-अपमान दोनों को छोड़कर भगवान का स्मरण करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।जब आप भगवान को प्राप्त कर लेंगे तो मान-अपमान सब एक हो जायेगा। निंदा स्तुति उभय सम। तब निंदा-स्तुति दोनों एक समान लगती है। लेकिन भगवत्प्राप्ति से पहले हम वन्दनीय नहीं हैं, निन्दनीय भले ही हैं। तो अगर कोई निन्दनीय कहता है हमें, तो वो हमारा हितैषी है। जब सबके बारे में सोचना भी नहीं है।(समाप्त)(प्रवचन संदर्भ -अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत) -
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन-
- (पिछले भाग से आगे)
भक्त लोग जिस प्रकार से राम कहते हैं और राम सामने आकर खड़े हो जाते हैं, इसी प्रकार जब हम क्रोध करते हैं तो क्रोध भी आकर खड़ा हो जाता है।आप कहते हैं - रावण अहंकारी था। लेकिन रावण में इतना बल था कि यमराज भी उसके यहाँ नौकरी करता था। ब्रम्हा उसके यहाँ वेद पढऩे के लिये आता था। अगर वो अहंकार करे तो क्या बुरा करता था, उसके पास तो स्प्रिचुअल पॉवर थी। शंकर जी को सिर काटकर चढ़ाता था। लेकिन आज का मनुष्य, न कुछ होते हुये भी, अपने को सब कुछ समझता है।तो अगर हम राग-द्वेष, मान-अपमान को छोड़ देंगे तो फिर फैक्ट बुरा नहीं लगेगा। किसी के कामी, क्रोधी, मोही कहने पर हम कुछ भी बुरा नहीं मानेंगे। क्योंकि अनंत जन्मों के कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हैं और जब तक भगवत्प्राप्ति न हो जायेगी, तब तक रहेंगे। इसलिये अगर कोई दोष बताता है तो यही समझो कि वह हमारा हितैषी है। तुलसीदास जी इसीलिये कहते हैं - निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाय ।किसी आदमी ने अपमान किया और आपको गुस्सा आया भीतर से, लेकिन चुप हो गये और चले आये। यह उससे अच्छा है जो अन्दर गुस्सा आया और जवाब दे दिया। यह जबान ऐसी चीज है जो बाहर तो नुकसान पहुंचाती ही है, भीतर भी पहुंचाती है। कैसे? आपने कहा देखकर चलो, दूसरे ने कहा बोलने की तमीज भी है? इसी पर मारपीट मुकदमेबाजी हो गई।आपने जबान खोली और दूसरे ने चप्पल मार दी, लेकिन चप्पल तब पड़ी, जब आपने जबान खोली। जबान को आपने नहीं सहा, लेकिन चप्पल को सहा। दशरथ जी, अपनी जबान से दो वरदान दे गये और उसके कारण सारी रामायण बन गई। अपने आप को समझा लीजिये तो काम बन जायेगा। ये जो दोनों का बोलना है, वही खतरनाक है और वही आपका शारीरिक, मानसिक नुकसान कर रहा है।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)प्रवचन संदर्भ: अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।-- -
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन
(पिछले भाग से आगे)लक्ष्य तक पहुंचने के लिये मान-अपमान की बात पहले छोडऩी होगी। अगर हम निर्दोष हैं और कोई हमें सदोष कहता है, तो उस ओर अगर हम एतराज करते हैं, तो हम सदोष हो गये। अगर किसी अच्छे आदमी की कोई बुराई करे और वह उसको बुरी लग गई, तो एक सदोष शब्द ने जब इतनी गड़बड़ी पैदा कर दी तो इससे मालूम होता है कि अंदर कितनी बुराई भरी पड़ी है।इतना बड़ा दोष अंदर भरा हुआ था, लेकिन थोड़ा ही निकला। एक शब्द में इतना असर किया कि इतना दोष निकल आया। तो देखिये, अगर हम निर्दोष हैं और कोई हमें सदोष कह देता है, तब भी अगर हम निर्दोष बने रहते हैं तब तो हम निर्दोष हैं, लेकिन अगर निन्दनीय कहने से हम निन्दनीय बन जाते हैं, तो निन्दनीय हो गये।किसी हवलदार को हवलदार और स्त्री को स्त्री कह दीजिये, लेकिन वे बुरा नहीं मानेंगे। इसलिये जब हम कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हैं तो फिर किसी के कहने का बुरा क्यों मानते हैं? भगवत प्राप्ति से पहले कौन सा ऐसा अवगुण है जो हमारे अन्दर नहीं है? ये सारे विकार (काम, क्रोध आदि) भगवत्प्राप्ति पर ही जायेंगे, उससे पहले हम समस्त अवगुणों की खान हैं।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)( प्रवचन संदर्भ : अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।) - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन(पिछले भाग से आगे)मान अपमान ये दोनों ही बहुत खतरनाक है, इसलिये दोनों को छोडऩा होगा। मान-अपमान दोनों ही न चाहें। अपमान न चाहने का मतलब कि जब हमें अपमान मिले तो हम उसको पकड़ें ना, ऐसा करने से हम कभी अशान्त नहीं होंगे और मान मिले तो भी, उसको भी नहीं पकडऩा है। उसको नहीं पकड़ेंगे तो अहंकार नहीं होगा। अगर दोनों में से एक को भी पकड़ा तो क्या होगा?तो फिर मन में मान या अपमान भर जायेगा। तो उस मन से फिर हम भगवान को कैसे पकड़ सकेंगे? एक ही तो मन है, चाहे उसमें मान-अपमान को रख लें, या भगवान को बिठा लें। एक मन में एक समय में एक ही चीज रह सकती है।युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम।दोनों चीजें एक साथ, एक ही मन में नहीं रह सकतीं। तो अगर इस मन में मान भरा तो भी खतरा, अपमान भरा तो भी खतरा। किसी दुश्मन को आप दु:खी करना चाहते हैम इसलिये उसका अपमान करते हैं। यानि उसके प्रति आपके मन में द्वेष है। राग-द्वेष दोनों ही हानिकारक है। जितनी मात्रा में राग हानिकारक है, उतनी ही मात्रा में द्वेष हानिकारक है। हमें राग-द्वेष दोनों से रहित होना है।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)(प्रवचन संदर्भ- अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।)
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- नाग पंचमी पर विशेष
आज नाग पंचमी का पर्व मनाया जा रहा है। प्राचीन काल से ही भारत में नागों की पूजा की परंपरा रही है। माना जाता है कि 3000 ईसा पूर्व आर्य काल में भारत में नागवंशियों के कबीले रहा करते थे, जो सर्प की पूजा करते थे। उनके देवता सर्प थे। यही कारण था कि प्रमुख नाग वंशों के नाम पर ही जमीन पर रेंगने वाले नागों के नाम पड़े थे।पुराणों के अनुसार कश्मीर में कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उन्हें आठ पुत्र मिले थे, जिनके नाम थे- अनंत (शेषनाग), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक।कश्मीर का अनंतनाग इलाका अनंतनाग समुदायों का गढ़ था। उसी तरह कश्मीर के बहुत सारे अन्य इलाके भी कद्रु के दूसरे पुत्रों के अधीन थे। कुछ अन्य पुराणों के अनुसार नागों के प्रमुख पांच कुल थे- अनंत, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला। जबकि कुछ और पुराणों ने नागों के अष्टकुल बताये हैं- वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड़, महापद्म और धनंजय।अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं। नागों का पृथक् नागलोक पुराणों में बताया गया है। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। जैन, बौद्ध देवताओं के सिर पर भी शेष छत्र होता है। असम, नागालैंड, मणिपुर, केरल और आंध्र प्रदेश में नागा जातियों का वर्चस्व रहा है। भारत में इन आठ कुलों का ही क्रमश: विस्तार हुआ, जिनके नागवंशी रहे थे- नल, कवर्धा, फणि-नाग, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि तनक, तुश्त, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अहि, मणिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना, गुलिका, सरकोटा इत्यादि।कृष्ण काल में नाग जाति ब्रज में आकर बस गई थी। इस जाति की अपनी एक पृथक् संस्कृति थी। कालिया नाग को संघर्ष में पराजित करके श्रीकृष्ण ने उसे ब्रज से निर्वासित कर दिया था, किंतु नाग जाति यहां प्रमुख रूप से बसी रही। मथुरा पर उन्होंने काफ़ी समय तक शासन भी किया।नागसेन आदिनाग नरेश ब्रज के इतिहास में उल्लेखनीय रहे, जिन्हें गुप्त वंश के शासकों ने पराजित किया था। नाग देवताओं के अनेक मंदिर आज भी ब्रज में विद्यमान हैं।इतिहास में यह बात प्रसिद्ध है कि महाप्रतापी गुप्तवंशी राजाओं ने शक या नागवंशियों को परास्त किया था। प्रयाग के किले के भीतर जो स्तंभलेख है, उसमें स्पष्ट लिखा है कि महाराज समुद्रगुप्त ने गणपति नाग को पराजित किया था। इस गणपति नाग के सिक्के बहुत मिलते हैं।महाभारत में भी कई स्थानों पर नागों का उल्लेख है। पांडवों ने नागों के हाथ से मगध राज्य छीना था। खांडव वन जलाते समय भी बहुत से नाग नष्ट हुए थे।जनमेजय के सर्प-यज्ञ का भी यही अभिप्राय मालूम होता है कि पुरुवंशी आर्य राजाओं से नागवंशी राजाओं का विरोध था। इस बात का समर्थन सिकंदर के समय के प्राप्त वृत्त से होता है। जिस समय सिकंदर भारत में आया, तब उससे सबसे पहले तक्षशिला का नागवंशी राजा ही मिला था। उस राजा ने सिकंदर का कई दिनों तक तक्षशिला में आतिथ्य किया और अपने शत्रु पौरव राजा के विरुद्ध चढ़ाई करने में सहायता पहुँचाई। सिकंदर के साथियों ने तक्षशिला में राजा के यहां भारी-भारी सांप पले देखे थे, जिनकी नित्य पूजा होती थी। यह शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती भी अपनी भाषा को नागभाषा कहते हैं।पुराणों में वर्णित प्रमुख नाग हैं-1. शेषनाग- शेषनाग के बारे में कहा जाता है कि इसी के फन पर धरती टिकी हुई है यह पाताल लोक में ही रहता है। चित्रों में अक्सर हिंदू देवता भगवान विष्णु को शेषनाग पर लेटे हुए चित्रित किया गया है। मान्यता है कि शेषनाग के हजार मस्तक हैं। दो मुंह वाला सर्प तो आम बात हैं। शेष को ही अनंत कहा जाता है ये कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी और प्रथम नागराज थे। कश्मीर के अनंतनाग जिला इनका गढ़ था।2. वासुकी- नागों के दूसरे राजा वासुकी का इलाका कैलाश पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। पुराणों अनुसार वासुकी नाग अत्यंत ही विशाल और लंबे शरीर वाले माने जाते हैं। समुद्र मंथन के दौरान देव और दानवों ने मंदराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी को ही नेती (रस्सी) बनाया था।3. तक्षकृ- तक्षक ने शमीक मुनि के शाप के आधार पर राजा परीक्षित को डंसा था। उसके बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने नाग जाति का नाश करने के लिए नाग यज्ञ करवाया था। माना जाता है कि तक्षक का राज तक्षशिला में था।4. कर्कोटक- कर्कोटक और ऐरावत नाग कुल का इलाका पंजाब की इरावती नदी के आसपास का माना जाता है। कर्कोटक शिव के एक गण और नागों के राजा थे। नारद के शाप से वे एक अग्नि में पड़े थे, लेकिन नल ने उन्हें बचाया और कर्कोटक ने नल को डस लिया, जिससे राजा नल का रंग काला पड़ गया। लेकिन यह भी एक शाप के चलते ही हुआ तब राजा नल को कर्कोटक वरदान देकर अंतध्र्यान हो गए। शिवजी की स्तुति के कारण कर्कोटक जनमेजय के नाग यज्ञ से बच निकले थे और उज्जैन में उन्होंने शिव की घोर तपस्या की थी। कर्कोटेश्वर का एक प्राचीन उपेक्षित मंदिर आज भी चौबीस खम्भा देवी के पास कोट मोहल्ले में है। वर्तमान में कर्कोटेश्वर मंदिर हरसिद्धि के प्रांगण में है।5. पद्म- पद्म नागों का गोमती नदी के पास के नेमिश नामक क्षेत्र पर शासन था। बाद में ये मणिपुर में बस गए थे। असम के नागावंशी इन्हीं के वंश से है।इसके अलावा 6. महापद्म, 7. शंख और 8. कुलिक नामक नागों के कुल का उल्लेख भी मिलता है। उक्त सभी के मंदिर भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों पर पाए जाते हैं।-- - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन, यह न केवल आध्यात्म जगत, वरन सांसारिक जगत, दोनों ही के लिये अति आवश्यक विषय है। अत: इसके पांचों भागों को चिंतन-मननपूर्वक पठन करें।मान अपमानदेखिए! ईश्वर प्राप्ति में बहुत से बाधक तत्व होते हैं। जैसे शरीर को स्वस्थ रखने में बहुत सी सावधानी बरतनी पड़ती है। जरा सी असावधानी भी हमारे शरीर, हमारी मशीन को गड़बड़ कर देती है। कोई व्यक्ति अच्छा खासा खा-पी रहा है, लेकिन अगर ऐसी जगह खड़ा हो गया, जहां रोग के कीटाणु हैं, तो रोग हो सकता है। ऐसे ही ईश्वर प्राप्ति में बहुत सी चीजें बाधक हो जाती हैं। लेकिन इनमें जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वह - मान अपमान।मान और मान का उल्टा अपमान। हमारा मन इन दोनों चीजों को पकड़े हुये है। मान अपने लिये चाहता है, इसलिये दूसरों का अपमान करता है। कोई मनुष्य मान क्यों चाहता है? क्योंकि दूसरों का अपमान चाहता है। और अपमान क्यों चाहता है? इसलिये कि अपना मान चाहता है। अगर व्यक्ति स्वयं मान न चाहे तो दूसरों के अपमान की बीमारी पैदा ही न हो।एक तरकीब है, जिससे इन दोनों खतरनाक चीजों को हम रखे भी रहें और काम भी बन जाये, वो क्या? जो दूसरों के लिये चाहते हो वो अपने लिये चाहो और जो अपने लिये चाहते हो वो दूसरों के लिये चाहो। यानी दूसरों के लिये अपमान चाहते हो, वो अपने लिये चाहो और अपने लिये मान चाहते हो, वो दूसरों के लिये चाहो। बस, भगवत्प्राप्ति हो जायेगी।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)(प्रवचन संदर्भ -अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत)
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'क्रोध' पर दिया गया संक्षिप्त प्रवचन :
क्रोध आया कि सर्वनाश हुआ। बदतमीज कहने पर बदतमीज बन गये। आप इतने मूर्ख हैं कि एक मूर्ख ने 'मूर्ख' कहकर आपको मूर्ख बना दिया।
आपमें जो समझदारी थी वो छिन गई। देखिये संत और भगवान को लोग कितना भला-बुरा कहते हैं लेकिन वे उसको अंदर ही नहीं ले जाते। इसी का नाम समझदारी है। किसी में जो अच्छी चीज है उसको ले लीजिये और खराब चीज को छोड़ दीजिये। अंदर वाली गंदगी को निकाल दीजिये और बाहर वाली अच्छाई को ले लीजिये।
समझदार उसी को कहते हैं जो नासमझ की नासमझी से अपनी समझदारी को खो ना दे। नासमझ की नासमझी उस पर हावी न हो पाये। अगर समझदार ने भी नासमझी की, तो फिर वो भी नासमझ बन गया। किसी विद्वान को किसी ने 'मूर्ख' कह दिया और वे अगर उससे लड़ गये तो वे दोनों ही मूर्ख हैं। साथ में तमाशा देखने वाले भी मूर्ख हैं।
जो अंदर भरा होता है वही तो अच्छा भी लगता है और उसी को व्यक्ति स्वीकार करता है। इससे मालूम पड़ जाता है कि आपके अंदर क्या कूड़ा भरा है। अखबार पढ़ा तो पढ़ा कि कहाँ किसने चोरी की? कहाँ कत्ल हुआ? बस उसी को पढ़ा, अब उसी का चिंतन मनन और कीर्तन किया और वैसे ही बन गये।
(जगद्गुरु कृपालु परिषत की साधन साध्य पत्रिका के मार्च 2005 अंक में प्रकाशित, सर्वाधिकार - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा हरियाली-तीज पर प्रगट किये गये दोहे एवं भावहरियाली तीज पर हे गोविन्द राधे।जित देखूं हरि हरि ही दिखा दे।।
हरियाली तीज पर हे गोविन्द राधे।हरि बोलूं, हरि देखूं, हरि ही सुना दे।।
हरियाली तीज पर हे गोविन्द राधे।हरि मिलन की कामना उर में बढ़ा दे।।
हरिहूं की हरितायी गोविन्द राधे।हिय हर्षित करि हरिहूं बना दे।।
आज हरियाली तीज है गोविन्द राधे।तन मन धन तीनों हरि पै लुटा दे।।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा विरचित दोहे)समझने के लिये सरल अर्थ- हरियाली तीज पर एक भगवत्प्रेम पिपासु जीव अपने भगवान और गुरु से याचना कर रहा है कि हे हरि-गुरु! ऐसी कृपा करो कि मुझे ऐसी दृष्टि प्राप्त हो कि मैं जिधर नजर डालूं, उधर-उधर ही मुझे आपके (हरि-गुरु) दर्शन हों। मैं केवल आपके नाम एवं गुणों का ही गान करता रहूं, आपकी ही रसमयी चर्चा सुनता रहूं। हे करुणासिन्धु! ऐसी कृपा करो कि नित्य ही मेरे हृदय में आपके प्रेम एवं सेवप्राप्ति की लालसा बढ़ती ही जाय।आज हरियाली तीज है। इस अवसर पर बारम्बार अपनी बुद्धि को स्मरण दिला रहा हूं कि यह तन, मन और धन सब एकमात्र हरि-गुरु की सेवा में ही समर्पित करना है। जिनके हृदय में हरि ही हरि सम्पूर्ण रुप से छा जाते हैं, उनका हृदय तो सदा ही प्रसन्नता से छलकता रहता है, उसका सब कुछ हरिमय ही हो जाता है।(सभी दोहे जगद्गुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित किये गये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के ग्रंथ साहित्यों से हैं। सभी साहित्य राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के सर्वाधिकार में हैं।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा हरियाली-तीज पर प्रगट किये गये दोहे एवं भावआली हरियाली तीज गोविन्द राधे।चलो लाली लाल को झूला झुला दें।।
आली हरियाली तीज गोविन्द राधे।चलो लाली लाल हाथ मेहंदी रचा दें।।
आली हरियाली तीज गोविन्द राधे।चलो लाली लाल को मल्हार सुना दें।।
हरियाली तीज पर गोविन्द राधे।उर बिच झूला डार झुला दे।।
सब पर्व लक्ष्य एक गोविन्द राधे।जग से हटा के मन हरि में लगा दे।।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा विरचित दोहे)सरल अर्थ - ब्रजधाम में एक सखी (गोपी) अपने अन्य सखियों से कह रही है कि सखी! देखो हरियाली तीज आ गई है। सब ओर हरियाली ही हरियाली छाई है। आओ हम सब कुंज लताओं में, कदम्ब पर झूला डालें। झूला डालकर हम सभी प्रिया-प्रियतम (राधाकृष्ण) को मिलकर झूला झुलायें। कोई-कोई सखी उनके हाथों पर सुन्दर सी मेहंदी रचेंगी और कोई-कोई सखियां उन्हें मल्हार आदि रागों में सुन्दर गीत सुनायेंगी और उन्हें सुख पहुंचायेंगी।सभी पर्वों का एकमात्र लक्ष्य यही होता है कि हम अपने मन को, जो कि संसार में लगा हुआ है, आसक्त है, उसे वहां से हटाकर बार-बार भगवान में लगाने का अभ्यास करें। पर्व एवं त्यौहारों का यही उद्देश्य है। इस हरियाली तीज पर हम अपने आराध्य भगवान श्रीराधा-कृष्ण को अपने हृदय-कुंज में पधारकर, भाव हृदय में ही झूला डालकर उन्हें झूला झुलाएं एवं उनको सुख प्रदान करें।(सभी दोहे जगद्गुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित किये गये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के ग्रंथ साहित्यों से हैं। सभी साहित्य राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के सर्वाधिकार में हैं।) - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनों में से 5 अनमोल वचन(1) परमार्थ का जो भी काम करो उसमें ये समझो कि ये भगवान और गुरु की कृपा ने करा लिया, वरना मैं करता भला?(2) ये मन दुश्मन है, इससे सदा सावधान रहो। मन को सदा हरि गुरु के चिंतन में लगाये रहो तो मन शुद्ध होगा। भगवान कहते हैं सदा सर्वत्र मेरा स्मरण करते रहो ताकि मरते समय मेरा स्मरण हो और तुम्हें मेरा लोक मिले, मेरी सेवा मिले।(3) भगवान की सेवा से भगवान की कृपा मिलेगी, उनका प्यार मिलेगा, अंत:करण शुद्ध होगा और वे तुम्हारा योगक्षेम वहन करेंगे।(4) जिस किसी भी संग के द्वारा हमारा भगवद्विषय में मनबुद्धि-युक्त लगाव हो वही सत्संग है। इसके अतिरिक्त समस्त विषय कुसंग है।(5) किसी नास्तिक को भी देखकर मिथ्याभिमान न करना चाहिये कि यह तो कुछ नहीं जानता, मैं तो बहुत आगे बढ़ चुका हूं।(सभी वचन जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत है। ये जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के सर्वाधिकार में प्रकाशित साधन साध्य पत्रिका से लिये गये हैं।)
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा आध्यात्मिक प्रश्न एवं शंकाओं का समाधान
1. सोचो कि हमारे शरण्य (हरि-गुरु) को इससे कष्ट होगा इसलिये हम ऐसा काम क्यों करें?2. अपनी गलती को मान लो। अपनी गलती न होने पर भी अपनी गलती मान लो।3. बोलो मत। अन्दर जितनी देर तक गुस्सा आये उसको विवेक से काटते रहो क्योंकि बोलने से दूसरों का नुकसान भी होता है और अपना क्रोध भी बढ़ता है।4. अगर कोई हमको बुरा-भला भी कहता है तो सोचो कि इसमें कौन-सी नई बात कह दी है। भगवत प्राप्ति के पहले हममें सब अवगुण ही तो भरे पड़े हैं फिर फैक्ट को मानने में हमें बुरा क्यों लग रहा है?(स्त्रोत- प्रश्नोत्तरी पुस्तक, सर्वाधिकार- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली एवं जगद्गुरु कृपालु परिषत के अंतर्गत) - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक दिव्य चरित्र एवं महानोपकारों की श्रृंखलाबद्ध गाथा...हिन्दू धर्म ग्रंथ वेद, शास्त्र, पुराण, भागवत, गीता, रामायण इत्यादि भारत की आध्यात्मिक परम निधि हैं। इस संपत्ति के कारण ही भारत विश्व गुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है। कोई कितना ही वैभवशाली देश हो जाए, टैक्नालॉजी कितनी भी एडवांस हो जाए, लेकिन उनके पास कोई ऐसी तरकीब नहीं है जो अंदर की मशीन (अंत:करण) की गड़बड़ी को समाप्त कर दे।एक बार भारत में अमेरिका के राष्ट्रपति आइसन हॉवर का दौरा हुआ था, तो उन्होंने अपने भाषण में यह कहा कि भगवान ने हमको भौतिक शक्ति दी है (मटीरियल) लेकिन जब तक गॉड हमको सद्बुद्धि न दे उसका सदुपयोग नहीं हो सकता। इसलिए सद्बुद्धि के अभाव में, आध्यात्मवाद के अभाव में, अब उसका दुरुपयोग भी हो रहा है।जितना छल-कपट, दांव-पेंच, चार सौ बीसी, दुराचार, भ्रष्टाचार, पापाचार सब संसार में चल रहा है, ये सब आध्यात्मवाद की कमी के ही कारण है। ये जितने अपराध बढ़ते जा रहे हैं, उसका कारण आध्यात्मवाद का ह्रास ही है।हमारे भारत के पास वह खजाना है जो पूरे विश्व में किसी भी देश में नहीं है। विदेशी फिलॉसफरों ने भी उपनिषद की भूरि भूरि प्रशंसा की है। शोपेनहावर बहुत बड़े विदेशी फिलॉसफर ने उपनिषद की प्रशंसा करते हुये कहा कि यह अद्वितीय है, इसके मुकाबले का कोई भी ग्रन्थ विश्व में नहीं है। जर्मनी के फैडरिक मैक्समूलर ने भी उसका समर्थन किया और कहा कि उपनिषद का ज्ञान सूर्य के समान है और पाश्चात्य देशों के सब ज्ञान सूर्य की किरण के समान हैं।(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)
- शिव हिंदू धर्म ग्रंथ पुराणों के अनुसार भगवान शिव ही समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता हैं। शिव के 1008 नाम हैं जिन्हें शिव सहस्त्रनाम कहा जाता है। इसका महत्व पुराणों में विशेष रूप से वर्णित है। विष्णु सहस्त्रनाम की तरह शिव सहस्त्र नाम भी अत्यंत पुण्यदायक है। महाशिवरात्रि, श्रावण मास, सोमवार और प्रदोष पर इनका पाठ हर तरह की परेशानियां दूर करता है।शिव नके अनेक रूपों में उमा-महेश्वर, अद्र्धनारीश्वर, पशुपति, कृत्तिवासा, दक्षिणामूर्ति तथा योगीश्वर आदि अति प्रसिद्ध हैं। भगवान शिव की ईशान, तत्पुरुष, वामदेव, अघोर तथा अद्योजात पांच विशिष्ट मूर्तियां और शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव- ये अष्टमूर्तियां प्रसिद्ध हैं।सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, केदारेश्वर, भीमशंकर, विश्वेश्वर, त्र्यंबक, वैद्यनाथ, नागेश, रामेश्वर तथा घुश्मेश्वर- ये प्रसिद्ध बारह ज्योतिर्लिंग हैं।भगवान शिव के प्रमुख नामनाम अर्थशिव कल्याण स्वरुपमहेश्वर माया के अधीश्वरशम्भु आंनद स्वरुप वालेपिनाकी पिनाक धानुष धारणशशिशेखर सिर पर चंद्र धारण करने वालेवामदेव अत्यंत सुन्दर स्वरुप धारण करने वालेविरूपाक्ष भौंडे आंख वालेकपर्दी जटाजूट धारण करने वालेनीललोहित नीले और लाल रंग वालेशर सबका कल्याण करने वालेशूलपाणि हाथ में त्रिशुल धारण करने वालेखट्वी खटिया का एक पाया रखने वालाविष्णुवल्लभ भगवान विष्णु के अतिप्रेमीशिपिविष्ट सितुहा में प्रवेश करने वालेअम्बिकानाथ भगवती के पतिश्रीकण्ठ सुन्दर कण्ठ वालेभक्तवत्सल भक्तों को अत्यन्त स्नेह करने वालेभव संसार के रूप में प्रकट होने वालेशर्व कष्टों को नष्ट करने वालेत्रिलोकेश तीनों लोकों के स्वामीशितिकण्ठ सफेद कण्ठ वालेशिवाप्रिय पार्वती के प्रियउग्र अत्यन्त उग्र रूप वालेकपाली कपाल धारण करने वालेकामारी कामदेव के शत्रुअन्धकासुरसूदन अंधक दैत्य को मारने वालेगङ्गाधर गंगा जी को धारण करने वालेकालकाल काल के भी कालकृपानिधि करुणा के खानभीम भयंकर रूप वालेपरशुहस्त हाथ में फरसा धारण करने वालेमृगपाणी हाथ में हिरण धारण करने वालेजटाधर जटा रखने वालेकैलाशवासी कैलास के निवासीकवची कवच धारण करने वालेकठोर अत्यन्त मजबूत देह वालेत्रिपुरान्तक त्रिपुरासुर को मारने वालेवृषांक बैल के चिन्ह वाली झ्ण्डा वालेवृषभारूढ बैल की सवारी वालेभस्मोद्धूलितविग्रह सारे शरीर में भस्म लगाने वालेसामप्रिय सामगान से प्रेम करने वालेस्वरमय सातों स्वरों में निवास करने वालेत्रयीमूर्ति वेदरूपी विग्रह वालेअनीश्वर जिसका और कोई मालिक नहीं हैसर्वज्ञ सब कुछ जानने वालेपरमात्मा सबका अपना आपासोमसूर्याग्निलोचन चन्द्र, सूर्य और अग्निरूपी आंख वाले :हवि आहुति रूपी द्रव्य वालेयज्ञमय यज्ञस्वरूप वाले
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित दोहा एवं उसकी व्याख्या :
कालि कालि जनि कहु गोविन्द राधे।
जाने काल कालि को ही आवन ना दे।।
कल से भजन करेंगे, कल से यही करेंगे। हाँ वेद कहता है -
न श्वः श्व उपासीत को हि पुरुषस्य श्वो वेद। (वेद)
कल करेंगे, कल करेंगे, कल भजेंगे, कल से यही करेंगे, ये बकवास बंद करो। यही करते-करते तो अनंत जन्म बीत गये, उधार-उधार।
कोहि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति। (महाभारत)
अरे एक सेकंड लगता है क्या प्राण निकलने में? बड़े-बड़े वैज्ञानिक, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, योगी, तपस्वी जो नया स्वर्ग बना सकते हैं, ऐसे विश्वामित्र वगैरह कहाँ हैं? सबको जाना पड़ा। भगवान को छोड़कर, किसी की हिम्मत नहीं है जो काल को चैलेंज कर सके और भगवान को भी तो जाना पड़ता है। लेकिन वो काल के आधीन होकर नहीं जाते, काल की प्रार्थना से जाते हैं।
जब ग्यारह हजार वर्ष पूरे हो गये राम के, तो यमराज आया और आकर के चरणों में प्रणाम करके कहता है - महाराज! याद दिलाने आया हूँ। आपने कहा था ग्यारह हजार वर्ष रहूँगा, तो मैं याद दिलाने आया हूँ और प्रणाम करके चला गया।
अरे! महापुरुष के पास भी यमराज आता है, आकर के बैठ जाता है तो महापुरुष उसके सिर पर पैर रखता है, तब आगे विमान में बैठता है। तो ये काल किसी को नहीं छोड़ता। सीधे नहीं टेढ़े, सबको जाना होगा। जाना नहीं चाहता कोई संसार से, अटैचमेंट है न, इसलिये मम्मी, पापा, बेटा, बेटी, नाती, पोता जो भी होते हैं उनको छोड़ के नहीं जाना चाहता। जानता है, सब छूटेंगे, फिर भी पहले नहीं छोड़ता अटैचमेंट।
अन्तहु तोहि तजेंगे पामर तू न तजै अबहिं ते।
अरे! ये सब छोड़ेंगे तेरा साथ। किसी का आज तक इतिहास में ऐसा नाम नहीं है जो सब साथ गये हों और अगर एक साथ चलें भी तो रास्ता सबका अलग-अलग होगा, है। आप कह सकते हैं छः अरब आदमी हैं एक सेकंड में दस मरे हैं, सारी दुनियाँ में। हाँ, एक साथ मरे दस, ठीक है, लेकिन उसके बाद क्या हुआ? सब अलग-अलग गये।
पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्। (प्रश्नोपनिषद 3-7)
सब अपने-अपने कर्म के अनुसार गये। इसलिये उधार नहीं करना।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा यह प्रवचन 25 अक्टूबर 2006 को भक्तिधाम मनगढ़ में दिया गया था। सर्वाधिकार 'राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली' के आधीन है।) - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भगवद्विषयों संबंधी प्रश्नों का समाधानप्रश्न- साधना भक्ति की परिपक्वता में तत्वज्ञान का क्या महत्व है?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा समाधान-मैंने तत्वज्ञान के बारे में बार-बार बतलाया है लेकिन आप लोग चिंतन नहीं करते, अत: भूल जाते हैं।यदि तत्वज्ञान साथ रहता है तो आप लोग अपराध नहीं कर सकते। कोई भी गन्दी बात सोच रहे हैं, तो ध्यान आयेगा अरे! श्यामसुन्दर नोट कर रहे हैं। इसी प्रकार गुरु के साथ भी आप लोग करते हैं। उनसे छल करके, छुप करके, प्राइवेसी रखकर ये अपराध किये जाते हैं परन्तु आपकी यह प्राइवेसी चल नहीं सकती। ये प्राइवेसी भक्तिमार्ग में बाधक है।भगवान सर्वव्यापक है किंतु ये विश्वास आप लोगों में से किसी को नहीं है। जिस दिन ये विश्वास आपको हो जायेगा, तब आपको लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी।अतएव तत्वज्ञान परमावश्यक है। इसमें लापरवाही न करना, न इसके महत्व को कम करके आँकना। प्रकृति क्या है? महान क्या है? अहंकार क्या है? पंचतन्मात्रा क्या है? पंचमहाभूत क्या है? राग द्वेष, अभिनिवेश क्या है? इत्यादि अनेकों तत्वज्ञान के विषय हैं परन्तु तत्वज्ञान सिर्फ तीन का ही पर्याप्त है - संबंध, अभिधेय, प्रयोजन। श्रीकृष्ण से हमारा क्या संबंध है? और उस संबंध को पूरा करने के लिये हमें क्या करना चाहिये? और क्यों करना चाहिये, इनका उद्देश्य क्या है? इत्यादि जितना जितना तत्वज्ञान परिपक्व होगा, उतना ही उतना आप भगवान के समीप पहुंचते जायेंगे।(यह प्रश्नोत्तर जगद्गुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित साधन साध्य पत्रिका के जुलाई 2012 अंक से ली गई है।)
- भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। धूप हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लेखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है।हेमादि ने धूप के कई मिश्रणों का उल्लेख किया है, जैसे अमृत, अनन्त, अक्षधूप, विजयधूप, प्राजापत्य, दस अंगों वाली धूप का भी वर्णन है। कृत्यकल्पतरु ने विजय नामक धूप के आठ अंगों का उल्लेख किया है। भविष्य पुराण का कथन है कि विजय धूपों में श्रेष्ठ है, लेपों में चन्दन लेप सर्वश्रेष्ठ है, सुरभियों (गन्धों) में कुंकुम श्रेष्ठ है, पुष्पों में जाती तथा मीठी वस्तुओं में मोदक (लड्डू) सर्वोत्तम है। कृत्यकल्पतरु ने इसका उदाहरण दिया है। धूप से मक्खियां एवं पिस्सू नष्ट हो जाते हैं।तंत्रसार के अनुसार अगर, तगर, कुष्ठ, शैलज, शर्करा, नागरमाथा, चंदन, इलाइची, तज, नखनखी, मुशीर, जटामांसी, कर्पूर, ताली, सदलन और गुग्गुल ये सोलह प्रकार के धूप माने गए हैं। इसे षोडशांग धूप कहते हैं। मदरत्न के अनुसार चंदन, कुष्ठ, नखल, राल, गुड़, शर्करा, नखगंध, जटामांसी, लघु और क्षौद्र सभी को समान मात्रा में मिलाकर जलाने से उत्तम धूप बनती है। इसे दशांग धूप कहते हैं।इसके अलावा भी अन्य मिश्रणों का भी उल्लेख मिलता है जैसे- छह भाग कुष्ठ, दो भाग गुड़, तीन भाग लाक्षा, पांचवां भाग नखला, हरीतकी, राल समान अंश में, दपै एक भाग, शिलाजय तीन लव जिनता, नागरमोथा चार भाग, गुग्गुल एक भाग लेने से अति उत्तम धूप तैयार होती है। रुहिकाख्य, कण, दारुसिहृक, अगर, सित, शंख, जातीफल, श्रीश ये धूप में श्रेष्ठ माने जाते हैं।
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(पिछले भाग से आगे...)देखो, जब आप लोग पैदा हुये तो करवट बदलना भी नहीं जानते थे। फिर करवट बदलना आ गया तो बैठना नहीं जानते थे। खड़ा होना आ गया तो चलना नहीं जानते थे। लेकिन सब हो गया अभ्यास से, तो ऐसे ही भगवान को हर जगह अपने साथ महसूस करने का अभ्यास करोगे तो अपने आप हो जायेगा।जब पहले दिन कोई लड़का साइकिल चलाना सीखता है तो बहुत घबड़ाता है। हैण्डिल संभालूं कि पैर चलाऊं, कि आगे पीछे देखूं क्या करुं? गिर जाते हैं बच्चे। लेकिन बाद में एक्सपर्ट हो जाते हैं, बहुत दिन चलाने के बाद एक हाथ में साइकिल है, एक हाथ में सामान है। पीछे भी देख रहे हैं, आगे भी देख रहे हैं। ऐसे हो हर काम अभ्यास से होता है। अर्जुन को भगवान ने यही बताया कि,अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।अभ्यास हर वैराग्य इन दो साधनों से मन शुद्ध होगा। वैराग्य माने? संसार से हटाओ, अभ्यास माने भगवान में लगाओ। हर समय लगाने का अभ्यास। आधा घंटा एक घंटा जो करते हो तुम, करो, ठीक है। लेकिन उसके बाद भी कहीं भी हो, दुकान पर बैठे हो, ऑफिस में काम कर रहे हो, सदा यह फीलिंग रहे भगवान हमारे अंत:करण में बैठे हैं और हमारे वर्क को नोट कर रहे हैं। उसको बार-बार सोचो और अभ्यास करो। अगर यह अभ्यास हो जाये तो भगवत प्राप्ति में कुछ नहीं करना -धरना।--
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(पिछले भाग से आगे...)भगवान सब जगह समान रुप से व्याप्त हैं। वह बद्रीनारायण वाले भगवान कोई बड़े भगवान हैं? आपकी बगल में भी मंदिर होगा मुहल्ले में, वहां क्या छोटे भगवान होते हैं? और आपके हृदय में हैं वह क्या कोई और भगवान हैं? वही एक भगवान हैं। उसको मानो। यह मानने का अभ्यास करना होगा, क्योंकि निरन्तर मानना होगा।जैसे अपनी मां को, अपने पिता को, अपनी पत्नी को, अपने पति को, अपने बेटे को हर समय मानते हो, ऐसे ही अपने प्रभु को भी सदा सर्वत्र रियलाइज करो, महसूस करो। ऐसा करने से भगवत्प्राप्ति करतलगत हो जायेगी, कुछ करना धरना नहीं है। और तुमने एक घंटा कीर्तन किया, भजन किया, पूजन किया हर 23 घंटा भूल गये। ऐसे तो पाप होगा। क्योंकि तुम स्वतंत्र हो गये, अब तुम्हें डर नहीं रहा भगवान का। अब तुमने यह नहीं माना कि हर समय हमारे साथ हैं। तो इसका अभ्यास करो। माना कि एक दिन में नहीं हो जायेगा, एक साल में होगा, दस साल में होगा, एक जन्म में होगा, दस जन्म में होगा, यह करना होगा। छुट्टी नहीं मिलेगी ऐसे।भगवान की प्राप्ति के बिना न माया जायेगी, न चौरासी लाख का चक्कर जायेगा। भले ही तुम पागलों की तरह बोलो, अरे! जो होगा देखा जायेगा। संसार में तो ऐसा कभी नहीं कहते। भूख लगी तो खाना चाहिये। अरे! हटाओ कौन खाये, ऐसा सोचा कभी? न। उसके लिये प्रयास करते हैं आप, चाहे जैसे हो, जहां से हो, सीधे न, टेढ़े हो, पाप करके भी पेट भरो। तो जब शरीर के लिये इतनी चिंता और प्रैक्टिस, ये सब करते हो तो आत्मा के लिये क्यों नहीं करते? उसको क्यों ऐसा समझ रखा है कि देखा जायेगा? तो हमको ध्यान से समझ कर और अभ्यास करना चाहिये, धीरे-धीरे, निराशा नहीं लानी चाहिये।(क्रमश:... शेष प्रवचन अगले भाग में)
- -विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(पिछले भाग से आगे...)वेद कहता है - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षम् परिषस्वजाते।आपके हृदय में आप और आपका भगवान दोनों बैठे हैं एक जगह, हृदय में। जीवात्मा के पीछे परमात्मा। जीवात्मा अच्छा बुरा कर्म करता है और परमात्मा नोट करता है। भगवान कहते हैं, तुम मान लो मैं तुम्हारे पीछे बैठा हूं। राइट एबाउट टर्न हो जाओ, लैफ्ट एबाउट टर्न हो जाओ, सरेण्डर कर दो, शरणागत हो जाओ, यह मान लो मैं तुम्हारे पास हूं बस, मैं मिल जाऊंगा।जैसे गले में किसी के कण्ठी है, चेन है। बिल्कुल फिट है। वह स्त्री अपना सब श्रृंगार करके कपड़ा- साड़ी सब पहन के और वह ढूंढती है चेन कहां है हमारी? अब चिल्ला रही है नौकरानी पर। तो नौकरानी कहती है सरकार! वह तो आपके गले में है। ओ! मेरे गले में है। वह जानती नहीं, इसलिये परेशान है चेन के लिये। और विश्वास हो गया? हां, हो गया। एक कहावत है न, कांख में छोरा और गांव में ढिंढोरा। जैसे अपनी कांख में छोटे से बच्चे को लिए हुए है स्त्री और वह सबसे पूछती फिर रही है, मेरा बच्चा इधर आया है?तो भगवान तो हृदय में है। तुम बद्रीनारायण जाते हो, तमाम तीर्थों में जाते हो, मंदिरों में जाते हो... क्या बात है वहां? वहां भगवान का मंदिर है। भगवान का मंदिर है? तुमने यह नहीं पढ़ा कि मामूली रामायण पढऩे वाला भी - प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना।भगवान सब जगह समान रुप से व्याप्त हैं। बद्रीनारायण वाले भगवान कोई बड़े भगवान हैं? आपके बगल में भी मंदिर होगा मुहल्ले में, वह क्या छोटे भगवान होते हैं? और आपके हृदय में हैं वह क्या कोई और भगवान हैं? वही एक भगवान हैं। उसको मानो। यह मानने का अभ्यास करना होगा और इस भाव को निरन्तर मानना होगा।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)
- भारतीय संस्कृति में शंख को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। माना जाता है कि शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। समुद्री प्राणी का खोल शंख कितना चमत्कारी हो सकता है। ओड़ीशा में जगन्नाथपुरी शंख-क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख जैसा है।हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है।समुद्र मंथन के समय देव- दानव संघर्ष के दौरान समुद्र से 14 अनमोल रत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें शंख भी शामिल था। जिनमें सर्वप्रथम पूजित देव गणेश के आकर के गणेश शंख का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गणेश शंख कहा जाता है। गणेश शंख आसानी से नहीं मिलने के कारण दुर्लभ होता है। सौभाग्य उदय होने पर ही इसकी प्राप्ति होती है। भगवान शंकर रुद्र शंख को बजाते थे। जबकि उन्होंने त्रिपुराशुर के संहार के समय त्रिपुर शंख बजाया था।शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा रानी के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में भगवान विष्णु ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के बाद सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई। भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। इसलिए अन्य 13 शंखों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। इसलिए यह भी मान्यता है कि जहां शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि पांचजन्य शंख वही था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। शंख से निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।----
- -विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(भाग - 3)(पिछले भाग से आगे...)देखो, आजकल परीक्षा होती है, हाईस्कूल, इण्टर वगैरह की। एक लड़का बैठकर पेपर दे रहा है, उसका उत्तर लिख रहा है। उसकी बगल वाला लड़का बहुत अधिक काबिल है, लेकिन नकल करेंगे तो वो पकड़ लेगा और फिर ऐसा भी हो सकता है कि उसकी यह परीक्षा ही बेकार चली जाए, इस डर से वह नकल नहीं करता। संसार से हम लोग इतना डरते हैं कि अपराध से बचते रहते हैं। अगर संसार का डर न हो तो सब प्रलय हो जाए। एक- दूसरे को खा जायं।हम मन में चोरी-चोरी सोचते हैं -देखा न! यह बड़ा लाट साहब बना हुआ है। देखो तो, एक दूसरे को देख कर के जलते हैं। हम यह पाप क्यों कमाते हैं, इससे कुछ फायदा होगा क्या? वह अरबपति है, हम अगर ईष्र्या करेंगे तो क्या वह अरबपति हमको दे देगा दस-बीस लाख? अरे! हम अपना नुकसान कर रहे हैं। तो सब जगह, सबमें भगवान को देखना, मानना, बस! यही करने से भगवत प्राप्ति हो जाती है।धन्ना, जाट और बड़े-बड़े महापुरुष हमारे यहां अंगूठा छाप हुये, लेकिन उन्होंने केवल विश्वास कर लिया और उन्हें भगवत प्राप्ति हो गई। उन्होंने न कोई जप किया, न तप किया, न व्रत किया, न पूजा किया, न पाठ किया। विश्वास हमारे हृदय में हो कि वह (भगवान) सब जगह हैं, वह हमारे आइडियाज़ नोट कर रहे हैं।इसका अभ्यास करो रोजाना, आदत पड़ जायेगी। जैसे आप लोग अपना कपड़ा पहनते हैं तो हर समय ध्यान रखते हैं, ठीक है न, हां, हां, हां! अभ्यास हो गया उसको। ऐसे ही जैसे अपने आपको हर समय आप रियलाइज करते हैं। मैं हूं, जो मैं कल वहां गया था, वहीं मैं गहरी नींद में सो गया था, वहीं मैं फिर वॉकिंग के लिये गया था। वहीं मैं, वहीं मैं, वहीं मैं, मैं ....यह फीलिंग हर समय आपको है। बस इसी के साथ मैं और मेरा भगवान दोनों एक जगह हैं।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)
- -विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(भाग - 2)(पिछले भाग से आगे...)हम अकेले नहीं हैं। मनुष्य का डर तो हम मानते हैं और भगवान का डर नहीं मानते। अगर यहीं पर हजार नोट रुपए की गड्डी या एक लाख रुपए कहीं पड़े हों, हम देख रहे हैं, हां लेकिन सब देख रहे हैं, अगर हम उठायेंगे इसको और रखेंगे पर्स में, तो जिसका होगा वह कहेगा ए, ए, ए, ए! क्या कर रहा है? तब मेरी भद्द हो जायेगी और जब सब चले गये अपने-अपने घर और फिर भी पड़ा है रुपया, तो उठाकर जेब में रख लिया, इसका मतलब क्या?कि हम मनुष्यों से तो डरते हैं, भगवान से नहीं डरते। वह अन्दर बैठा बैठा देख रहा है, नोट कर रहा है, हमारे कर्मों का फल देगा, यह फीलिंग क्यों नहीं होती? सोचो! इसे बार-बार सोचो और अभ्यास करो। अगर यह अभ्यास हो जाए तो भगवत प्राप्ति में कुछ नहीं करना धरना। न कोई कर्म है, न कोई ज्ञान है, न कोई योग है। केवल,अस्तीत्येवोप्लब्धस्य तत्व भाव: प्रसीदति।वेद कहता है केवल तुम मान लो, मैं तुम्हारे हृदय में हूं, मैं सब जगह व्याप्त हूं। यह मान लो, मान लो और हर समय माने रहो। ऐसा नहीं कि आधा घंटा मान लिया और फिर भूल गये।किसी को कष्ट देते हो, गाली देते हो, अपमान करते हो, तो क्यों भूल जाते हो कि उसके हृदय में श्यामसुन्दर हैं, उसको हम दु:खी क्यों करें? यह गलत है, पाप है। तो यह बात केवल अनुभव करें हम। हर समय महसूस करें, भगवान हमारे अंत:करण में बैठे हैं और हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)
- - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(भाग - 1)सभी जिज्ञासु प्रेम रस पिपासु ऐसा प्रश्न करते हैं कि भगवान कब मिलेंगे? कैसे मिलेंगे? बस यही एक प्रश्न भी है क्योंकि संसार में तो कभी सुख मिला नहीं, वहां तो तनाव, अशांति, अतृप्ति, अपूर्णता यही सब मिला। तो भगवान कैसे मिलेंगे यह जिज्ञासा, व्याकुलता सब में रहती है चोरी चोरी। भगवान कहते हैं भई देखो! अगर तुमको हमसे मिलना है तो कुछ करना नहीं है। हैं! करना नहीं है? तो फिर तुम क्यों नहीं मिलते? अरे! मैं तो तुम्हारे हृदय में बैठा हूं। हां, सुनते तो हैं। बस यही तो तुम्हारी गलती है। सुनते हो, मानते नहीं हो।देखो! किसी के हाथ में एक हजार का नोट जब आता है, गरीब आदमी के और वह देखता है, हां, एक हजार का नोट! यह फीलिंग होती है, खुशी होती है और भगवान हमारे हृदय में हैं यह खुशी नहीं हो रही है किसी को, और कहता है कि हां, हमें मालूम है भगवान घट घट में वास करते हैं, हमको मालूम है। यह सुना है, पढ़ा है, माना नहीं। अगर यह मान लें तो भगवत्प्राप्ति तुरन्त हो जाय। तत्काल हो जाय। एक सेकेंड नहीं लगेगा और खुशी में पागल हो जायेंगे।हमारे हृदय में श्यामसुन्दर हैं, इस फीलिंग को बढ़ाना है, अभ्यास करो इसका। कभी भी अपने आपको अकेला न मानो, बस एक सिद्धान्त याद कर लो। हम लोग जो पाप करते हैं, क्यों करते हैं? अकेला मानकर अपने आपको। हम जो सोच रहे हैं, कोई नहीं जानता। हम जो करने जा रहे हैं, कोई नहीं जानता। हम जो झूठ बोलने जा रहे हैं, कोई नहीं जान सकता। यह चालाकी, चार सौ बीस हमने तमाम जिन्दगी में यही तो किया है इक_ा और क्या किया? जितना अधिक छल-कपट, दांव-पेंच हम इक_ा कर लेते हैं, उतना ही संसारी लोग कहते हैं बड़ा एक्सपर्ट है, काबिल है, बहुत बुद्धिमान है। और जो भोला भाला होता है बिना छल कपट के, अरे यह बुद्धू है। हां, यह कोई मनुष्य है।किसी ने झापड़ लगा दिया और हमने सिर झुका दिया। अरे यह तो बहुत बड़ी बात है। सहनशीलता का गुण दिव्य गुण है। लेकिन दूसरा कहता है क्यों रे! तू हट्टा कट्टा और उसने झापड़ लगाया तूने ऐसे सिर नीचे कर लिया। मैं होता तब तो उसको वो झापड़ लगाता कि दांत बाहर आ जाते। यह लो उसको और पट्टी पढ़ा रहा है वह उल्टी। तो यह फीलिंग हमको हर समय हर जगह लाना होगा, अभ्यास करो इसका।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)


















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